सुरेश सेठ की कविताएँ मृत बस्ती की ज़िन्दा आवाज़ हैं| श्मशान में तब्दील हो चुका परिवेश जागरूक और सक्रिय व्यक्तित्व की सहभागिता के लिए आशान्वित है| निष्कपट, निरछल जन के पक्ष में संवाद का आह्वान करती, बगैर किसी स्वार्थ के रची गयीं जरूरी और ज़िम्मेदार कविताएँ, इस कमी को पूरा करते दिखाई देती हैं| ‘नए दिन की तरह’ “उदासी जहां जीने का अंदाज हो/ और सिसकना एक आदाब/ जहां रोना एक रिवाज हो/ और चीखना एक पछाड़” वहां ज़िम्मेदारी के एहसास लिए बढ़ना, सोए हुए लोगों को जगाना और जागे हुए लोगों को उद्यम के लिए तैयार करना हर समय कठिन रहा है| सुरेश सेठ के भोर के स्वप्न में धन कुबेर बनने के स्वप्न नहीं हैं और न ही तो किसी प्रेमिका के आगोश में खोए रहने का कोई ख्वाब| उनके स्वप्न में “भयावह बाढ़ में डूबते लोगों की चीखें हैं/ जल के पागल प्रवाह में बहते/ मकान, दुकान, ढोर डंगर,/ और मरी फसलें हैं” इसलिए सबसे पहले वह इन्हें संतुलित देखने का स्वप्न लेकर चलना चाहते हैं| यही स्वप्न कविता का यथार्थ है और यही जिम्मेदारी भी|
यह सच भी है कि संकट के समय जिम्मेदारी का एहसास होता है| आप कह सकते हैं कि यह समय संकट का नहीं है लेकिन उनसे पूछिए जो घिरे हुए हैं| इतना तो हम सबको पता है कि आक्रान्ताओं की लगातार सक्रियता से बस्तियाँ बीरान हो जाती हैं| ज़िन्दा लोग मृतक-सा आचरण करने लगते हैं, ठीक ब्रेन-वास किये गये मानव-क्लोन की तरह| जिज्ञासाएँ तो होती हैं मन में लेकिन प्रश्न नहीं होते| समस्याओं से कहीं अधिक समाधान दिखाई देते हैं| अपने अपने सुरक्षित कोने, जहाँ संघर्ष से अधिक बचाव का मन्त्र-जाप किया जाता है| श्रम से अधिक भाग्य पर आश्रित रहा जाता है| श्रम पर विश्वास रखने वाले सुरेश मन्त्र-जाप की मण्डली में रहने से इनकार करते हैं इसलिए प्रश्नों का एक बड़ा जखीरा अपनी रचनाओं में लेकर चलते हैं|
इन प्रश्नों से बार-बार जूझते हैं| यह देखते हैं कि जितना
अधिक जूझ रहे हैं उतना ही अधिक प्रश्नों को अपदस्थ करने का षड्यंत्र रचा जा रहा
है| वह पूछते हैं “कब तक स्थगित होती रहेगी जूझने की यह संवेदना?” जिसका उत्तर नहीं मिलता उन्हें| नहीं मिलता उन्हें इसलिए कि “यह ज़माना
आपका नहीं उनका है/ जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी शासन हथियाने का/ अधिकार मिल गया है|”
किन्हें मिल गया है? जब यह प्रश्न आता है
तो सीधे तौर पर कवि कहता है “यह जमाना/ मछली का पेट चीर/ हैरोइन भरकर लाने वाले
तस्करों/ जूतों के खाली तलों में सरकारी खजाना समेटने/ वाले अधिकारियों/ कुर्सी को
अपनी बपौती समझने वाले जन नायकों/ के वर्चस्व के शुबहे का है/ बीस वरस बाद इस
शुबहे को जेल मिल जाये/ तो उसे राजनैतिक अदावत कह/ शहीदी जामा ओढ़ने वाले मार्ग
दर्शियों का है|” कवि को तस्करों से, वर्चस्व से, तथाकथित जननायकों से, मार्ग दर्शियों
से नफ़रत है| नफ़रत है सच के नाम पर झूठ का व्यापार करने वालों से|
नफ़रत है ऐसे कवियों और कलाकारों से जो कुशल नेतृत्व के संकट
से जूझते परिवेश में मुद्दों की बात न कर बूझ-बुझिया खेलने में अस्त-व्यस्त हो रहे
