Tuesday, 4 May 2021

पंजाब की हिंदी कविता : समकालीन परिवेश की यथार्थ भावभूमि

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कविता इस हद तक कमजोर और गैरजिम्मेदार हो सकती है कि समाज को विलासिता के गर्त में धकेल सकती है| इस हद तक दमदार और जिम्मेदारी से परिपूर्ण कि प्रमादी और नासमझ को भी कर्मयोगी बना सकती है| यह सब कवि-कर्म पर आधारित होता है| जिनमें सच कहने और परिवेश की यथास्थिति से प्रतिरोध करने का साहस होगा वही श्रम-साहस से परिपूर्ण रचनाओं का सृजन कर सकता है| जो भीरु, लोभी और लालच से भरा होगा उसकी कविताओं में न जन होगा, न जीवन और न ही तो समय-समाज| वह सारी युक्तियाँ जरूर शामिल होंगी जिनमें उसकी नाकाबिलियत, स्वार्थता और लोभी प्रवृत्ति का यथार्थ ठीक से दिखाई दे सके| पंजाब की समकालीन हिंदी कविता में इन दोनों प्रकारों की भरमार है| इक्कीसवीं सदी के इन दो दशकों की कविताओं का विश्लेषण करें तो यह परिदृश्य और अधिक स्पष्ट हो जाएगा| 

सजग और जिम्मेदार रचनाधर्मिता में शुभदर्शन, फूलचंद मानव, सत्यप्रकाश उप्पल, राकेश प्रेम, राजेन्द्र टोकी, बलवेन्द्र सिंह, कीर्ति केसर, राजवन्ती मान, बलवेन्द्र सिंह अत्री, अमरजीत कौंके, कमलपुरी, रमेश विनोदी जैसे रचनाकार आते हैं (दिवंगत हो चुके रचनाकारों के नाम इनमें शामिल नहीं हैं) तो निष्क्रिय रचनाकारों में मोहन सपरा, गीता डोगरा, धर्मपाल साहिल, कमलेश आहूजा, प्रोमिला अरोड़ा जैसे अन्य कई नामों का जिक्र (भीड़ बहुत है ऐसे रचनाकारों की) यहाँ पर कर सकते हैं जो मंच-माला-पुरस्कार के समीकरण को सुलझाने में अभी लगे हुए हैं| एक-दूसरे को उठाने और गिराने में मस्त और व्यस्त हैं| रचनात्मक सरोकारों से दूर व्यक्तिगत प्रशंसा-गान में संलिप्त ऐसे रचनाकारों की सक्रियता भी निष्क्रियता में तब्दील होकर समय और समाज को विवशता के कगार पर ला देती हैं|


ध्यान यह रहे कि निष्क्रियता का अर्थ यहाँ यह नहीं है कि ये लोग कविता लिख ही नहीं रहे हैं, इनकी कविताओं में वह जीवन्तता नहीं है जिनसे इन्हें गंभीरता की श्रेणी में रखा जाए| इसलिए भी क्योंकि यह जो समय चल रहा है, संयोग-वियोग, प्रेम-आदर्श को बखानने-दिखाने का समय नहीं है| त्रासदी से भयाक्रांत, सहमें जन जीवन की संवेदना को शब्द देने का समय है यह| ऐसे रचनाकारों को यहाँ इस लेख में विश्लेषण का विषय नहीं बनाया जा रहा है क्योंकि इनको कविता के समकाल की परख नहीं है| अतीतजीवी होकर महज स्वप्न-दर्शन में व्यस्त रहने वाले ऐसे रचनाकार जो कुछ इधर रच रहे हैं उनमें व्यक्तिगत आत्ममुग्धता के साथ-साथ वर्तमान परिवेश से अनभिज्ञता भी जग जाहिर है| फूल-पत्ते, वर्षा-बादल आदि में निमग्न रहने वालों से परिवेश के चित्रांकन की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती है|

