Sunday 7 August 2022

कोरोजीवी कविता और प्रेम का सन्दर्भ


1.

‘प्रेम’ हिंदी कविता के हर आन्दोलन के लिए पर्याप्त चर्चा का विषय रहा है| रूप और स्वरूप में परिवर्तन जरूर होता रहा है लेकिन विद्यमानता पूरी ठसक के साथ रही है| आदिकाल से लेकर समकालीन कविता तक जितनी चर्चा इस विषय पर हुई, शायद ही किसी मुद्दे पर हुई होगी? आज भी विद्वत मण्डली इसी एक विषय पर जब इकठ्ठा होती है तो लगता है जैसे पूरा परिवेश सबसे सुंदर, स्निग्ध और सौम्य लगने लगा है| जैसे पूरी दुनिया में अब घृणा आदि के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं बचा है| वैसे तो कुछ प्रेम को अध्यात्मिक चश्मे से देखते हैं तो कुछ शारीरिक और नितांत भौतिक| मानवीय और संवेदना-स्तर भी कुछ हद तक प्रेम-प्रारूप में निर्मिति खोजता है| यही प्रेम वस्तुतः कोरोजीवी कविता का आधार है| मजे की बात ये है कि यहाँ दुश्मनी में भी प्रेम के अंश वर्तमान रहते हैं और घृणा में भी प्रेम स्थायित्व के साँचे में ढला होता है|

मैं जब कभी इस विषय पर गंभीरता से विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि घृणा और प्रेम समाज के दो स्थाई विषय रहे हैं| दोनों का स्थान हृदय में सुरक्षित रहता है| जरूरी नहीं कि हर किसी का भाव एक जैसा हो| कभी प्रेम है किसी के प्रति तो किसी के प्रति घृणा भी है| जिससे आप प्रेम करते हैं उसी से कोई अन्य घृणा भी करता है| अमूमन तो घृणा के रास्ते प्रेम की दुनिया में पदार्पण होता है| कहने को आप यह भी कह सकते हैं कि प्रेम के रास्ते घृणा की दुनिया में पदार्पण होता है| एक के होने से ही दूसरे की वर्तमानता संभव है ठीक उसी तरह जैसे पाप और पुण्य| दिन और रात| उजाला और अँधेरा|



प्रेम में आसक्ति और आकर्षण विशेष रहा है| चंदरबरदाई, मलिक मुहम्मद जायसी से लेकर घनानंद आदि से होते हुए अशोक वाजपेयी और उनके बाद के ‘प्रेम’ कवियों तक देखेंगे तो यही पायेंगे| कुछ अन्य कवियों को थोड़ी देर के लिए छोड़ दें जैसे केदारनाथ अग्रवाल, तो मांसलता के करीब-करीब आकर सभी देह-गेह में अपना आशियाना खोजने लगते हैं| उसी को स्वर्ग और फिर उसी को मुक्ति से जोड़कर दार्शनिक होने का भ्रम भी पाल लेते हैं| इसी रास्ते हिंदी कविता में प्रेम कभी-कभी एक ‘घटना’ के रूप में चित्रित होने लगता है| विशेष कर इधर की हिंदी कवयित्रियों के यहाँ| जब तक तो घटना की आशंका रहती है तब तक वह चेतना में आकर स्वतंत्रता का झंडा बुलंद करने में व्यस्त हो जाती हैं और फिर पता चलता है कि क्रूर अतीत को कोसने और वर्तमान में कुंठायुक्त होकर कुढने के अतिरिक्त प्रेम उनके लिए कुछ रह भी नहीं जाता|