हैं| अपनों को गिराने-उठाने से अधिक यदि परिवेश की संगति-विसंगति पर ध्यान देते तो
न तो नेतृत्व का संकट खलता और न ही तो भविष्य के बंजर होने की सम्भावनाएँ तीव्रतर
होतीं| कई बार कवियों, विधाओं के प्रासंगिक-अप्रासंगिक होने की बात होती है| कई
बार समकालीन और यथार्थ के मुद्दों पर बहस होती है| लोग नहीं मानते| कवि मानता है|
उसका स्पष्ट कहना है कि “सुनो/ जब बादल घिरने पर/ तुम्हें अपनी प्रेमिका की केश
राशि नहीं/ कीचड़ सनी सड़कें दिखाई दें/ शहर छप्पड़ों में तबदील होते नजर आयें/ समझो,
तुम प्रासंगिक हो गए|”
प्रासंगिक और अप्रासंगिक का यह मुद्दा इसलिए जरूरी है यहाँ
कि तन्त्र से पूरी तरह बेदखल होते जिस लोक की योग्यता को सिनाख्त करने और पक्ष में
खड़े होकर उसे साहसिकता की प्रक्रिया में लाने की जरूरत दिखाई दे रही है, इधर के अधिकांश
रचनाकार उससे बचते प्रतीत हो रहे हैं| इससे भी बड़ी विसंगति की बात ये है कि जन के
पक्ष में आवाज बुलंद करने की अपेक्षा ये रचनाकार नकाब से ढंके चेहरों को न पहचानकर
उनके पक्ष में माहौल बना रहे हैं| माहौल की प्रवृत्ति ने मंच-माला की व्यवस्था तो
कर लिया लेकिन योग्यता और समझ आज तक विकसित न हो सकी| परिणाम आज पंजाब की हिंदी कविता आक्रोश से हटकर
चुहलबाजी में शामिल होती जा रही है|
सुरेश सेठ कविता में जन का पक्ष लेकर आते हैं तो पूरी गंभीरता
से उस तरफ सक्रिय रहते हैं| कवि के अपने समय की त्रासद स्थिति यह है कि “भरपेट भोजन कर्ज की झुर्रियों से भरा चेहरा बना,/ अधनंगा शरीर ढकने का सपना फुटपाथ पर काले आसमान की चादर
ओढ़कर सो गया/ अपने लिए मकान नहीं, एक घर बनाने का सपना/ कल उभरा आज जुमला हो गया|” स्वप्न और
जुमले के बीच का अंतर प्राप्त करने के लिए इस कवि-हृदय की तड़प देखिये|
कृति-प्रकृति के सम्मोहन से बाहर निकलकर जुमले की नीति पर प्रश्न-चिह्न लगाना आसान
कहाँ है आखिर? फिर भी वह जोखिम उठाता है और अच्छे दिन आएँगे’ जैसे वायवी स्वप्न के
समानांतर “वाजिब रोटी और उचित नौकरी/ की उम्मीद के बिना” ऐसे किसी झांसे में न आने
का संकल्प देते हैं|
यह कितने आश्चर्य की बात है कि कवि ‘जनता के समय’ की वापसी का इन्तजार कर रहा है और उसके अपने समकालीन ‘मौसम-गान’, ऋतु-गान’ और प्रणय-निवेदन में खप रहे हैं| कवि के सामने “मैले गंदले जल के पागल प्रवाह/ में डूबते लोग नंग धड़ंग हो गए/ उनके कपड़े लत्ते, ढोर डंगर सब बह गए/ बादल धारासार बरसते रहे/ अब लोग नहीं गा पाते/ बरखा रानी जरा जम के बरसो” जबकि यहाँ तो प्रेम-स्मृति में डूबकर लोग जुल्फों के साए और स्पर्ष के सुख के लिए परेशान हुए जा रहे हैं| ऐसे वासना-जनित लोगों के सामने ही “भूखों का जहां/ पकौड़े तल बेचने के लिए/ मुद्रा कर्ज योजना की जेब टटोलता है” और ये आलीशान होटलों में बैठकर खाने की रेसिपी सोशल मीडिया पर चस्पा करते हैं| कवि देखता है कि “गाय तस्करी के शुबहे में मारे गए/ रोटी तलाशते लावारिस लोग/ बाहर युग परिवर्तन का आह्वान/ कुछ निठल्ले लोगों का तकिया कलाम बन गया|” सवाल ये है कि ऐसे लोग हैं कौन?
