Friday, 4 June 2021

एक झूठ छिपाने के लिए सौ झूठ बोलना पड़ता है (साहित्यिक हादसों का शहर, जालंधर)


साहित्यकार से किसी भी बात की अपेक्षा नहीं होती है सिवाय नैतिकता के| नैतिकता ही वह स्थिति होती है जिसके केंद्र में रहते हुए वह अपना लेखन कार्य करता है| गलत को गलत और सही को सही अपने नैतिक मापदंडों के आधार पर ही वह दिखाता है| नैतिक मापदंड हर लेखक के अलग-अलग जरूर होते हैं लेकिन ईमानदारी की बात सबके लिए एक-जैसी होती है| यह लेखक की ईमानदारी का ही प्रभाव होता है कि, साक्ष्य के लिए जब कुछ नहीं मिलता तो व्यक्ति समय विशेष से सम्बन्धित रचनाकारों के पास जाता है| उन्हें ढूंढता है| उनकी रचनाओं के पन्ने-दर-पन्ने पलटता है| रचनाओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करता है तो सामने वाला यह मानने पर विवश होता है कि वहां कुछ कहा गया है| संग्रहकर्ता या खोजकर्ता उनके पास पहुँच कर कुछ जानने और समझने का प्रयास करता है| इस प्रयास में पाठक या खोजकर्ता ऐसा बहुत कुछ प्राप्त करता है, जो उसे दिशा देते हैं| सीखता है बहुत कुछ जो आगे चलकर समाज में पुनः उस सीखे हुए का व्यावहारिक प्रयोग करता है|

पाठक जिस समय किसी रचनाकार को पढ़ रहा होता है उस समय उसके द्वारा गढ़े चरित्र, परिवेश उसे प्रभावित करते हैं| उसके प्रभाव में कई बार वह वैयक्तिक आचरण भी कर बैठता है| यदि पात्र गलत है, मर्यादित नहीं है तो पाठक सहजतः वही मार्ग अपनाएगा| फिल्मों से लेकर उपन्यासों और महाकाव्यों
के पात्रों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है कि दर्शक या पाठक नायक की भूमिका को अधिक वरण कर रहा है| खलनायक को वह मार-पीट रहा होता है| भला-बुरा कह रहा होता है| हर क्षण हर गतिविधि के लिए कोस रहा होता है| इतना कि जैसे नायक या नायिका पर घटित होने वाली हर यातना उसके अपने ऊपर घटित हो रही हो|

नायक का जो चरित्र होता है दरअसल उसमें लेखक-चरित्र का अधिकांश शामिल होता है| यदि यह कहूँ कि लेखक जैसा होगा उसकी रचना का नायक भी कमोबेस वही या वैसा ही होगा, तो शायद गलत न हो| पाठक पर इसका प्रभाव यदि देखना हो तो बच्चों के अभिनय पर ध्यान देना चाहिए| संवेदनात्मक झुकाव हर समय नायक के ही पक्ष में रहता है क्योंकि नायक नैतिक, ईमानदार और आदर्श-चरित्र के रूप में दिखाया जाता है| सब कुछ छोड़ देगा वह लेकिन नैतिकता को न तो कुंठित होने देगा और न ही तो चरित्र-पतन में भागीदार होगा| हर सम्भव प्रयास करके उसे मजबूत बनाता है और प्रेरणा रूप में प्रस्तुत कर लोक-समृद्धि में अपना योगदान देता है| आप उदहारण के लिए राम के चरित्र को देख सकते हैं| कृष्ण के चरित्र को देख सकते हैं| कर्ण और अर्जुन के साथ-साथ एकलव्य और शम्बूक के चरित्र का मूल्यांकन कर सकते हैं| शम्बूक और एकलव्य का अभिनय जब भी हमारे सामने आता है हम राम और द्रोणाचार्य को खलनायक के रूप में घिरा पाते हैं| खैर...अधिक विषयांतर न हो इसके लिए पुनः उन्हीं प्रसंगों पर वापसी करते हैं|

