Thursday 20 August 2020

मैं मरने से पहले ईश्वर को मरता हुआ देखना चाहता हूँ (मदन कश्यप की कोरोजीवी कविताएँ)

 

महामारी जब भी आई है समाज में अंधविश्वास बढ़ा है| रूढ़ियाँ मजबूत हुई हैं| लोग डरे हैं और अंतिम शरण ईश्वर के नाम पर चलने वाली दुकानों पर पाए हैं| कहना गलत न होगा कि सबसे अधिक तांत्रिक, ओझा, मुल्ला-मौलवी, झोला छाप डॉक्टर-हकीम महामारियों के दौर में पैदा हुए| जैसे-जैसे महामारियों ने बिकराल रूप धारण किया, तांत्रिक से लेकर मौलवीयों की संख्या में असमान रूप से वृद्धि देखी गयी| मनुष्यों का समूह भयभीत होता रहा और ये सिद्ध पाखण्डी अपने व्यापार में दक्ष होते रहे|

यह अपनी तरह का सच है कि महामारियों के दौर में ईश्वर की भूमिका संदिग्ध रही| संदिग्ध रहे मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर-चर्च और उनके रहनुमा चौकीदार| बावजूद इसके इनसे जुड़े लोगों में किसी ने मनुष्य की मुक्ति की बात की तो किसी ने उद्धार की जिम्मेदारी ली| कोई यह कहते हुए गारंटी दिया कि ‘हिम्मत नहीं है कि कोई कुछ और कर दे, देखते रहना अब समस्याएँ बहुत जल्दी ख़तम हो जाएँगी’ तो कई ने यह कहते हुए भरोसा कि ‘यह ताबीज अल्लाहताला (जिनके जो भी ईश्वर थे) का दिया हुआ है अब सभी मुसीबतों से मुक्त रहोगे, कुछ होगा तो हम यहीं रहेंगे|’

लोक जितना भ्रमित हो सकता था, होता रहा और आज भी हो रहा है| ठग और ठगों के गुट ने ‘भूख’ पर ‘व्यापार’ का जो खेल शुरू किया, पढ़ी-लिखी जनता भी अशिक्षितों की मानिंद व्यवहार पर विवश हुई| दरअसल यह विवशता ही सभी व्याधियों की जड़ है| मुक्ति की तलाश में जड़ता को प्रश्रय मिला तो उसके पीछे लोक की सामूहिक अज्ञानता सक्रिय रही| सामाजिक क्षेत्र के अलग-अलग स्थितियों से लोगों ने अज्ञानता से उबरने की कोशिश तो की लेकिन वह सफलता न मिली, जिससे कुकुरमुत्तों की तरह उगते ‘विद्वानों’ और ‘भविष्यवेत्ताओं’ पर लगाम लगाईं जा सके|

यह सब देखते और सुनते हुए कवियों ने अपनी तरह से लोक को गंभीर बनाने का श्रम किया| यह श्रम इधर के कोरोना-समय में भी जारी है| लोक जिस गति में पहले जागरूक हो रहा था इधर कवि और कविता के हस्तक्षेप से कुछ अधिक चौकन्ना हुआ है| मदन कश्यप ने स्पर्ष सीरीज से एक कविताएं लिखी है| कवि त्रासदपूर्ण समय में समय में घबड़ाता नहीं है लेकिन मृत्यु के करीब होकर अपनों के आसपास रहना चाहता है| ईश्वर का नाम लिए बगैर मृत्यु अपदस्थ करता है| अपना सब कुछ अपनों के पास छोड़ देने के लिए उद्यत-सा कवि एक तरह से प्राकृतिक परम्परा की शुरुआत करता है| यहाँ कोई ढोंग नहीं है| कोई पश्चाताप नहीं है| होने और न होने की व्यग्रता भी नहीं है| कवि के इस कहन पर विचार करना जरूरी हो जाता है जब वह कहता है कि-

“मौत आए तो उतनी चुपचाप आए

तुम बालों में उंगलियाँ फिराती रहो

और कुछ काफी देर तक तुम्हें पता ही न चले

कि मैं जा चुका हूँ|

 

मरने के बाद भी मुझे इसी तरह छूना

ऐसे ही पलकें झुकाकर शरमाना

और मुँह फेरकर मुस्कराना

चाहता हूँ

मेरा सब कुछ इस तरह तुम्हें मिल जाए

कि मृत्यु को कुछ मिले ही नहीं|”

