Thursday 20 August 2020

काल्पनिकता के स्थान पर घटित हुए को पाठक और दर्शक पसंद कर रहे हैं

 

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हिंदी साहित्य में ‘उपेक्षा’ शब्द अब किसी परिचय का मुहताज नहीं है| यहाँ रचनाकारों के साथ ही सौतेला व्यवहार नहीं होता, विधाओं के साथ भी गंभीर राजनीति होती है| कितनी ही विधाएँ हैं जो उपेक्षा की बलि-बेदी पर पहुँच कर मृतप्राय हो गयीं? नवगीत, ग़ज़ल तथा अन्य छान्दसिक विधाओं के हालात तो हमारे-आपके सामने हैं, इधर ललित निबन्ध जैसी समृद्ध विधा लोगों के दिमाग से उतरने लगी हैं| ‘एकांकी’, जिसे कम समय में सम्पूर्ण नाटक देखने का विकल्प माना जाता रहा है, अब कितने लोगों के ‘निगाह’ में है और कितने लोग ऐसे हैं जो इस पर चर्चा-परिचर्चा करते हैं, विमर्श का विषय नहीं तो चिंता की बात जरूर है|

वैसे रचनाकारों के व्यक्तित्व के आगे अब शायद विधाओं की चिंता करना कुछ कम हो गया है| आलोचकों से जिस निष्पक्षता की उम्मीद की जाती रही है, अब नाउम्मीदी ही उनसे ठीक है| प्रकाशक और सम्पादक की नादानियों ने विधाओं को मृतप्राय होने में कितना सहयोग किया, किसी से छिपा नहीं है| रचनाकार आखिर करें तो क्या करें? या तो जिद पूर्वक लिखें, कि आएगा कोई समानधर्मा तो मूल्यांकन होगा या फिर सब छोड़-छाड़ कर किसी दूसरी विधा का दामन थाम लें, ताकि रचनात्मक हस्तक्षेप बना रहे उनका|

भागना समस्याओं का हल नहीं है, यह स्पष्ट है| स्पष्ट यह भी है कि हर विधाओं की अपनी विशेष राजनीति है जिसमें उठापटक बनी रहती है| धाराएं मुडती हैं, संदेह इसमें भी कहाँ है? लहरों की यति और गति ही धाराओं की भविष्य तय करती हैं, इसमें भी कोई दो राय नहीं है| जिन रचनाकार या विधा को उपेक्षा की हद तक जाकर इग्नोर किया जाता है वही रचनाकार या विधा एक समय के बाद सुयोग्य को प्राप्त कर चमक उठती हैं| जो प्रकाशक और सम्पादक एक समय तक रणनीति के तहत पीछे धकेल रहे होते हैं, समय आने पर आगे लाने का दमखम लगाने लगते हैं|

नाटक के तमाम भेदों-उपभेदों में लघु नाटिका एक प्रकार है जिसका जिक्र और विकास संस्कृत साहत्य में देखने को मिलता है| हिंदी सहित्य में यही लघु नाटिका ‘लघु नाटक’ के रूप में प्रचलित हुई और कई समृद्ध रचनाकारों ने इस विधा में अपनी लेखनी का योगदान दिया| लघु कथा तो विधा के रूप में बहुत बाद आई, शायद लघु नाटक के तर्ज पर| यह भी एक बड़ा कार्य हो सकता था कि लघु कथा के स्थान पर विधा के रूप में लघु नाटक को तरजीह दी गयी होती| पर शायद उन लोगों को अधिक समस्या होती इससे, जो किसी न किसी रूप में संस्थापक बनना चाहते थे, न कि उद्धारकर्ता विधा का|

लघु कथा के स्थान पर इस अर्थ में भी लघु नाटक विशिष्ट विधा रही कि लम्बे समय देखने की अपेक्षा घटनाओं को आधार बनाकर लिखी गयी यह विधा बहुत कम समय में सम्पूर्ण परिदृश्य का चित्रांकन करने में सफल रही| लघु कथा के पैरोकारों ने लगभग इस विधा का बहुत कुछ लिया लेकिन चित्रात्मक क्षमता और वातावरण सृजन की नवीनता को न ले सके| यह सिर्फ लघु नाटक में ही सम्भव है और यही इन दोनों विधाओं में अंतर का एक विशेष कारण भी है|

