शनिवार, 30 अगस्त 2008
यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है ......
।
इस समय मुझे ये नहीं पता की तूं खाना खा रही है या सोनें की तयारी कर रही है अथवा गाय के साथ लुका छिपी खेल रही है क्योंकि रात्रि के ९ बज गए है और रेडियो के "माइ ऍफ़ एम् " पर चांदनी रातें" कार्यक्रम सुरु हो गया है। इस चैनल पर प्रायः पुरानें गीत ही अधिक आया करते है इसलिए पुरानी बातों का स्मरण होना आवश्यक हो जाता है ,और पता है यही बस कि अब मैं खाना खा चुका हूँ , समय पढनें का पर अतीत के सुंदर वातावरण में पहुँच कर , पुरानीं यातनाओं की बेसुरी श्रृंखलाओं को जोडनें मे लग गया हूँ । इस समय एक एक बातें अकारण ही चेतन स्मृति में आकर परेशान सी कर दे रही हैं । जिसमें तेरे साथ बिताये गए कुछ समय तो याद आ ही रहे हैं तुझसे दूर होनें के कुछ असार्थक पहलू भी सामनें आकर खड़े हो गए हैं । कहना न होगा माते कि ऐसी स्थिति में मैं आज क्या हूँ , कैसे हूँ पर जैसे भी हूँ एक असहाय , मजबूर और अपाहिज उस रोगी की तरंह जिसके पास हर वो सुविधाएं हों जो प्रायः एक व्यक्ति के पास होनी चाहिए पर क्योंकि वह रोगी है और चिंता उसे बस रोगी होनें की ही सता रही हो , जिसे ना तो वो किसी को बता सकता हो ना दिखा सकता हो और ना कर सकता हो व्यक्त अपनीं व्यथाओं को, उनके पास भी जो प्रायः उसके उस दुःख को समझ सकते हों । क्योंकि उस रोगी को शायद यह बात बहोत गहरे में साल रही हो कि अगर वह कहेगा किसी से तो अगला यही समझेगा कि कहीं यह मुझसे कोई सहायता ना मांग ले । और क्योंकि वे समझते भी यही हैं कि वह तो रोगी ही है वर्तमान तो उसका ठीक है ही नहीं , भविष्य भी कैसा होगा और ऐसी स्थिति में व्यथा और वेदना को छोड़कर वह दे ही क्या सकता है । जबकि बात यह भी बहोत हद तक सहीं हो सकती है कि वह रोगी न तो उन्हीं मानसिक रूप से परेशान करनें की सोंचा हो और ना ही तो शारीरिक और आर्थिक सहायता की कोई आशा लिए हो, पर की हों अपेक्षाएं इस बात की कि भले हैं लोग , अच्छे हैं लोग , और हैं मिलनसार अगर इनसे प्रेम की दो बातें की जायें , इनके दुःख को सुना और अपनी खुशियों को इनसे बताया जाय तो एकांतिक नीरवता सामूहिक प्रेम के वातावरण में परिवर्तित हो सकती है । पर उसकी इन अपेक्षाओं को होना पड़ता है दमित वैसे लोगों की उपेक्षाओं से , जो प्रायः स्वस्थ हैं । पर बहरहाल , ये हमारी स्थिति है और क्योंकि परिस्थितियाँ हैं मेहरबान तो हो क्या सकता है इसका अंदाजा तो सहज ही सहजता के साथ लाया जा सकता है । पर मुझे पता है कि अब तेरी ये स्थिति नहीं होगी । तूं सो रही होगी तो लोग आते होंगे बुलानें के लिए कि चलो अम्मा खाना खा लो तैयार हो गया है ! तूं सोनें के लिए जाती होगी तो पीछे पीछे "महासुगंधित" का तेल लिए भाभी जी पहुंचती होंगी और जमके घंटों तक सेवा करती होंगी । रोज ही तुझे अब आधा एक किलो दूध मिलता होगा और 'दावा के लिए कोई परेसनिं प्रायः नहीं होती होगी । इतना ही नहीं माते , तूं तो अब कपडे भी नहीं धोती होगी ? कौन कहे बर्तन माजनें और धोनें की तू तो चूल्हे के सामनें भी जाती नहीं होगी अच्छा है माते तूं सुखी है । कुशी हूँ मैं कि तुझे सुख देनें वालों की संख्या दुःख देनें वालों से ज्यादा है । पर माते दुःख तो यही है रे!