यह चाहना उस व्यावहारिकता को फिर से महसूसना है जिसे ईश्वर की उपस्थिति के साथ मनुष्य ने स्वयं से दूर कर रखा था| यहाँ कवि का मृत्यु के बाद भी प्रेम में होने की जो परिकल्पना है वह आत्मा और परमात्मा के अन्तर्सम्बन्ध को व्याख्यायित करता है| शब्द-सत्ता यहाँ फिर मूर्त हो उठती है जबकि ईश्वरीय-सत्ता ठगी-सी देखती रह जाती है| मृत्यु के भय में ईश्वर की तरफ उन्मुख करने के जो आडम्बर थे वह सब इस सम्भावना के साथ समाप्त हो जाते हैं कि- “मेरा सब कुछ इस तरह तुम्हें मिल जाए’ कि मृत्यु को कुछ मिले ही नहीं|” कवि जिस स्पर्ष में ईश्वर के होने की अनुभूति करता था ‘कोरोना’ में आकर उसी स्पर्ष की आकांक्षा और दूर होने के यथार्थ ने उसे निरीश्वर बना दिया| जब मदन कश्यप कहते हैं कि “एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था/ जिससे ईश्वर होने की अनुभूति हुई/ लेकिन कोरोना ने मुझे निरीश्वर बना दिया” तो सत्ता के होने और हटने का आभास होता है| ऐसा लगता है जैसे ईश्वर की सत्ता चली गयी और शब्दों के माध्यम से कोरोना-शासन में है| कवि कहता भी है “जो लोग ईश्वर-ईश्वर चिल्ला रहे थे/ अब कोरोना-कोरोना चिल्ला रहे हैं|” शब्द आतंक भी देते हैं और संघर्ष की समझ भी| यह इसी लेख में ऊपर कहा जा चुका है कि लोक की जमीन पर ईश्वर के सत्ताहीन होते ही सही अर्थों में शब्द-सत्ता ने अपना कार्यभार सम्भाला| यह कार्यभार मध्यकाल में भी प्रभावी था जब लोक विसंगतियों की भेंट चढ़ रहा था और संतों की अन्तःप्रज्ञा से उपजे शब्दों ने संघर्षधर्मी प्रवृत्ति को उभार दिया, यह कार्यभार आज भी प्रभावी हो रहा है जब जन सडकों पर है और ‘शब्द’ ‘परछाहीं’ की तरह उनके साथ रहते हुए चेतना-सम्पन्न बनाने में सक्रिय हैं| यह शब्दों की संघर्षधर्मिता है कि बिखरे लोगों को सामूहिक रूप से जोड़ने के क्रम में मजबूती से जागरूक बनाया|

एक कवि के रूप में मदन कश्यप के यहाँ यह ज़िम्मेदारी गंभीरता से अपना काम करती है क्योंकि ‘दूर तक चुप्पी में’ उनका मानना है कि-“जब आदमी/ उम्मीद से/ आसमान की ओर/ देखता है/ तब/ इस धरती का रंग/ बदलने लगता है|” आसमान की ओर देखना सही अर्थों में ईश्वर को चुनौती देना है| तमाम षड्यंत्रों से उबरते हुए निरीश्वर होना है| कर्म की जमीन पर श्रम की उर्वरता को और अधिक उर्वर बनाना है| कवि द्वारा इस तरह चुनौती देना, जन द्वारा धरती पर किये गए श्रम का हवाला ईश्वर को देना है| धरती क्यों चाहेगी श्रमशील संस्कृति का न्हास हो? कवि की यह इच्छा कि “तमाम उच्छिन्न सुकुमार इच्छाओं को समेटकर/ भर लेना चाहता हूँ आत्मा की उजाड़ में/ ताकि मरने से पहले हरि-भरी हो जाए देश की धरती” श्रम के महत्त्व और साहस की जीवटता को बचाए रखने की इच्छा है|