रचना-प्रक्रिया से कहीं अधिक उलझा व्यवहार होता है लेखक-धर्म के निर्वहन का| जिस लेखक को आप कई बार भगवान् का रूप मान रहे होते हैं वह निकृष्टतम व्यवहार करता हुआ दिखाई देता है| जिसे आप गलत समझ रहे होते हैं वह सही कार्य करता हुआ दिखाई देता है| देखने और समझने लायक स्थिति यह भी होती है कि क्या लेखक उन मूल्यों पर अडिग रह पाता है जिनकी पैरवी वह अपनी रचनाओं में कर रहा होता है? इस पर थोड़ी देर ठहर कर सोचिए| निर्णय लेने की बहुत अधिक जल्दबाजी नहीं है| त्वरित निर्णय लेना अधिकांशतः हानिकारक होता है| हानिकारक, कोई स्थिति हो या वस्तु, अपने लिए जितना नुकसानदायक दायक होती है परिवेश के लिए उतना ही खतरनाक| इसलिए ऐसे विषयों पर त्वरित निर्णय लेकर जजमेंटल होने से बचना चाहिए| कोशिश भी करें बचने की तो क्या गलत है?

लेखक-व्यवहार से जुड़े जब आप इन सभी मुद्दों पर संवाद कर रहे हैं तो लेखक के दैनिक अभिरुचियों की तरफ ध्यान लगाइए| यह फेसबुक और व्हाट्सएप का ज़माना है| यहाँ सिर्फ ‘रचना से मतलब रखिये’ जैसे आदर्श भाव अब नेपथ्य में चले गए हैं| सब कुछ अनावरण है| कुछ भी नहीं छिपा है| लेखक अपने लेखकीय कर्तव्य के प्रति कितना सजग और समर्पित है यह सब उसके सोशल मीडिया से देखा-समझा जा सकता है| यहीं से उसका व्यवहार बोलेगा और यहीं से पता चलेगा कि वह संवेदनशील कितना है? एक मजे की बात तो यह है कि संवेदनशीलता की परिकल्पना फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर आप रचनाकारों से नहीं कर सकते हैं| वह बहुत ही आत्ममुग्ध और अवसरयुक्त दिखाई देगा|

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थोड़ा इन सबसे आगे बढ़कर बात किया जाए तो, इधर कुछ दिन से ऐसा आभास हो रहा है मुझे कि हर वर्ग का अपना एक जातीय वर्ग होता है| इन जातीय वर्गों के मध्य रहते हुए आप पाते हैं कि जैसे-जैसे समझदारी बढ़ती है रचना-तन्त्र का उलझा हुआ रूप आपको और अधिक उलझाने लगता है| ‘तन्त्र’ सिर्फ राजनीतिक दलों के ही नहीं होते हैं, साहित्यिकों के भी होते हैं| समय-समय पर उनके चुनाव कराए जाते हैं| योग्य और अयोग्य की भर्तियाँ और छंटनी होती है| जो अयोग्य होते हैं उन्हें रखा जाता है| योग्य जो होते हैं उन्हें समझदार कहकर बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है| जिस तरह से राजनीतिक दलों में ईमानदार और समझदारों के लिए जगह नहीं होती ठीक उसी तरह साहित्यिक दलों में ईमानदारी की कोई गुंजायश नहीं होती है| जो ईमानदारी का पक्ष लेता है वह या तो ठिकाने लगा दिया जाता है या फिर विधिवत बाहर कर दिया जाता है| यह इसलिए सम्भव हो पाता है क्योंकि राजनीतिक तन्त्र की भाँति साहित्यिक तन्त्र में भी उनके अपने गुर्गे, लठैत, चौकीदार होते हैं| एक सज्जन आदमी के लिए जितनी विशेष उसकी अपनी इज्जत है, संसार की कोई भी वस्तु या स्थिति उसके बराबर नहीं है| साहित्य में जमकर लूट होती है और सज्जन चरित्र अपने को बेदाग़ रखने के लिए मौन हो वह सब कुछ देखता रहता है|   

