Friday, 14 August 2020

अनास्था के इस युग में आदमी होना सिखाती हैं आँधियाँ

 1

आँधी आने के बाद
बिखरे सामानों को व्यवस्थित करने के क्रम में
सब ठीक होने लगता है
सुना है
देखा है
आदमी भूल जाता है सब कुछ
आँधी के समय
याद अपनों की आने लगती है
अंधड़ में घिरा आदमी
पूरी दुनिया को
दुर्भाग्यशाली मानता है
विचार करता है आँधी विहीन समय के सन्दर्भ में
जब सब कुछ उलट-पलट रहा होता है
चुप या शांत नहीं बैठता कोई
हर कोई चाहता है कुछ ऐसा कि दुःख दूर हो
सोचता है आँधी गुजर जाने के बाद के परिदृश्य पर
स्वभाव आँधी का है उजाड़ मचाना
ठहरे हुए को भटकाना
मनुष्य की आदत है
उजड़े हुए को फिर-फिर बसाना
2.
कहाँ होते हैं सब अपने
हवा के चलने भर से दौड़ने लगते हैं लोगबाग
घर में छिप जाते हैं
बाहर वह सब रह जाते हैं जो उनके संरक्षण में होते हैं
आँधियाँ कुछ न दें
दे भी क्या सकती हैं सिवाय उजाड़ के
इतना तो देती ही हैं हमें कि पहचान सकें
कौन अपना है और पराया कौन है
खूंटे में बंधे बछड़े की आवाज सुनकर
कितने पालक दौड़ लेते हैं
कितने पोषक को चिंता होती है
वेबस पक्षियों को फड़फड़ाते हुए देखकर
जिस समय जड़ों से उखड़ रहे होते हैं पौधे
कहाँ होते हैं हम
घरों के गिरने की चिंता में
घोसलों के उजड़ने की पीड़ा क्यों नहीं होती हमें
3.
आँधी का अस्तित्व हमारे समाज में न हो
सबसे अच्छा यही है
हों भी तो कोई दिक्कत नहीं है
अनास्था के इस युग में आदमी होना सिखाती हैं आँधियाँ
तमाम समस्याओं में घिरे होने के बावजूद
नहीं छोड़ता कोई
अपने से दूर को
सबसे पास देखने और पाने से

4 comments:

अनीता सैनी said...


जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१५-०८ -२०२०) को 'लहर-लहर लहराता झण्डा' (चर्चा अंक-३७९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी

Anonymous said...

जी जरूर. हार्दिक आभार आपका

Sawai Singh Rajpurohit said...

बहुत खूब

मन की वीणा said...

बहुत सुंदर सृजन।
अहसास और संवेदनाओं का अप्रतिम संग्रह।