ये वही कवि लोग हैं कि एक तरफ आम आदमी कोरोना के प्रकोप से
मर रहा है तो दूसरी तरफ ऐसे लोग अंतर्राष्ट्रीय काव्य मैराथन में दौड़ लगा रहे हैं|
एक तरफ युवा बेरोजगारी के जंजाल में उलझकर आत्महत्या करने के लिए विवश है और दूसरी
तरफ ऐसे लोग “तू-तू मैं-मैं’ की रश्म-अदायगी कर रहे हैं| यह समय ऐसा है जहाँ “एक
अच्छा भला तरोताजा सपना/ एक खांसते हुए बूढ़े में तबदील हो जाता है” वहीं एक
अच्छा ख़ासा जनकवि देह-दर्शन का अभिलाषी होता जाता है| यह भी एक समस्या है कि
विस्थापन और भूख का मंजर उनकी आँखों के सामने नहीं दिखाई दे रहा है| इसी प्रवृत्ति
को यह लोग ‘जीना’ कह रहे हैं-अपने हिस्से का अपना जीवन जीना| कवि इस प्रवृत्ति पर
सोचता है कि “क्यों न हम भी सपना सपना देखना छोड़/ जीना सीखें/ पानी बिना हाहाकार
प्यास/ लगातार बिजली कट में जीना” पर कवि ऐसा करता नहीं है| वह ज़िन्दा है तो
परिवेश के लोगों को भी जागरूक रखेगा| नागरिक अधिकारों को पूरे दम-खम से प्रस्तुत
करेगा| यह सुरेश सेठ को पता है कि किस तरह नागरिक अपनी पहचान के संकट से गुजर रहा
है-
“वह आदमी अपने जिंदा होने का प्रमाण मांगता है
जाली प्रमाण पत्रों के बाजार की रेल-पेल में
सही प्रमाण पत्र खो गये
रैलियों का कोलाहल है
विकास के जयघोष की शोभायात्रा है
इस शोभा यात्रा से
वह आदमी
अपने जिंदा होने का सबूत मांग रहा था,
मांग रहा है, मांगता रहेगा|”
ऐसे आदमी के पक्ष में कवि कल भी खड़े होते थे-निराला,
मुक्तिबोध, त्रिलोचन, नागार्जुन इसके प्रबल उदहारण हैं| आज भी खड़े हो रहे हैं-अरुण
कमल, मदन कश्यप, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, श्रीप्रकाश शुक्ल, सुभाष राय सरीखे कवियों
को पढ़ा जा सकता है और कल भी खड़े होंगे-प्रेम नंदन, अमरजीत राम, जन्सिता, गोलेंद्र
पटेल जैसे नविदित कवि जिस तरीके से सक्रिय हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है|
सुरेश सेठ जिन्दा होने का सबूत लिए ऐसे आदमी के पक्ष में पूरी गंभीरता से सक्रिय
हैं|
इसीलिए एक ज़िम्मेदार नागरिक मन में उठने वाले सभी प्रश्न इनके
यहाँ वर्तमान हैं| लावारिस होती बस्तियों की कथा और व्यापार-लाभ के आगे सिर झुकाए
खड़ी भूख की व्यथा, हमारे आपके सामने तांडव कर रही है| हम पक्ष-विपक्ष की
नीति-कुनीति में दर्शक की भूमिका में हैं| तालियाँ बज रही हैं और कुश्तियाँ लड़ी जा
रही हैं| हम दोनों के पक्ष में हैं दोनों के विरोध में हैं| हमारा अपना कोई पक्ष
नहीं है इसलिए हाशिए पर हैं| सभी के होते हुए भी लावारिसों जैसा व्यवहार किया जा
रहा है| उपेक्षा का दंश कौन नहीं भोग रहा है आज? यह विचार करने का नहीं खुली आँखों
से देखने का विषय है| सुरेश सेठ देख रहे हैं| “देश धनी देशों की कतार में आगे आ
गया/ अब अपनी भूख, अपनी प्यास स्थगित कर” विशेष प्रकार के पागलपन में परिवेश
