शनिवार, 3 जुलाई 2010
सरस्वती वंदना - ऐसा वर दो
छोड़ मातु पिता गुरु साथ चले तव खोजन में माँ सरस्वती
एक आश बड़ा विश्वाश भरा मम पूरा करो माँ सरस्वती
हे वीणापाणिं वीणा वादिनी हम आज तुम्हारे शरणों में
दर दर भटका कुछ मिला नहीं अब ध्यान तुम्हारे चरणों में ॥
इतना सा बस किरपा कर दो हो सर ऊंचा ऐसा वर दो
अज्ञान हरण हो ज्ञान महा दुर्बुद्धि में ऐसा सुध भर दो
औरों की चाह नहीं मुझको बस नाम तुम्हारा अधरों में
पर -कार्यन में मन रमा रहे रहे निरत सदा शुभ कर्मो में ॥
धन की कुछ चाह नही मुझको नहीं शौक किसी सुख साधन की
नहीं अभिलाषा मणि -महलों में रहूँ पर क्षमता दो दुःख भाजन की
वीणा की जो नव सुर हो ''अनिल'' वह सुर फैले हर नगरों में
हो शीतल तेज प्रकाशित मन विचलित नहीं भौतिक लहरों में ॥
एक आश बड़ा विश्वाश भरा मम पूरा करो माँ सरस्वती
हे वीणापाणिं वीणा वादिनी हम आज तुम्हारे शरणों में
दर दर भटका कुछ मिला नहीं अब ध्यान तुम्हारे चरणों में ॥
इतना सा बस किरपा कर दो हो सर ऊंचा ऐसा वर दो
अज्ञान हरण हो ज्ञान महा दुर्बुद्धि में ऐसा सुध भर दो
औरों की चाह नहीं मुझको बस नाम तुम्हारा अधरों में
पर -कार्यन में मन रमा रहे रहे निरत सदा शुभ कर्मो में ॥
धन की कुछ चाह नही मुझको नहीं शौक किसी सुख साधन की
नहीं अभिलाषा मणि -महलों में रहूँ पर क्षमता दो दुःख भाजन की
वीणा की जो नव सुर हो ''अनिल'' वह सुर फैले हर नगरों में
हो शीतल तेज प्रकाशित मन विचलित नहीं भौतिक लहरों में ॥
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
शायद भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष ''इरादा'' हो गया है ... .
ये इश्क बड़ा बेदर्दी है '' जो सिर्फ उसे ही नहीं ''रात दिन जगाये '' जो
इसके गिरफ्त में आये बल्कि अब यह उन लोगों के लिए भी गले की फास होती जा
रही है जो ''इश्क के इन दीवानों '' के बीच में आते हैं और 'सामाजिक
प्रतिष्ठा'या पारिवारिक मर्यादा ' अथवा सभ्य समाज का हवाला देकर उन्हें ऐसा
करने से रोकते हैं । जबकि वे करते तो एक प्रकार से ठीक ही हैं क्योंकि
प्रेमी जोड़ों का इस प्रकार से स्तित्व में आना न सिर्फ अनैतिकता को
निमंत्रण देना है अपितु आधुनिकता के वातावरण में आदिमान्वी प्रवृत्ति को
पोषना भी है । पर इनके इस उद्दघोष के आगे की '' जब जब प्यार का पहरा हुआ है
प्यार और भी गहरा हुआ है ''या '' प्यार में जियेंगे या मर जायेंगे '' अथवा
''प्यार करने वाले किसी से डरते नहीं '', उनकी सभी उक्तियाँ बेजान सी
दिखाई देनें लगी हैं ।
तब ऐसी अवस्थामें खाप पंचायतें वोट बैंक हैं ,ग्रामीण परिवेश मूर्ख है ,पारंपरिक भारतीय समाज गधों का समाज है जो सिर्फ और सिर्फ भेडचाल करना जानती है । जो ना तो किसी के स्तित्व को समझती है और ना ही तो सभ्यता के आगे सम्बंधित 'संवेदना' को मान्यता देती है ।
तो क्या उन प्रेमी जोड़ों के स्तित्व को स्वीकार कर लिया जय । १०-१५ वर्ष तक के लडके लडकियों को प्रेम करने की खुली छूट दे दी जय ? खुली छूट जिसमें लडके लडकियाँ खुले तौर पर कहीं भी , किसी भी जगंह , बाहों में बाँहें डाले , होठ से होठ सताए , निर्वस्त्र, नंगे , कुत्तों और जानवरों की तरंह सडको पर , गलियों में , अथवा अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ,जिस्मानी सम्बंध बनाए और लोग देखते रहे ? और फिर क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है की लोग सिर्फ देखेंगे ही ? क्या वे भी इसी रंग में नहीं रंग जायेंगे ? तब ऐसी स्थिति में क्या दशा होगी भारतीयता की अथवा उस भारतीय समाज की जो आदर्श्ता, नैतिकता और संयम जैसे नीव पर आधारित है ?