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कई बार जीवन की कुछ ऐसी घटनाएँ होती हैं जिन्हें सम्पूर्णता में समेट पाना मुश्किल होता है| जितनी गंभीरता उन घटनाओं की लघुता में होती है सम्पूर्णता में आने के बाद नहीं रह जाती| इस दृष्टि से भी लघु नाटक एक सफल विधा रही| हालांकि इस पर सार्थक मूल्यांकन और वाद-विवाद न होने से हिंदी साहित्य के तमाम अध्येताओं की निगाह से यह विधा ओझल रही लेकिन अभिव्यक्ति-सामर्थ्य और प्रभाव-क्षमता किसी भी रूप में नाटक या एकांकी से कमतर नहीं है|

लघु नाटक में बहुत कम दृश्यों के साथ उपस्थित होना पड़ता है| जीवन के किसी एक घटना को आधार बनाकर चित्रांकन की जो संभावनाएं बनती हैं उन सम्भावनाओं को सम्पूर्णता में लाना पड़ता है| घटना समस्या-प्रधान हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो या फिर किसी तात्कालिक घटी स्थिति पर केन्द्रित हो, यह नाटककार की समझ और सामर्थ्य पर निर्भर करता है| कथावस्तु का चयन हालांकि इधर उतना मायने नहीं रखता, फिर भी कोशिश यह करनी पड़ती है कि किसी महत्त्वपूर्ण विषय को केन्द्र में लाया जा सके| जरूरी विषय पर संवेदना का प्रस्फुटन आवश्यक हो जाता है|

इसमें रंग-अभिनय का निर्देश तो दिया ही जाता है, देशकाल वातावरण की परिकल्पना इतनी सहजता से की जाती है कि वह स्वाभाविक लगे और दर्शक की दृष्टि में उसका प्रभाव विशिष्ट बनकर उभरे| पात्र एवं चरित्र-चित्रण के प्रति अतिरिक्त सजगता की मांग होती है क्योंकि पात्र कहीं से भी निष्क्रिय न दिखाई दें, यह जरूरी होता है| संवाद-योजना इस अर्थ में प्रभावी हो कि हर पात्र बोलता हुआ दिखाई दे, वह भी, जिसे बोलने का अवसर किसी कारणवश कम मिला हो या न मिल पाए|

  दूर की कौड़ी लाने का प्रयास जितना कम हो, लघु नाटक उतना ही समृद्ध और प्रभावी होगा| दृश्यों आदि का विधान इस तरह हो कि उसका अभिनय किया जा सके| अभिनेयता एक प्रमुख और आवश्यक तत्त्व है नाटक का जो बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है| इन सबके साथ-साथ उद्देश्य की बात जहाँ तक है तो वह नाटककार पर निर्भर करता है कि वह अपने दर्शक को देना क्या चाहता है?

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ऊपर इशारे में ही सही, यह कहा जा चुका है कि हिंदी साहित्य में रचनाकारों से कहीं अधिक उपेक्षा विधाओं की शुरू हो चुकी है| जब विधाएँ प्रकाश में नहीं आ पाएंगी तो रचनाकार स्वयमेव हाशिए पर चल जाएंगे या फिर थकहार कर बहुसंख्य-इच्छित विधाओं को अपना लेंगे| जो लघु नाटक प्रभाव-सक्षमता से लेकर विमर्श-क्षमता तक में विशेष थी, उसका उभरकर न आ पाना इसी उपेक्षा का परिणाम है|

उपन्यास और नाटक विधा में समान हस्तक्षेप रखने वाले जालंधर के सक्रिय रचनाकार अजय शर्मा ने इधर लघु नाटकों की तरफ रुख किया है| इस विधा के लिए निश्चित रूप से यह एक सुखद संकेत है| समृद्ध विधाओं के साथ उपेक्षित विधाओं में लेखनी का जोखिम उठाना एक तरह से साहस का कार्य है| एक तो बंधी-बंधाई लीक से हटकर श्रम करना पड़ता है, दूसरे अपने समकालीनों की नजर में किरकिरी बन खटकना भी पड़ता है| यह खटकना ईर्ष्या की विश-बेल को समृद्ध करती है जो आगे चलकर एक प्रकार से सिरदर्द बनकर उभरती है|


अब यदि उनकी रचनाधर्मिता और इस पुस्तक की बात करें तो इधर विधाओं में यथार्थ की मांग बढ़ी है| काल्पनिकता के स्थान पर घटित हुए को पाठक और दर्शक पसंद कर रहे हैं| इस घटित हुए को किस तरह सामने लाया जाय यह एक रचनाकार के लिए गंभीर जिम्मेदारी का काम है| बात जब रंगमंच और नाटक से जुडी हो तो यह जिम्मेदारी और अधिक गंभीरता की मांग करती है| अजय शर्मा इस गंभीरता में एकदम खरे उतरते हैं| जैसा देखा वैसा कहा वाली स्थिति पूर्ण रूप से साकार होती है उनकी लघु नाटकों में, न कि जैसा सुना वैसा कहा वाली स्थिति| वैसे साहत्य देखे और भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति का नाम है| 