डूबता जा रहा है| सुरेश एकला चलो की तर्ज पर कल्पना से बहुत दूर यथार्थ की ज़मीन पर
खड़े होकर व्यथाओं के नीचे दबे जन को उबारने की कोशिश कर रहे हैं|
वे देख रहे
हैं कि “फुटपाथ पर रेंगते/ मरते-जीते लोग/ राजपथ पर प्रवेश निषेध का दंश झेल
रहे हैं/ जनपथ पर उखड़ी सस्ते अनाज की दुकान/ धनी देशों की बदहजमी बन गई/ नौकरी
दफ्तर की बीमार खिड़कियों के बाहर/ बेकार चेहरों का हुजूम छटपटाता रहा” और हम
पक्ष-विपक्ष की रणनीति में चूहों की मानिंद अपने आशियाने को सुरक्षित रखने में
व्यस्त रहे हैं| जहाँ “भरपेट भोजन कर्ज की झुर्रियों से भरा चेहरा बना/ अधनंगा
शरीर ढकने का सपना फुटपाथ पर काले आसमान की चादर/ ओढ़कर सो गया/ अपने लिए मकान
नहीं, एक घर बनाने का सपना/ कल उभरा आज जुमला हो गया” वहां नए राजा को चुनने,
मूर्तिवत पूजने और पुराने को सम्मान देने की नीति पर हम संकुचित होते रहे| व्यक्तित्व-संकुचन
जितना अधिक सघन होता गया आम आदमी विकल्पहीन होता गया| “भूख से कुपोषित बालक का
चीत्कार/ व्यावसायिक घरानों के नक्कारखाने में/ तूती की आवाज बनता है तो बने”
हमें इससे क्या लेना-देना है? लेना-देना है तो महज व्यक्तिगत स्वार्थ से| आरामतलब
जिन्दगी को कोई जोखिम न उठाना पड़े इस प्रक्रिया से|
सुरेश सेठ
यदि उम्र के इस पड़ाव पर अभिव्यक्ति का खतरा उठा रहे हैं तो सीधा सा मतलब है कि वह
ज़िन्दा हैं और सोये हुए लोगों को ज़िन्दगी का पाठ सिखा रहे हैं| ऐसा होने में वे
सुनी सुनाई बातों पर विश्वास नहीं करते अपितु खुली आँखों से परिवेश की
संगति-विसंगति को देखते हैं| सभी समस्याओं की जड़ अंध-सत्ता है जिसके मद में
जन-जीवन असुरक्षित होता जा रहा है| यह सुरेश सेठ मानते हैं| सेठ के यहाँ स्त्रियों
का शोषण यदि हो रहा है तो उसकी भी वजह सत्ता है जिसका संरक्षण अपराधियों को
प्राप्त है|
पुरुष वर्चस्व के इस देश में स्त्रियों की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती| राजनीतिक सत्ता से लेकर पारंपरिक सत्ता तक का जो विधान है उसमें स्त्रियों को बंधक बनाकर रखा गया है| समझौतों की अनीच्छित चाहर्दीवारों को जिसने स्वीकार किया देवी कहलाई, जिसने नहीं किया उसे कुलनासिन की संज्ञा दी गयी| पुरुष-हृदय के सच को दिखाते हुए सुरेश सेठ का यह कहना एकदम जायज है कि-“तेरे घर में उसके लिए/ सतरंगे सपनों का प्राचीर नहीं/ समझौतों की ढलान है/ वह रपट गई तो आदर्श पत्नी कहलाई/ रपटते हुए उसांस भरने की जुर्रत की/ तो डार से बिछुड़ी कहलाई|” समझौतों के भी दायरे और सीमाएं होती हैं लेकिन स्त्रियों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है| “देखो, भूख से झुलसती आंतों के साथ/ जो लड़कियां मर रही हैं/ वे वात्त से तो नहीं मर रहीं/ नारी संरक्षण के मसीहाओं के लोभ से/ कुछ बेचारी जान से गईं/ तो ये बदहज्मी से तो नहीं मरीं” ये मरीं तो अपराधियों को मिलने वाले संरक्षण से| राजनीति के नाम पर गुंडा-नीति को लागू करती सरकारों की सक्रियता से|