ईमानदारी और नैतिकता की बात करें तो साहित्यकार दुनिया को गाली देता है| प्रधानमंत्री को गाली देता है| राष्ट्रपति को देता है गाली| राजनीति, समाज, अर्थ सबको संस्कार का पाठ पढाता है| पाठक अभिभूत होता है| अपनी किसी भी रचना में रचनाकार भ्रष्टाचार को जड़ से फेंकने की बात करता है तो हम सबकी आँखें सजल हो उठती हैं| किसी के दुःख पर रोना रोता है तो हम सब द्रवित हो जाते हैं| सामंजस्य, समन्वय, भाईचारा और विश्वबन्धुत्व की बात जब भी करता है, हम समर्पित होकर उसके चरणों में बिछ जाते हैं या बिछने का मन करने लगता है| हम यह प्रायः सोचते हैं कि इतनी सदाशयता वह लाता कहाँ से है? इतनी विनम्रता और विनयशीलता वह पाता कहाँ है? हम यह सब तो सोचते ही हैं, यह भी सोचते हैं कि वह कितना असाधारण है हम साधारण लोगों की अपेक्षा|

सोचना चाहिए और एक हद तक होता भी है लेकिन इस सोच में अक्सर यह भूल जाते हैं कि साहित्यकारों की अपनी परेशानी और अपनी कुंठाएं होती हैं, जिनसे वे ज़िन्दगी भर बाहर नहीं निकल पाते हैं| कई बार ऐसे रचनाकार चेतनाशील समाज के स्थान पर कुंठाग्रस्त समाज का निर्माण कर बैठते हैं| वे स्वयं तो कुंठा और संत्रासग्रस्त जीवन जी ही रहे होते हैं परिवेश को भी उसी के दायरे में लाकर खड़ा कर देते हैं| ऐसा कैसे और क्यों होता है, सबसे पहले तो यही विमर्श का विषय होना चाहिए| हुआ भी है कई बार ऐसे विषयों पर विमर्श| सही अर्थों में मुझे लगता है कि हर एक नगर, गाँव और महानगर में ऐसा होना चाहिए ताकि लोगों को पता चल सके कि साहित्य और साहित्यिक मूल्य क्या होते हैं? फेसबुक ने साहित्य से तो बहुतों को परिचित करा दिया लेकिन साहित्यिक मूल्य क्या होते हैं, इससे अभी अनजान ही रखा हुआ है|

जब तक कोई विमर्श सुचारू रूप से शुरू हो ऐसे विषयों पर, तब तक फिलहाल हमें बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है| विषय हमारे आपके आस-पास हैं तो उदाहरण भी छिटके पड़े हुए हैं| जरूरत है तो खुली आँखों संज्ञान लेने की| यदि आप ऐसा करना ही चाहते हैं तो आप ध्यान दीजिये रचनाकारों के दैनिक साहित्यिक घटनाओं पर| जब आप ऐसा करना शुरू करेंगे तो अक्सर पायेंगे कि वह जितने भी कार्य करता है उनमें से अधिकांश गलत और गैर-जिम्मेदार कार्य करता है| जिन संस्कार, नैतिकता, ईमानदारी, मर्यादा और समझदारी की बात वह करता है और जिसकी अपेक्षा दूसरों से करता है, वह उसमें खुद गायब मिलेगा| एक हद तक पात्र उसके नैतिक होंगे लेकिन वह अनैतिकता का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा| प्रमोशन और प्रचार के लिए वह सब कुछ करता हुआ मिलेगा जिसकी अपेक्षा यह लोक कभी नहीं करेगा उससे|

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तन्त्र के अपने पक्ष और विपक्ष हैं| विपक्ष का समर्थन करने वाले कभी भी पक्ष के सही कार्य को मान्यता नहीं देंगे और न ही तो विपक्ष के सवालों को पक्ष कभी जायज मानेगा| दो में से एक सच बोल रहा होता है लेकिन सच पर पर्दा डालने का कार्य उन्हीं में से एक द्वारा पूरे दल बल से किया जाता है| यह सभी जानते हैं| हम भी और आप भी| साहित्य का संवाद पक्ष राजनीति का कब पक्ष और विपक्ष बन गया, हम आप आज भी उसके सूत्र को खोज रहे हैं| विचार और विचारधाराओं की लड़ाई एक अलग मुद्दा है यहाँ| ऐसा होना चाहिए| विचारधाराएँ सामाजिक चेतना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं| उन पर लड़ना समय और समाज के लिए जागरूक होना है| समस्या तब आती है जब पूरे परिवेश में ऐसे मुद्दों पर मौन दिखाई देता है| आप चाहें भी तो कोई संवाद करने वाला नहीं है| ऐसा शायद इसलिए है कि साहित्यकार का लबादा ओढ़े लोग साहित्य के लिए नहीं नाम-इनाम और व्यापार के लिए आगे आए हुए लोग हैं|