कि कहीं तूं - कहीं तूं उस सुख के वातावरण में रहकर इस दुखिया के कुतिया का परित्याग ना कर दे । क्योंकि जितना दुःख तुझको मेरी दुनिया में मिला उतना तो शायद तूं कभी पाई होगी । दुःख इस बात का भी होता है कि यहाँ मैं तुझे दुःख और आंसू के सिवा कुछ भी दे नहीं सका जबकि लायक था मैं सब कुछ करनें के । सुबह-सुबह ४-५ बजे उठकर ठंडी में बर्तन माजना और आठ बजे तक खाना तैयार कर देना जहाँ मुझे गुस्सा दिलाता था वहीं तेरे न्हानें के समय एक बाल्टी पानी ना भर पाना और तेरे कपडों को साफ करनें बजाय अपनें कपडे तुझसे साफ करवाना अथवा खानें के लिए ठीक तरंह से भोजन , चाय के लिए दूध, दवा के लिए दूध ,और सोनें के लिए एक तक्थे और खात की व्यवस्था ना कर पाना मुझे रोने के लिए मजबूर कर देता था । फ़िर भी खुशी होता था टैब जब तुझे और तेरे हंसते हुए चहरे को थोड़े समय तक देखता था । मेरे लिए भले ही कुछ न हो पर तेरे लिए जब कुछ लाता था तो खुशियों का ठिकाना नहीं रहता था और गर्व होता था मुझे कि जो काम पैसा कमाते हुए हमसे बडे भी न कर पाए ,उसे मैं कर रहा हूँ । पर मन यहीं शंकित हो जाता है , हल्का हो जाता है ,कमजोर हो जाता है, और हो जाता है विवास कि क्या तूं फ़िर कभी अब ऐसा दुःख सहनें के लिए मेरे पास आएगी । नहीं आएगी ना ?सही है नहीं आएगी । क्योंकि मुझ रोगी के पास , मुझ कमबख्त के पास है ही आख़िर क्या ? वही गम,दुःख,वेदना जो दो आंसू के सिवा अगर कुछ दे भी सकता है तो सांत्वना बस इस बात की कि "माता जी तुम मेरे पास ही रहना । कमाऊँगा , खिलाऊंगा । पर बहोत हद तक दुःख के पलों को गुजारकर तूं फ़िर चली जायेगी । अभी तो भला फोन पर बातें करना ही कम की है । हल चल पूंछना ही कम की है पर शायद इस बार जायेगी तो एकदम से भूल ही जायेगी । पर नहीं करना माते तूं ऐसा मत करना तूं वहीं उसी सुख के सागर में रह , मुझे कोई परेशानी नहीं है । तेरे हंसते हुए दो बोल या हमारे दसा के सम्बंध में बहाए गए तेरे दो आंसू , मुस्कुराते हुए चहरे पर हंसते हुए सफ़ेद बल के समूह की कल्पनात्मक सुख से ही हम जी लिया करेंगे । पर यह जानकर कि तूं यद् करना छोड़ चुकी है , भूल चुकी है मुझे , निकाल चुकी है अपनी ममता से , वास्तव में माता जी सबसे दुखद दिन होगा मेरे लिए । लोगों के पास अपनें सुख दुःख सुनानें के पर्याप्त पर्याय है पर मेरे लिए तो उन पर्याय के प्रस्तुति में भी तेरी उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि तूं तो ऐसी निधि है जिसका पर्याय तो अभी तक जन्म ही नहीं । और विश्वास है मुझे अपने आप पर कि ना ही तो कभी जन्मेंगा । क्योंकि माते यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है ।अंत में अगर कहा जाय तो सच में तूं ही वह महँ विभूति है जो हर रोगी के दुःख और सुख को समझती है या अनुभव कर सकती है । एक तूं ही है जो एक रोगी को लेकर रात भर अस्पताल में आंसू बहा सकती है या ५०० किलोमीटर की यात्रा कर सकती है ............ ।
