कई जगह
वर्षा हो रही है| घरों में पानी का
जमाव शुरू हो चुका है| खेत में फसल को भारी नुक्सान पहुंचा है| लगातार हो रही
बारिस से जन-जीवन प्रभावित है| अफरा-तफरी मची हुई है|
लोग कभी इन्द्र को कोस रहे हैं तो कभी पेड़-पौधे के प्रति हमारी
लापरवाही को| वर्षा नहीं हो रही थी तब भी यही स्थिति थी|
कोसने का कार्य यही था|
इधर परिवेश
के बड़े-बुजुर्ग जिदिया गये हैं| इस जिदियाने की स्थिति को मैं वर्षा से हटकर
साहित्य में देख रहा हूँ| इधर के विमर्श भयानक बारिस का रूप ले लिए हैं| लगातार हो
रही विमर्श-वर्षा इस समय साहित्य-जगत के लिए बहुत ही हानिप्रद महसूस हो रही है| कई
लोग जो अपने किले सुरक्षित किये हुए थे अब या तो जर्जर होकर गिर रहे हैं या फिर
विमर्श-बूँद के जमाव से मुसीबतों को झेलना पड़ रहा है| पानी के लिए हम इन्द्र या
फिर असंतुलित पर्यावरण को दोषी मान रहे हैं तो विमर्श-वर्षा के लिए युवाओं और
फेसबुक को दोषी ठहरा रहे हैं|
जितने
निरंकुश इन्द्र हैं उतने निरंकुश युवा हैं| जितनी समस्या पर्यवारण के असंतुलन से
उत्पन्न हो रही है उनकी नजर में वही असंतुलन फेसबुक के बढ़ते कदम से पैदा हुई है|
बुजुर्ग अपने समय की बात रखते हैं| क्या मजाल कोई युवा आचार्य द्विवेदी, शुक्ल,
राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती जैसे सहृदय से प्रश्न करने की हिमाकत कर सके? एक
लेख भेजते थे छापना या न छापना उनका ही मसला हुआ करता था| कितने लोग बुढ़ा गये
लेकिन सरस्वती से लेकर धर्मयुग तक छपने के काबिल नहीं हुए| यह भी समय था साहित्य
का| गिने चुने तो कवि और लेखक हुआ करते थे|
किले
सुरक्षित करके बैठे बुजुर्गों की यह भी एक बड़ी चिंता है कि आज तो हर कोई धर्मवीर
भारती बने घूम रहा है| आचार्य द्विवेदी से ज्यादे ओहदे का स्वयं को मान रहा है|
सभी राजेन्द्र यादव हुआ चाहते हैं| लेखिकाएँ अब इन्हीं के इर्द-गिर्द रहती हैं|
साहित्य-पितामहों की ऐसी उपेक्षा और कभी हुई थी क्या? कैसा तो युग आ गया है कि बड़े
बुजुर्ग की कोई गिनती ही नहीं है|
विमर्श-वर्षा
की मूसलधार बूँदों से भयभीत बुजुर्ग कोसने की प्रक्रिया में ईर्ष्या को सामिल करते
हुए यह भी कह रहे हैं कि कितने तो बेशर्म हैं आज के लोग, स्त्रियों पर ऐसा लिखते
हैं जैसे उनकी सारी समस्याएँ यही लोग झेलते हैं| हमारे समय में भी स्त्री विमर्श
हुआ करता था| मजाल क्या कि घूंघट से बाहर की स्थिति का वर्णन करें| यह बात और है
कि लेखिका बनने-बनाने की प्रक्रिया में घूँघट के पट खुलते हमारे ही यहाँ थे|
बारिस
जैसे-जैसे बढ़ रही है बुजुर्ग कवियों/लेखकों का पश्चाताप वैसे-वैसे बढ़ रहा है| अब
यह पश्चाताप गाली के रूप में परिवर्तित होता चला जा रहा है| देखो तो ससुरे.....
क्रमशः
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