शनिवार, 25 सितंबर 2010
शायद मैं , आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक
हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक
फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक
न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक
छाती है घटा जिधर से भी
देता हूँ दो बूँद फेंक
हर मौके की अपनी
सिनाखत होती है एक
वहीँ छोटी सी इस जिंदगी में
आफत होती है अनेक
कोई समझे न मुझे
रहता हूँ बेखबर इस दुनिया से
पल दो पल बाद
देता हूँ दो बूँद फेंक
फिर भी कुछ लोग समझे
धुंए के तेज से निकली
आँखों का पानी है ये
समय बेसमय इसीलिए
देता हूँ दो बूँद फेंक
न हंसी हो हमारी
न बदनामी उन आसुओं का
कि समझे लोग
खेल है ये किन्हीं मासूमों का
खाकर गम ही सही
देता हूँ दो बूँद फेंक
शायद , शायद मैं
आंसुओं का समुन्दर हूँ एक .............. .
अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनिओन के प्रांगन से
लाल लाल लाल धरा का लाल आ गया है
प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है
सुधरों ऐ पूजीपतियों सम्हालो स्वयं को
न समझो ये भ्रष्टाचार का कोई दलाल आ गया है
और ना ही तो कूराकर्कत का कोई जंजाल आ गया है
निचोड़कर खाए हो जिसके चामों को अभी तक
भूख से चरमराता वही कंकाल आ गया है
समझो तुम्हारे ऐय्यासी पर मंडराता तुम्हारा काल आ गया है
क्योंकि प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है ....... .
* * *** * * * * * * *
चल रहा था बेचैन हवा इस कदर
बह रहा था कहीं मै इधर कुछ उधर
उठा एक झोंका कि बस सबर खा गये
थोड़ी देर के लिए ही सही , कहीं गुजर पा गये
बंद हुआ जब चलना हवा, तो सोंचा ,हम कहाँ आ गये
और पहुंचा जब यहाँ तो लगा घर आ गये
* * * *** **** *** **** * ****
कितने लोग हमारे लिए इतने आत्मीय होते हैं
बड़े होकर भी , हम उनके लिए छोटे हैं
पता नहीं वे हमको याद करते हैं कि नहीं
हम तो उनके ख्यालों में अब भी रो लेते हैं ................ .
प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है
सुधरों ऐ पूजीपतियों सम्हालो स्वयं को
न समझो ये भ्रष्टाचार का कोई दलाल आ गया है
और ना ही तो कूराकर्कत का कोई जंजाल आ गया है
निचोड़कर खाए हो जिसके चामों को अभी तक
भूख से चरमराता वही कंकाल आ गया है
समझो तुम्हारे ऐय्यासी पर मंडराता तुम्हारा काल आ गया है
क्योंकि प्रगति का उन्नति का नव भूचाल आ गया है ....... .
* * *** * * * * * * *
चल रहा था बेचैन हवा इस कदर
बह रहा था कहीं मै इधर कुछ उधर
उठा एक झोंका कि बस सबर खा गये
थोड़ी देर के लिए ही सही , कहीं गुजर पा गये
बंद हुआ जब चलना हवा, तो सोंचा ,हम कहाँ आ गये
और पहुंचा जब यहाँ तो लगा घर आ गये
* * * *** **** *** **** * ****
कितने लोग हमारे लिए इतने आत्मीय होते हैं
बड़े होकर भी , हम उनके लिए छोटे हैं
पता नहीं वे हमको याद करते हैं कि नहीं
हम तो उनके ख्यालों में अब भी रो लेते हैं ................ .
बालक वह चलता
बालक वह चलता
दिन भर टहलता
काम सारे अपने हिस्से का
खुश होकर करता
मलाल नहीं उसे इस बात की
संरक्षण में वह दूसरों के पलता
कोई भी सामान घर का
कोई भी स्थान घर का
जिससे न बनती हो उसकी
नहीं कोई भी इन्सान घर का
सभी चाहते सभी मानते
हावी नहीं उसपर परवशता
सुनता है सब की
करता है अपनी
सब कुछ खाता है
सब कुछ सहता है
सुख -दुःख क्या है
नहीं भेद कर पाता है
यहाँ का सामान वहाँ
वहाँ का सामान यहाँ
घर की सजावट वह
अपने मनमाफिक करता है
खुश रखता है सबको , वह
खिलखिला के हँसता
शायद सोंचता है वह
किसी पर न पड़े भारी
उसकी अपनी लघुता
बालक वह चलता .......... .