इस समय मुझे ये नहीं पता की तूं खाना खा रही है या सोनें की तयारी कर रही है अथवा गाय के साथ लुका छिपी खेल रही है क्योंकि रात्रि के ९ बज गए है और रेडियो के "माइ ऍफ़ एम् " पर चांदनी रातें" कार्यक्रम सुरु हो गया है। इस चैनल पर प्रायः पुरानें गीत ही अधिक आया करते है इसलिए पुरानी बातों का स्मरण होना आवश्यक हो जाता है ,और पता है यही बस कि अब मैं खाना खा चुका हूँ , समय पढनें का पर अतीत के सुंदर वातावरण में पहुँच कर , पुरानीं यातनाओं की बेसुरी श्रृंखलाओं को जोडनें मे लग गया हूँ । इस समय एक एक बातें अकारण ही चेतन स्मृति में आकर परेशान सी कर दे रही हैं । जिसमें तेरे साथ बिताये गए कुछ समय तो याद आ ही रहे हैं तुझसे दूर होनें के कुछ असार्थक पहलू भी सामनें आकर खड़े हो गए हैं । कहना न होगा माते कि ऐसी स्थिति में मैं आज क्या हूँ , कैसे हूँ पर जैसे भी हूँ एक असहाय , मजबूर और अपाहिज उस रोगी की तरंह जिसके पास हर वो सुविधाएं हों जो प्रायः एक व्यक्ति के पास होनी चाहिए पर क्योंकि वह रोगी है और चिंता उसे बस रोगी होनें की ही सता रही हो , जिसे ना तो वो किसी को बता सकता हो ना दिखा सकता हो और ना कर सकता हो व्यक्त अपनीं व्यथाओं को, उनके पास भी जो प्रायः उसके उस दुःख को समझ सकते हों । क्योंकि उस रोगी को शायद यह बात बहोत गहरे में साल रही हो कि अगर वह कहेगा किसी से तो अगला यही समझेगा कि कहीं यह मुझसे कोई सहायता ना मांग ले । और क्योंकि वे समझते भी यही हैं कि वह तो रोगी ही है वर्तमान तो उसका ठीक है ही नहीं , भविष्य भी कैसा होगा और ऐसी स्थिति में व्यथा और वेदना को छोड़कर वह दे ही क्या सकता है । जबकि बात यह भी बहोत हद तक सहीं हो सकती है कि वह रोगी न तो उन्हीं मानसिक रूप से परेशान करनें की सोंचा हो और ना ही तो शारीरिक और आर्थिक सहायता की कोई आशा लिए हो, पर की हों अपेक्षाएं इस बात की कि भले हैं लोग , अच्छे हैं लोग , और हैं मिलनसार अगर इनसे प्रेम की दो बातें की जायें , इनके दुःख को सुना और अपनी खुशियों को इनसे बताया जाय तो एकांतिक नीरवता सामूहिक प्रेम के वातावरण में परिवर्तित हो सकती है । पर उसकी इन अपेक्षाओं को होना पड़ता है दमित वैसे लोगों की उपेक्षाओं से , जो प्रायः स्वस्थ हैं । पर बहरहाल , ये हमारी स्थिति है और क्योंकि परिस्थितियाँ हैं मेहरबान तो हो क्या सकता है इसका अंदाजा तो सहज ही सहजता के साथ लाया जा सकता है । पर मुझे पता है कि अब तेरी ये स्थिति नहीं होगी । तूं सो रही होगी तो लोग आते होंगे बुलानें के लिए कि चलो अम्मा खाना खा लो तैयार हो गया है ! तूं सोनें के लिए जाती होगी तो पीछे पीछे "महासुगंधित" का तेल लिए भाभी जी पहुंचती होंगी और जमके घंटों तक सेवा करती होंगी । रोज ही तुझे अब आधा एक किलो दूध मिलता होगा और 'दावा के लिए कोई परेसनिं प्रायः नहीं होती होगी । इतना ही नहीं माते , तूं तो अब कपडे भी नहीं धोती होगी ? कौन कहे बर्तन माजनें और धोनें की तू तो चूल्हे के सामनें भी जाती नहीं होगी अच्छा है माते तूं सुखी है । कुशी हूँ मैं कि तुझे सुख देनें वालों की संख्या दुःख देनें वालों से ज्यादा है । पर माते दुःख तो यही है रे!