आप कहानी लिखते हैं,
स्त्रियाँ स्वयं में एक कहानी होती हैं| उनके
यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए किसी कल्पना की जरूरत नहीं होती| अति-यथार्थता भी उनकी सम्वेदना के साथ खिलवाड़ करते हैं| सच तो यह है कि उनका अपना यथार्थ समय का यथार्थ होता है| जिसने इस यथार्थ को समझ लिया या महसूस कर लिया, सही
अर्थों में कहानीकार वही है|
इधर स्त्री-सम्वेदना को लेकर कई
कहानियां लिखी गयीं| कई संग्रह प्रकाशित
होकर आए| ध्यान से जब आप अधिकांश कहानियों की पाठकीय यात्रा
करें तो दो विषय प्रमुखता लिए दिखाई देंगे, एक-पुरुष वर्ग पर
आरोप-प्रत्यारोप, दूसरा – स्त्री-देह|
अधिकांश कथाकार द्वारा एक प्रोफार्मा-सा बना दिया गया है| पात्र बदल दिया जाता है और परिवेश की बुनावट थोड़ी अलग कर दी जाती है|
बाकी जो शेष बचता है सब जगह लगभग वही दिखाई देगा|
स्त्री-सम्वेदना के यथार्थ को समझने
के लिए अनुभव की बहुत जरूरत है| सुनी-सुनाई
बातों या घटनाओं पर आप कहानी लिख तो देंगे लेकिन उसकी कोई विश्वसनीयता इस आधार पर
नहीं होगी कि आपने मेहनत किया है| स्त्री रचनाकरों के लिए यह
बात साफ़ तौर पर गंभीर है| जीवन को जीना एक बात है और समय के
सच को देखते हुए उसे लेखनी का रूप देना एकदम अलग बात है|
कथाकार यदि पुरुष है तो उसकी परीक्षा हो जाएगी, यह निश्चित
है|
कहने को यह कहा जाता है कि बतौर
लेखक एक पुरुष स्त्री-सम्वेदना की रचनात्मक अभिव्यक्ति पर न्याय नहीं कर पायेगा क्योंकि
स्त्रियों की सम्वेदना का बहुत कुछ मौन होता है जिसे समझने के लिए उस जीवन का भोगा
होना जरूरी होता है| ज्ञानप्रकाश विवेक ‘मौन’ को समझने के लिए मानते हैं कि “चुप
भी एक भाषा होती है” जिसमें सम्वाद के लिए जरूरी नहीं कि ‘सशरीर’ व्यक्ति वही हो,
जरूरी है कि उसमें समझदारी हो, यथास्थिति को परखने के लिए अंतर्दृष्टि की
निरपेक्षता हो| निरपेक्ष अंतर्दृष्टि अपने समय को ठीक तरीके से जीने, सामाजिक
संगति-विसंगति को महसूसने और एक हद तक पारिवेशिक एवं सांस्कृतिक बदलाव को गंभीरता
से लेने की वजह से आती है|
हाल ही में यश प्रकाशन, दिल्ली से
कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक की एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुई है ‘चुप भी एक भाषा होती
है’, जिसमें स्त्री-जीवन और सम्वेदना की यथार्थ अभिव्यक्ति की गयी है| यथार्थ
अभिव्यक्ति इसलिए क्योंकि इधर यथार्थ को भी कल्पना के माध्यम से कहने की नयी रवायत
चल पड़ी है जिसमें नारे होते हैं, शोर होता है, आरोप-प्रत्यारोप होता है, यह सब
होते हुए कहानी होती है इसमें संदेह बना रहता है| ज्ञानप्रकाश विवेक संग्रह में इस
रवायत को तोड़ते हुए दिखाई देते हैं| शोरगुल और बनावटी यथार्थ से दूर रहते हुए संग्रह
में शामिल कहानियों-“गवर्नेस, शिखर-पुरुष, अर्थ, मुंडेर, ज़लज़ला, बर्फ़, कहानी
कैसी लगी, मेरा सच, दश्ते-तन्हाई में, एक स्त्री का एकांत राग, मारिया ने ऐसा तो