दिन भर टहलता
काम सारे अपने हिस्से का
खुश होकर करता
मलाल नहीं उसे इस बात की
संरक्षण में वह दूसरों के पलता
कोई भी सामान घर का
कोई भी स्थान घर का
जिससे न बनती हो उसकी
नहीं कोई भी इन्सान घर का
सभी चाहते सभी मानते
हावी नहीं उसपर परवशता
सुनता है सब की
करता है अपनी
सब कुछ खाता है
सब कुछ सहता है
सुख -दुःख क्या है
नहीं भेद कर पाता है
यहाँ का सामान वहाँ
वहाँ का सामान यहाँ
घर की सजावट वह
अपने मनमाफिक करता है
खुश रखता है सबको , वह
खिलखिला के हँसता
शायद सोंचता है वह
किसी पर न पड़े भारी
उसकी अपनी लघुता
बालक वह चलता .......... .
बुधवार, 22 सितंबर 2010
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
उन मृदुल संबंधों की कैसे कहूं मैं कोई कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
मन कैसे विचलित हो उठा था ,थी अधीर मेरी जवानी
पाकर क्षण -सुख , दुःख वियोग का ,भर आया आखों पानी
थी हंसी , देख निज आकर्षण में ,पागल मेरे लिए इतना
होगा ना लहर सागर से भी मिलने को आतुर जितना
अव्यक्त ,अथाह , माया से लिपटी हुई सुरु अतृप्त कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
प्रत्यक्ष ही नहीं तुम यहाँ परोक्ष रूप भी आती हो
अपने कोमल - गात - स्नेह से मदमस्त हमें कर जाती हो
रोकता मन , दूर रहे छवि तेरी , बादल सा छा जाती हो
जागूं या सोऊ , ऊपर मैं , तर तुम आती जाती हो
फिर तो इस सौंदर्य गुलाम से करती रहती ऐसी मनमानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मृदु बानी ..
उन काले बालों की साया छाया अंचल पटु का उसके
रोक रही थी ,अवरुद्ध मार्ग था ,निर्मल ह्रदय,कटुता झुकते
तन पर वह थी ,उसपर मन था , आरी-बगल कोमल से सपने
प्रिये प्रिये उस प्रेम यग्य मे लगा ह्रदय माला से जपने
और खेल रही थी लिपटकर दोनों की नवल नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
बढ़ने दो अभी कुछ और , यूं रोको न , दो कोई ठौर
आनंद की असीमता में न आयेगा दूसरा ं दौर
अभी इसी वक्त मुझे सब कुछ पकड़ कर लेने दे
है आतुर ह्रदय मेरा कुछ और अधिक दे - लेने दे
हुई व्याकुल थी अंगुलियाँ ले - दे रही थी कोई निशानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मेरा मन विह्वल होता तन ऐसे सहलता जाता था
अपने कठोर हाथों से , उसके तन को मसल जब पाता था
जाती थी वह सिहर तब मजा और मुझे आता था
उसकी ना ना एक रट थी , मुझे और कुछ भाता था
पकरके स्निग्ध प्रेम को मचली ऐसे वह दीवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
स्तब्ध निशा थी , शांत प्रभा थी , तेज वासना का इतना
आतुरता थी हृदय मिलन की मेघ बरसने का जितना
''प्यासे तन को प्यासे मन से बरसकर हमको सिचना ह''ै
''रुको , आह ! न बढ़ो इतना कुछ अभी मुझे समझना है ''
बोली वह कुछ ऐसे जैसे कविवर कोई ग्यानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
हुई शांत सांसे जैसे थमी लहर किनारे से
निराश हो उठा मन ज्यों भिखमंगा धनी द्वारे से
भभक उठी आग तन की ज्वाला जैसे फौव्वारे से
लगी तड़पने वासना जैसे चीरी गयी हो आरे से
व्रिद्धावास्था सी दयनीय , लाचार , हुई अशांत जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
लगी कहने वह निश्छल '' ठहरो अभी समझना है
पागल होकर सब की तरंह नहीं यहाँ हमें उलझना है
यह काम - कामना ही नहीं सब कुछ , मुई मोह मई छलना है
