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यह समय पूर्ण रूप से #कोरोजीवी है| मनुष्य की पहचान और
पहचान का संकट दोनों इस कोरोजीवी दौर के केन्द्र में हैं| हमारे विचार, सोच और
चिंतन के रूप, सब इससे प्रभावित और प्रेरित हैं| लाख कोशिश करने के बावजूद कोरोना
का जो भयावह परिदृश्य है हमारे निगाह से ओझल नहीं हो पा रहा है| यह संकट का समय है
तो इससे निकलने के लिए जिस एक अस्त्र की जरूरत है वह है-साहित्य|
साहित्य
में चिंता और चिंतन दोनों का समावेश होता है| मनुष्य जिस समय चिंता में होता है
चिंतन की प्रक्रिया में हो रहा होता है, यह तय है| तय है कि चिंतन की प्रक्रिया
में महज वही नहीं होता, उसके साथ उसका समय, समाज, परिवेश सब होते हैं| सब के होने
में जो भी विचार जन्म लेता है उसमें सबकी रक्षा-सुरक्षा की चिंता व्याप्त होती है|
कोरोना एक
वैश्विक समस्या है| एक ऐसी सच्चाई है जिसमें झूठ के सारे गुण होने के बावजूद उसे
झूठा नहीं कहा जा सकता| नहीं माना जा सकता| हम जितना इसे नकारने का साहस कर रहे
हैं उतना ही इसके भय में हमें उलझाया जा रहा है| एक सच यह है और यह भी एक सच है कि
इस प्रकार के उलझाव से बाहर निकालने का कार्य हमारे कवि गण कर रहे हैं| यदि यह
कहें कि कवि एवं साहित्यकार व्यावहारिक रूप से इस उलझाव से बाहर निकालने में
सक्रिय हैं तो इसे गलत न माना जाए|
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‘कोरोना
में कवि’ शीर्षक साझा-संग्रह का प्रकाशन वाम प्रकाशन के माध्यम से हुआ है जिसका सम्पादन
कवि संजय कुंदन ने किया| यह पुस्तक आपको महामारियों के इतिहास में ले जाकर छोड़
नहीं देती अपितु कोरोना वायरस से घिरे होने की स्थिति में वर्तमान से किस तरह बचाव
हम कर सकते हैं, यह सीख हमें देती है| संजय कुंदन गंभीर कार्य करने वाले रचनाकारों
में से हैं, यह इस पुस्तक की सम्पादकीय से स्पष्ट होता है| विश्व साहित्य में
महामारियों के इतिहास को देखने के साथ-साथ भारतीय भाषाओँ में और हिंदी भाषा में
उसकी स्थिति पर इतना विहंगम दृष्टि मायने रखता है|
इस समय के जरूरी और महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं के माध्यम से यथार्थ का जो परिदृश्य लाया गया है वह कल्पना न होकर वह सच्चाई है जिसे हर किसी ने घटते देखा है| हो सकता है कि आने वाले दिनों में लोग इस वायरस को भूलें? ऐसे प्रयास निश्चित ही यह बताने और समझाने के लिए अपनी विशेष भूमिका निभाएंगे| निरंजन श्रोत्रिय, श्रीप्रकाश शुक्ल, मदन कश्यप, सुभास राय, लीलाधर मंडलोई, नवल शुक्ल सरीखे कुछ और महत्त्वपूर्ण कवियों को लेकर सम्पादित इस संग्रह को लेकर आना, उन लोगों को भी जवाब देना है, जो यह कहते रहे हैं कि #कोरोजीवी #कविता को लेकर महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं हो रहा है|
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जब इस
संग्रह की बात हो रही है तो कुछ कवि की कविताओं से रू-ब-रू करवाना जरूरी हो जाता
