साहित्य
क्या है? यह प्रश्न आज भी विमर्श की मांग करता है| यह सही है कि साहित्य वह है
जिसमें सबका हित हो...लेकिन हित किसका हो? कैसे हो? किस रूप में हो? इन सभी
प्रश्नों के आलोक में साहित्य शब्द का निहितार्थ खोजने की जरूत है| ठीक है कि साहित्यकार
समाज हित की बात करता है...समाज में निहित सम्भावनाओं को लोगों के सामने रखता
है...लेकिन यह भी तो सही हो सकता है कि साहित्यकार एक तरह से अपने समय और समाज से
सम्वाद स्थापित करने की कोशिश करता है? जब बात सम्वाद स्थापित करने की आती है तो क्या
सभी के प्रतिनिधित्व को नकारा जा सकता है? जाहिर सी बात है कि नहीं नकारा जा सकता|

इससे
बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है साहित्य-समाज के लिए कि जिस टकराव को विचारों का
टकराव कहा जाना चाहिए उसे हमारे यहाँ बुजुर्ग और युवा रचनाकारों का टकराव कहा जा
रहा है| आशंका यह भी व्यक्त की जा रही है कि युवा लोग बड़े-बुजुर्गों की रचना-दृष्टि
की उपेक्षा कर रहे हैं| जो गुजर चुके हैं और जो एकदम वयोवृद्ध हो चुके हैं, उनकी
स्थापनाओं को नकार कर अपना नाम ऊंचा करना चाह रहे हैं...| अब ऐसा जो सोच रहा है या
कह और समझ रहा है, मेरी नजर में वह बहुत ही भावुक और कमजोर व्यक्तित्व है...इस हद
तक कि उसे साहित्यिक सम्वाद और विचार-विमर्श की प्रक्रिया की भी जानकारी नहीं है|
यह
भी कि, वरिष्ठ की वरिष्ठता महज उनके उम्र से हो जाए या मानी जाए तो यह समझ के बाहर
है. दूसरी बात रचनाओं का छपना और न छापना एक अलग बात है लेकिन जो आपत्ति उठाई जाए
उसका सिर-पैर तो होना चाहिए?
अब कोई यह कहे कि नवगीत के विकास में जयशंकर प्रसाद का अभूतपूर्व योगदान है और
कहने वाला बुजुर्ग हो तो भला इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? कहने को तो
बुजुर्ग लोग यह भी कह सकते हैं कि मुंशी प्रेमचंद मैथिलीशरण गुप्त से अच्छी
कविताएँ लिखते थे...तो यह क्या इसलिए मान लिया जाए और उस पर वाह-आह किया जाए कि एक
बुजुर्ग रचनाकार ने कहा है? पिछले दिनों इसी समर्पणभाव का सहारा लेते हुए एक महाशय
ने तुलसीदास को गज़लकार घोषित किया और उनकी विनय पत्रिका को ग़ज़ल विधा की पहली और
सर्वश्रेष्ठ कृति बताया...अब बताइये इसे क्या कहा जाए? अब उस वरिष्ठ कहे जाने वाले
आलोचक की आरती उतारी जाए या सम्वाद माध्यम में रखकर विमर्श की गुंजाइश तलाशी जाए?
समझना
यह पड़ेगा कि साहित्य की दुनिया में किसी भी समय युवाओं का मार्ग आसान नहीं रहा है| उन्हें स्वयं अपना मार्ग बनाना पड़ा है| आज यदि साहित्य में विभिन्न मतों और विचारों की स्वीकृति मिली है तो उसके
पीछे युवाओं का संघर्षधर्मी पथ चलने की प्रतिबद्धता है| पथ पर चलते हुए भोगे हुए
यथार्थ के दम पर अपनी बात रखने का प्रतिफल है, न कि पूजाभाव से समर्पित हो जाने और
उनके इशारों और निर्देशों का कृपापात्र बने रहने से| यदि ऐसा
होता तो स्वामी विवेकानंद और राहुल संकृत्यायन जैसे प्रकाण्ड और विद्वान विचारक
हमें न मिल पाते|
बड़े
और बुजुर्ग रचनाकारों के प्रति हमारा उपेक्षापूर्ण व्यवहार बिलकुल न हो लेकिन यह
अपेक्षा होनी चाहिए, उनमें
भी वह भाव हो कि कम से कम अनर्गल थोपने वाली स्थिति से बचें...क्या यह सम्भव है?
बिलकुल भी नहीं सम्भव है| उनेक आपस श्रेष्ठता
का एक घमंड है, अहम् है तो सवाल है कि उस श्रेष्ठता और अहम् को हम लेकर क्यों
ढोयें? जिनमें श्रेष्ठताबोध की ग्रंथि नहीं है, जो सम्वाद-प्रिय और उदारचेता हैं
उनके प्रति युवाओं का विद्रोह और विरोध की वृत्ति नहीं विकसित हो पाती...क्यों?
क्योंकि युवा बुजुर्गों का प्रेम चाहता है, दुत्कार नहीं| जो बुजुर्ग ऐसा कर रहे
हैं उनके प्रति आदर और व्यवहार कम नहीं हो जाता| नहीं हुआ
कभी|
एक और बात कि दृष्टि और विचार को लेकर प्रश्न उठाना, अपनी बात और जीवन-उपेक्षा को कहीं रखना किसी के
प्रति उपेक्षा भाव कैसे हो सकता है? हो भी सकता है लेकिन
साहित्य का भाव इन्हीं गलियारे से आगे निकलते हुए कुछ बनने-बनाने की प्रक्रिया में
समृद्ध होता है, यह भी तो सही है| इस
सही में अगले को निकाल फेंकने का अति उत्साह और कुंठा न शामिल हो तो आखिर गलत क्या
है?
फिर साहित्य में यह जरूरी कहाँ है कि जो बुजुर्ग रचनाकार कह दिए
वही पत्थर की लकीर है? उसे काटना
या उसके विकल्प में कुछ रखना गलत है? यदि ऐसा होता तो
साहित्य भी वंशवाद का अमरबेल होता, जिस पर प्रश्न उठाना और
अपना मत रखना भी विरोध और उपेक्षा होता की हद पार करना होता...ठीक उसी तरह जैसे आज
कांग्रेस पर प्रश्न उठाना राहुल या सोनिया जी को गाली देना है...कांग्रेस के
बलिदान और योगदान को नकारना है (लोग मानते हैं).
साहित्य में श्रेष्ठताबोध के लिए कोई जगह नहीं है| जो जगह है वह सम्वाद के लिए है. जो सम्वाद करता है
वह बना रहता है और जो अक्षम हो जाता है वह किनारे लग जाता है| इसीलिए उम्र भले अधिक हो जाए, लेखक, कवि और साहित्यकार (जो भी जिस रूप
में हो) हर समय युवा रहता है/ कहलाता है|
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