Sunday, 25 May 2014

छह कवितायें , एक गद्य कविता

सोमवार, 2 जून 2008

तब तुम याद आते हो .......  

कभी कभी
जब हर जगंह से
टहल टहल कर थक जाता हूँ मैं
तब तुम याद आते हो
याद आते हो की यदि पास होते
तो तुम्हारा आंचल होता
होता मैं दुखी जब , हाँथ के साथ उठता
वह आंचल तेरा, मेरे सिर तक पहुँचता
धीरे धीरे नींद आती होती
आ जाती , तब तुम जगाते
जगाते और कहते
खाने से पहले मत सोया करो
सोया करो पर जल्दी नहीं
पढ़ लिख कर
आते हो याद तब भी
जब कोई डांट जाता है
की यदि होते तुम तो कहते लोग 'प्यारे भइया '
'उठ उठ ' ना कह कर कहते लोग
' उठो बेटा ! सुबह हो गयी .......... ।

अपने हित की बात

मेरी कल्पनाएँ
यादें मेरी
उकसाती हैं मुझे
युद्ध करूं मैं उनसे
सोंचता हूँ मैं
पड़ोसी मेरे ये
सुखी रहें
समृद्ध रहें
क्या लड़ाई
क्या तकरार
पड़ोसी हैं ये बने रहें ऊंचे
नाम होगा मेरा ही ....... ।

ये आशाएं

ये आशाएं
होती हैं कितनी अच्छी ये
जब चलता हूँ मैं
हो लेती हैं साथ मेरे
रहती हैं साथ समय हर
और देती है साथ मेरा हर समय
ताकि हम सोंचते रहें
ताकि हम मूक न हों
विचरते रहें
दुनिया , देश , समाज के हित
कुछ करने के लिए
हम सोंचते रहें
सोंचते रहें हम
की कैसे हमें उठना है
कैसे चलना है
बच बच कर रहना है
और होना है कैसे सफल
निराशाओं के पथ पर
ये सब बताती हैं
ये आशाएं ....... ।

रविवार, 1 जून 2008

जीता रहता हूँ मैं

लोग कितने आलसी हो गए हैं
एक घर के निर्माण में
एक महीने के दिन भी
हो जाते हैं कम
कितनी कर्मठता है मुझमें
की एक घर मैं रोज ही
बनता हूँ , रहता हूँ , और
बिगाड़ता हूँ
छोड़ देता हूँ उसको
ख़ुद के लिए नहीं
आने वाली नस्लों के लिए
खंडहर के रूप में
रहता है वह खंडहर
कम, अधिक , घटते - बढ़ते क्रम से
वह निरंतर रहती है
जीता रहता हूँ मैं
उसके लिए नहीं
आने वाली नस्लों के लिए
एक पूर्वज के रूप में ........ ।

यादें

यादें! तेरे कितने रूप , कितने लक्षण, रे तूं है कितनी अनूप । कभी कभी ज्येष्ठ की दुपहरिया लगती और कभी कभी हो जाती है पूस की धूप। सच में बोल तूं कितनी सुंदर है और हैं तेरे कितने प्रतिरूप ? हर जगंह तू मिलती है। दुःख हो कि गम , चिंता हो या प्रसन्नता , दुर्लभता हो या सहजता , हर जगह हर वातावरण में , समूहों में एकान्तिकता में कोलाहल हो या नीरवता में प्रतिपल प्रतिक्षण रहती है तूं मौजूद । बता ना तेरे कितने प्रतिरूप ?
कभी कभी बीते हुए पलों में जाकर , वो तू ही है न जो कर देती है रोने को मजबूर ना चाहते हुए भी तूं ला देती है दूसरों के साथ विताये गए पलों को , गुजारे गए लम्हों को , किए गए वादों को । क्या इसलिए कि हमारा समय पास हो या फ़िर इसलिए कि हों टूटे हुए रिश्ते प्रगाढ़ ? प्रगाढ़ता आयेगी कैसे बोल ? क्या टूटे हुए दिल के तार कभी सांत्वनापूर्ण जुडते हैं , यदि ऐसा होता तो क्यों कहलवाती तूं रहीम से "रहिमन धागा प्रेम का तोड़ो न चटकाय" पगली तूं क्या है रे , क्या अब तेरा मिलन आत्मा से नहीं होता ? तभी तो हो जाती है बैठे बैठे बोर और आ जाती है समय बिताने के लिए हमारे स्मृति पटल में । पर तब , जब तूं समय बिताने आती है , क्यों नहीं लगती मेरे अनुरूप ? तूं है क्या यादें ही या कोई और , पहले स्पष्ट कर तेरे कितने प्रतिरूप ?

शनिवार, 24 मई 2008

एक उत्तम अपूर्ण सोंच

मैनें भी तो कुछ था ही सोंचा
कुछ करनें को
कुछ चाहने को
कुछ पानें को
इसके बाद स्वतः चलकर
एक अजीबों गरीब पग से
एक सबसे कमजोर पथ पर
कुछ खोनें को

सोंच सोंच ही बनीं रही
और मैनें सोंचा
कुछ जरा सा सोंच कर

सोंचकर सोंचा उस विषय में
तो पाया एक सरल सा जवाब
जो था अर्थ से तरल
जो बहुत ही नुकीली और
चुकीली थी

सोंच का जन्म सोंच में ही होता है
और वहीं संभवतः
बहुत गहरे में
हो जाता है उसका अंत

आख़िर लता भी तो सोंचा होगा
नाज किया होगा
अपनी सुन्दरता पर
की मैं भी कभी
सबके पसंद का मालिक बनूँगा
पहनाया जाऊंगा सबों के गले में
चढ़ाया जाऊंगा मंदिरों में

भगवान के गले में
नेताओं के गले में
घरों में
किसी मुख्य त्योहारों में
और
विशेष रीति-रिवाजों में
अर्थियों पर गम के साथ

लेकिन उसकी भी सोंच
सोंच ही रह गई
आज वह शोभा है
शोभायमान हो रहा है
केवल गडाहों, और तालाबों में
कोई नहीं पूंछता उसका फूल
समझते हैं लोग उसको
केवल धूल
पग अथवा पथ का नहीं
हवावों और आँधियों का धूल .......... ।

न देंगे अपना आदर्श किसी को

नवदीप खिले थे
मन में
अंतर्मन में
अंतरतम ह्रदय में
मेरे अपनें सुन्दरतम तन में
फ़िर क्यों वो बुझ गए ?

क्या बोलने से
डोलने से , या फ़िर
कुछ अच्छा सोंचनें से
बतानें से
या फ़िर
कुछ आदर्श सिखानें से

मैं इतना निरादर्ष भी तो नहीं हूँ कि
कुल गलत बोल जाऊं
या बोलने से पहले
किसी के बातों को तोड़ जाऊं
किसी के भावनाओं को
कुभावनाएं बनाकर ठेस पहुँचाऊँ

मन है
स्थाई अस्थाई
बोल ही दिया करता है
कुछ गलत
कभी कभी कभी
फ़िर उस पर गुस्सा क्यूं
आख़िर छोटा ही तो हूँ

चलो अब नहीं भी
सिखाऊँगा आदर्श
किसी को कहीं भी
कभी भी
ऐसा भी हो सकता है कि
कुछ बोलने से पहले
तौल लिया करूंगा उसको
कहावतों को सिद्धस्त करते
अपना स्वयम का पहचान समझ के
अभिशाप समझ के
या किसी की आशीर्वाद
अथवा दुवायें समझ के ............. ।

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