है| श्रीप्रकाश शुक्ल की दो कविताएँ ‘रोटी’ और ‘बच्चा’ इस संग्रह में प्रकाशित हुई
हैं| यह देखना इन कविताओं के माध्यम से दिलचस्प होगा कि कोरोना के दौर का कवि
चाहता क्या है और किन विसंगतियों की तरफ हमें ले जाना चाहता है| ‘रोटी’ पहली जरूरत
है मनुष्य के लिए| मिलने की प्रक्रिया में रोटी जिन्दा रहने के लिए जरूरी है| सबको
नहीं मिलती| कुछ को मिलती है लेकिन बहुतों के लिए महज एक ‘उम्मीद’ है|
कवि की दृष्टि में ‘रोटी रोज ही इस उम्मीद के साथ निकलती
है/ लेकिन हलक के नीचे उतरने से पहले ही/ बिखर जाती है’ यह बिखरना रोटी का बिखरना
कम उम्मीदों का बिखरना अधिक है| यह दिलचस्प है कि ‘फील गुड’, ‘साइन इण्डिया’ से
लेकर ‘आत्मनिर्भर भारत’ तक की प्रक्रिया में हमने इस रोटी के अस्तित्व को जितनी
चालाकी से नकारने की कोशिश की उतनी ही भयावह परिदृश्य लेकर ‘रोटी’ ने हमारा उपहास
उड़ाया| इसकी वजह क्या यह नहीं है कि नेतागण राज सिंहासन की रखवाली करते रहे और
उनकी ‘जनता अभी भी सड़क पर है”? राजाओं के लिए अब चिंता भी कुछ नहीं है क्योंकि
“आत्मनिर्भर होता देश अब/ रोटियों से आगे निकल चुका है|”
इतना आगे निकल चुका है कि किसी के पैर जमीन पर नहीं हैं|
बुलेट ट्रेन से लेकर हवाई जहाज का सफर हर कोई कर रहा है| यह बात और है कि ‘बच्चा’
मध्यकालीन भारत की तरह आज भी अटैची पर बैठकर खींचा जा रहा है| ‘बच्चा’ कविता में
‘माँ’ की वेबसी और ‘बच्चे’ की यथास्थिति का जो दृश्य कवि सामने लाता है ‘रोटी’ की
उम्मीद से कहीं अधिक ‘जीने की जिजीविषा’ और ‘संघर्ष की पराकाष्ठा’ केन्द्र में आ
जाती है|
‘बच्चा’ के प्रति ‘माँ’ के संघर्ष को देखकर ‘कवि’ अवाक है
और ‘कविता’ दिशा-भ्रम की स्थिति में है| कवि देख रहा है, ‘बच्चा चला जा रहा है, और
चली जा रही है यह माँ भी/ जिसके साथ लटक गई है यह कविता/ न तो माँ को पता है/ न ही
इस कविता को/ कि इनको किस पते पर जाना है|” जितनी ज़िम्मेदार और ईमानदार माँ की
ममता है बच्चे के प्रति उतनी ही जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ कविता भी भूमिका निभा
रही है|
यह भी यहाँ समझने की बात है कि बच्चे के प्रति माँ और
नागरिक के प्रति ‘कविता’ का दूसरा विकल्प आज तक नहीं हुआ| जब सभी विधाओं के
रचनाकार पक्ष और विपक्ष की नाकामियों को कोस रहे थे, एक कवि भारतीय व्यवस्था के
चौथे स्तम्भ की भूमिका में था| इस पर भी कोई कहानीकार या कवि ये कहे कि ‘कविता’
बेमतलब के लिखी जा रही है, तो सच मानिए ‘मतलब’ के लिए किये जा रहे इस आलाप पर हंसी
आती है|
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इस संग्रह में कवि सुभाष राय अपनी दो कविताओं के माध्यम से
उपस्थित हैं| ‘एक चिट्ठी ज्योति बेटी के नाम’ और ‘शिकारी कौन है?’ इन दोनों
कविताओं में सत्ता की चालाकी और आम आदमी की संघर्षधर्मिता को आवाज दी गयी है| जब
मैं आवाज देने की बात कर रहा हूँ तो जन के परिप्रेक्ष्य में कवि के साहस की तरफ
आपका ध्यान लाना चाहता हूँ| आम आदमी के पास षड्यंत्र नहीं होते| वे लोगों को उठाने