ऐसे रचनाकारों के लिए इधर समय-समाज में क्या घटित हो रहा है, न तो इससे कुछ लेना देना है और न ही तो इससे कोई मतलब है कि, समाज में क्या होना चाहिए? दिखावे की रचनाधर्मिता में उलझे हुए ऐसे रचनाकार ‘कोरोना’ जैसी आपदा में ‘अवसर’ को भुनाने में लगे हुए हैं| जनता की यथास्थिति का मूल्यांकन करने की बात कौन करे, उन पर किसी को बोलते हुए भी नहीं सुनना चाहते| परिणाम यह निकलकर आ रहा है कि जिस परिवेश विशेष में ये रहते हैं वहां की रचनात्मक भावभूमि एक हद तक कमजोर और बंजर होती जा रही है| सच कहें तो लोकार्पण जैसी रवायतों में निमग्न रहने वाले ऐसे रचनाकारों ने पंजाब में जिस प्रकार की साहित्य-संस्कृति को विकासमान किया है, वह आने वाली पीढ़ी को कुछ देगी, इसमें शक है|

जो सजग हैं और जिम्मेदार हैं उनकी रचनाओं में समय और समाज का यथार्थ है| जन है, जीवन है| आपदा-विपदा को गंभीरता से लेते हुए सुख-दुःख को झेलने, समझने और अभिव्यक्त करने की समझ है| अपने समय का लोक है और लोकजीवन से जुडी स्मृतियाँ हैं| संघर्षरत जीवन है और जीवन में निमग्न रहने वाले कामगार लोग हैं| मिलों, फैक्ट्रियों, कारखानों में श्रमशील जनता की सम्भावनाएं हैं तो दूसरे प्रदेश से इस प्रदेश में आए लोगों की आशाएं और आकांक्षाएं हैं| राजनीति का कड़वा अनुभव है तो अर्थनीति में व्याप्त विसंगतियों की गहरी समझ है| किसान हैं, व्यापार है| कर्तव्य है तो अधिकार भी है| विश्व है, वैश्वीकरण है| सांस्कृतिक समृद्धि है तो विकृतियों का यथार्थ भी है| रचनागत स्वार्थ नहीं है, परमार्थ है जीवनगत|

यह सब होते हुए भी कई बार इनके नामों को दबाया जाता रहा है| इन पर चर्चा करने से बचते रहे हैं लोग| प्रचारतंत्र के इस युग में प्रकाशन-संसाधनों पर कब्ज़ा जिसका होता है वही इधर ‘बड़ा और जरूरी’ मान लिया जाता है| सच इसके विल्कुल विपरीत है| ऐसे कई रचनाकार हैं यहाँ पर जो तथाकथित ‘बड़ों’ की चुप्पी की वजह से हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं| समकालीन पत्रिकाओं के ‘बड़े स्तर’ से ठुकराए गए ऐसे रचनाकार क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं के ‘गुट-सम्पर्क’ से भी निर्वासित रहते हैं|

कुछ ऐसे रचनाकार ऐसे भी हैं जो छपास-संस्कृति के विल्कुल बिपरीत हैं| कविताएँ लिखी और लिख कर रख दिया| उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य न तो इधर के संपादकों ने की और न ही तो प्रकाशकों ने| पंजाब की उर्वर कविताई का आंकलन उम्र, सम्पर्क, भावुकता की बनावटी दुनिया को तोड़कर सच, सार्थक और वास्तविक रूप में हो सके, वर्षों से नेपथ्य में धकेले गए विचारों, रचनाकारों की सार्थकता को व्यापक पाठक वर्ग तक लाया जा सके, यही इस लेख का प्रदेय है|  


2 comments:

SANDEEP KUMAR SHARMA said...

ऐसे कई रचनाकार हैं यहाँ पर जो तथाकथित ‘बड़ों’ की चुप्पी की वजह से हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं| समकालीन पत्रिकाओं के ‘बड़े स्तर’ से ठुकराए गए ऐसे रचनाकार क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं के ‘गुट-सम्पर्क’ से भी निर्वासित रहते हैं| कुछ ऐसे रचनाकार ऐसे भी हैं जो छपास-संस्कृति के विल्कुल बिपरीत हैं| कविताएँ लिखी और लिख कर रख दिया| उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य न तो इधर के संपादकों ने की और न ही तो प्रकाशकों ने|

ये वाकई मौजूदा दौर पर खरी-खरी है...। नए और पुराने लेखकों के बीच अब खाई है जो पैदा हो गई या की गई पता नहीं लेकिन ये पाटना आसान नहीं है। आपने बहुत गहन लिखा है।

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

बहुत आभार सर आपका| आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है|