कि कहीं तूं - कहीं तूं उस सुख के वातावरण में रहकर इस दुखिया के कुतिया का परित्याग ना कर दे । क्योंकि जितना दुःख तुझको मेरी दुनिया में मिला उतना तो शायद तूं कभी पाई होगी । दुःख इस बात का भी होता है कि यहाँ मैं तुझे दुःख और आंसू के सिवा कुछ भी दे नहीं सका जबकि लायक था मैं सब कुछ करनें के । सुबह-सुबह ४-५ बजे उठकर ठंडी में बर्तन माजना और आठ बजे तक खाना तैयार कर देना जहाँ मुझे गुस्सा दिलाता था वहीं तेरे न्हानें के समय एक बाल्टी पानी ना भर पाना और तेरे कपडों को साफ करनें बजाय अपनें कपडे तुझसे साफ करवाना अथवा खानें के लिए ठीक तरंह से भोजन , चाय के लिए दूध, दवा के लिए दूध ,और सोनें के लिए एक तक्थे और खात की व्यवस्था ना कर पाना मुझे रोने के लिए मजबूर कर देता था । फ़िर भी खुशी होता था टैब जब तुझे और तेरे हंसते हुए चहरे को थोड़े समय तक देखता था । मेरे लिए भले ही कुछ न हो पर तेरे लिए जब कुछ लाता था तो खुशियों का ठिकाना नहीं रहता था और गर्व होता था मुझे कि जो काम पैसा कमाते हुए हमसे बडे भी न कर पाए ,उसे मैं कर रहा हूँ । पर मन यहीं शंकित हो जाता है , हल्का हो जाता है ,कमजोर हो जाता है, और हो जाता है विवास कि क्या तूं फ़िर कभी अब ऐसा दुःख सहनें के लिए मेरे पास आएगी । नहीं आएगी ना ?सही है नहीं आएगी । क्योंकि मुझ रोगी के पास , मुझ कमबख्त के पास है ही आख़िर क्या ? वही गम,दुःख,वेदना जो दो आंसू के सिवा अगर कुछ दे भी सकता है तो सांत्वना बस इस बात की कि "माता जी तुम मेरे पास ही रहना । कमाऊँगा , खिलाऊंगा । पर बहोत हद तक दुःख के पलों को गुजारकर तूं फ़िर चली जायेगी । अभी तो भला फोन पर बातें करना ही कम की है । हल चल पूंछना ही कम की है पर शायद इस बार जायेगी तो एकदम से भूल ही जायेगी । पर नहीं करना माते तूं ऐसा मत करना तूं वहीं उसी सुख के सागर में रह , मुझे कोई परेशानी नहीं है । तेरे हंसते हुए दो बोल या हमारे दसा के सम्बंध में बहाए गए तेरे दो आंसू , मुस्कुराते हुए चहरे पर हंसते हुए सफ़ेद बल के समूह की कल्पनात्मक सुख से ही हम जी लिया करेंगे । पर यह जानकर कि तूं यद् करना छोड़ चुकी है , भूल चुकी है मुझे , निकाल चुकी है अपनी ममता से , वास्तव में माता जी सबसे दुखद दिन होगा मेरे लिए । लोगों के पास अपनें सुख दुःख सुनानें के पर्याप्त पर्याय है पर मेरे लिए तो उन पर्याय के प्रस्तुति में भी तेरी उपस्थिति आवश्यक है क्योंकि तूं तो ऐसी निधि है जिसका पर्याय तो अभी तक जन्म ही नहीं । और विश्वास है मुझे अपने आप पर कि ना ही तो कभी जन्मेंगा । क्योंकि माते यदि आदि तुझसे है तो अंत भी तुझी से है ।अंत में अगर कहा जाय तो सच में तूं ही वह महँ विभूति है जो हर रोगी के दुःख और सुख को समझती है या अनुभव कर सकती है । एक तूं ही है जो एक रोगी को लेकर रात भर अस्पताल में आंसू बहा सकती है या ५०० किलोमीटर की यात्रा कर सकती है ............ ।
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
रोजी रोटी और नैतिकता के आगे भी एक समस्या होती है ....