फिर तो भाई-बहन , माता -भाभी आदि रिश्तों का कोई सवाल ही नहीं रह जाता , स्तित्व ही नहीं रह जाता यहाँ पर । जहां पर इश्क ही सब कुछ समझ लिया जाय, प्रेम ही सब कुछ मान लिया जाय ,अथवा जान लिया जाय मुहोब्बत को ही सब कुछ वहाँ पर तब रिश्ते नाम की क्या कोई चीज रह जायेगी ?आखिर एन जी ओ ,' चाहती तो यही है की 'प्रेमी जोड़ों को कानूनी सुरक्षा दी जाय', 'प्रत्येक जिले में कानूनी कार्यालय बनाई जाय।' ' उनके लिए दंड का प्रावधान किया जाय जो इनके विरोध में खड़े होते है अड़े होते हैं उनको सामाजिकता का बोध कराने के लिए ''।
क्यों ? आखिर ऐसा क्यों ? समझ नहीं आता की ये किसी विशेष अधिकार की मांग है या एक विशेष प्रकार का पागलपन जो कभी प्रेम की स्वतंत्रता के प्रति उमड़ता है तो कभी वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने के प्रति । फिर एक सभ्य समाज पर इन कानूनों का क्या असर पड़ेगा क्या इसके भी विषयों पर कभी सोंचा गया ? जहां तक मेरा ख्याल है तो भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष इरादा हो गया है .... ।
तब ऐसी अवस्थामें खाप पंचायतें वोट बैंक हैं ,ग्रामीण परिवेश मूर्ख है ,पारंपरिक भारतीय समाज गधों का समाज है जो सिर्फ और सिर्फ भेडचाल करना जानती है । जो ना तो किसी के स्तित्व को समझती है और ना ही तो सभ्यता के आगे सम्बंधित 'संवेदना' को मान्यता देती है ।
तो क्या उन प्रेमी जोड़ों के स्तित्व को स्वीकार कर लिया जय । १०-१५ वर्ष तक के लडके लडकियों को प्रेम करने की खुली छूट दे दी जय ? खुली छूट जिसमें लडके लडकियाँ खुले तौर पर कहीं भी , किसी भी जगंह , बाहों में बाँहें डाले , होठ से होठ सताए , निर्वस्त्र, नंगे , कुत्तों और जानवरों की तरंह सडको पर , गलियों में , अथवा अन्य किसी भी सार्वजनिक स्थल पर ,जिस्मानी सम्बंध बनाए और लोग देखते रहे ? और फिर क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है की लोग सिर्फ देखेंगे ही ? क्या वे भी इसी रंग में नहीं रंग जायेंगे ? तब ऐसी स्थिति में क्या दशा होगी भारतीयता की अथवा उस भारतीय समाज की जो आदर्श्ता, नैतिकता और संयम जैसे नीव पर आधारित है ?