और गिराने की राजनीति नहीं जानते और न ही तो किसी कूटनीति में पारंगत होते हैं| वे
सही अर्थों में जीना जानते हैं और जीते रहना चाहते हैं| यह चाहना ही उनको कठघरे
में खड़ा करता है|
इस कोरोना समय में भी ऐसा ही हुआ| सत्तासीन और मुद्दासीन
षड्यंत्रकारियों की फिरकी में आम आदमी उलझकर सड़कों पर आ गया| कवि की दृष्टि में जो
सड़कों पर आए “वे भूखे थे/ वे बस जिन्दा रहना चाहते थे/ जिन्दा रहने की आकांक्षा
कोई अपराध नहीं है/ जब उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा/ वे निकल पड़े गाँवों के
लिए|” जबकि यह लगातार टीवी विज्ञापनों से लेकर प्रिंट मीडिया तक खबर आती रही कि
सारी सुविधाएँ दी जा रही हैं| सोचने का विषय फिर भी यह है कि ठीक-ठाक तरीके से
जीवन-बसर करते हुए रह रहे जन कब घरों से निकालकर सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिए
गए, यह आभास तक न हुआ|
विपक्ष और पक्ष अपनी राजनीति में मस्त| मन्त्र-संतरी,
नेता-अभिनेता सब अपनी रंगीनियों में खुश| इनकी तरफ ध्यान देता भी कौन? खुला खेल
खेला गया यहाँ लेकिन “किसी को पता नहीं, शिकारी कौन है” क्योंकि “अक्सर शिकारी
निकल जाते हैं बचकर|” मरता कौन है? वही जो “शिकार हुए किसी पागलपन के/ उनके साथ
शिकार हुए उनके बच्चे/ उनकी कई पीढ़ियाँ, थोड़ा देश भी|” जबकि जिन्होंने शिकार किया
वह लगातार शिकार करने में व्यस्त हैं| हर जगह गोटियाँ बिछा रखे हैं| पीढियां
बर्बाद हों या जन अथवा देश किसी को फर्क ही क्या पड़ता है? एक पायकेट में बंद कुछ
पूड़ियाँ और थोड़ी सब्जी आम आदमी के लिए भेजी जाती है जबकि इन शिकारियों के मास्क भी
उनके कपडे के अनुसार आते हैं|
‘एक चिट्ठी ज्योति बेटी के नाम’ में पूरी कोशिश होती है कवि
की कि वह किसी रूप में उन शिकारियों से बचा ले उसे| कवि का यह कहना कि “सावधान
रहना बेटी! जब भी कोई साहस/ कोई इरादा, कोई रोशनी दिखती है/ वे डर जाते हैं और कोई
जाल बुनने लगते हैं” हताशा भरे वातारण में योग्यता रखने वाले होनहारों को चेताना
है| होता भी यही है| कोई नाम उभर कर आया नहीं अच्छे से कि ये जाल बिछाने वाले
सक्रिय हुए नहीं...कई बार यह इतना भयानक होता है कि असमय ही योग्यताओं को या तो
मार दिया जाता है या फिर षड़यंत्र के तहत सम्पूर्ण परिदृश्य से गायब कर दिया जाता
है| कितनी ही प्रतिभाएं इस प्रकार के षड्यंत्र का शिकार हुईं, यह कहने की जरूरत
नहीं है|
कितने ने तो बिलकुल अपनी यथा-व्यथा को बाहर नहीं आने दिया|
ऐसों को संदर्भित ये पंक्तियाँ सहसा ध्यान आकर्षित करती हैं-“सुनो! कोई भी दिक्कत
आए/ तो बोलना, चुप मत रहना|” यदि सुशांत सिंह बोला होता तो उसका मर्डर केस महज
आत्महत्या जैसे सरल उपायों में फिट करके न रख दिया गया होता| ध्यान रहे, सुभाष राय
राजनीतिक चेतना के उन कवियों की श्रेणी में आते हैं जो चुप होकर बैठने से अच्छा
बोलकर परेशान होना ज्यादा उचित समझते हैं|
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मदन कश्यप जन के प्रति समर्पित कवि हैं| यह महज सिद्धांत की