वासनांचल से लिपटकर ही जीवन भर नहीं भटकना है
सोए हुए हो , जागो , देखो , करो न ऐसी नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
जिसके लिए पागल हो जगता था अभी तक रातों को
सुन्दर सोने - से सपने , रखता गर्वित जज्बातों को
सहेज रखा था जिनके लिए हसीन चाँदनी रातों को
टाल गयी पल भर में वह उन गर्वीली बातों को
उस अव्यक्त अगाध प्रेम को कह गयी मेरी नादानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मोह मई छलना ही था क्यों किया निमंत्रित मुझको
वशीभूत हो वासना के क्यों किया नियंत्रित खुद को
अरे ! इतना ही था सयम सम्हाला नहीं क्यों खुद को
जीवन का मर्म समझ प्यारी कैसे समझाऊँ तुझको
आ गले मिल मिल , कर तृप्त ह्रदय , चलने दे पवन सुहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
मिल कर गले से , हृदय के ताप सभी मिट जाने दे
जो जरूरी वस्तु है प्यारी मुझे और बस पाने दे
जाने दे उन अंत क्षणों तक , न बना कोई बहाने
''क्यों पागल - तम - निशा मे ं बिजली - सा आए रिझाने
ऐसा कह वह लगी बरसने जैसे बिन बादल पानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
जरूरी वस्तु क्या तुम्हारा क्षण भर का वह आनंद मोह
जिसमें उलझ , बर्बाद युवा , लगा सका ना कोई टोह
करते रहे हो दीन हीन माँ बाप जिंदगी भर बिछोह
खाने को दो अन्न नहीं कराह रहे हों हो दयनीय, ओह !
आती नहीं समझ तुम्हारी कैसी मद भरी जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
वासना आकांक्षित , उद्यान अंकुरित मृत वासनामाय उपवन में
''जीवन का मर्म '' क्या यही बीते समय बस स्वप्न शयन में
सत्य यही यदि क्यों न फिर हो जन्म श्वान योनी में
क्यों कलंकित करे आर्य को हो उत्पन्न मानस योनी में
इससे तो अच्छा यही , हो प्रवृत्ति हमारी शैतानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
माना दलदल यह ऐसा जहाँ नहीं सका बच कोई
काम-वासना विधि-विधान श्रृष्टि का नहीं प्रवंचना कोई
फिर भी वासनामय असुर से तुम्हें अभी लड़ना होगा
जो नहीं सका कर कोई उम्र भर , तुम्हे सभी करना होगा
ताकि उज्जवल रहे चरित्र जैसे निर्मल पानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
कमल-सेज से , करो विगत मन , पुष्पित तन के मोह से
दग्ध हृदय ताकि न हो प्रिय के मिलन - विछोह से
कर्म - कार्य में आत्मीयता काम - वासना से हो वंचित
करो तुम आलिंगन मेरा , अपने ह्रदय को भी अभिशिंचित
जिससे नवीन मानचित्र पर हो , पुनः परिभाषित जवानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ....
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
मन कैसे विचलित हो उठा था ,थी अधीर मेरी जवानी
पाकर क्षण -सुख , दुःख वियोग का ,भर आया आखों पानी
थी हंसी , देख निज आकर्षण में ,पागल मेरे लिए इतना
होगा ना लहर सागर से भी मिलने को आतुर जितना
अव्यक्त ,अथाह , माया से लिपटी हुई सुरु अतृप्त कहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
प्रत्यक्ष ही नहीं तुम यहाँ परोक्ष रूप भी आती हो
अपने कोमल - गात - स्नेह से मदमस्त हमें कर जाती हो
रोकता मन , दूर रहे छवि तेरी , बादल सा छा जाती हो
जागूं या सोऊ , ऊपर मैं , तर तुम आती जाती हो
फिर तो इस सौंदर्य गुलाम से करती रहती ऐसी मनमानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मृदु बानी ..