आज कई दिनों से मैं परेशान हूँ । घर की आतंरिक माहौल या पढ़ाई की समस्या
अथवा दो रोटी मिलनें की चिंता या फ़िर ये कहें कि आर्थिक तंगी , सामान्यतः
लोग इन्हीं को समस्या का प्रथम कारक सिद्ध करते हैं पर इसके आगे भी एक
समस्या होती है जो कहनें को तो तब मानव-मष्तिष्क में प्रवेश करती है जब
व्यक्ति अपनें युवावस्था में प्रवेश करता है , लेकिन यदि वाश्तविकता समझनें
की कोशिश की जाय तो यह बालकपनसे ही जब हम ४-५वीं में पढ़ रहे होते हैं ,
हमारे अंदर प्रवेश करनें लगती है । और वह है सेक्स, काम-वासना । आज तो इसने
मुझे दुखित ही कर दिया । दिक्कत की बात तो ये है कि मैं जहाँ भी गया
संभवतः इस काम-वासना से बचने की कोशिश करता रहा पर वासना है कि माना ही
नहीं । अख़बार उठाया , मल्लिका शेरावत और बिपासा बसु नें रिझाया। पत्रिका
उठाया एक बेहूदा किस्म का पोस्टर ना सिर्फ़ कल्पना करनें के लिए मजबूर कर
दिया अपितु रस्ते में जाते हुए " परदे में रहनें दो " फ़िल्म के साथ ख़ुद
को अनावरण होनें के लिए बेबस कर दिया । घर में टीबी चनल खोला , एक साधारण
सा धारावाहिक आ रहा था , मन उस समय तक शांत हो गया था पर अचानक ही एक २२
वर्षीय किशोर का २० वर्षीय नवयुवती को उठाकर चुम्बन लेना और उसका उसके
बाँहों में कसमसाना फ़िर से मुझे उसी वातावरण में ला धकेला । अब तक मैं
अपनें आप को असंतुलित पा रहा था , परीक्षा का समय कोई इधर उधर की हरकत भी
नहीं कर सकता था क्योंकि सबसे बड़ी दिक्कत तो स्मृति-दशा को एक संतुलित
अवस्था प्रदान करना था ।
ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।
ऐसे में अगर मेरे पास कोई चारा बचा था ख़ुद को वासना से बचानें के लिए तो एक मात्र , साहित्य-संसार। वस्तुतः यह एक ऐसी दुनिया है जिसमें वासना नहीं है , कुंठा नहीं है , शारीरिक प्यास नहीं है और नहीं है दो जोशीले जिस्म के टकरानें की चाह ,ऐसी धारणा प्रायः हमारी थी क्योंकि ये भ्रम कई दिनों पहिले ही हमारे मष्तिष्क में विद्यमान थी कि , साहित्य में तो हमारे उन कर्मठ पुरुषों की वाणी रहती होगी जो भारतीय संस्कृति के संवाहक हैं , पर जैसे ही हमनें एक पुस्तक उठाई , मुंह खुला का खुला रह गया , हाँथ थर्थरानें लगा , शरीर तो ऐसा बेकाबू हो गया जैसे मानों कोई अंदर प्रवेश करनें लगा हो और क्यों कि समाहित ना हो पा रहा हो तड़प उठा और बौखला उठा । मैं " सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक "(सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ), डॉ मिथिलेश गुप्ता की समीक्षा "विवाह के पाँच वर्ष तक कुंवारी रहनें के बाद संतान प्राप्ति के लिए जिस पर -पुरूष के पास भेजा जाता है तो सारे शील छोड़कर उसके भीतर की नारी भड़क उठती है और पति है नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं, महामात्म्य है केवल पुरूष के सम्भोग के सुख में । " पढ़कर उठनें लगा मन में तरह तरह के सवाल । स्त्री का विवाह के बाद कुंवारी रहना , दूसरे पुरूष के पास भेजा जाना और उसके पास पहुंचकर , उसके नारीत्व का जागना आख़िर ये सब क्या है ? क्यों वह पुरूष के सम्भोग सुख से ही नारीत्व को प्राप्त हुई ? यह सम्भोग क्या होता है ?कैसे होता है , क्या जब स्त्री - पुरूष अकेले में मिलते है , एक दूसरे के बाँहों में झूमते हुए कसमसाते है या कल जो मैं दैनिक भास्कर पढा था , जिसमें एक व्यक्ति ६ वर्ष की लड़की का बलात्कार करता है अथवा परसों की " कृष्णा " फ़िल्म सनी दयोल की प्रेमिका को निर्वश्त्र करके खलनायक उसके जिस्म के साथ खेलता है , कि आजकल हर उस जगंह जहाँ व्यक्ति पहुँच रहे होते है , कंडोम को प्रयोग कर , निरोध को प्रयोग कर सहवास करनें की प्रेरणा दी जाती है ,क्या यही है सम्भोग क्या इन्हीं सब तत्वों के माध्यम से होता है सम्भोग सुख