बात नहीं व्यावहारिकता की स्थिति भी ऐसी ही है| घोर निराशा से जब मन अनियंत्रित और
मस्तिष्क चिंताओं से जकड़ उठता है, कविता वहां से आकार पाना शुरू करती है| कवि की
तड़प कविता की अभिव्यक्ति बनती है| तड़पन जब समकालीन परिवेश में व्याप्त चिंताओं से
जुडी हो तो यह और अधिक स्वाभाविक हो जाती है|
‘कोरोना
में 65 पार’ करते हुए मदन कश्यप 65 की सीमा को पार कर गए हैं| देश-काल-परिस्थिति
को गंभीरता से परखा है इन्होने| हर रंग और मिज़ाज को सहा और झेला है| इसीलिए इनके
यहाँ अनुभव की सघनता में अभिव्यक्ति की तरलता अधिक आकर्षित करने लगी है| किसी शब्द
को नारे की तरह नहीं पूरी संवेदना के साथ रखते हैं और इनके रखे एक-एक शब्द हमारी
मानसिकता पर बड़े प्रभाव छोड़ते हैं|
इधर कोरोना को समझने और जानने की प्रक्रिया में कवि की
बेचैनी और चिंता हमारे तमाम चिंताओं को अभिव्यक्त कर रही है| लम्बे समय से मनुष्य
ईश्वर की तलाश में था| वह तो नहीं मिला| एक नया अवतार और अदृश्य शक्ति और आ गया
हमारे अस्तित्व पर चाबुक ताने| मदन कश्यप की नजर में “ईश्वर की तरह ही यह कोरोना
भी चमत्कारी है/ दिखता कहीं नहीं है/ हर जगह अपने होने का एहसास कराता है|” यह
एहसास इतना त्रासदपूर्ण है कि पहले ईश्वर के नाम पर और अब कोरोना के नाम पर आम
आदमी को उसकी औकात बताई जा रही है| कवि को डर मरने से नहीं है और वह स्वयं कहता है
कि “डर कर भी डरा हुआ नहीं हूँ|” उसे चिंता है कि जिस तरह ईश्वर के नाम पर
नागरिकों के साथ बुरे बर्ताव किये गए समय-समय पर कहीं अब उन्हीं बर्ताव की
पुनरावृत्ति तो नहीं होगी कोरोना के नाम पर? कवि को बिलकुल विश्वास नहीं है
सरकारों की कारस्तानी पर इसलिए वह पूछता है कि “मौत के सौदागरों बताओ तो सही/ क्या
दुनिया में कोरोना के नाम पर भी/ उतने ही लोग मारे जायेंगे/ जितने ईश्वर के नाम पर
मारे गए/ तय तो कुछ ईश्वर ने भी नहीं किया था” इतने समय या वर्षों में प्रलय अथवा
वायरस आएगा और सभी को विपत्तियों में डालकर मनुष्य सभ्यता का अंत कर देगा?
मदन कश्यप के हवाले से कहें तो सरकारों के होने न होने को
लेकर मनुष्य-समाज हर समय संशय में रहा है| शक्ति के आधार पर काबिज सत्ता से लेकर
मत के आधार पर हाशिल सत्ता तक में आदमी के लिए कितना स्पेस रहा, यह कहने का नहीं
विचार करने का विषय है| ‘चयन’ एक सुविधाभोगी प्रक्रिया है| यहाँ प्राप्ति का ध्यान
रहता है जिम्मेदारी की नहीं| ईमानदार कोशिशें भी कहाँ होती हैं आखिर? मनुष्य का
जीना और मरना नियति के हाथ में होता था| प्रकृति सब निर्धारित करती थी ऐसा भी सुना
गया है समय-समय पर|
‘सरकार ही प्रकृति है’ यह अब निर्धारित हो रहा है| कोरोना
समय में आकर मदन कश्यप यह मानते हैं कि “ऐसा तो पहली बार हुआ कि/ दुनिया भर की
सरकारों ने नागरिकों के/ मरने की उम्र तक तय कर ली है|” इधर कोरोना वायरस का
प्रकोप बढ़ता रहा और उधर मनुष्य को दफ़नाने के लिए कब्रिस्तान और मैदान खाली किये
जाने लगे| जिन नागरिकों को विश्वास में लेकर सुरक्षा देने की जरूरत थी उन्हें आपदा