फिर तो भाई-बहन , माता -भाभी आदि रिश्तों का कोई सवाल ही नहीं रह जाता , स्तित्व ही नहीं रह जाता यहाँ पर । जहां पर इश्क ही सब कुछ समझ लिया जाय, प्रेम ही सब कुछ मान लिया जाय ,अथवा जान लिया जाय मुहोब्बत को ही सब कुछ वहाँ पर तब रिश्ते नाम की क्या कोई चीज रह जायेगी ?आखिर एन जी ओ ,' चाहती तो यही है की 'प्रेमी जोड़ों को कानूनी सुरक्षा दी जाय', 'प्रत्येक जिले में कानूनी कार्यालय बनाई जाय।' ' उनके लिए दंड का प्रावधान किया जाय जो इनके विरोध में खड़े होते है अड़े होते हैं उनको सामाजिकता का बोध कराने के लिए ''।
क्यों ? आखिर ऐसा क्यों ? समझ नहीं आता की ये किसी विशेष अधिकार की मांग है या एक विशेष प्रकार का पागलपन जो कभी प्रेम की स्वतंत्रता के प्रति उमड़ता है तो कभी वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने के प्रति । फिर एक सभ्य समाज पर इन कानूनों का क्या असर पड़ेगा क्या इसके भी विषयों पर कभी सोंचा गया ? जहां तक मेरा ख्याल है तो भारतीय और भारतीयता को गाली देना ही कुछ लोगों का विशेष इरादा हो गया है .... ।
यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन ' छोड़ने की तो शायद ही ........ .
आदर्शता और नैतिकता क्या कभी विकास का पर्याय हो सकते हैं ? समझ में यही
नहीं आता । विकास वह विकास जिसमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का
उद्देश्य लक्षित हो और वह आदर्शता और नैतिकता के आवरण में फलता फूलता
दिखाई दे । पर ये सिर्फ और सिर्फ संभावनाएं हैं और अटकल हैं । जिसमें सिर्फ
आशाये की जा सकती है । अटकलबाजी की जा सकती है । वास्तविकता दूर दूर तक
कहीं भी नजर नहीं आ सकती । फिर आखिर किस प्रकार विकास पथ को सुदृढ़ किया जय ?
चारित्रिक दृष्टि से तो आदर्शता और नैतिकता की बात कुछ हद तक तो समझ में आती है पर ये एक ऐसी कड़ी है जो कभी भी चाहे वह आध्यात्मिक मार्ग हो या फिर भौतिक मार्ग ठीक ठाक तरीके से सिर्फ जीवन यापन करने का तरीका दे सकती हैं ना तो आध्यात्मिकता का संबल प्रदान कर सकती हैं और ना ही तो भौतिकता का आनंद । क्योंकी इतिहाश गवाह है , जो कोई भी, कभी भी अपना विकास किया है , भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही अस्तर पर , उन्हें इस आदर्शता और नैतिकता को ठुकराना पड़ा है । छोड़ना पड़ा है और पड़ा है त्यागना । फिर चाहे वह महात्मा गांधी हों , [सत्य के प्रयोग], या फिर गौतम बुद्ध । भीमराव आंबेडकर हों या फिर क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह । 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी जब वकालत के लिए विदेश का रुख करते हैं उन्हें मिलता क्या है -जाती निकला का तमगा जिनके चलते इन्हें उन नैतिक नियमों को तिलांजलि देना पड़ा । दलित वर्ग को ठीक ठाक स्थिति में लाने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय आंबेडकर को भी करना पड़ा था। हालांकि रोक लिया गया ये बात दूसरी थी , पर रास्ता तो वही था ''विद्रोह'' आदर्शता और नैतिकता से ।
विद्वनों, कवियों और दार्शनिको की भी मने तो यही बात सामने आती है और कुछ तो इसे माया की संज्ञा देकर ''माया महा ठगनी हम जानी '',कहा तो कुछ ने पारिवारिक वातावरण से दूर होकर ''छोड़ धाम धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में '' की धरना अपनाई । जबकि बहुतो ने '' अब हम तो चले प्रदेश की मेरा यहाँ कोई नहीं '' या ''ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना नहीं दुबारा '' की प्रवृत्ति का अनुसरण किया ।और यही '' मेरा यहाँ कोई नहीं '' की प्रवृत्ति ने ही उन्हें विकास का फलक प्रदान किया । और इस भाई- भतीजावाद की भवचक्कर में कुल्चक्कर में उलझकर बर्बाद हों से सचेत किया क्योंकि यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन' छोडनें की तो शायद ही यहाँ पर गाँधी और विवेकानंद जैसे प्रेरणाश्रोत के दर्शन होते ।