उन काले बालों की साया छाया अंचल पटु का उसके
रोक रही थी ,अवरुद्ध मार्ग था ,निर्मल ह्रदय,कटुता झुकते
तन पर वह थी ,उसपर मन था , आरी-बगल कोमल से सपने
प्रिये प्रिये उस प्रेम यग्य मे लगा ह्रदय माला से जपने
और खेल रही थी लिपटकर दोनों की नवल नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
बढ़ने दो अभी कुछ और , यूं रोको न , दो कोई ठौर
आनंद की असीमता में न आयेगा दूसरा ं दौर
अभी इसी वक्त मुझे सब कुछ पकड़ कर लेने दे
है आतुर ह्रदय मेरा कुछ और अधिक दे - लेने दे
हुई व्याकुल थी अंगुलियाँ ले - दे रही थी कोई निशानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मेरा मन विह्वल होता तन ऐसे सहलता जाता था
अपने कठोर हाथों से , उसके तन को मसल जब पाता था
जाती थी वह सिहर तब मजा और मुझे आता था
उसकी ना ना एक रट थी , मुझे और कुछ भाता था
पकरके स्निग्ध प्रेम को मचली ऐसे वह दीवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
स्तब्ध निशा थी , शांत प्रभा थी , तेज वासना का इतना
आतुरता थी हृदय मिलन की मेघ बरसने का जितना
''प्यासे तन को प्यासे मन से बरसकर हमको सिचना ह''ै
''रुको , आह ! न बढ़ो इतना कुछ अभी मुझे समझना है ''
बोली वह कुछ ऐसे जैसे कविवर कोई ग्यानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
हुई शांत सांसे जैसे थमी लहर किनारे से
निराश हो उठा मन ज्यों भिखमंगा धनी द्वारे से
भभक उठी आग तन की ज्वाला जैसे फौव्वारे से
लगी तड़पने वासना जैसे चीरी गयी हो आरे से
व्रिद्धावास्था सी दयनीय , लाचार , हुई अशांत जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
लगी कहने वह निश्छल '' ठहरो अभी समझना है
पागल होकर सब की तरंह नहीं यहाँ हमें उलझना है
यह काम - कामना ही नहीं सब कुछ , मुई मोह मई छलना है
वासनांचल से लिपटकर ही जीवन भर नहीं भटकना है
सोए हुए हो , जागो , देखो , करो न ऐसी नादानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
जिसके लिए पागल हो जगता था अभी तक रातों को
सुन्दर सोने - से सपने , रखता गर्वित जज्बातों को
सहेज रखा था जिनके लिए हसीन चाँदनी रातों को
टाल गयी पल भर में वह उन गर्वीली बातों को
उस अव्यक्त अगाध प्रेम को कह गयी मेरी नादानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
मोह मई छलना ही था क्यों किया निमंत्रित मुझको
वशीभूत हो वासना के क्यों किया नियंत्रित खुद को
अरे ! इतना ही था सयम सम्हाला नहीं क्यों खुद को
जीवन का मर्म समझ प्यारी कैसे समझाऊँ तुझको
आ गले मिल मिल , कर तृप्त ह्रदय , चलने दे पवन सुहानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ...
मिल कर गले से , हृदय के ताप सभी मिट जाने दे
जो जरूरी वस्तु है प्यारी मुझे और बस पाने दे
जाने दे उन अंत क्षणों तक , न बना कोई बहाने
''क्यों पागल - तम - निशा मे ं बिजली - सा आए रिझाने
ऐसा कह वह लगी बरसने जैसे बिन बादल पानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
जरूरी वस्तु क्या तुम्हारा क्षण भर का वह आनंद मोह
जिसमें उलझ , बर्बाद युवा , लगा सका ना कोई टोह
करते रहे हो दीन हीन माँ बाप जिंदगी भर बिछोह
खाने को दो अन्न नहीं कराह रहे हों हो दयनीय, ओह !
आती नहीं समझ तुम्हारी कैसी मद भरी जवानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
वासना आकांक्षित , उद्यान अंकुरित मृत वासनामाय उपवन में
''जीवन का मर्म '' क्या यही बीते समय बस स्वप्न शयन में
सत्य यही यदि क्यों न फिर हो जन्म श्वान योनी में
क्यों कलंकित करे आर्य को हो उत्पन्न मानस योनी में
इससे तो अच्छा यही , हो प्रवृत्ति हमारी शैतानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ..
माना दलदल यह ऐसा जहाँ नहीं सका बच कोई
काम-वासना विधि-विधान श्रृष्टि का नहीं प्रवंचना कोई
फिर भी वासनामय असुर से तुम्हें अभी लड़ना होगा
जो नहीं सका कर कोई उम्र भर , तुम्हे सभी करना होगा
ताकि उज्जवल रहे चरित्र जैसे निर्मल पानी
जिसको व्यक्त न कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी
कमल-सेज से , करो विगत मन , पुष्पित तन के मोह से
दग्ध हृदय ताकि न हो प्रिय के मिलन - विछोह से
कर्म - कार्य में आत्मीयता काम - वासना से हो वंचित
करो तुम आलिंगन मेरा , अपने ह्रदय को भी अभिशिंचित
जिससे नवीन मानचित्र पर हो , पुनः परिभाषित जवानी
जिसको व्यक्त ना कर सकी अभी तक मेरी मृदु बानी ....