          कोरोजीवी कविता में ‘प्रेम’ वासना नहीं है| न ही तो देह-गेह में प्रवृत्त होकर ‘बर्बाद’ होने या कर देने की नीयति है| वास्तविकतः प्रेम की कोई सीमित परिधि भी नहीं है कि परिक्रमा करके सिद्धि प्राप्त की जा सके| इह लोक को त्यागकर परलोक को प्राप्त करने की लालसा भी नहीं है| यहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच स्त्री को माया मानकर ठुकराने की जड़ता भी नहीं है तो कम-उम्र पर लोभित होकर स्त्री-जीवन को नरक बनाने की अनाधिकारिक चेष्टा भी नहीं है प्रेम| प्रेम यहाँ आकर अपने पुराने स्वरूप को उतारता है और सर्वथा नवीन होकर विस्तार पाता है| कोरोनाकालीन परिवेश का प्रभाव कोरोजीवी कविता की स्थाई विशेषता है तो बदले हुए परिवेश में नवीन दृष्टि-सक्षमता इस प्रकार के प्रेमान्कुरण में सहायक सिद्ध होती है|


कई जगह प्रेम को एक अचानक ‘घटित’ होने वाली प्रक्रिया के रूप में लिया जाता है लेकिन कोरोजीवी कविता में प्रेम ‘घटना’ नहीं है| मानवीय ‘स्वभाव’ और सामाजिक ‘व्यवहार’ है| यह आप कह सकते हैं कि मानवीय स्वभाव का हिस्सा सब कुछ है तो ऐसा नहीं है| प्रकृति की निर्मलता और परिवेश के प्रति संलग्नता ठीक तरीके से मानवीय स्वभाव है शेष जो भी है वह थोपा गया है, बनाया गया है और एक तरह से मानने और जीने के लिए उन्हें विवश किया गया है| कोरोजीवी कविता में प्रेम विवशता न होकर व्यावहारिकता में ढल जाता है| यहाँ कवि-हृदय में एक तरह की उत्कट जिज्ञासा होती है जो उसे निरा ‘लोक’ के अंतस्तल में ले जाती है और निराश्रित को केंद्र में लाकर समाजिकता से पोषित कर देती है|

कोरोजीवी कविता में सौंदर्य के रूप में कवि जब भी देखता है तो उसे किसी नायिका की देहयष्टि नहीं लुभाती| प्रकृति की सुकुमारता और नायक या नायिका की प्रकृति सुलभ चंचलता में संवाद-प्रियता की गुन्जाईस उसे प्रिय लगती है| वह इस हेतु नहीं आता है पास कि उसके शरीर का आकर्षण है इसलिए आता है कि दोनों को एक-दूसरे के भाव-संबल की जरूरत है| सोशल डिस्टेंसिंग (शारीरिक दूरी) के दौर में नजदीकियों की परिकल्पना तो है लेकिन संग-साथ की व्याकुलता में मांसलता की भावना कहीं दूर चली जाती है|

2.

सौन्दर्य और प्रेम की बात करें तो कोरोजीवी कवियों का मन प्रकृति के अंग-संग और उसके साथ रमता है| यह सब अन्य कव्यान्दोलन या काव्य-प्रवृत्ति से बिलकुल अलग है, इस पर पहले से ही विचार कर लें तो अन्य बातें ठीक तरीके से समझ आती जाएंगी| प्रकृति का सौन्दर्य अन्य काव्यान्दोलनों में अक्सर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों से जुड़कर गति प्राप्त करती है जबकि कोरोजीवी कविता में प्रकृति के जो अंग-उपांग हैं वही उस समय के नायक हैं| चिड़ियों का कलरव, पौधों की जीवंतता, जीव-जन्तु के अंदर का मानवीय स्वभाव और इन सभी के साथ-साथ हवा के बदलते रुख और उस पर मौसम-परिवर्तन से उपजे हर्ष-विषाद सर्वथा इसके केन्द्र में है| इन सभी का जुड़ाव मिट्टी से है और सभी में एक विशेष प्रकार का अंकुरण कार्य करता है| यह अंकुरण स्वप्न भी है और यथार्थ भी| यहाँ श्रम भी है और श्रम को सार्थकता प्रदान करने वाली भागीदारी भी| संतोष चतुर्वेदी एक जगह लिखते हैं कि-