ऐसे लोग कहीं भी हो सकते हैं| इनका प्रसार अधिक दूर तक नहीं होता| जैसे राजनीति में मुंह लगे हुए सड़कछाप कुछ गुंडे होते हैं, साहित्य में भी पुरस्कार छाप लेखक| एक समय के लिए ऐसा कहना आप अनुचित समझ सकते हैं, लेकिन माफ़ करना इससे अधिक उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं है| व्यवहार का आचरण वहीँ शोभा देता है जहाँ कुछ आचरणवान लोग रहते हों| जब भौकाली लोगों की भीड़ होगी तो भाषा भी अपना स्वरूप बदल रही होगी| यहाँ सच बोलने वाला घेरा जाता है| लांछित किया जाता है| परिवेश के लिए खतरा बताया जाता है| मजे की बात तो यह है कि बगुले हंस का चोला ओढ़ कर नृत्य करते हैं, मुर्गे शेर की खाल ओढ़कर बांग देते हैं| परिवेश फिलहाल सब जान रहा होता है लेकिन नक्कारों की भीड़ जुट कर कुछ अच्छा करने वालों का मजाक उड़ाती है|

आप सोच रहे होंगे कि ऐसा आज क्यों कहा जा रहा है? क्यों आक्रोश व्यक्त किया जा रहा है साहित्य और साहित्यकारों के प्रति? तो सोचने से पहले अपने परिवेश पर नज़र दौड़ाइए और देखिये कि कहीं नौटंकी के कुछ जोकड़ रामलीला के पात्र का अभिनय तो नहीं कर रहे हैं? देखिये कि परिवेश का विदूषक राजा का वस्त्र धारण कर किसी पर आदेश तो नहीं चला रहा है? देखेंगे तो सब दिखेगा| जब दिखेगा तो पायेंगे कि यही साहित्य का समकाल है| यहाँ जो जितना बड़ा भ्रष्ट और निकृष्ट आचरण साहित्य-समझ की कर सकता है, पूजा जाता है, बड़ा माना जाता है| नहीं मानता कोई तो मनवाया जाता है| व्यक्तिगत अनुनय-विनय से मान गए तो ठीक है नहीं तो लाव-लश्कर से कहलवाकर मनवाया जाता है| फिर भी नहीं माने तो लठैतों को लगाया जाता है| फिर भी यदि किसी रूप में आप आनाकानी किये तो आप के खिलाफ प्रोपोगेन्डा फैलाकर बदनाम किया जाता है|

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जालंधर के साहित्यिक गलियारे में इन दिनों कुछ ऐसा ही हो रहा है| साहित्य की जितनी भी रीतियाँ नीतियां थीं सब को ताक पर रख कर कार्य हो रहा है| नैतिकता को उसके हद तक जाकर कुंरेदा जा रहा है| इतने अदिन आ गए हैं यहाँ के कि एक पुस्तक के दसियों बार लोकार्पण करवाया जा रहा है


और हर वर्ष नयी पुस्तक बताकर उसका प्रकाशन करवाया जा रहा है| मजे की बात यह है कि पुस्तक फिर भी प्रकाशित नहीं होती है| पीडीऍफ़ बाँट दी जाती है| भाड़े के समीक्षक उस पर अपनी विद्वता दिखाकर फेसबुक पर भी टांग देते हैं| कोई ईमानदार जब इस पर प्रश्न उठाता है तो दूसरी तरफ शांति दूत भिजवाकर यह कहलवाया जाता है कि “वे जो कर रहे हैं करने दो, आप से क्या लेना है?” अरे भाई ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें करने से पहले कम से कम साहित्य-परम्परा का अध्ययन ही कर लिए होते एक बार?