नहीं चाहा था, चुप भी एक भाषा होती है” को
देखने पढ़ने और समझने के बाद यह निष्कर्ष सरलीकरण-सा जान पड़ता है| स्त्री
मनोविज्ञान पर आधारित ये कहानियां उनके एकांत को पढ़ती भर नहीं हैं अंतस्तल में
प्रवेश करके जीवन-यथार्थ पर चिंतन करने के लिए प्रेरित भी करती हैं|
‘चुप भी एक भाषा होती है’ कहानी ‘न
बोल पाने’ वालों की बेवसी पर केन्द्रित है| कहने को यह दुनिया बोलने वालों से भरी
पड़ी है लेकिन जो बोल नहीं पाते हैं पहले तो कुछ हद तक उपेक्षा के दंश को झेलते हैं
लेकिन बाद में, “इस संसार का हर शख्स अधूरा है” इस सच को स्वीकार करते हुए
अपने मौन को सकारात्मक रुख देते हैं| कहानी का नायक केतिकी से यह प्रश्न करता
है-“इस बोलते हुए, शोर मचाते, ऊँची आवाज़ों में अपनी बात कहते लोगों के बीच जब आप
होती-होंगी, तब?” तो नायिका केतिकी का ये प्रतिप्रश्न-“आपने मुझसे अभी पूछा था कि
मेरे पास आवाज़ नहीं? क्या मुझे परेशानी तो नहीं होती? आपने कभी पहाड़ों से, जंगलों
से, हवाओं से, धूप से, आसमान और पृथ्वी से पूछा कि वो भाषाहीन होकर बेचैन तो नहीं
होते?” हमें बहुत कुछ सोचने के पर विवश कर जाता है| निरंजन का यह मानना हम सबकी
स्वीकारोक्ति है कि “मुझे लगता था सारा संसार बोलने वालों का है| टी.वी., एफएम,
लोग, ट्रेन, बस, जलसे, जुलूस, नेता, अभिनेता सब बोलते हुए, अब मैंने अपनी नोटबुक
पढ़कर जाना कि दो-तिहाई संसार तो ख़ामोशी का संसार है|” इस ख़ामोशी के संसार को यदि
ठीक तरीके से समझने का प्रयास करें तो केतिकी का जवाब हम सबका उत्तर होता है-“पहाड़ों
ने कभी शब्दों की भीख नहीं मांगी| आसमान ने भी कभी नहीं कहा कि मनुष्यों मुझे अपने
जैसी आवाज़ दो| दरख्त चुप रहते हैं| इसलिए वो ऋषियों की तरह लगते हैं| पृथ्वी भी
ख़ामोश रहती है| कितना धैर्य है उसमें| निःशब्दता उसका सौंदर्य है| रेत चुप रहती है
और हवा भी| झीलें चुप रहती हैं और पगडण्डियां भी ख़ामोश| मछलियाँ जल की रानी होती
हैं, लेकिन एक भाषा होती है फ्रेंड” जो सबको सब से जोड़ कर रखती है| वह भाषा
सम्वेदना की भाषा होती है|
इस
कहानी का एक दूसरा पहलू भी है| कहानी स्त्री-मौन को पढने की कोशिश करती है और एक
हद तक सफल होती है| यह मौन इसलिए तो है ही कि वह बोल नहीं पाती है, जन्मजात गूंगी
होती है लेकिन मौन की यह स्थिति उस स्त्री समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ
अधिकांश अपने मन की बात अभिव्यक्त नहीं कर पातीं| इस कहानी को पढ़ते हुए आप पायेंगे
कि जो बोलते हैं वे अपने दिल का गुबार निकाल लेते हैं|
कह लेते हैं दूसरे से अपना और उसका सुन भी लेते हैं| जो चुप होते हैं वे असहाय होते हैं| नायिका कहती है
“-‘इस बोलते लोगों के बीच मेरी उपस्थिति थोड़ी जटिल होती है| कुछ मेरा मजाक उड़ाते
हैं| मुझे गूंगी कहते हैं| पहले मैं विचलित हो जाती थी| अब मजाक उड़ाते लोगों के