चारित्रिक दृष्टि से तो आदर्शता और नैतिकता की बात कुछ हद तक तो समझ में आती है पर ये एक ऐसी कड़ी है जो कभी भी चाहे वह आध्यात्मिक मार्ग हो या फिर भौतिक मार्ग ठीक ठाक तरीके से सिर्फ जीवन यापन करने का तरीका दे सकती हैं ना तो आध्यात्मिकता का संबल प्रदान कर सकती हैं और ना ही तो भौतिकता का आनंद । क्योंकी इतिहाश गवाह है , जो कोई भी, कभी भी अपना विकास किया है , भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही अस्तर पर , उन्हें इस आदर्शता और नैतिकता को ठुकराना पड़ा है । छोड़ना पड़ा है और पड़ा है त्यागना । फिर चाहे वह महात्मा गांधी हों , [सत्य के प्रयोग], या फिर गौतम बुद्ध । भीमराव आंबेडकर हों या फिर क्रन्तिकारी सरदार भगत सिंह । 'सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी जब वकालत के लिए विदेश का रुख करते हैं उन्हें मिलता क्या है -जाती निकला का तमगा जिनके चलते इन्हें उन नैतिक नियमों को तिलांजलि देना पड़ा । दलित वर्ग को ठीक ठाक स्थिति में लाने के लिए हिन्दू धर्म को त्यागने का निर्णय आंबेडकर को भी करना पड़ा था। हालांकि रोक लिया गया ये बात दूसरी थी , पर रास्ता तो वही था ''विद्रोह'' आदर्शता और नैतिकता से ।
विद्वनों, कवियों और दार्शनिको की भी मने तो यही बात सामने आती है और कुछ तो इसे माया की संज्ञा देकर ''माया महा ठगनी हम जानी '',कहा तो कुछ ने पारिवारिक वातावरण से दूर होकर ''छोड़ धाम धन जाकर मैं भी रहूँ उसी वन में '' की धरना अपनाई । जबकि बहुतो ने '' अब हम तो चले प्रदेश की मेरा यहाँ कोई नहीं '' या ''ये गलियाँ ये चौबारा यहाँ आना नहीं दुबारा '' की प्रवृत्ति का अनुसरण किया ।और यही '' मेरा यहाँ कोई नहीं '' की प्रवृत्ति ने ही उन्हें विकास का फलक प्रदान किया । और इस भाई- भतीजावाद की भवचक्कर में कुल्चक्कर में उलझकर बर्बाद हों से सचेत किया क्योंकि यही सचेतनता यदि ना आयी होती 'धाम धन' छोडनें की तो शायद ही यहाँ पर गाँधी और विवेकानंद जैसे प्रेरणाश्रोत के दर्शन होते ।
वो बस एक कल्पना भर थी .....
हुए जो दूर तो
नजदीकियों की एक चाहत ने
आवाज दिया धीरे से
खामोश हो सुनता रहा
मजबूरी की दबिस में
मन ही मन घुटता रहा
मह्शूश किया तपिश
आत्मा की
और एक कदम बढाया
आशाओं की एक आहट ने
स्वागत किया धीरे से
पास आये , थे जो दूर
किया मैं उनको इस कदर मजबूर
क्या हुआ की
वो बस एक
कल्पना भर थी ...... ।
नजदीकियों की एक चाहत ने
आवाज दिया धीरे से
खामोश हो सुनता रहा
मजबूरी की दबिस में
मन ही मन घुटता रहा
मह्शूश किया तपिश
आत्मा की
और एक कदम बढाया
आशाओं की एक आहट ने
स्वागत किया धीरे से
पास आये , थे जो दूर
किया मैं उनको इस कदर मजबूर
क्या हुआ की
वो बस एक
कल्पना भर थी ...... ।
मंगलवार, 29 जून 2010
परिवर्तन का चक्र
परिवर्तन का चक्र चलता रहता है । जो ऊपर है वो नीचे और जो नीचे है ओ ऊपर
होता रहता है ."(जवाहरलाल नेहरु ) । और यही वो परिवर्तन है जो पहले तो
अस्थाई रूप से हमें अपनी आहट भर देता है लेकिन बाद में स्थाई रूप धारण करके
हमारे ही जीवन का एक अंश हो जाता है और स्वीकार करना पड़ता है हमें उसको
और उसके स्तित्वा को । पर क्यों ? क्यों होता है इतना परिवर्तन ?इतने
विस्तृत रूप में इतने व्यापक रूप में । वो हमारे सामने आता है और सब कुछ
देखते ही देखते रिक्त क्र चला जाता है। और हम ना तो उसका आना समझ पाते है
और ना ही तो उसका जाना । आखिर क्या चक्कर है उसको आने का ?