“इस मिट्टी में ही फूटते हैं अँकुर

इस मिट्टी में ही उमगती है सोंधी सी गन्ध

जब पड़ती हैं अषाढ़ की पहली फुहारें

तन भीगता है

मन भीगता है

तन मन की मिट्टी भीगती है

जिसमें उगते हैं सपनों के अँकुर”

सपनों के अँकुर का उगना जीवन का विस्तृत होना तो है ही परिवेश में बढ़ रही कवि-संलग्नता भी है| जीव-जंतु और पशु-पक्षी से इसलिए प्रेम है कोरोजीवी कविता को क्योंकि इनके अन्दर ‘आपदा में अवसर’ तलाशने की प्रवृत्ति नहीं है| न ही तो एक-दूसरे को घृणा से देखने की आदत ही| जो कुछ है व्यावहारिक है और नितांत सामाजिक तथा एक-दूसरे को समान गति से प्रभावित करने वाला|

‘कल की तरह’ में लीलाधर मंडलोई का यह कहना कोरोजीवी कविता में विश्वास की प्रगाढ़ता को और अधिक मजबूती देना है- वह लिखते हैं कि-

“यह कितना सुखद आश्चर्य है कि हमें खतरा

मनुष्य से है इनसे नहीं, जो गंदे डबरों में

मस्ती से नहा रहे और एक दूसरे से

पहले की तरफ प्रेम से आज भी गले लग रहे हैं

 

मैं इनसे कल की तरह ही मिल सकता हूँ

इस पल तक इस पर कोई रोक नहीं है

अभी मेरा प्यार रेम्बो मुझसे

कल की तरह लिपट के सो रहा है|”

यह पशु और पक्षियों का प्रेम है और साहचर्य भी| यहाँ न तो कोई कपट है और न ही तो कोई छल| पाने और लेने की भूख भी यहाँ नहीं है| ध्यान यह भी देने लायक है कि इन पर कोरोना का कोई असर नहीं हुआ| इनके लिए कोई आपदा प्रबन्धन नहीं की गयी और न ही तो इनके लिए कहीं से कोई सहायता अथवा राशन बंटवाया गया| एकमात्र कवि है जो देख रहा है इनके जीवन को, इनकी जीवटता और संघर्ष को| मनीषा झा की दृष्टि में ‘वह बहुत उदास दिन’ होता है ‘जिसकी शुरुआत पक्षियों के कलरव से नहीं’ होती| मनुष्य जिनकी आवाज़ से अपने दिनचर्या की शुरुआत करता है यदि वह न सुनाई दे तो उसकी व्याकुलता का अंदाजा लगाया जा सकता है| अब पक्षियों के कलरव से वास्ता उसी का होगा जिनमें प्रेम की संभावनाएं प्रदीप्त होंगी|

 श्रीप्रकाश शुक्ल की वैसे तो कई कविताएँ हैं ‘कोयलिया जल्दी कूको न’ ‘केवल हरे बबूल’ ‘कचकचिया’| कवि ‘कचकचिया’ कविता में देखता है कि “सभ्यता में तमाम सामाजिक दूरियों के बीच/ नजदीकियों का आसमान उतर रहा है” जहाँ धरती सभी के स्वागत में एक-समान बढ़ रही है| ‘स्पर्श-सुख’ की बात कवि करता जरूर है लेकिन वह देह-राग न होकर ‘नेह गान’ है ‘जिसमें एक नई संस्कृति आकार ले रही है|” ’कवि आसमान से उतरती ‘नजदीकियों’ को महसूसते हुए देखता है कि “फूलों में रस भरा है/ उदास सड़कों पर गुल मोहर खिलखिला रहे हैं|”

यह जो खिलखिलाने का भाव है यही कोरोजीवी कविता में प्रेम-सन्दर्भ को जीवंत रखने की अभिलाषा है| इसी कविता में श्रीप्रकाश शुक्ल कहते हैं कि “चारों तरफ सन्नाटा है/ मगर आस पास के पेड़ों से/ मुँहमुही आवाज़ें उठ रही हैं/ मैं इन आवाज़ों को सुन रहा हूँ/ जिसमें एक सन्नाटा टूट रहा है|” सन्नाटों के टूटने में कलरव का विस्तार होता है जहाँ सही मायने में प्रेम का सार्वजनीकरण दिखाई देता है| ऐसा कि जिसमें शामिल सब होना चाहेंगे, छिपना-छुपाना कुछ भी नहीं|

3.