सामने मुस्कुराने लगती हूँ| मजाक उड़ाते लोग पराजित से नजर आते हैं|’ लोगों का
पराजित होना स्त्री-दर्द की यातना का इम्तेहान है|
अधिकांश स्त्रियाँ सब कुछ सहती रहती
हैं और उफ़ तक नहीं करती| यातना में चुप्पी
कई बार उसे जीवन-मार्ग पर बढ़ते रहने के लिए साहस तो देती है लेकिन बहुत बार तोड़ती
है| टूटन में स्त्रियाँ अक्सर अवसाद में चली जाती हैं|
परिवेश से स्वयं को अजनबी समझने लगती हैं| परिवेश
उसे पहचानने से इनकार करता है| एक स्त्री के लिए अस्तित्व की
लड़ाई यहीं से शुरू होती है| यहीं से स्त्रियाँ अपनी जिद और अपने
सामर्थ्य का सकारात्मक प्रयोग शुरू करती हैं और एक समय के बाद अपने विरुद्ध खड़े भीड़
को यह समझाने में समर्थ हो पाती हैं कि “चुप भी एक भाषा होती
है|” लोग जिस समय उसे समझने और जानने से इनकार कर रहे होते
हैं समय उसी समय उसे तराश रहा होता है|
‘शिखर-पुरुष’, ‘दस्त-ए-तन्हाई, ‘एक
स्त्री का एकांत राग’, ‘मारिया ने ऐसा तो नहीं चाहा था’ कहानियां स्त्री-एकांत की
वैयक्तिक पीड़ा से उपजी कहानियां हैं| इन कहानियों में एक स्त्री का परिवार, समाज
और फिर बाद में स्वयं से भागती परछाईं की वेदना को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया
है|
‘मारिया ने ऐसा तो नहीं चाहा था’
कहानी में शोर से एकांत और एकांत से उपजे भयावह परिदृश्य को जिस तरह से अभिव्यक्त
किया गया है वह प्रभावित करता है| इस
कहानी में मारिया अकेली होती है| जब कोई नहीं होता आसपास तो एकांत होता है|
व्यक्ति उसी में रमा रहता है| घर के सामानों
से खेलता, इधर का सामान उधर करता और उधर का सामान इधर करता
पड़ा रहता है| दिल लगाना मुश्किल होता है, बहलाना आसान| अकेला व्यक्ति दिल ही तो बहलाता है कभी
किसी के इंतज़ार में तो कभी किसी की पुकार में| ऐसी स्थिति
बच्चों की संगति किसी मायने में संजीवनी से कम नहीं होती| लेकिन
यह वही समझता है जो उनकी संगति में होता है| कुछ घटनाएँ जीवन
में कभी-कभी घटती हैं तो अन्दर तक हिला जाती हैं| लेकिन जो
प्रतिदिन घटती हैं उन्हें घटनाएँ नहीं कहते| आदत कहते हैं|
व्यवहार कहते हैं| समस्याएँ व्यवहार होती हैं
यह कुछ अचरज जरूर लग सकता है, लेकिन जब कोई न हो आसपास तो
यही समस्याएँ हमारे रूखे जीवन में ‘कलरव’ का सृजन करती हैं| कलरव कई बार झुंझलाहट पैदा करती
है| कई बार जब नहीं होती है तो बेचैनी बढ़ा देती है| बच्चे उत्पात करते हैं तो बुरा लगता है लेकिन जब हमारे सख्त व्यवहार से
आज़िज आकर वे आना-जाना बंद कर देते हैं तो कलेजा निकलकर बाहर आ जाता है| बहुत अखर जाता है| मारिया के परिवार का कोई सदस्य
उसके साथ नहीं है| वह भले अकेले होती ही लेकिन बच्चों की संगति अकेलेपन का एहसास
कभी नहीं होने देते| इसका एहसास मात्र मारिया को होता है| मारिया के भतीजे द्वारा
बच्चों को पीटे जाने और बाद में उन्हें जेल में देने के बाद वही बच्चे आना बंद कर