की प्राप्ति आज यह सवाल सिर्फ़ हमारा नहीं है जो १८-२० साल के उम्र को क्रास कर रहे हैं अपितु उन सभी बच्चों और किशोरों का है जो प्रायः अख़बार पढ़ रहे हैं , फ़िल्म देख रहे हैं , गानें सुन रहे हैं और कर रहे हैं अपनें आरी पडोस के लड़कियों या लड़कों से बातचीत । जब समाज के हर घर पर , हर गली , घर रस्ते , दरवाजे चाहे वह फ़िल्म हो या साहित्य , विज्ञान हो या कला , अख़बार हो या रेडियो , हर एक जगंह और प्रत्येक क्षेत्र में सेक्स एक प्रमुख आईना बनकर खड़ा है , एक मुख्य जरूरत के रूप में मुखरित हो रहा है , आख़िर ऐसी अवस्था में भी सेक्स एडुकेशन को क्यों नहीं स्कूलों में अनिवार्यता दी जा रही है ? समाज का एक बडा वर्ग इसके विरोध में तो अपनीं प्रतिक्रिया देता है पर अगर किसी भी दरवाजे पर जाकर किसी भी एक लडके या लड़की से सेक्स के विषय में अगर कुछपूंछा जाय तो शायद ही , वही जो पागल होगा , कोई न बता पाए बाकि तो ऐसा सब कुछ बता सकते हैं जिसको सुननें के बाद ना सिर्फ़ हम सोंचनें के लिए मजबूर हो जायेंगे अपितु हो उठेंगे संकित कि जरूर इन्हें कोई बिगड़ रहा है । जबकि उनको कोई बिगड़ता नहीं है । कम्पूटर , साहित्य , फ़िल्म , अख़बार तो इस प्रकार के मनोवृत्तियों को उभार ही रहे हैं ऐसे में कभी कभी हमारे घर का परिवेश ही उन्हें ऐसा कुछ सोंचनें और करनें के लिए मजबूर कर देता है ।
वो भी तो जरा तड़पे जो मुझको रुलाती है ...
कोशिश जो किया मैनें अब याद ना वो आए
पर याद को क्या कहेना वो आ ही जाती है
चाहूं जो भुलाना मैं उनको हरदम हरपल
तब याद बराबर क्यूं उनकी ही आती है
हर एक फिजाओं में उनकी ही वफाएं हैं
फरियाद करें क्या हम हमको ही सताती है
एहसान जरा मुझ पर ये याद करो इतना
वो भी तो जरा तड़पे जो मुझको रुलाती है
मौसम की तरंह मैं भी क्या खूब बना सरगम
पर वक्त को क्या कहेना वो दूर ही जाती है ...................
पर याद को क्या कहेना वो आ ही जाती है
चाहूं जो भुलाना मैं उनको हरदम हरपल
तब याद बराबर क्यूं उनकी ही आती है
हर एक फिजाओं में उनकी ही वफाएं हैं
फरियाद करें क्या हम हमको ही सताती है
एहसान जरा मुझ पर ये याद करो इतना
वो भी तो जरा तड़पे जो मुझको रुलाती है
मौसम की तरंह मैं भी क्या खूब बना सरगम
पर वक्त को क्या कहेना वो दूर ही जाती है ...................
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
कलयुग महिमा ......
है युग कलयुग नाम अपारा । सुमिरत भागत सुख संसारा ॥
जौ केहु चाह सदा लड़खड़ाना । कलयुग नाम जपहूँ प्रभु जाना ॥
बिन कलयुग के झगड़ा ना होई । मूरख गदहा दलिद्र कह सोयी ।.
अन्दर सास पतोहू के रहता । करत रहत सबके मुंह भरता ॥
बेटवा बोलै जौ गुस्साई । मेहर खीझि के चिमटा चलाई ।।
आवै बीच जे झगड़ा छुड़ावै । आखें चार के अपजस पावै ॥
कलयुग नाम सुखम् सुख हारी । तां जनता सब रहै दुखारी ॥
गली नगर बाजार दुवारी । जंह देखा तंह कलयुग भारी ॥
डालहुं नजर तनी लड़किन पर । कलयुग झलकत हर आत्मन तर ॥
पहिन ब्रीफ और केश झुलाई । देत अहैं सेफ्टी कै दुहाई ॥
पाछे कुत्ता लाखन दौडें । रहि रहि यौवन देखि के घिउरें ॥
जस अपजस लागत नहीं देरी । सैंडल रक्षा करै घनेरी ॥
जैसे सैंडल लडकी उडावई । सब लडिकन तब भाग्य अजमावई ॥
यह सब कलयुग की मनुसाई । लडकी लड़का दिखै इक छाईं ॥
बाल रखाई औ मूछ मुडाई । लगै सदा हिजड़ा सम भाई ॥
वहीँ पर पौडर वा होठलाली । देखि समाज देइ सब गाली ॥
पर गारी के शोक ना होई । कलयुग कहै डरो नहीं कोई ॥
एक दिन दुइ चर झापड़ पड़ता । सब किहें तब करता धरता ॥
अगलेन दिन बस जेल दुवारी । जल्दिन होइबा बेस्ट भिखारी ॥
हमरे रहे कुछ चिंता नाहीं । रहबे देत बबूल के छाहीं ॥
जौ केहु चाह सदा लड़खड़ाना । कलयुग नाम जपहूँ प्रभु जाना ॥
बिन कलयुग के झगड़ा ना होई । मूरख गदहा दलिद्र कह सोयी ।.