          प्रेम के केन्द्र में मनुष्य है या ईश्वर यह एक बड़ा प्रश्न रहा है हर समय| ईश्वर बड़ा हो सकता है अन्य काव्यान्दोलनों में लेकिन यहाँ मनुष्य ही प्रेम के केन्द्र में है| ईश्वर ना भी रहे लेकिन मनुष्य के लिए मनुष्य का साथ सर्वोत्तम है| उसके लिए ईश्वर तभी तक है जब तक हम मानवीय परिवेश में हैं और एक-दूसरे के संपर्क में हैं| मध्यकालीन कवि का अधिकांश जहाँ समाज के बाहर सुख-सुविधा की तलाश करता है और ईश्वर तक पहुँचने में स्वयं को सफल पाता है तो कोरोजीवी कवि अपने परिवेश और संग-साथ रहने वालों से दूर होने पर निरीश्वर होने का विश्वास देता है| साथ-साथ मनुष्य है तो प्रेम है| प्रेम है तो फिर ईश्वर होने की बात है| मदन कश्यप की एक छोटी सी कविता है-इस कविता में वह ‘स्पर्श’ की अनुभूति को ईश्वर की अनुभूति से जोड़ कर देखते हैं| इस स्पर्श के केन्द्र में नितांत मनुष्य है न कि ईश्वर-

“वह एक तुम्हारा स्पर्श ही तो था

कि जिससे होती थी ईश्वर के होने की अनुभूति

कोरोना ने मुझे निरीश्वर कर दिया!”

जो विशेष तौर पर यहाँ ध्यान देने की बात है वह ये है कि कवि स्वयं के प्रेमहीन की बात न करके निरीश्वर होने की बात करता है| उसे ईश्वर से कहीं अधिक विश्वास प्रेम पर है और उस पर जो प्रेम का आधार है, स्तम्भ है| ‘स्पर्श’ की प्रक्रिया और उससे उपजे प्रेम के यथार्थ कोरोजीवी कविता में दूर तक फैले हुए हैं| ‘ऐसे दारुण समय में’ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव जब यह कहते हैं कि-

“हम एक-दूसरे के हाथ

छूने के लिए तरसेंगे

मिलने की क्रियाएँ स्थगित

हो जाएँगी”

तो ध्यान रखने की बात ये है कि यहाँ रोमासं न होकर प्रेम की आकुलता-व्याकुलता है जो मांसल न होकर स्वाभाविक और व्यावहारिक है| ममत्त्व की छाया में ईश्वरत्व का प्रदर्शन न होकर भावनाओं का गुम्फन यदि कहीं है तो यहीं है| 

यह कहने की ही नहीं अपितु देखने और महसूस करने की स्थिति भी है कि कोरोनाकालीन विसंगतियां इतनी प्रभावी हुईं कि जो जिस स्थिति में रहा उसी में सिमटने लगा| मनुष्य जितना अधिक प्रवृत्तिगत संकुचन में घिरा प्रेम का दायरा उतना ही सीमित होता चला गया| श्रीप्रकाश शुक्ल जैसे कवि सीमित होते इस ठहराव को गंभीरता से देख रहे थे| वह कलरव और संवाद की पुनःवापसी के लिए यत्नशील हैं| श्रीप्रकाश शुक्ल की ही एक अन्य कविता है ‘कोरोना में किचन’ इस कविता में वह सन्नाटों को तोड़ने के लिए हास-परिहास करते दिखाई भी देते हैं अपनी पत्नी सुनीता के लिए-यहाँ एक स्थान पर ठहरे हुए चम्मच के माध्यम से उन्होंने पूरे दौर की वेबसी को जैसे शब्द दे दिया है-ध्यान दीजिये तो ऊपर चिड़िया है, रैम्पो है तो यहाँ चिम्मच है| श्रीप्रकाश शुक्ल यहाँ लिखते हैं-

