Sunday, 25 May 2014

छह कवितायें , एक लेख

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

कहता हूँ कुछ कहनें ही दो ...........

रोता हूँ रोने ही दो
खोता हूँ खोने ही दो
ना दे सको ऐ दुनिया वालो
कहता हूँ कुछ कहने ही दो

रोटी की कमी रहती है मुझे
पानी की किल्लत यहाँ नहीं
है मुशीबतें इफराद मेरी दुनिया में
चाहिए मुझे क्या और भला
इस दुनिया में ही रहनें दो

आंखों में आंसू आशाओं के
चाहती हैं आज ही बह जाना
चाहिए नहीं तुम्हारी वह सुख की दुनिया
कृपा करो और ,
निराशाओं में ही मुझको पालनें दो

पलने दो भूखे प्यासे
गम नहीं आंधी तूफ़ान से
रेह धूल दूब माटी है
काँटों की झुरमुट और मकरी की जाली
दीवाल ईंट की नहीं तो क्या
झुरमुट में ही जीनें दो ॥

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

गया चला वह शाल पुराना इन नये दिनों की शान बनो

सत्ता पर काबिज पूज्य जनों
फूलो फलो और महान बनो
गया चला वह साल पुराना
इन नये दिनों की शान बनो
क्या हुआ मुम्बई काँप गयी तो
सब सैन्य व्यवस्था हांफ गयी तो
शाशन की गीला गपाली में
दुनिया कमजोरी भांप गयी तो
लथपथ खून से यह धरती
वरण पाप मार्ग को करती
पढ़ते पढ़ते नैतिकता की नियमावली
मानवीयता सारी चिग्घाड़ उठी तो
यह मान चलो तुम बहरे हो
अब हम अनधन की जान बनो ।।
ऐसा भी तुम पहले हमलो में
कुछ और नया क्या करते थे
मरते थे सिपाही गोली खाकर
ख़ुद होटल में बैठ डकारते थे
हाँ , पहुंचते दूसरे देशों में
उबले हुए बेजान आवेशों में
वाद-विवाद कर आतंकवाद पर
झूठी सांत्वना दंगा फसाद पर
अच्छा तुम्हारे एजेंडे में नहीं तो
बुरे कर्तव्यों की पहचान बनो । ।
वर्षांत पर हम करते हैं प्रण
देश की खातिर तन-मन -धन अर्पण
करेगा दुह्साहस गर कभी आतंकी मन
तो जाग उठेगा सारा विश्व संगठन
जगंह जगंह से चीत्कार उठेगा
हिंदुस्तान हुंकार भरेगा
जल उठेगा सारा पाकिस्तान
करते हैं हम फ़िर से आह्वान
पहले आह्वान से देश बटा था
अब विश्व बँटवारे का संधान बनो ।।
बनो बनो कुछ और बनो
इतने से क्या काम चलेगा
उगता सूरज डूबेगा नहीं तो
कैसे नया चाँद निकलेगा
तब तो हिंदू-मुस्लिम जड़ थी
उस पर सबकी गहरी पकड थी
जिधर भी देखो नारे लगे थे
जगंह जगंह हत्यारे खड़े थे
गांधी - शास्त्री तो बन न सकोगे
जिन्नाह - जवाहरलाल बनो
गया चला वह साल पुराना
इन नये दिनों की शान बनो ।।

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

अभी अभी छूटा था माँ का आँचल
दोस्तों का साथ तो मानो भूला भी ना था
चलता था मेड़ पर तो पैर डगमगाते थे
सच , चड्ढी का नाड़ा बांधना भी तो नहीं सीखा था
उठा हाथ पिता का तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
दिन दिन महीने महीने रेघता एक कपड़े के लिए
जूते तो स्वप्न ही हो गए थे
थे चप्पल हवाई, चमड़े के नशीब होते कभी
स्यूटर एक , सना रेह और धूल से
जरूरत पड़ी कोट की तो मानों मै बड़ा हो गया ।।
दो टाफी , बिस्कुट , चीनी साथ गुड भी मिलते
घंटों मांगते , मिलते , बुझे चेहरे खिलते
पर पड़ते जब थप्पड़ आंसू रोके ना रुकते
दो चार रुपये , बडे आते , मिलते कभी कभी
माँगा जब सौ तो मानो मैं बड़ा हो गया ॥
बड़ा हो गया अब तो छोटों का नमो निशा ना रहा
क्या क्या सुनाऊं सब कुछ तो गुनाह हो गया
सहा हर वह कुछ जो बडो नें किया , फ़िर भी
गलत रहा हो या सही , एक नीतिवादी बनकर
जरूरत पड़ी बोलने की तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
छीन गया अधिकार सब , टूटी थाली छूटी कलम
भटकने लगा दर दर मिला हर जगह वही गम
ना कोई किनारा , ना कोई सहारा , भटकता गलियों में बिचारा
हर चाहने वालों नें पुकारा अब अपने पैरों खड़ा हो गया
फिसला जब ,माँगा सहारा तो मानों मैं बड़ा हो गया ॥
भटक रहा हूँ भटकने दो , दो ना सहारा
पर कृपा करके कहो ना मैं बड़ा हो गया
टूटी थाली छूटा कलम तो क्या हुआ , हौसले हैं अभी
अभी तो कली हूँ , कौन सा तबसे बुरा हो गया
छोटा रहना ही करूंगा पसंद ना कहो की मैं बड़ा हो गया ॥

अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...


दोस्त तुम घटे चलो यार तुम मिटे चलो

अयोग्यता का प्रचार हो विद्वता का संघार हो

ना आएगी कुसमय कभी ये न होगी दुर्दशा कभी ये

निर्माण से विनाश पथ पर ऐ यार तुम डटे चलो ॥



संसार है पलट रहा हर द्वार है उलट रहा

पहले जहा तरु-पत्तियां , अब धूल ही उचट रहा

क्या पेड़ तुम लगाओगे , व्यर्थ समय यूँ गवाओगे

जो तालाब हैं कुवा खुदे , उन्हें भी बस पटे चलो ॥





कटे चलो परिवार से आचार से व्यवहार से

ना पित्रि से ना मात से सम्बन्ध हो बस स्वार्थ से

बनाए जो पूर्वज , सभी मिटाओ तुम अभी अभी

है सभ्यता तो पश्चिमी ना भारतीयता लखो ॥





उठो उठो उठो सभी हुंकार लो अंधकार हो

किसी तरंह कलयुग का अभी अभी उद्धार हो

जहाँ को है भूनना उठा लो तुम हथियार को

मनुजता को ना सोचो बस पशुता पर अड़े चलो ॥





बढ़े चलो बढ़े चलो विनाश दूर अब नहीं

शीलता और दीनता तो जिन्दा ही नहीं कहीं

कहीं कहीं जो थोड़ी सी इमान है बची अभी

उसे भी क्रूर अशिष्टता से दमित तुम करते चलो ॥




चलो चलो चलो चलो , जागो , सभी चलते चलो

कतराए जो चलनें से यूँ , उसे भी कुचलते चलो

क्या पता कब तक रहो , मृत्यु आज ना कि कल ही हो

अच्छा तो हमें नशीब नहीं बुरा ही बस बनते चलो ...........................,, ॥

हम जूझ रहे हैं ...........


घूम रहे हैं आज हम

बेसुर, बेताल और बिना किसी कारण के

हम घूम रहे हैं

कहीं जनता की खीझ है

एक , एक दूसरे के ऊपर टूट रहा

पछाड़ने के चक्कर में ,

तेज रफ्तार से

गिरते लड़खड़ाते कूद रहा

तो कहीं गाड़ियों की कर्कश आवाज

यहीं कहीं

रिक्शेवान की चलती सांसे हैं

चपटे गाल और चिपके पेट

कई अनबूझ सवालों को बूझ रहे हैं

और हम जूझ रहे हैं

अपने ही मन की उदासी से

हैरत में है ये लोगो को देखकर

जनता की भेड़चाल पर

गाड़ियों की बड़ी बड़ी कतार पर

रिक्शे वाले के अनूठे व्यवहार पर

खुशी हैं वे अपनें अपनें आचार पर

फ़िर भी नाहक ही

अनेक तरीके जीनें के

आज हमको सूझ रहे हैं

लगातार उन तरीकों से

ऐसा लग रहा है

हम जूझ रहे हैं ....................... ।

रविवार, 31 अगस्त 2008

यदि पत्ते ना होते तो ऐसा कुछ भी ना होता......ये जड़ भी काट दिए गए होते .....(पत्र )