अन्दर सास पतोहू के रहता । करत रहत सबके मुंह भरता ॥
बेटवा बोलै जौ गुस्साई । मेहर खीझि के चिमटा चलाई ।।
आवै बीच जे झगड़ा छुड़ावै । आखें चार के अपजस पावै ॥
कलयुग नाम सुखम् सुख हारी । तां जनता सब रहै दुखारी ॥
गली नगर बाजार दुवारी । जंह देखा तंह कलयुग भारी ॥
डालहुं नजर तनी लड़किन पर । कलयुग झलकत हर आत्मन तर ॥
पहिन ब्रीफ और केश झुलाई । देत अहैं सेफ्टी कै दुहाई ॥
पाछे कुत्ता लाखन दौडें । रहि रहि यौवन देखि के घिउरें ॥
जस अपजस लागत नहीं देरी । सैंडल रक्षा करै घनेरी ॥
जैसे सैंडल लडकी उडावई । सब लडिकन तब भाग्य अजमावई ॥
यह सब कलयुग की मनुसाई । लडकी लड़का दिखै इक छाईं ॥
बाल रखाई औ मूछ मुडाई । लगै सदा हिजड़ा सम भाई ॥
वहीँ पर पौडर वा होठलाली । देखि समाज देइ सब गाली ॥
पर गारी के शोक ना होई । कलयुग कहै डरो नहीं कोई ॥
एक दिन दुइ चर झापड़ पड़ता । सब किहें तब करता धरता ॥
अगलेन दिन बस जेल दुवारी । जल्दिन होइबा बेस्ट भिखारी ॥
हमरे रहे कुछ चिंता नाहीं । रहबे देत बबूल के छाहीं ॥
बुधवार, 20 अगस्त 2008
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ...........
दिवस बीति रहि आश में आश ना आशा कोय
वहि आशा नहीं आश है जिह मैं आशा ना होय ॥ १ ॥
यह जीवन तो फूल है फ़िर क्यों बनता धूल
तूं सुख की सागर निधि करता क्योंकर भूल ॥ २॥
राम नाम तूं राम कह कह ना दूजो नाम
राम सुबह का नाम है बाकी से है शाम ॥ ३॥
यह जन्म सुख का पुंज है दुःख तो कुछ का नाम
कुछ खोजो कुछ जानके घूमों ना निष्काम ॥ ४॥
खोजन मैं प्रेमी चला हुआ झूठ बदनाम
पाय खडाऊं आन बसा किया जगत कोहराम ॥ ५॥
गुरु तो ज्ञान का नाम है मातु बसत है प्राण
पिता सुख समृद्धि है बाकी धूल सामान ॥ ६ ॥
मातु विपत करुणामयी पित्रि विपत मनोदास
गुरु विओग जीवन दुखी नहीं लोचन कबहूँ सुखाश ॥ ७॥
मैं मैं मैं का दास हूँ फ़िर क्योंकर कोई बात
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ॥ ८ ॥
अगुन सगुण निर्गुण जगत सब में है तत्वेक
ग्यानान्धाकार तुझमें बसा तिस कारन है अनेक ॥ ९॥
वहि आशा नहीं आश है जिह मैं आशा ना होय ॥ १ ॥
यह जीवन तो फूल है फ़िर क्यों बनता धूल
तूं सुख की सागर निधि करता क्योंकर भूल ॥ २॥
राम नाम तूं राम कह कह ना दूजो नाम
राम सुबह का नाम है बाकी से है शाम ॥ ३॥
यह जन्म सुख का पुंज है दुःख तो कुछ का नाम
कुछ खोजो कुछ जानके घूमों ना निष्काम ॥ ४॥
खोजन मैं प्रेमी चला हुआ झूठ बदनाम
पाय खडाऊं आन बसा किया जगत कोहराम ॥ ५॥
गुरु तो ज्ञान का नाम है मातु बसत है प्राण
पिता सुख समृद्धि है बाकी धूल सामान ॥ ६ ॥
मातु विपत करुणामयी पित्रि विपत मनोदास
गुरु विओग जीवन दुखी नहीं लोचन कबहूँ सुखाश ॥ ७॥
मैं मैं मैं का दास हूँ फ़िर क्योंकर कोई बात
मैं सागर के पास जब लहर करे क्यों घात ॥ ८ ॥