में अवसर की तलाश करते हुए आत्मनिर्भर होने की सलाह दी गयी| न तन्त्र काम आया और न
ही तो तन्त्र के नुमाइंदे|
वर्तमान में हम ऐसे परिवेश में जीने के लिए अभिशप्त हैं
जहाँ “बंद कारखानों की उदास बत्तियाँ/ मानों संध्या का स्वागत करना भूल गयी हैं|”
मनुष्य या तो कैद है अपने घरों में या फिर भटक रहा है| कवि के अंदर इस एहसास का
गहराना कि “अँधेरे की चुप्पी से कहीं ज्यादा भयानक होती है/ रौशनी की नीरवता” वह
सब कुछ कह देती है जिसकी परिकल्पना तक मानव-समाज नहीं करना चाहता है| जीता-जागता
परिवेश मुर्दा-घर में बदलता जा रहा है, ये कितनी बड़ी घटना है| जब सभी बदहवास हो
अपने होने को लेकर हताश हैं तो हवा “दिन में कई बार/ गति और दिशा बदल रही है|”
हवाओं के रुख में बेरुखी और उदासी साफ़ झलक रही है| अपनी
आदतों और जिज्ञासाओं में उन्मुक्त रहने वाला हर कोई हताश और परेशान है| ऐसी स्थिति
में कवि का कहना है कि “मैं तो स्पर्ष और अभिव्यक्ति के बिना/ वैसे भी मर जाऊंगा/
कविता से अलग भला क्या है मेरा वजूद|” जैसे कवि स्वयं को ऐसे हालात में पा रहा है
उसी तरह देश का नागरिक स्वयं को देख रहा है| अब यह कविताओं और कवियों की
संघर्षधर्मिता है कि राह भटक चुकी सरकारों को जिम्मेदारी का एहसास कराएं| इस संकलन
ने इस एहसास को अधिक मजबूती से परिदृश्य पर लाने का प्रयास किया है, इसमें कोई शक
नहीं है|
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नवल शुक्ल नागरिक मन में उठने वाले प्रश्नों को लेकर जिस
जिम्मेदारी से इस संकलन में शामिल हैं, उसे देखते हुए आप जन की व्यग्रता और विवशता
को समझ सकते हैं| सरकारें यहाँ भी कठघरे में हैं| यहाँ भी उन जिम्मेदारियों को
चिह्नित करने का प्रयास किया गया है जिसे वास्तव में अपनाया जाना चाहिए था| नहीं
अपनाया गया| जिन कर्तव्यों के प्रति सचेत होने की जरूरत थी, नहीं हुआ गया| कवि की
दृष्टि में “जब ढाई मिनट एक बड़ा समय था/ तब ढाई महीने तक मसखरी थी और चुप्पी/ अब
हर ढाई घंटे पर मृत्यु का लेखा-जोखा है|” सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक यह
लेखा-जोखा शुरू होता है और रात के सोने से लेकर सुबह उठने तक मृत्यु का भय, आतंक
मस्तिष्क में छाया रहता है|
इधर तो ऐसा लगता है
जैसे हम सब बने ही हों अनागत भय से डर कर जीने और अंततः मरने के लिए| जिन चिंताओं
को लेकर मदन कश्यप अपनी कविताओं में चिंतित दिखाई देते हैं उन्हीं चिंताओं के
आसपास समाधान की तलाश करते नवल शुक्ल दिखाई देते हैं| नागरिकों को बचाने और
सुरक्षा-रक्षा का विश्वास देने की स्थिति पर कवि का कहना है कि “ढोंग को त्यागने
और संवेदनशीलता के अलावा/ और कुछ नहीं चाहिए था/ बस हमें नागरिक मानना चाहिए था|”
ऐसा मानने से कुछ भले न होता हर जिम्मेदार नागरिक अपनी जिम्मेदारी से इस संकट का
समाधान खोजता| इस देश की अधिकांश संख्या अनपढ़ जरूर है लेकिन ग़ैर ज़िम्मेदार बिलकुल
नहीं| ईमानदारी तो इतनी कि पढ़े-लिखे भी रश्क करें| “सीधी, सहज और सच्ची बातों को
सुनने/ वैसा व्यवहार करने/ और मनुष्य मति में रहने की/ हमारी लम्बी परम्परा थी/ वह