मन ! ना भटक यार ना भटका मुझको .
मन !
ना भटक यार
ना भटका मुझको
किसी ऐसे जगंह
जहां न तो तुझे आजादी मिले
और ना हमें
ना अटक खुद और
ना अटका मुझको
तू , जानता है सब
समझता है सब
कौन कैसा है कैसा नहीं
परखता है सब
तूं ही किया सब कार्य
अपने मन माफिक
ना सका कोइ भी समझा तुझको
फिर क्यों?
क्यों पागल है इतना ?
कस्तूरी की खोज में भटकता मृग जितना
सब कुछ तुझमें
तूं न किसी में
स्थायित्व दे स्वयं को
त्याग कर अहम् को
छोड़ सब बहम को
ना पागल बन
ना पागल बना मुझको
मन ! ना भटक यार
ना भटका मुझको . .. .......
ना भटक यार
ना भटका मुझको
किसी ऐसे जगंह
जहां न तो तुझे आजादी मिले
और ना हमें
ना अटक खुद और
ना अटका मुझको
तू , जानता है सब
समझता है सब
कौन कैसा है कैसा नहीं
परखता है सब
तूं ही किया सब कार्य
अपने मन माफिक
ना सका कोइ भी समझा तुझको
फिर क्यों?
क्यों पागल है इतना ?
कस्तूरी की खोज में भटकता मृग जितना
सब कुछ तुझमें
तूं न किसी में
स्थायित्व दे स्वयं को
त्याग कर अहम् को
छोड़ सब बहम को
ना पागल बन
ना पागल बना मुझको
मन ! ना भटक यार
ना भटका मुझको . .. .......
रविवार, 4 जुलाई 2010
हुआ क्यों नहीं ऐसा सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
हरे भरे दूब, घास
हरियाली लिए तरुण वृक्ष
नीले आकाश के तले
पले बढे ये पेड़ मनचले
कैसे हो गए सुन्दर इतने
पड़ी नहीं थी
माघ, पूस की कडकडाती ठंडी ,शायद
बरसा नहीं था बादल उमड़ घुमड़
नहीं लगी जून की कडकडाती धुप क्या इनको
कि झुलस गये होते पत्ते इनके
फट गयी होती दंठालियाँ सारी
रो रही होती इनकी क्यारी
सूख कर जर्जर हो गयी होती भूमी यह
विलासिता के संरक्षण में आ रही जो निखार
कंगाली पण में जाती ढह
कम से कम आते न वह
जो खा खा कर मोटे हुए हैं
सम्पन्नता का खाका लटकाए
आदत से निहायत ही छोटे हुए हैं
न काम के न धाम के
तरुण, तरुनियाँ, बूढ़े ,जवान
ये आज के
जो यहाँ पर टहल रहे हैं
निथल्लुओं सा कर पहल रहे हैं
न आते यहाँ पर , जाते वहाँ पर
धान, गेहूं , जौ की खेती
ऊंघ रहे हैं जहा पर
न बारिस , न हवा , न पानी
न छांव, न धूप
ऐसा विपन्न , ऐसा अव्यवस्थित
गाँव, पट गये जहां के सारे कूप
पहुँचते , टहलते , दौड़ते
पेलते डंड
दिन भर , रात भर , चलते चलते , खटते हुए
किसानों का होता राज अखंड
हुआ क्यों नहीं ऐसा
सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
क्या हवा पानी प्रकृति
ये सब के सब दिख रहे निठल्ले
फिर कैसे हुए इनके बल्ले बल्ले ?