क्या मानव जीवन की अनिश्चितता का बोध कराने आता है यह या फिर अनागत भविष्य के प्रति चिंतित होने का संकेत लाता है । पर यदि चिंतित होने का संकेत ही लाता होता तो जो पूर्ण रूप से नाश के द्वार पर खड़े होते हैं , विलासिता के कगार पर अड़े होते है , और पड़े होते हैं कंगाली के रस्ते पर क्या वे सुधर ना जाते ? स्वयं को फिर उसी मार्ग पर न लाकर खड़ा क्र देते जहां से वे सिक्स को अपने जीवन में न्य आयाम दिए थे ? फिर आखिर वे अपने स्वर्णिम इतिहाश के दिनों को कीचड से दबे हुए वर्तमान की भयावह स्थिति को क्यों सौंपते ? फिर एक राजा राजा ही न रहता । वह सड़कों पर क्यों आता ? भीख मांगनें के लिए पेट भरनें के लिए या सब कुछ गंवाकर मर मिटने के लिए?
नहीं परिवर्तन सचेत करनें के लिए नहीं आता और ना ही तो किसी को अचेत करने के लिए आता है । अगर वह आता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रेरणा रूप में । ये बात और है की जो अनुसरनक है वे इससे किस रूप में प्रेरित होते है । नहस रूप में या विकास रूप में ? पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियाँ , , अफगानिस्तान और तालिबान की मानवीयता के खिलाफ न्रिशंश नीतियाँ , और भारत में नक्सलियों की विद्रोही उक्तियाँ इसी परिवर्तन का ही एक रूप है । एक अंश है । जो एक दूसरे को सचेत क्र रहा है । अब कोई इनसे बचने की तरतीब सोंच रहा है तो कोई इनसे लड़ने की । कोई इन्हें मारने की तरतीब लिए बैठा है तो कोई स्वयं मर मिटने की । जिस प्रकार से विभिन्न देश है उसी प्रकार से विभिन्न विचार । यहाँ कौन किस रूप में प्रेरित होता है वह तो वही ' परिवर्तन का चक्र; ही निर्धारित करता है । जो आता है और देखते ही देखते एक व्यापक परिदृश्य सामने रखकर चला जाता है । परिवर्तन का चक्र ... ।
क्या मानव जीवन की अनिश्चितता का बोध कराने आता है यह या फिर अनागत भविष्य के प्रति चिंतित होने का संकेत लाता है । पर यदि चिंतित होने का संकेत ही लाता होता तो जो पूर्ण रूप से नाश के द्वार पर खड़े होते हैं , विलासिता के कगार पर अड़े होते है , और पड़े होते हैं कंगाली के रस्ते पर क्या वे सुधर ना जाते ? स्वयं को फिर उसी मार्ग पर न लाकर खड़ा क्र देते जहां से वे सिक्स को अपने जीवन में न्य आयाम दिए थे ? फिर आखिर वे अपने स्वर्णिम इतिहाश के दिनों को कीचड से दबे हुए वर्तमान की भयावह स्थिति को क्यों सौंपते ? फिर एक राजा राजा ही न रहता । वह सड़कों पर क्यों आता ? भीख मांगनें के लिए पेट भरनें के लिए या सब कुछ गंवाकर मर मिटने के लिए?