मदन कश्यप जन के प्रति समर्पित कवि हैं| यह महज सिद्धांत की बात नहीं व्यावहारिकता की स्थिति भी ऐसी ही है| घोर निराशा से जब मन अनियंत्रित और मस्तिष्क चिंताओं से जकड़ उठता है, कविता वहां से आकार पाना शुरू करती है| कवि की तड़प कविता की अभिव्यक्ति बनती है| तड़पन जब समकालीन परिवेश में व्याप्त चिंताओं से जुडी हो तो यह और अधिक स्वाभाविक हो जाती है| ‘इस को रोना समय में’ हर्ष और उल्लास जैसे शब्द गायब हो गए हैं/ गायब होते जा रहे हैं| ‘सुकून’ का जो विधान कभी लोक-जीवन में था इधर ‘भगदड़’ में परिवर्तित हो गया है| जब लोग अपने महलों में लॉकडाउन का पालन कर रहे हैं तो अधिकांश सडकों पर जीवन बचाने और जीने के लिए एक जगह दूसरी जगह के लिए भाग रहे हैं| ध्यान रहे कि यह भागना शौक नहीं है, विसंगति है जैसे मरना शौक नहीं त्रासदी होती है| कवि के सामने ही “भूख से बहुत जन मर रहे हैं/ और जो बचने के लिए भाग रहे हैं पाँव-पैदल/ अपने गाँव की ओर/ उनमें से भी कुछ थकान से मर जा रहे हैं/ यह कैसा समय है कि लोग/ जीवन बचाने के लिए जीवन गँवा रहे हैं|”

कवि-मन में उठने वाले ये प्रश्न हर संवेदनशील व्यक्ति-मन का प्रश्न है लेकिन अन्य जहाँ सोच कर रह जा रहे हैं वहीँ कवि मदन कश्यप का मानना है कि “अन्न और दवा के अभाव में मरते लोग/ यों चुपचाप तो नहीं मरेंगे/ मैं मरने से पहले उन्हें जीवन के पक्ष में खड़ा होता देखना चाहता हूँ|” डर के भागने से कब अधिकार मिले हैं? कब मांगने से जीवन के संसाधन प्राप्त हुए हैं? इन प्रश्नों के दायरे में यह भी सोचने का प्रयास किया जाना चाहिए कि ईश्वर भी लाइन में खड़े होने भर से नहीं सुनता किसी की| शक्ति और सामर्थ्य यही दो चीजें स्थितियों को संचालित करती हैं| इसी शक्ति और सामर्थ्य को केन्द्र में रखते हुए कवि कि इच्छा विचार किया जाना चाहिए-“नई सदी में ताकतवर और हृष्ट-पुष्ट हो चुका ईश्वर/ अचानक कितना निरीह दिखने लगा है/ इस कोरोना समय में/ मैं मरने से पहले ईश्वर को मरता हुआ देखना चाहता हूँ|” जब ईश्वर नहीं रहेगा सब अपने भाग्य और प्राप्ति के मालिक होंगे ठीक उसी तरह जब सरकारें नहीं होंगी तो हर नागरिक अपने जीवन का आप निर्धारक होगा|

          ‘कोरोना में 65 पार’ करते हुए मदन कश्यप 65 की सीमा को पार कर गए हैं| देश-काल-परिस्थिति को गंभीरता से परखा है इन्होने| हर रंग और मिज़ाज को सहा और झेला है| इसीलिए इनके यहाँ अनुभव की सघनता में अभिव्यक्ति की तरलता अधिक आकर्षित करने लगी है| किसी शब्द को नारे की तरह नहीं पूरी संवेदना के साथ रखते हैं और इनके रखे एक-एक शब्द हमारी मानसिकता पर बड़े प्रभाव छोड़ते हैं|

इधर कोरोना को समझने और जानने की प्रक्रिया में कवि की बेचैनी और चिंता हमारे तमाम चिंताओं को अभिव्यक्त कर रही है| लम्बे समय से मनुष्य ईश्वर की तलाश में था| वह तो नहीं मिला| एक नया अवतार और अदृश्य शक्ति और आ गया हमारे अस्तित्व पर चाबुक ताने| मदन कश्यप की नजर में “ईश्वर की तरह ही यह कोरोना भी चमत्कारी है/ दिखता कहीं नहीं है/ हर जगह अपने होने का एहसास कराता है|” यह एहसास इतना त्रासदपूर्ण है कि पहले ईश्वर के नाम पर और अब कोरोना के नाम पर आम आदमी को उसकी औकात बताई जा रही है| कवि को डर मरने से नहीं है और वह स्वयं कहता है कि “डर कर भी डरा हुआ नहीं हूँ|” उसे चिंता है कि जिस तरह ईश्वर के नाम पर नागरिकों के साथ बुरे बर्ताव किये गए समय-समय पर कहीं अब उन्हीं बर्ताव की पुनरावृत्ति तो नहीं होगी कोरोना के नाम पर? कवि को बिलकुल विश्वास नहीं है सरकारों की कारस्तानी पर इसलिए वह पूछता है कि “मौत के सौदागरों बताओ तो सही/ क्या दुनिया में कोरोना के नाम पर भी/ उतने ही लोग मारे जायेंगे/ जितने ईश्वर के नाम पर मारे गए/ तय तो कुछ ईश्वर ने भी नहीं किया था” इतने समय या वर्षों में प्रलय अथवा वायरस आएगा और सभी को विपत्तियों में डालकर मनुष्य सभ्यता का अंत कर देगा?