“ठीक ऐसे समय में

जहाँ नजदीकियां योजन भर की दूरियों में

रूपांतरित हो गयी हैं

नदियाँ फैलकर समुद्र बन गयी हैं

और सड़कें उलटकर आकाश

चम्मच का चम्मच की जगह पड़े रहना

क्या हमारे प्रेम का ठहर जाना नहीं है!”

यहाँ स्वप्निल श्रीवास्तव का यह कहना श्रीप्रकाश शुक्ल की आशंका अथवा जिज्ञासा को मूर्त रूप देना है कि “ऐसे दारुण समय में सर्वाधिक/ बाधित होता है प्रेम/ उसे व्यक्त करने के अवसर/ नहीं मिलते|” यथार्थ तो प्रेम का यह भी है कि इस समय जो पारंपरिक रीतियाँ थीं प्रेम-प्रदर्शन के लिए वह जैसे विलुप्त हो गयीं या फिर मनुष्य भूल गया| कारण कि आपदा में हृदय रोमांस नहीं ढूंढता है संग और साथ ढूंढता है| वह अतीत स्मृति में जाकर वर्तमान को परखता जरूर है लेकिन भविष्य की संभावनाओं को ख्याल में रखकर ही|

एक डर-सा है परिवेश में जो भय का वातावरण सृजित करता है| यहाँ मन की संशयग्रस्त जिजीविषा बढ़ती जाती है और मनुष्य उसका विस्तार अपने आस-पास के वातावरण के साथ-साथ उनमें ढूँढने लगता है जिनमें वह रंचमात्र भी अपनत्व शेष पाता है| कोरोनाकाल में यह डर तमाम प्रकार के यथार्थ में स्वयं को तिरोहित करता जाता है तो मदन कश्यप अपना सर्वस्व मृत्यु को न देकर प्रेम में ही अर्पण कर देना चाहते हैं| वह जब कहते हैं कि ‘चाहता हूँ’-

“मरने के बाद भी मुझे इसी तरह छूना

ऐसे ही पलकें झुकाकर शरमाना

और मुँह फेरकर मुस्कराना

चाहता हूँ

मेरा सब कुछ इस तरह तुम्हें मिल जाए

कि मृत्यु को कुछ मिले ही नहीं|”

          प्रेम न मृत्यु है और न ही तो डर या भय| एक शास्वत और कभी न ख़त्म होने वाला एहसास है जिसमें सर्वस्व अर्पण करके मनुष्य चलता है| वैसे तो विरोध और प्रतिरोध की स्थिति में प्रेम सही स्वरूप धारण करता है, और कोरोजीवी कविता का यह एक यथार्थ परिदृश्य है भी|

4.

प्रेम में पागल युवाओं की अभिव्यक्तियाँ अक्सर सुनने-पढ़ने-देखने को मिल जाती हैं लेकिन जन से ऐसा प्रेम विरल है| भागने-भगाने को लेकर हज़ारों कविताएँ आपको दिख सकती हैं लेकिन जागने और जगाने को लेकर ऐसी कविताएँ प्रभावित करती हैं और मुश्किल से मिलती हैं| प्रेम-संयोग पाने-देने के प्रति तत्परता और आकुलता-व्याकुलता तो अक्सर दिख जाती हैं कवियों के यहाँ लेकिन किसी की ज़िन्दगी बचाने के लिए यह तत्परता कम ही देखने को मिलती है| यही कोरोजीवी कविता का सौंदर्य है और यही कोरोजीवी कविता का प्रेम-सन्दर्भ है|