पूज्यनीय ,

माता जी सादर चरण छू प्रणाम । कैसी हो ? मैं तो खुश हूँ इसी से आपके लिए भी आशा करता हूँ की खुश ही होंगी । पर क्या आपको पता है कि दुःख और विपदा ये दोनों ही उस खुशी के एक अभिन्न अंग हैं । जिस खुशी में हम जी रहे हैं । आप जी रही हैं । और और लोग जी रहे हैं । संसार जी रहा है । कोई ऊंचे पद पर है तो जी रहा है कोई सड़कों पर टहल रहा है तो भी जी रहा है । सिर्फ़ जी रहा है । उठा रहा है आनंद । मानव जीवन का नहीं बल्कि इस बात का कि जीवन एक संघर्ष है । संघर्ष ही जीवन है । इसमें से किसी एक की भी भागीदारी ना मात्र होनें से मानव जीवन जीवन नहीं रह जाता वह पशुतर हो जाता है ।

माता जी ! वहाँ पर ना तो शायद इतनी जोर हवा चल रही होगी और ना ही तो इतनी ठंडी होगी , पर यहाँ पर आर हवा तेज चल रही है । बहुत तेज । वह रह रह कर कुछ कह रही है । शायद वह मुझे भी ले जाना चाहती है अपनें साथ ; पर कहाँ ? ये नही पता । आपके पास । आपके चरणों में । या इन सब से बहुत दूर । आज मन बहुत घबडा रहा है इन हवा के झोकाओं से । जिस तरंह से ये पत्ते आपस में लड़ कर एक दूसरे के विरुद्ध द्वंद्व का संदेश दे रहे हैं , एक दूसरे के विरोध में फडफड़ा रहे हैं , उसी तरंह से मेरे मन की अंतर्क्रिया भी फडफडा रही है । फ़िर इन पत्तों को देखो ! कितने मजबूर हैं बेचारे । फडफड़ा रहे हैं । कलह झेल रहे हैं । पर ना तो कहीं जा रहे हैं और ना ही तो कुछ कर पा रहे हैं । सामर्थ्य है । शक्ति है । क्षमता है । पर शायद ये इसलिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं कि क्योंकि ये अबभी उस पेड़ के आसरे है जो खड़ा होकर इनको एक आधार दिया है फड़फड़ाने के लिए । एक सहारा दिया है झूमनें के लिए । पर एक सहारा ही तो दिया है ? मैं मानता हूँ कि इसके सहारा देनें से वह हर है आज मुस्कुरा रहा है । खा खाकर झूम रहा है । उधर से इधर इधर से उधर एक दूसरे का संदेसा पहुँचा रहा है । पर यदि आज ये पत्ता ना होता तो क्या इस जड़ का अपना कोई स्तित्व था ? क्या इस जड़ को लोग ऐसे ही खड़ा रहने देते ? या फ़िर ये कि इसके आरी बगल लोग आकर बैठते , जिस तरंह से गर्मियों के मौसम में लोग आया करते हैं ? बैठा करते हैं । बातें करते हैं ? यदि पत्ते ना होते तो ऐसा कुछ न होता , बल्कि अब तक ये जड़ भी काट दिए गए होते । या तो इनका उपयोग चूल्हे और भट्ठियों में हो जाता या तो फ़िर कोई कीवाड़ या खिड़की वगैरह के रूप में परिवर्तित हो गया होता ।

आख़िर जीवन क्या है ? दो दिलों की अभिव्यक्ति ही तो है ना ? क्या बगैर दो के कोई किसी का जीवन संभव है क्या ? यदि ऐसा होता ही तो क्यों फ़िर होते ये रिश्ते नाते और क्यों होता ये समाज । फ़िर तो ये धरती ये मृत्यु लोक , जहाँ पर आनें के लिए देवता लोग भी तरसा करते हैं , जिसकी समरसता और संबंधता को चरों युगों में सर्वश्रेष्ठ और महान समझ गया यों ही नष्ट हो कर रह जाती ना तो किसी के कर्तव्य होते ना ही तो किसी के अधिकार । ......

जीता आया जीवन क्या जीनें के लिए ही ............ 

पूछता हूँ कभी कभी आत्मीयता से उठकर
ज्यों छोटा बच्चा पूछता है बड़ों से हुडुककर
क्या जीवन बना है बस जीने के लिए ही
जीता आया जीवन क्या जीनें के लिए ही
रख उम्मीदे फ़िर दिल में सोचता हूँ मैं
अभी तो दिन बहुत से हैं सवरने के लिए
छोटा था , चलना , पढ़ना ,सीखा समझना किसी को
बीत जायेगी उम्र यूँ , क्या सीखनें के लिए ही ........ ।

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