मदन कश्यप के हवाले से कहें तो सरकारों के होने न होने को लेकर मनुष्य-समाज हर समय संशय में रहा है| शक्ति के आधार पर काबिज सत्ता से लेकर मत के आधार पर हाशिल सत्ता तक में आदमी के लिए कितना स्पेस रहा, यह कहने का नहीं विचार करने का विषय है| ‘चयन’ एक सुविधाभोगी प्रक्रिया है| यहाँ प्राप्ति का ध्यान रहता है जिम्मेदारी की नहीं| ईमानदार कोशिशें भी कहाँ होती हैं आखिर? मनुष्य का जीना और मरना नियति के हाथ में होता था| प्रकृति सब निर्धारित करती थी ऐसा भी सुना गया है समय-समय पर|

‘सरकार ही प्रकृति है’ यह अब निर्धारित हो रहा है| कोरोना समय में आकर मदन कश्यप यह मानते हैं कि “ऐसा तो पहली बार हुआ कि/ दुनिया भर की सरकारों ने नागरिकों के/ मरने की उम्र तक तय कर ली है|” इधर कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ता रहा और उधर मनुष्य को दफ़नाने के लिए कब्रिस्तान और मैदान खाली किये जाने लगे| जिन नागरिकों को विश्वास में लेकर सुरक्षा देने की जरूरत थी उन्हें आपदा में अवसर की तलाश करते हुए आत्मनिर्भर होने की सलाह दी गयी| न तन्त्र काम आया और न ही तो तन्त्र के नुमाइंदे|  

वर्तमान में हम ऐसे परिवेश में जीने के लिए अभिशप्त हैं जहाँ “बंद कारखानों की उदास बत्तियाँ/ मानों संध्या का स्वागत करना भूल गयी हैं|” मनुष्य या तो कैद है अपने घरों में या फिर भटक रहा है| कवि के अंदर इस एहसास का गहराना कि “अँधेरे की चुप्पी से कहीं ज्यादा भयानक होती है/ रौशनी की नीरवता” वह सब कुछ कह देती है जिसकी परिकल्पना तक मानव-समाज नहीं करना चाहता है| जीता-जागता परिवेश मुर्दा-घर में बदलता जा रहा है, ये कितनी बड़ी घटना है| जब सभी बदहवास हो अपने होने को लेकर हताश हैं तो हवा “दिन में कई बार/ गति और दिशा बदल रही है|”

हवाओं के रुख में बेरुखी और उदासी साफ़ झलक रही है| अपनी आदतों और जिज्ञासाओं में उन्मुक्त रहने वाला हर कोई हताश और परेशान है| ऐसी स्थिति में कवि का कहना है कि “मैं तो स्पर्ष और अभिव्यक्ति के बिना/ वैसे भी मर जाऊंगा/ कविता से अलग भला क्या है मेरा वजूद|” जैसे कवि स्वयं को ऐसे हालात में पा रहा है उसी तरह देश का नागरिक स्वयं को देख रहा है| अब यह कविताओं और कवियों की संघर्षधर्मिता है कि राह भटक चुकी सरकारों को जिम्मेदारी का एहसास कराएं| यह एहसास मदन कश्यप की कविताओं में स्थाई रूप से मौजूद है| मौजूदगी के पीछे का एक बड़ा कारण जनधर्मी परम्परा से जुड़े रहना| यहाँ एक बात और कहना जरूरी है मदन कश्यप के परिप्रेक्ष्य में कि इनकी कविताओं में जो चिंता है वह सम्पूर्ण लोक को लेकर है जिसमें भुखमरी है, बेगारी है, बेरोजगारी और कंगाली है| इसके पूर्व की कविताओं में और आज की कविताओं में भी, कवि का स्वप्न हर समय रहा है, समन्वयशील समाज का निर्माण| एक ऐसा समाज जिसमें शक्ति की सत्ता न होकर समझ की सत्ता वर्तमान हो| जो हाशिए पर धकेल दिए गए षड्यंत्रों से वे केन्द्र में हों और केन्द्र में हैं वे समन्वय की नीति पर आगे बढ़ें|

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