देते हैं| जो मारिया उन बच्चों की वजह से कभी अकेलेपन का शिकार नहीं हुई उनके
नाराज होने के बाद जीवन-पल को काटना दुर्लभ होने लगता है|
‘एक स्त्री का एकांत राग’ इसी
अकेलेपन से ऊब की अभिव्यक्ति है| ‘मारिया ने ऐसा तो नहीं चाहा था’ में एक बुजुर्ग
महिला का एकांत होता है तो यहाँ पर एक युवा स्त्री का अकेलापन दिखाई देता है| नायिका
आकाश को अपना सहयात्री ‘प्रशांत’ समझती है| आकाश स्त्री की मनःस्थिति को देखते हुए
अंत तक यह कहने की हिम्मत नहीं रख पाता कि वह प्रशांत नहीं आकाश है| इस कहानी को
पढ़ते हुए आप पायेंगे कि खालीपन विचलित करता है| हमसफ़र
ढूंढता है| वर्षों साथ रहा कोई व्यक्ति जब अचानक छूटता है
पागलपन के हद तक मनुष्य चला जाता है| बडबडाता है, चिल्लाता है, रोता है, फुसफुसाता
है, चित्र बनाता है, तस्वीरें संजोकर
रखता है और यह सब करते हुए अपने एकांत को कोष रहा होता है| ऐसी
स्थिति में यह पागलपन किसी को भी अपना मान लेता है| जिस
व्यक्ति को अपना मानता है वह जरूर संशय की दहलीज पर स्वयं को मौजूद पाता है|
संशय की प्रगाढ़ता में व्यावहारिकता सघन होती है| जिम्मेदारी का भाव व्यक्ति को गंभीर बनाती है|
गंभीरता वह सब कुछ स्वीकार करने के लिए विवश करती है जो वह वास्तव में नहीं होता|
‘एक स्त्री का एकांत राग’ अकेलेपन से उपजे
पागलपन और जिम्मेदारी के भाव की कहानी बन जाती है| जिसमें
आप कल्पना करो कि कोई रचनाकार ऐसा
हो जिसकी रचना-समाज में बहुत इज्जत हो; उसके
इशारे और अभिव्यक्ति का जिक्र ही न होता हो अपितु अनुपालना भी होती हो रचनात्मक
समाज में, अचानक वह किसी दुर्घटना का शिकार हो जाए, अभिव्यक्ति के माध्यम और प्रस्तुति का अंदाज न रह गया हो उसके पास,
कैसा लगेगा आपको? कविता, कहानी, उपन्यास सब एक तरफ उसका जीवन और उसका संघर्ष
एक तरफ, मुझे तो ऐसा ही लगता है| यहाँ
पुरुष की अपेक्षा बात जब स्त्री की हो तो यह ‘लगना’ विश्वास में बदलने लगता है|
“कहानी कैसी कैसी लगी”
स्त्री-संघर्ष और साहस की बुनियाद रखती है| इस कहानी में रचनाकर के मनोवैज्ञानिक
दशा को अभिव्यक्त किया गया है| कहानी से गुजरते हुए स्त्री की उपस्थिति एक परिवेश
के लिए कितनी जरूरी होती है, सिद्दत से महसूस होती है| सुन्दरता आकर्षण का केन्द्र
बहुत दिनों तक नहीं रहती| काबिलियत किसी की
आपके हृदय में स्थाई स्थान बनाकर रखती है, यह एक बात है|
एक बात यह भी है कि समाज में स्त्री की उपस्थिति हमें बहुत कुछ सिखा
देती है| बोलना, ठीक-ठीक रहना, सोचना और यहाँ तक कि समझना भी| जहाँ स्त्रियाँ नहीं
होती हैं या उनका हस्तक्षेप नहीं होता है, वह परिवेश बहुत
डरावना, भयानक और संकीर्ण परिवेश होता है|
आकर्षण और ईर्ष्या के मध्य
संस्कारों की कक्षाएं चलती हैं| ईर्ष्या में
जहाँ बहुत कुछ हद तक हम विद्रोही स्वभाव को ग्रहण कर रहे होते हैं, आकर्षण में वहीं विनम्र हो रहे होते हैं| जिस समय