हरियाली लिए तरुण वृक्ष
नीले आकाश के तले
पले बढे ये पेड़ मनचले
कैसे हो गए सुन्दर इतने
पड़ी नहीं थी
माघ, पूस की कडकडाती ठंडी ,शायद
बरसा नहीं था बादल उमड़ घुमड़
नहीं लगी जून की कडकडाती धुप क्या इनको
कि झुलस गये होते पत्ते इनके
फट गयी होती दंठालियाँ सारी
रो रही होती इनकी क्यारी
सूख कर जर्जर हो गयी होती भूमी यह
विलासिता के संरक्षण में आ रही जो निखार
कंगाली पण में जाती ढह
कम से कम आते न वह
जो खा खा कर मोटे हुए हैं
सम्पन्नता का खाका लटकाए
आदत से निहायत ही छोटे हुए हैं
न काम के न धाम के
तरुण, तरुनियाँ, बूढ़े ,जवान
ये आज के
जो यहाँ पर टहल रहे हैं
निथल्लुओं सा कर पहल रहे हैं
न आते यहाँ पर , जाते वहाँ पर
धान, गेहूं , जौ की खेती
ऊंघ रहे हैं जहा पर
न बारिस , न हवा , न पानी
न छांव, न धूप
ऐसा विपन्न , ऐसा अव्यवस्थित
गाँव, पट गये जहां के सारे कूप
पहुँचते , टहलते , दौड़ते
पेलते डंड
दिन भर , रात भर , चलते चलते , खटते हुए
किसानों का होता राज अखंड
हुआ क्यों नहीं ऐसा
सोचा निराला नागार्जुन ने जैसा
क्या हवा पानी प्रकृति
ये सब के सब दिख रहे निठल्ले
फिर कैसे हुए इनके बल्ले बल्ले ?
शनिवार, 3 जुलाई 2010
सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर ....
वियोगी होगा पहला कवी ,'' जब पन्त ने यह बात कही थी तो शायद उनका ध्यान
सीधे कबीर की तरफ गया था क्यों की यही एक ऐसा सख्स है जो सामाजिकता के
परिप्रेक्ष्य में 'पहला ' और जीवन के धरातल पर 'वियोगी' होने का उत्कृष्ट
प्रमाण पेश करता है । क्योंकि कबीर के काव्य के पहले सामाजिक वातावरण का
व्यापक परिदृश्य कहीं भी नजर नहीं आता है , अगर है भी कहीं तो श्रृंगार है ,
दरबारी व्यवहार है , सत्ता और नारी के बीच पिस रहे राजाओं की स्वतंत्र
तकरार है । और जहाँ सत्ता और नारी है वहाँ सामाजिकता का बोध ही किसे होता
है । सारी फिजा ''खावै और सोवै ''के परिवेश पर फ़िदा होता है ''जागे अरु
रोवै '' की श्रेणी में तो वही न आ सकता है , जो घुट रहा हो ,लुट रहा हो
,पिस रहा हो ,घिस रहा हो , उंच नीच , भेद-भाव , जाती-पांति के अँधेरे में
,अपमान तिरस्कार और दुत्कार को न सिर्फ मह्शूश कर रहा हो अपितु झेल रहा हो
इन अमानवीय प्रताड़नाओं को और इसके बावजूद भी ''बाजार'' में खड़ा होकर सबके
लिए ''खैर'' मांग रहा हो । ना काहूँ से दोश्ती न काहूँ से बैर'' के
सिद्धांत पर ।
जो सभ्य हैं वो भी और जो असभ्य है वे भी , सभी की एक ही समस्या है । सभी माया से ग्रसित है । सभी जाती-पांति के पहरेदार हैं । स्वार्थ लोलुपता ,दरिद्रता,कंगालिपन और पारिवारिक भावुकता से सभी ग्रसित हैं । फिर कबीर किससे दोस्ती करे और किससे करे 'बैर' । सभी में सुधार की आवश्यकता है इसीलिए वह'' मांगे सबकी खैर '' । फिर 'का हिन्दू का मुसलमाना '' का बाभन का सूद '' सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर '' बलिहारी गुरु आपने '' जे माध्यम से ।
यही नहीं'' कबीरा खड़ा बाजार में '' जाती के आधार पर समाज पर रौब गांठने वाले ब्राह्मणों से खुले रूप में पूंछ बैठता है''तुम काहें को बाभन पांडे हम काहें के सूद '' अथवा ''काहें को कीजै पांडे छोटी विचारा छूतिः ते उपजा संसारा'' ''जे तूं बाम्हन बहमनी जाया और द्वार ह्वै क्यों ना आया ।'' इसी तरंह हिन्दू और मुश्लिम के बीच फैले तमाम प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को कबीर ने न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया अपितु अपने स्वतंत्र और फक्कड़ मिजाज के बल पर दोनों को ही सामाजिकता के रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । और यह उनका स्वतंत्र व्यक्तित्वा ही था जो तत्कालीन समय के मुश्लिम समुदाय से भी , जिनके हाथ में हिंदुस्तान का शासन था ' पूंछ बैठता है ''कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़ी मुल्ला बाग़ दे का बहरा हुआ खुदाय । '' जे तुरुक तुरुक्नी जाया भीतर खतना क्यों न कराया । '' और तो और उनकी आस्था पर भी क्या गजब का सवाल करते हुए दिखाई देते हैं कबीर ,''दिन भर रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय , यह हत्या वह वन्दगी कैसे ख़ुशी खुदाई । ''
इस प्रकार की स्वतंत्रता ,स्वच्छंदता , इस प्रकार की सामाजिकता और समाज से जुड़े हुए प्रत्येक वर्ग के प्रति व्यावहारिकता , रूढ़ियों और समाज विरोधी परम्पराओं को खुली चुनौती देने की प्रतिबद्धता क्या कबीर से पहले के किसी कवी में पाई जा सकती ? इसीलिए तो महान आलोचक और भारतीय साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्टतः उदघोष किया किया की '' हिंदी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्वा लेकर ना तो कोई उत्पन्न हुआ और ना ही तो होगा । ''
जो सभ्य हैं वो भी और जो असभ्य है वे भी , सभी की एक ही समस्या है । सभी माया से ग्रसित है । सभी जाती-पांति के पहरेदार हैं । स्वार्थ लोलुपता ,दरिद्रता,कंगालिपन और पारिवारिक भावुकता से सभी ग्रसित हैं । फिर कबीर किससे दोस्ती करे और किससे करे 'बैर' । सभी में सुधार की आवश्यकता है इसीलिए वह'' मांगे सबकी खैर '' । फिर 'का हिन्दू का मुसलमाना '' का बाभन का सूद '' सभी को एक ही परिदृश्य पर खड़ा करके सुधार का पाठ पढ़ाते हैं कबीर '' बलिहारी गुरु आपने '' जे माध्यम से ।
यही नहीं'' कबीरा खड़ा बाजार में '' जाती के आधार पर समाज पर रौब गांठने वाले ब्राह्मणों से खुले रूप में पूंछ बैठता है''तुम काहें को बाभन पांडे हम काहें के सूद '' अथवा ''काहें को कीजै पांडे छोटी विचारा छूतिः ते उपजा संसारा'' ''जे तूं बाम्हन बहमनी जाया और द्वार ह्वै क्यों ना आया ।'' इसी तरंह हिन्दू और मुश्लिम के बीच फैले तमाम प्रकार के रूढ़ियों और अंधविश्वासों को कबीर ने न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया अपितु अपने स्वतंत्र और फक्कड़ मिजाज के बल पर दोनों को ही सामाजिकता के रंग में रंगने के लिए मजबूर कर दिया । और यह उनका स्वतंत्र व्यक्तित्वा ही था जो तत्कालीन समय के मुश्लिम समुदाय से भी , जिनके हाथ में हिंदुस्तान का शासन था ' पूंछ बैठता है ''कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लई बनाय ता चढ़ी मुल्ला बाग़ दे का बहरा हुआ खुदाय । '' जे तुरुक तुरुक्नी जाया भीतर खतना क्यों न कराया । '' और तो और उनकी आस्था पर भी क्या गजब का सवाल करते हुए दिखाई देते हैं कबीर ,''दिन भर रोजा रखत हैं रात हनत हैं गाय , यह हत्या वह वन्दगी कैसे ख़ुशी खुदाई । ''
इस प्रकार की स्वतंत्रता ,स्वच्छंदता , इस प्रकार की सामाजिकता और समाज से जुड़े हुए प्रत्येक वर्ग के प्रति व्यावहारिकता , रूढ़ियों और समाज विरोधी परम्पराओं को खुली चुनौती देने की प्रतिबद्धता क्या कबीर से पहले के किसी कवी में पाई जा सकती ? इसीलिए तो महान आलोचक और भारतीय साहित्य के शलाका पुरुष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्पष्टतः उदघोष किया किया की '' हिंदी साहित्य के हजार वर्षों में कबीर जैसा व्यक्तित्वा लेकर ना तो कोई उत्पन्न हुआ और ना ही तो होगा । ''
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