 इस पुस्तक में कुल आठ लघु नाटकों को शामिल किया गया है| ‘लोक-डाउन’, ‘महामारी’, ‘लाली नाचे लाला गावे’, ‘लीला’, ‘माया’, ‘ऑनलाइन टीचिंग’, ‘वायरस|’ यह आश्चर्य का विषय हो सकता है कि इन सभी लघु नाटकों की रचना ‘कोरोना-समय’ में हुई है| उस कोरोना समय में, जब सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था बदलती हुई नजर आई और जो मनुष्य स्वयं को समस्त शक्तियों का मूल मान बैठा था, खुद के जीवन को सुरक्षित रखने के लिए तिलमिलाता नज़र आया| ‘वायरस’ मनुष्य की चिंता का विषय बना| ‘भूख’ और ‘वायरस’ का अंतर्द्वंद्व इस तरह प्रभावी हुआ कि पूरे कोरोना समय में आम आदमी इन्हीं से लड़ता-भिड़ता रहा| इस लड़ने भिड़ने में एक, दो, हजार-दो-हजार नहीं पूरा ‘लोक’ शामिल रहा|

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‘लोक-डाउन’ में भूख का यथार्थ, मीडिया का सच, व्यवस्था की लापरवाही, महाममारी की त्रासदी आदि घटनाएँ जिस तरह से घटित हुईं और इस लघु नाटक में व्यंजित हुई हैं, वह कोई संवेदनशील व्यक्तित्व ही अभिव्यक्त कर सकता है| इसलिए भी क्योंकि घटनाओं को साहित्य में लाने के लिए स्वयं घटनाओं का भुक्तभोगी होना पड़ता है| आपके आँखों के सामने ‘जन’ उपेक्षित होकर ‘कूड़े’ और ‘कचड़े’ में तब्दील किया जा रहा हो, कैसे चुप रह सकते हैं आप? यह एक प्रश्न मात्र नहीं है, आपकी दृष्टि, आपकी सोच और आपके सरोकार पर जिम्मेदारी का एहसास है जिससे कोई मुक्त नहीं हो सकता है|

मुक्त वे हो सकते हैं जिम्मेदारी से जिनके पास पूँजी है, क्योंकि ऐसे लोग ही ‘आपदा में अवसर’ की तलाश करते हैं| आम आदमी तो ‘आपदा में विपदा’ लिए दर-ब-दर की ठोकरें खाता रहता है| भूख व्यक्ति को जानवर बना देती है और सम्बन्धों की गरिमा क्या होती है, यह नहीं समझने देती| जब तक आपके पेट में भोजन है तब तक रिश्ते हैं, सम्बन्ध हैं जब आप भूखे हैं तो सब कुछ बेमानी है| दूसरी समस्या की तरफ जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि...सही मायने में विस्थापन क्या होता है, इसका अंदाजा या तो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विभाजन से उपजी विभीषिका में लगा था या फिर इधर कोरोना-समय में लग रहा है| जिस शहर ने हमें अपना लिया हो और जिस शहर को हम अपना मान लिए हों, उससे हटकर फिर घर की तरफ वापसी करने की जो पीड़ा है, वह हृदय को चीर कर रख देती है| ‘लोक-डाउन’ और ‘महामारी’ इन दोनों लघु नाटकों में इस यथा-व्यथा को जिस गहराई से चित्रित किया गया है, पता चलता है कि भारतीय भावभूमि पर जीवन जीना अभिशाप नहीं तो उससे कम भी कुछ नहीं है|

 ‘लीला’ और ‘वायरस’ में जीवन और स्वच्छता के बीच का जो विमर्श है उसे साकार रूप देने की कोशिश की गयी है| इस कोशिश में ‘नागरिक कर्तव्य’ क्या होते हैं, इसका एहसास हमें कदम-कदम पर होता है| लीला’ में जहाँ पानी की अनिवार्यता और मास्क की जरूरत पर बल दिया गया है वहीं ‘वायरस’ में ‘स्वच्छ-भारत, स्वस्थ-भारत’ की दयनीय स्थिति पर चिंता प्रकट की गयी है| इन दोनों लघु नाटकों के माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि स्वच्छता को महज नारों में सीमित करके देखने की कोशिश हमें नहीं करनी चाहिए| कोशिश हो कि उसे व्यावहारिक रूप दिया जाए|