आपके परिवेश में एक स्त्री का आगमन होता है ये दोनों स्थितियां अपनी व्यावहारिकता
में उपस्थित होती हैं| विनम्र और विद्रोह की प्रवृत्ति में
ढलते हुए आप धीरे-धीरे इंसान हो रहे होते हैं और परिवेश बहुत अधिक मानवीय और
मनुष्यता से सम्पन्न हो रहा होता है| कथा नायिका नंदा के
बहाने स्त्रियों के प्रति पुरुष मानसिकता को स्पष्ट करते हुए कहानीकार यह बताने की
कोशिश करता है जिस परिवेश में स्त्रियों का आगमन होता है वह परिवेश अधिक सामाजिक
और सांस्कारिक होता है| रचनाकारों की आम मनोवृत्ति होती है सुन्दर स्त्रियों की
संगति| कविता, कहानी और अन्य रचनात्मक विधाओं की उत्पत्ति ही स्त्रियों की कल्पना
और उपस्थिति में सम्भव होती है| यहाँ नंदी के दुर्घटनाग्रस्त होने से जिन पुरुषों
के अन्दर सौन्दर्य का आकर्षण प्रमुख था, उसका संघर्ष और उसकी जिजीविषा प्रमुखता ले
लेती है|
कहानी ‘जलजला’ बलात्कार और रेप के
बाद स्त्रियों की सामाजिक स्थिति क्या होती है? इस विसंगति पर गंभीर विमर्श लेकर
आती है| नायिका के रूप में ‘सविता’ समाज की लगभग उपेक्षित और सामाजिकता से
बहिस्कृत स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है| भारतीय परिवेश में यह आम धारणा है कि
किसी विकृतिवश यदि कोई स्त्री के साथ दुर्व्यवहार करे या दुराचार करे तो उसका सारा
खामियाजा स्त्री को ही भुगतना पड़ता है| स्त्रियों की शादी नहीं होती| ताउम्र इसी
पीड़ा को लेकर उपेक्षित रह जाना होता है|
इस कहानी को पढ़ते हुए आप पायेंगे कि
दुःख अन्दर तक तोड़ता है| दुखी के हृदय में
रह रहकर ‘जलजला’ उठता है| जलता-भुनता रहना तो उसी में पड़ता है लेकिन टूटे हुए भी टूट-टूटकर| दुःख के कारण अनेक हो सकते हैं लेकिन जब उनका सम्बन्ध सामाजिक संकीर्णता
से हो तो यह और अधिक भयानक होता है| कई बार जो नियम आपको
गर्व से प्रदीप्त करते हैं, वही नियम एकदम खोखला भी कर देते
हैं| खोखले नींव पर जो इमारत खड़ी होती है वह मजबूत हो भी
कैसे सकती है?
जलजला’ कहानी हमें इस यथार्थ से
परिचित कराती है कि स्त्रियों के दुःख उनके अपने दुःख हैं|
उन पर चर्चा करना, विमर्श करना उन्हें
कुरेंदना है| जख्मों पर नमक छिड़क कर हलाल करना है| छेड़खानी, बलात्कार जैसी घटनाएँ भारतीय परिवेश में
कोई मामूली घटना नहीं मानी जाती हैं| सम्पूर्ण अस्तित्व
हाशिए पर होता है| नहीं भी होता है तो हम आप ऐसा कर देते हैं|
क्यों करते हैं? इसका उत्तर न तो आपके पास है
न तो मेरे पास न तो उनके पास जो इसे एक दाग की तरह देखते हैं|
जलजला कहानी पढ़ते हुए आप पायेंगे कि
‘चरित्र’ एक अजूबा है हमारे परिवेश के लिए| चरित्रहीनता एक सर्टिफिकेट जिसे हर कोई हर किसी को बांटता फिरता है|
जिसको एक बार यह सर्टिफिकेट मिल जाता है वह परिवेश से, समाज से, परिवार से और अंत में स्वयं से दूर हो जाता
है, होता चला जाता है| जुड़ने की
सम्भावनाएं कहीं से शेष तब नहीं रह जाती जब दुखी व्यक्ति सामाजिकता के बनावटी