नहीं परिवर्तन सचेत करनें के लिए नहीं आता और ना ही तो किसी को अचेत करने के लिए आता है । अगर वह आता है तो सिर्फ और सिर्फ प्रेरणा रूप में । ये बात और है की जो अनुसरनक है वे इससे किस रूप में प्रेरित होते है । नहस रूप में या विकास रूप में ? पाकिस्तान की आतंकवादी गतिविधियाँ , , अफगानिस्तान और तालिबान की मानवीयता के खिलाफ न्रिशंश नीतियाँ , और भारत में नक्सलियों की विद्रोही उक्तियाँ इसी परिवर्तन का ही एक रूप है । एक अंश है । जो एक दूसरे को सचेत क्र रहा है । अब कोई इनसे बचने की तरतीब सोंच रहा है तो कोई इनसे लड़ने की । कोई इन्हें मारने की तरतीब लिए बैठा है तो कोई स्वयं मर मिटने की । जिस प्रकार से विभिन्न देश है उसी प्रकार से विभिन्न विचार । यहाँ कौन किस रूप में प्रेरित होता है वह तो वही ' परिवर्तन का चक्र; ही निर्धारित करता है । जो आता है और देखते ही देखते एक व्यापक परिदृश्य सामने रखकर चला जाता है । परिवर्तन का चक्र ... ।
माँ तू आज मुझे याद आई
माँ तू आज
मुझे याद आई
चारों तरफ की हरियाली
हो गयी ख़ाली खाली
नव पल्लव से सजते
दिखी मुझे सूखी डाली
भर गयी उस्डौरी सारी
डूब लाई हरियाली
तब माँ तेरी वह 'भूमिका'
मेरे मन मष्तिष्क में आई
माँ तू आज मुझे याद आई
खाने को रोटी नहीं
कपडा गन्दा साफ़ नहीं
धूल उड़ जब धरा से
धीरे धीरे तेज वेग से
मेरे मुख मंडल पर आयी
याद उस आँचल के
तनिक छुवन की कर
जब मेरी आखें भर आई
तब माँ !
तू आज मुझे याद आई ...... ।
मुझे याद आई
चारों तरफ की हरियाली
हो गयी ख़ाली खाली
नव पल्लव से सजते
दिखी मुझे सूखी डाली
भर गयी उस्डौरी सारी
डूब लाई हरियाली
तब माँ तेरी वह 'भूमिका'
मेरे मन मष्तिष्क में आई
माँ तू आज मुझे याद आई
खाने को रोटी नहीं
कपडा गन्दा साफ़ नहीं
धूल उड़ जब धरा से
धीरे धीरे तेज वेग से
मेरे मुख मंडल पर आयी
याद उस आँचल के
तनिक छुवन की कर
जब मेरी आखें भर आई
तब माँ !
तू आज मुझे याद आई ...... ।
उदास मेरा मन
न जाने क्यों मन मेरा
रहता है उदास हर तरह
चाहता हूँ वह खुश रहे
समझे न समझे पर
छोड़े न कुछ अनकहे
आता नहीं समझ
आखिर क्या है वजह
रहता है उदास हर तरंह
तोड़ता रहा
नैतिक वर्जनाओं को
बंधता रहा नैतिक बंदिशों में
अनैतिकता के डर से
शंकाओं के भय से
भागता रहा मन
परम्पराओं के कहर से
फिर भी रीतियों से उलझा मन मेरा
रहता है उदास हर तरंह ........... ।
रहता है उदास हर तरह
चाहता हूँ वह खुश रहे
समझे न समझे पर
छोड़े न कुछ अनकहे
आता नहीं समझ
आखिर क्या है वजह
रहता है उदास हर तरंह
तोड़ता रहा
नैतिक वर्जनाओं को
बंधता रहा नैतिक बंदिशों में
अनैतिकता के डर से
शंकाओं के भय से
भागता रहा मन
परम्पराओं के कहर से
फिर भी रीतियों से उलझा मन मेरा
रहता है उदास हर तरंह ........... ।
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