यहाँ अधिकार न होकर रेप धमकी बलत्कार जैसे जघन्य अपराधिक घटनाएँ
स्त्रियों के लिए आरक्षित हैं| बाहर के लोग तो ऐसा कहते ही हैं
घर-परिवार-रिश्तेदार भी ऐसा कहते और करते हैं| विश्वास के दायरे में अविश्वास का
इतना बड़ा खेल किसी भयानक यंत्रणा से कम नहीं है स्त्रियों के लिए| परिवेश की
विद्रूपता में सड़ांध से परिपूर्ण यह वही देश है जहाँ “क्षुब्ध पति अपनी बीवी का
चकला चला/ उसे सामूहिक बलात्कार का नाम देता है/ दुष्कर्मियों के लिए मौत की सजा/ मांगने
का कोहराम/ रात के अंधेरे में/ लड़कियों को घर से बाहर न आने की सलाह/ बांटता है”
और हम हैं कि स्त्रियाँ अब पहले से कहीं अधिक सुरक्षित और स्वतंत्र हो गयी हैं, इस
बात के प्रचार प्रसार में व्यस्त हो गये हैं| “सपने देखना यहां भूतकाल था/ अब
अनाधिकार चेष्टा हो गया” यदि किसी ने यह चेष्टा किया भी तो हस्र वही होना है
जो आए दिन हम अखबारों में पढ़ते रहते हैं| कवि इन सभी स्थितियों के लिए सीधे तौर पर
राजनीति को दोषी ठहराता है| वह जानता है कि आम आदमी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह
रोजी-रोटी की स्थिति से ऊपर उठकर ऐसा सोचने के लिए तत्पर हो सके| पैसा और पैरवी है
राजनीतिज्ञों के पास तो यह सभी घटनाएँ उनके द्वारा प्रायोजित होती हैं| आप कवि की
इस कविता का अंश देखिये और सोचिये-
यहां लड़कियों की नहीं, देशभर की आंतें सूख गईं
आर्थिक विकास के दावे
सामाजिक कायाकल्प के नारे
इन आंतों में दवा के नाम पर
जहर बनकर उतरे
यहां केवल लड़कियां नहीं मरीं
अजन्मी इच्छाएं मर गईं
बूढ़े दारोगा ने इनके मुर्दा भ्रूणों
की खोज में निकलने से इन्कार कर दिया
पुलिस चौकियों में बंदों की कमी बताई
दिन दहाड़े सेंध लगती है, लगती रहे
केवल लड़कियां ही क्यों
देश की आधी आबादी
मुर्दो की इस बस्ती में
अपनी खोई जवानी तलाश करती है, करती रहे
जवानी तो धनी प्रासादों के
ऊंचे कंगूरों पर बैठी है
किसी चील की हिम्मत, उसे वहां से उतारे
यह चील सड़क पर पड़ी लाश देखती है
एक भीड़ इसे कुचलकर निकल गई
शोक प्रस्ताव ठट्ठा कर हंसे
उनके अट्टहास मौजूदा कानूनों में ठिठुरन भरते हैं
नये बनते कानूनों के हवाले पूस की पुरानी रात करते हैं
बूढ़ा दारोगा लाशों के जुलूस में शामिल नहीं हो सकता
चौकसी गृह में कानून के रखवालों की कमी हो गई है
चोर, बटमार, तस्कर, हत्यारे खुद पकड़ो
फिर लोकतंत्र की जय पुकारो
लेकिन ‘विकास’ को पैरोल पर रिहा न कर देना
रिहा हो गया तो अपनी रिहाई पर
राजनीति करेगा
भूख और बेकारी की राजनीति पुरानी हो गई
रिश्वतखोरी और घपलों के स्टिंग आपरेशन
तूतनखामन के पिरामिड बन गए