“मैं मृत्यु की ओर बढ़ते हुज़ूम से पहले

वहाँ पहुँच जाना चाहता हूँ

ताकि उन्हें रोक सकूं

उनके मुँह पर पानी के छींटे मार सकूँ

उन्हें बता सकूँ कि नींद चाहे जितनी गहरी हो

यह सोने का वक्त नहीं है

कुछ ही देर में ट्रेन आने वाली है

पटरी के साथ चलना ठीक नहीं|”

सुभाष राय की इन काव्य-पंक्तियों को पढ़कर आपको कैसा लग रहा है मुझे नहीं पता है लेकिन मैं जो देख रहा हूँ तो श्रम-सौन्दर्य के प्रति दीवानगी और श्रम-स्वेद से तादात्म्य बिठाए रखने की यह तत्परता कवि की प्रतिबद्धता को दर्शाती है| जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूँ कोरोजीवी कविता में प्रेम नितांत मानवीय भावों और संभावनाओं को प्रदीप्त करने का माध्यम बनकर आया है, तो उसकी झलक आप यहाँ देख सकते हैं| ऐसी ही एक कविता अनामिका ने लिखी है जिसमें वह अपने प्रिय को फ़ोन तक करने का फुर्सत नहीं पाती हैं| यहाँ वजहें तमाम हैं| अशांत परिवेश, टूटती उम्मीदें, घिसटती जीवन-व्यवस्था, तडपती मनुष्यता और ढेर सारा कुछ| उनके सामने भूखी-प्यासी ‘चिड़ियाँ’ हैं तो ‘अफरा-तफरी’ उलझा परिवेश भी है| ‘मारकाट की खबरों’ से विचलित मन ‘एक दिन जब सुबह बहुत खुशनुमा होगी’ का स्वप्न संजोए यथार्थ से मुठभेड़ कर रहा है| इस मुठभेड़ की स्थिति में फ़ोन करने की सुध-बुध भला किसे होगी? अनामिका की ये पंक्तियाँ ध्यान खींचती हैं-

एक दिन जब सुबह बहुत खुशनुमा होगी

सर पर नहीं होगी बचे हुए कामों की गठरी

मैं तुमको फ़ोन करूँगी!

अफरा-तफ़री में कैसे कर लूँ

जब यह मन आसिन का आकाश होगा

चिड़ियों को दाना-पानी देकर

मैं तुमको फ़ोन करूँगी!

फ़ोन करूँगी जब सर

मेरा भन्नाया नहीं होगा, मारकाट की खबरों से

टुकुर-टुकुर सब देखा करने को

आँखें नहीं होंगी अभिशप्त 

इसलिए भी क्योंकि निरा चुप और मौन शांति तथा भयाक्रांत माहौल की बढ़ोतरी से थक चुकी आँखें अब कलरव और शोर खोज रही हैं जिनमें प्रेम और जीवन-शांति का यथार्थ बसा हुआ है| यह कलरव घर में नहीं खोजी जा रही है लोगों में देखने और पाने की कोशिश की जा रही है| कोरोजीवी कवियों का प्रेम इसमें है कि हर दुखी आँखें या मनुष्य खुश रहे और सुख के उस केंद्र पर पहुंचे जहाँ से उसे निष्काषित किया गया है| कहना होगा कि छायावाद के बाद आम आदमी के लिए जो प्रेम और तत्परता कवियों में उत्पन्न हुई थी, उससे भी तीव्र गति और आत्मविश्वास के साथ कोरोजीवी कविता में आम आदमी का जीवन और संघर्ष प्रेमपूर्ण भावना के साथ समृद्धि पाता है| कोरोजीवी कविता में प्रेम का औदात्य लोक-जीवन से प्रदीप्त होता है तो लोक-संघर्ष उसको स्थायित्व प्रदान करते हैं|

 

 

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