वसूलों से सामना करता है| यही वसूल हैं जो हर समय स्त्रियों
के लिए फांसी के फंदे का कार्य कर जाते हैं|
‘बर्फ’ कहानी गरीबी की त्रासद कथा
लेकर आती है जिसमें एक लड़की होने की त्रासदी उससे भी बड़ी घटना मानी जाती है|
‘छोटी-सी लडकी’ जिसकी ‘उम्र साढ़े पांच भी हो सकती है, और सात भी’ शराबी पिता के
लिए बर्फ की तलाश में रोज निकलती है और दरवाजों के बाहर खड़ी होती है| यहाँ पेट और
भूख की मजबूरी उसे यह सब करने के लिए विवश करते हैं| कहानी को पढ़ते हुए आप पायेंगे
कि दर्द महज दर्द नहीं होते| इनकी भी
श्रेणियां होती हैं| इनके भी वर्ग, जाति,
वंश और परम्परा होती हैं| सवर्णों के दर्द अलग
होते हैं, दलितों के अलग| पुरुषों के
दर्द अलग होते हैं स्त्रियों के अलग| अमीरों के दर्द अलग
होते हैं गरीबों के अलग| जब हम यह कहते हैं कि सभी एक जैसे
महसूसते, भोगते हैं तो कहीं न कहीं दर्द का सामान्यीकरण कर
रहे होते हैं| जबकि ऐसा होना सम्भव नहीं होता ठीक उसी तरह
जैसे मनुष्य का मनुष्य बने रहना|
कुछ दर्द ऐसे होते हैं जिन्हें लोग
सुख की तरह एंज्वाय करते हैं| कुछ दर्द ऐसे
होते हैं जिन्हें घुट-घुटकर सहन करना पड़ता है| ‘तिरस्कार के
दर्द’, ‘गरीबी के दर्द’ और ‘लड़की होने के दर्द’ ऐसे ही दर्द होते हैं| इन्हें मिलने वाले जख्म गहरे होते हैं| समय भी नहीं
भर पाता समाज तो खैर कुरेंद्ता ही रहता है समय-दर-समय| इनके
ऊपर उछाला गया फूल भी पत्थर की मानिंद कार्य करता है जिन्हें कहा भी नहीं जा सकता
किसी से तो छुपाया भी कहाँ जाता है आखिर?
‘बर्फ़’ कहानी के एक-एक वाक्य बताते
हैं कि जरूरतें कदम-दर-कदम चिढ़ाती हैं| अभाव
सालता है हर कदम पर| समय परीक्षा लेता है और समाज प्रसन्न
होता है| किसी के घुटन में प्रसन्नता का स्वाद चखने वाले
अजीब होते हैं| कुछ भी हो उन्हें सामाजिक कहना ‘समाज’ को गाली देना है| यहाँ
जो विश्वास है न मनुष्य होने का अक्सर ‘डगमगाता’ है| परिवार ठीक न हो तो ‘लड़की’
होने का खामियाजा क्या भुगतना पड़ता है यह उसी से पूछा जाना चाहिए जो
गरीब है, तिरस्कृत है और अंततः लड़की है|
ज्ञान प्रकाश विवेक जिन कहानियों के साथ
इस संग्रह में आए हैं वह कहानियाँ हमारे अपने परिवेश की कहानियां हैं| कल्पना जगत
से इनका कोई लेना-देना नहीं है| रचनाकार खुले मन से विसंगतियों को अभिव्यक्त करने
का साहस करता है तो इसलिए कि ‘मौन’ और ‘चुप’ में निहित संदेशों को समझने की कोशिश
हम कर सकें| कहन की दृष्टि से बहुत सहज और सम्प्रेषण से युक्त हैं कहनियाँ| कुछ
जगह अनावश्यक विस्तार देखने को मिल सकता है लेकिन भाषाई प्रवाह में यह विस्तार
खटकता नहीं है| कहानी में जो चीज बहुत अधिक प्रभावित करती है वह है परिवेश-निर्माण
की कला और वातावरण-सृजन की बारीकियां| पात्रों की व्यावहारिकता हमें अपने सामाजिक
भावभूमि पर विचरण करने के लिए प्रेरित करती है|
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