हरी घास पर क्षणभर के लिए सोया
सत्तापति उठता नहीं
सही है कि ‘स्त्तापति उठता नहीं’ आदेश देता है| इस आदेश के
दायरे में ही “बूढ़ा दारोगा लाशों के जुलूस में शामिल नहीं हो सकता/ चौकसी गृह में
कानून के रखवालों की कमी हो गई है” क्योंकि अपराधी उस स्त्तापति का घोषित एजेंट
होता है न कि कोई ग़ैर| ग़ैर होता तो सूली पर चढ़ा दिया जाता| कवि की दृष्टि में यदि
“भूख और बेकारी की राजनीति पुरानी हो गई” है तो रेप, अपहरण, बलात्कार की राजनीति
की जा रही है| इसे कौन समझेगा और कब समझेगा? सही अर्थों में अधिकांश लड़कियों का
बलात्कार हो नहीं रहा है अपितु करवाया जा रहा है| हरियाणा जाट आन्दोलन के समय की
राजनीति को इससे यदि जोड़कर देखा जाए तो बात कहीं अधिक गहराई से समझी जा सकती है|
यह जैसे सब को पता हो गया है कि भूख और गरीबी से कहीं अधिक रेप और बलात्कार की
घटनाएँ लोगों को आक्रोशित करेंगी| राजनीति महज आक्रोश का खेल खेलती है और हम सब
जलते हैं| परिवेश जलता है| लोक ठगा जाता है तन्त्र अट्टहास करता है| तंत्र की
बारीकियों पर सुरेश की पैनी नजर है| वह एक-एक पैंतरे को चुपचाप देख और समझ रहा है|
इस समझ में उम्मीदों का उभरना और खोना लगा रहता है| उम्मीदों के धुंधलके में कवि
इस सत्य से परिचित होता है कि-
“लोकतंत्र की थाप पर चुनाव धुंधुबी से
रौशनी का छद्म उत्सव बार-बार शुरू होता है
कोरड़ों मनों में न जाने कितने मांडू
उभरते हैं, ढह जाते हैं
उनके मैदानों में धारासार बारिश नहीं होती
हां, उसकी उम्मीद बार-बार उभरती है
खो जाती है|”
तन्त्र के जाल में लोक का यथार्थ हो चुका है ‘उभरना और
खोना|’ यहाँ प्रतिभाएं और सम्भावनाएं उभरती तो हैं लेकिन खो भी जाती हैं जल्दी ही|
क्यों? यही प्रश्न है जो किसी को भी बोलने और कहने से रोकता है| इस प्रश्न के
उत्तर में यदि कोई कुछ ढूंढकर लाता है तो उसकी प्रासंगिकता कविता की ज़मीन पर
शास्वत हो जाती है| सुरेश सेठ इसी प्रश्न की ज़मीन पर खड़े होकर जनता का पक्ष रख रहे
हैं और लगातार रख रहे हैं| उनकी सक्रियता से क्रांति और बलिदान की इस धरती के
उर्वर होने का संकेत मिल रहा है| जन के पक्ष में जीवन का उत्साह पुनः परिभाषित
होते दिखाई दे रहा है| इनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि राजनीति के आगे चलने
वाली कविता ही वह मशाल है, जिसकी परिकल्पना कभी मुंशी प्रेमचन्द ने की थी| जब मैं
कविता में अनुभव की बात करता हूँ तो उसका अर्थ यहाँ से समझा जाना चाहिए कि नवोदित
कवि जहाँ छंद के व्याकरण और लय का सूत्र खोजता फिरता है अनुभवी रचनाकार जीवन का
समीकरण सुलझा रहा होता है| ऐसी स्थिति में जब सभी व्यथित और समस्याओं में उलझे हुए
हैं तो सुलझाने का कार्य कवि और कविता के जिम्मे है|
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