आज भी अक्षुण्ण है” जिस पर विश्वास किया जा सकता था| ऐसा न करके पुलिस-व्यवस्था को
पीछे लगा दिया गया और छोड़ दिया गया भटकने के लिए|
कोरोना सम्बन्धी किसी भी स्थिति पर नागरिकों की सहमति ली
गयी आज भी नहीं ली जा रही है| सारे निर्णय सरकार के अपने थे जिसमें न जन था और न
ही जन की कोई सहमति| यह कितनी विडंबना का विषय है कि “हम अपने ही देश में रहे और
खतरे से अनजान रहे|” स्थिति आज भी यह है कि “हम अपने ही देश के बीराने में/ जहाँ
तहां पाए जा रहे हैं/ अपनी पोटली संभाले, अपना ठौर खोजते|” न घर अपना लग रहा है न
देश न सरकार| घर अपना लग भी रहा है तो वहां पहुंचना कठिन है|
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इस संकलन
में लीलाधर मंडलोई की कविताएँ भी हैं जो प्रभावित करती हैं| विजय कुमार कविताओं
में भी जिम्मेदारी के भाव दिखाई दिये हैं| बोधिसत्व और देवीप्रसाद मिश्र की
कविताओं में उनका अपना अनुभव जगत दिखाई देता है| श्रृष्टि श्रीवास्तव की युवा
दृष्टि में प्रखरता दिखाई दी है तो विष्णु नागर की कविताओं में अनुभव की तत्परता|
जब सब शांत
बैठे हों तब प्रकाशक की सक्रियता और संपादक की जिम्मेदारी जरूरी हो जाती है| कुछ
कमियों को यदि छोड़ दिया जाए तो यह संकलन लम्बे समय तक याद रखा जाएगा| कवियों की
उपस्थिति में सम्पादकीय की दमदार प्रस्तुति आकर्षित करती है| खटकने जैसे कुछ है
नहीं जिसके लिए सम्पादक को दोषी ठहराया जाए|
फिर भी यदि
कुछ विशेष कहना है तो यह जोड़ना चाहूँगा कि इस महत्त्वपूर्ण और जरूरी योजना में कुछ
और युवा रचनाकारों को शामिल किया जा सकता था| संपादक द्वारा स्वयं को बतौर कवि के
रूप में प्रस्तुत करने से बचा जा सकता था| ऐसा होने से एक रचनाकार के लिए स्पेस
होता| खैर...यह सब चयन और प्रस्तुति का अपना मानक होता है जिस पर कुछ न कहते हुए
यह कहना जरूरी समझता हूँ कि बहुत कम समय में किया गया गंभीर कार्य है यह संकलन| इस
प्रकार के सामूहिक रचनाकारों का संकलन आना जरूरी है| जरूरी है कविता की भूमिका और कवि-कर्तव्य
का आंकलन करना| इसे इस बात से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए कि कवि तन्त्र और
तन्त्र-जाल दोनों से लड़ रहे हैं| सम्पादक संजय कुंदन को बहुत शुभकामनाएँ|
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करोना काल कोरोजीवी कविता लेकर जिस तरह उपस्थित हुआ है करोना एक विमर्श बनकर उभरा है। अनिल जी किताब से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद।कुछ कवियों की चर्चा हुई बाकी कवियों को क्यों छोड़ दिया।
करोना काल कोरोजीवी कविता लेकर जिस तरह उपस्थित हुआ है करोना एक विमर्श बनकर उभरा है। अनिल जी किताब से परिचित करवाने के लिए धन्यवाद।कुछ कवियों की चर्चा हुई बाकी कवियों को क्यों छोड़ दिया।
समीक्षा की अपनी सीमाएं होती हैं| इन कवियों के माध्यम से अन्य कवियों तक पहुंचा जा सकता है| आपने अपना विचार रखा, इसके लिए आभार आपका|
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