हमारे यहाँ फगवाड़ा के कुछ ऐसे तथाकथित साहित्यकार हैं जिन्हें पुस्तकों, साहित्यिक गतिविधियों आदि पर की जाने वाली धांधलियों पर टिप्पणी करना अच्छा नहीं लगता| इनका मानना है कि साहित्यकार जो भी करे उस पर किसी को कुछ भी बोलने का अधिकार नहीं है| अरे भाई उन पर बोल ही कौन रहा है आखिर? बोला तो जा रहा है उनके द्वारा फैलाई जा रही कुप्रवृत्तियों पर| उन मूर्खताओं पर जिनसे पंजाब के हिंदी साहित्य पर कुप्रभाव पड़ रहा है| यह मानने की बजाय मूर्ख भजन-कीर्तन की मंडलियों को बुलाकर पक्ष में पोस्ट डलवाया जाता है|

बड़े और बुजुर्ग कवियों में शुमार मोहन सपरा पर बड़े और बुजुर्ग आलोचक तरसेम गुजराल एक पुस्तक


लिखते हैं “मोहन सपरा का काव्य-पथ|” इसका लोकार्पण 2 नवम्बर 2017 को सैकड़ों लोगों की रहनुमाई में किया जाता है| पुस्तक क्या पता कुछ लोगों के घर हो भी| इसकी फोटुएं हमारे पास हैं| अखबार की खबर है जो स्वयं मोहन सपरा जी जारी किये हैं| आलोचक महोदय जून 2018 की एक पोस्ट में इस पुस्तक के प्रकाशित होने की खबर अपने वाल पर लगाते हैं| इसका भी स्क्रीन शॉट हमारे पास सुरक्षित है| मोहन सपरा अपनी पुस्तक “रंगों में रंग प्रेम रंग” के कवर पेज पर 2020 में उसे प्रकाशित हुआ दिखाते हैं| यह उनके सद्यः प्रकाशित पुस्तक में देखा जा सकता है| मई 2021 में

आस्था प्रकाशन, जो स्वयं मोहन सपरा जी संचालित कर रहे हैं,  द्वारा घोषणा की जाती है कि यह पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होने वाली है| आलोचक तरसेम जी द्वारा भी इसे अच्छे से साझा किया जाता है| कवि मोहन सपरा 55 वर्ष की मित्रता का हवाला देते हुए इसे अपने जीवन की उपलब्धि ही नहीं अपितु आलोचक की सदाशयता भी बताते हैं अपने फेसबुक वाल पर|

मैं इस बात का संज्ञान लेता हूँ और उसे फेसबुक पर लगाता हूँ| यह मांग करते हुए कि ऐसी परम्परा का संचालन करना सर्वथा साहित्य के लिए उचित नहीं है| मोहन सपरा के बहुत ही नजदीकी जवाहर धीर जी का फ़ोन आता है और वह यह कहते हुए मुझे पोस्ट हटाने की अपील करते हैं कि “ऐसा पंजाब का माहौल कभी नहीं था|” यह वही जवाहर धीर हैं जो अभी भी नहीं मानने के लिए तैयार हैं कि 2017 में पुस्तक लोकार्पित हुई थी जबकि साक्ष्य के रूप में फोटो उनको पहले ही भेज दिया जाता है| वे नहीं मानते और फेसबुक पर विदूषकों की तरह आचरण करते हुए दिखाई देते हैं, पोस्ट एडिट करते हैं|  

जालंधर के ही बड़े और बुजुर्ग उपन्यासकार अजय शर्मा जी एक शिरोमणि साहित्यकार द्वारा दूसरे शिरोमणि साहित्यकार पर लिखी पुस्तक को उपहार रूप मानते हुए पंजाब की हिंदी आलोचना में अभिवृद्धि बताते हैं| पुस्तक सम्बन्धित सम्पूर्ण घटनाक्रम इन्हें अच्छी तरह से पता होता है| हंसी तब आती है जब जालंधर के वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश सेठ पर लगातार फब्तियां कसने वाले और तरसेम गुजराल की अनुवाद प्रक्रिया से जुड़े मुद्दे पर सम्पादकीय लिखने वाले सम्पादक अजय शर्मा कवि बलवेन्द्र सिंह अत्री को मित्रता का लिहाज देते हुए मोहन सपरा का सपोर्ट करने की अपील करते हैं| इनका एक पोस्ट की टिप्पणी में कुछ ऐसा लिखना कि क्या साहित्य में हर जगह अच्छा ही हो रहा है, और फिर मोहन सपरा जी की इस मूर्ख कृत्य का समर्थन करना साहित्यिक अधोपतन की हकीकत को बया करती है|