‘लाली नाचे लाला गावे’ लघु नाटक जड़ों से बिछड़े हुए की कहानी कहता है| इस नाटक में ‘माया’ को प्रमुख मान कर चलने वालों के लिए गम्भीर संदेश है| अपनों का होना और अपनों के साथ होना इस अस्मितावादी युग में बहुत मुश्किल हो गया है| स्वतंत्रता की तलाश स्वच्छन्दता में बदल चुकी है| स्वच्छन्दता व्यक्ति को अराजक बनाती है और अराजकता हर स्थिति से महफूज करके पंगु बना देती है| संग्रह में शामिल अन्य नाटक भी गहरे में प्रभावित करते हैं जिसे आप पढ़कर देख सकते हैं| यह तय है कि, उपेक्षित विधा के रूप में लघु नाटक में एक नया प्राण डालेंगे ये नाटक| दिलचस्प होगा इन्हें प्रकाशित रूप में विमर्श का हिस्सा होते देखना|

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समीक्षा के पारंपरिक पैमानों पर ये लघु नाटक खरे उतरते हैं| नई समीक्षा की दृष्टि जब आप मूल्यांकन करते हैं तो प्रभाव-क्षमता और बढ़ जाती है| पात्र-चयन और वातावरण सृजन इन लघु नाटकों की एक अप्रतिम विशेषता हैं| घटनाओं की स्वाभाविकता में पात्र की व्यवहारिकता मायने रखती है, जिस पर अजय शर्मा ने अच्छे से कार्य किया है| हर पात्र अपनी भूमिका में समर्थ और सजग है| जिस परिदृश्य को वह लाना चाहते हैं, आसानी से अभिव्यक्त होती है|

संवाद-योजना अजय शर्मा के यहाँ आपको विशेष रूप से आकर्षित करते दिखाई देगी| वह बड़े वाक्यों से सर्वथा इधर बचते हुए दिखाई दिए हैं| हालांकि ‘लीला’ और ‘महामारी’ में इस स्थिति को बरकरार नहीं रख पाते हैं लेकिन पात्रों और घटनाओं के बीच स्वाभाविकता बनी रहती है| यह स्वाभाविकता ही है जो उनकी अभिव्यक्ति-क्षमता में निखार लाती है| पात्र, घटना और अभिव्यक्त समस्याओं के साथ पाठक का सम्बन्ध एक बार जुड़ता है तो वह स्थाई रूप लेकर ही ठहराव पाता है|

जहाँ तक बात भाषा की है तो वह इनके थीम के साथ चलती है| पात्रों के अनुकूल भाषा को ढाल ले जाना कम चुनौती की बात नहीं है| जिस लोक और अंचल के पात्र हैं उस लोक और अंचल की भाषा को अपनाया गया है अजय द्वारा, यह भाषा-शैली की दृष्टि से उल्लेखनीय है| यह स्वाभाविक-सी स्थिति है कि जब दो या इससे अधिक जन आपस में मिलते हैं तो वे अपने क्षेत्रीय भाषा और बोली को अधिक तरजीह देते हैं और यही विशेषता नाटक को उस लोक से जोड़ कर रखती है|

कहना यह है कि, अजय शर्मा ने इस पुस्तक पर काम करके निश्चित रूप से साहस का कार्य किया है| घटनाओं के साथ अभिव्यक्ति की तत्परता और गंभीरता साहित्य विधा में मात्र कविताओं के साथ देखा गया है| लघु नाटकों के माध्यम से अजय शर्मा ने इस धारणा में भी बदलाव लाने का प्रयास किया है, जो प्रभावित करता है| जिस समय लोग घरों में बैठकर कुंठित हो रहे हों, पारिवारिक कलह के कारण हो रहे हों, उस समय ऐसे माध्यमों पर सक्रिय होकर रचनात्मक हस्तक्षेप बनाए रखना साहस का काम तो है ही| अजय शर्मा को इसके लिए शुभकामनाएँ देते यही कह सकता हूँ कि आपसे साहित्य को काफी उम्मीदें हैं|

 

1 comment:

Unknown said...

यह जानकर अच्छा लगा कि पंजाब के साहित्यकार बड़े ही संवेदनशील है। अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए करोना काल में जिस तरह का साहित्य वह रच रहे हैं वह सचमुच सराहनीय है। पंजाब में रहते हुए भी पंजाब के हिंदी साहित्य से बहुत समय तक अनभिज्ञ रही। आपके माध्यम से पंजाब के हिंदी साहित्यकारों की लेखनी और उनकी संवेदना से जुड़ने का अवसर प्राप्त हो रहा है। डॉ अजय शर्मा जी के लघु नाटकों का बहुत ही सूक्ष्म और निरपेक्ष मूल्यांकन। डॉ अजय शर्मा जी को शुभकामनाएं और सर आपका बहुत-बहुत आभार।