अगुन सगुण निर्गुण जगत सब में है तत्वेक
ग्यानान्धाकार तुझमें बसा तिस कारन है अनेक ॥ ९॥
श्रृंगार के झरोखे से
रूप कली गुलाब कीं वाणी मधु की बूँद
लोचन तीखी तीर सम कातेत तन जस सूत ॥१॥
क्यों बैठी तड़पाइ रही आहु पास इठलाई
चम्पक चमकि चवरि धरि भेटहुं तुम बलखाई ॥२॥
कोशों दूर खड़ी अडी साधि रही अकवार
देखत चितवत चमक तर आँख -भँवर ललकार ॥३॥
देखहूँ प्रभु की दीनता दिया क्या सौन्दर्य हार
लचकन भर में उनके आवत बसंत बहार ॥४॥
यौवन - कसा झीनी - लता नवयौवना मदमस्त
देखि रूप - लावर्न्यता कविगण होत सिद्धस्त ॥५॥
देखन में जो आनंद रस मिलत कबहूँ नहीं भोग
है आंकन में जो दिखत बनत कबहूँ नहीं जोग ॥६॥
लोचन तीखी तीर सम कातेत तन जस सूत ॥१॥
क्यों बैठी तड़पाइ रही आहु पास इठलाई
चम्पक चमकि चवरि धरि भेटहुं तुम बलखाई ॥२॥
कोशों दूर खड़ी अडी साधि रही अकवार
देखत चितवत चमक तर आँख -भँवर ललकार ॥३॥
देखहूँ प्रभु की दीनता दिया क्या सौन्दर्य हार
लचकन भर में उनके आवत बसंत बहार ॥४॥
यौवन - कसा झीनी - लता नवयौवना मदमस्त
देखि रूप - लावर्न्यता कविगण होत सिद्धस्त ॥५॥
देखन में जो आनंद रस मिलत कबहूँ नहीं भोग
है आंकन में जो दिखत बनत कबहूँ नहीं जोग ॥६॥
क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते.......?
देखो जरा सम्हल के दुनिया कहाँ डुबी है
है राज रंग किनारा पर होश में नहीं है
कैसे बताऊँ क्या मैं क्या आज हो रहा है
मानवता के शिखर पर मानव ही रो रहा है
पड़े हैं कुछ गरीबी उनका भी ख्याल रख लो
घूमते हुए नजर से उनको भी थोड़ा लख लो
मझधार में फंसे हैं है ना कोई किनारा
हो पास में तुम्हीं गर तो आश है तुम्हारा
भूखे हैं वो है प्यासे बस दम निकल रहा है
लेकिन समय वफा की वफ़ा ही सो रहा है
ऐ आधुनिक जमानें फैशन से बाज आओ
भूले हुए जो पथ हो वापस उसी पर जाओ
क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते
आतंक दर्द गरीबी नामों निशा न होते
जाने कहाँ क्या कैसे इस युग में हो रहा है
कुछ होश में था जो भी उसको यूँ खो रहा है
है राज रंग किनारा पर होश में नहीं है
कैसे बताऊँ क्या मैं क्या आज हो रहा है
मानवता के शिखर पर मानव ही रो रहा है
पड़े हैं कुछ गरीबी उनका भी ख्याल रख लो
घूमते हुए नजर से उनको भी थोड़ा लख लो
मझधार में फंसे हैं है ना कोई किनारा
हो पास में तुम्हीं गर तो आश है तुम्हारा
भूखे हैं वो है प्यासे बस दम निकल रहा है
लेकिन समय वफा की वफ़ा ही सो रहा है
ऐ आधुनिक जमानें फैशन से बाज आओ
भूले हुए जो पथ हो वापस उसी पर जाओ
क्या बात हो अगर तुम इंसानियत पर होते
आतंक दर्द गरीबी नामों निशा न होते
जाने कहाँ क्या कैसे इस युग में हो रहा है
कुछ होश में था जो भी उसको यूँ खो रहा है
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