कुछ ऐसे लोग, जिनका न साहित्य से कुछ लेना देना होता है और न ही तो साहित्यिक परंपरा से, कवि मोहन सपरा के पक्ष में अपील करते हुए उनके द्वारा किये गए निहायत ही गलत कार्य के लिए प्रशंसा पढ़ते हैं, फेसबुक पर पोस्ट लगाते हैं| नौटंकी के जोकड़ों की तरह समर्थन करते हैं जो निहायत ही


बचकाना प्रदर्शन है| जिसे यह मामूली घटना और भूल चूक लग रही है उन्हें नहीं पता कि ऐसा जानबूझ कर किया गया है| बड़े कार्यक्रम में लोकार्पित पुस्तक के विषय में किस रचनाकर को नहीं याद होगा भला? यह प्रश्न मुझसे नहीं उनसे पूछिए जिन्होंने यह हरकत की है| मेरे द्वारा जब संज्ञान में लाया गया तो कवि और आलोचक को यह गलती स्वीकार करने की बजाय समर्थकों द्वारा लड़वाने का प्रयास किया गया; कम से कम यह तो साहित्यिक नैतिकता नहीं है न? अगर नहीं है तो गलत को गलत कहने में कैसी शर्म? कैसी विवशता? मित्रता को निभाने के लिए जरूरी तो नहीं कि सामने वाले को मूर्ख बनाया जाए| और उसे जो पूरे साक्ष्य के साथ तैयारी में बैठा हो जवाब देने के लिए?

मुंशी प्रेमचंद ने पञ्च परमेश्वर कहानी में कहा है “क्या बिगाड़ की डर से ईमान की बात न करोगे बेटा?” तो बिगाड़ के डर में जब जुम्मन शेख और अलगू चौधरी एक दूसरे का बचाव नहीं करते तो क्या आप सबने यह भी नहीं सीखा? या फिर प्रेमचंद को कभी पढ़ा नहीं है? ध्यान दीजिये आपकी बचकानी हरकतें आपको सवालों की खराद पर जकड रही हैं| आप इतिहास के पन्न्नों पर दर्ज हो रहे हैं| आपकी कायरता, आपकी दलाल मानसिकता लगातार शक के दायरे में है| समय जब प्रश्न पूछेगा तो बगल भी झाँकने लायक नहीं रहोगे| किस मुंह से बोलोगे यह सोचते हुए भी शरीर काँप जाएगा| यदि थोड़ी भी लज्जा बची होगी तो आज के बाद कहीं भी अपराध और भ्रष्टाचार का विरोध तुम सब नहीं करोगे| ऐसा करोगे तो तुम्हारी हरकतें तुमको कोसेंगी| मेरा क्या...मैं यहाँ की दकियानूसी मानसिकता पर नहीं भी कुछ लिखूंगा/बोलूँगा फिर भी सिर उन्नत रहेगा, नत न होगा| न तो मेरे हौशले आप गिरा सकते हो और न ही तो मुझे मेरे कर्तव्य-पथ से डिगा सकते हो लेकिन ध्यान रहे एक झूठ छिपाने के लिए सौ झूठ बोलना पड़ता है| साहित्य सच का यथार्थ है झूठ का मुलम्मा नहीं| यह जितनी जल्दी समझ लोगे हितकर रहेगा सभी के लिए| परिवेश और समाज के लिए भी यह शुभ-शुभ होगा|


(जालन्धर के वरिष्ठ कवि मोहन सपरा जी मेरे दुश्मन नहीं हैं लेकिन साहित्यिक नैतिकता को उन्होंने अहमन्यता में आकर ताक पर रखा इसलिए ये विचार रखना पड़ रहा है| हमें सम्बन्ध भी प्रिय है लेकिन उसके लिए गलत परम्परा स्वीकार नहीं है, न ही होगा कभी|)

2 comments:

रूपसिंह चन्देल said...

साहित्य सच का यथार्थ है झूठ का मुलम्मा नहीं---पूरी तरह सहमत हूं। आज का पाठक बहुत जागरूक है। सब समझता है।भले ही आपने आलेख के केन्द्र मे जलंधर लिया लेकिन साहित्यिक मारामारी सर्वत्र है। नाम हटा देने पर वर्तमान परिदृश्य पर सार्थक बहस की पहल करता हुआ आलेख है। बधाई।

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

बहुत आभार सर| जल्द ही यह एक लेख के रूप में आपके सामने होगा|