बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
.मायावी सुर मायावती के
क्या पड़ी है हमें मुसीबतों से तुम्हारे
हमारे लिए तो बहुत हैं हमारे
नहीं मिला तुम्हें तो हर्ज क्या है आखिर
हमें तो मिलेगा ही जो चाहते हैं हमारे .
लिखा भाग्य में है रहो लाइनों में
बदलेगा, न सक , चेहरा बस आइनों में
हो साथी मुसीबत के सुख करोगे क्या आखिर
पाने दो उनको जो सगे हैं हमारे
ऐसा नहीं की दूर हम होंगे तुमसे
रहेंगे वहीं न मिल पाओगे हमसे
हैं 'जनप्रतिनिधि ' मगर ज्यादा चाहोगे क्या आखिर
करने दो उनको जो चाहते हैं हमारे
यही क्या कम, पहुँच दर्शन दिए हम
तुम्हारे लिए आशा का दर्पण लिए हम
हो मगन , देखो चेहरा और जरूरत ही क्या आखिर
जरूरत हमारी ,'अनिल ' है पास आए हम तुम्हारे ..........
दोस्ती-प्यार
दोस्त
दोस्ती को निभाने के लिए
दे सकता है महज एक साथ
अपने पहेचन के लिए
प्यार
दुःख , गम, विपदा के साथ
पकडाता है हाथ सुख का
जीवन का सत्य बताने के लिए
** ** ** ** ** ** ** **
प्यार
शब्द एक
लिए अर्थ अनेक
कोई सीना ताने चलता है
देते हैं कई मत्थे टेक
लखते रहते हैं अनेक
प्यार की उस ऊंचाई का अनुभव कर ............
.
सोमवार, 13 दिसंबर 2010
'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है .
यही है जीवन . इसमे और उसमे कितना फर्क है . एक तरफ ख़ुशी के फौव्वारे फूट
रहे होंगे तो दूसरी तरफ गम के बादल बरस रहे होंगे . " रुंधे गले से सोचते
हुए वह बोला था तब जब लडकी की बिदाई हो रही थी . छाती पीट रोई थी उसकी माँ .
उसके लिए जो अब तक आँगन की एक चिड़िया थी . हंसती थी, बोलती थी और अपने
बालक पण से सबको हर्षित करती थी . उसके लिए जो अब
घर की मालकिन थी . घर का सारा काम काज , साफ-सफाई ,चौका -बर्तन , खाना-पीना , दिया -सलाई आदि सभी जिम्मेदारियां निभाती आई थी . जिसको वह पाली पोशी थी .आज वह विदा होकर जा रही थी और माँ उसकी रो रही थी छाती पीट पीटकर .
'सही है पर उसमे ढोंग है . दिखावापन है . रुढियों के आवरण में पिसता हुआ जीवन है . पर यहाँ वास्तविकता है . सत्य है . और सत्य होता भी वहीँ है जहां दुःख होता है , गम होता है और होती है विपदा . " दूसरा उस बात को स्पष्ट करते हुए बोला था .
इसके पहले ही वह एक बारात कर चूका था . दूसरे में सामिल हुआ था .खूब मजा उठाया था पहले बारात में . जम के काफी लिया था . मिठाइयाँ तो खूब खाया था .बफर सिस्टम था . कोई पाबन्दी नहीं थी .ना ही तो किसी से कुछ मांगना था . और न ही तो किसी का इंतजार करना था . सभी कुछ तो सजा कर रखा हुआ था . जो मर्जी सो खाता . छोला, फुलकी , कुल्फी , चाट, पापड़ क्या नहीं खाया था वह .पर अब इतना ज्यादा खाया था कि और खाया नहीं जाता था .तब देखने लगा था खड़ा होकर अन्यों को .
"कैसे कैसे आदमी आये हैं हमारे गाँव के , हमारे सगे सम्बन्धी ,हमारे अतिथि . ........ पर नहीं नहीं वे नहीं हो सकते " असमंजस में पड़ा था वह " अरे!यह रवि पंडित है . ये तो चप्पल पहनकर खाना खाना गलत समझते है .और यह क्या विनय जी तो कभी पन्त में बैठ कर खाते ही नहीं थे . " यह आशचर्य हुआ था उसको . इसलिए नहीं कि वे खाना खा रहे थे . अपितु इसलिए कि ये धर्म के सबसे बड़े ठीकेदार थे . पर आज उनका व्रत , उनका संयम ,धिर्म उनका स्वयं पर रो रहा था और वे खाए जा रहे थे . इनके साथ ही गाँव के अन्य मानिंद व्यक्ति भी थे जो लीनों में खड़े होकर , कतारों में खड़े होकर , कलछुल हाथ में लेकर खाना ले रहे थे . खा रहे थे . हंस रहे थे . चिल्ला रहे थे .मनो उस व्यवस्था पर नहीं , उस सिस्टम पर नहीं. मानवीयता पर मानव द्वारा बनाये गये समाज पर . क्योंकि कुत्ते भी इस तरंह क्या खाना खाना पसंद करते . कवर उठाओ , उठाकर फैंक दो क्या मजाल कि मुंह मार दे . पर यहाँ मुंह ही नहीं मार रहे हैं . घिस रहे हैं "
एक एक करके उसे वह सारा दृश्य याद आ जाता है . पर रात्रि में ही वह चला आया था विदाई के इस माहौल से साक्षात्कार उस दिन उसका नहीं हुआ था .पर आज , आज वह दुखी है . आज वह परेशां है और है वह चिंतित लोगों को देखकर , समझकर जानकर .
यही है मानव यही है मानव समाज . एक के गम के लिए , एक के दुःख के लिए , एक के विपदाओं , वेदनाओं में सांत्वना देने के लिए दूसरों के संबंधों का आधारस्तंभ क्या ऐसा ही होना चाहिए . वह अपना सब कुछ दे दिया . रुपये- पैसे , सर-सामान ,जहां तक हो सकता था दे दिया . . जीवन की आस जीवन की डोर, जो एक मात्र अंधे की लाठी थी सौंप दिया उसको .पर क्या वे जो यहाँ पर आये हैं . खा रहे हैं . खाए हैं . क्या उन्हें रंच मात्र भी अफ़सोस है . दुःख है . उस माँ के लिए , उस भी के लिए . जो रो रहे हैं , विलख रहे हैं , सिसक रहे हैं? .............. सोंच रहा है वह उस रोती हुई आवाज को सुनकर ..
***** ***** ***** ***** ****** *****
लावारिस सा असहाय सा लड़की का भाई , दीन हीन , सामाजिक परम्पराओं के दंश से शोषित और व्यवहार से अफ्सोषित , दुखी चेहरा लेकर रो रहा था . सिसक रहा था . मानो इस बात को भुलाने की कोशिश कर रहा था " उसके भी कोई बहन थी . राखी बंधी थी. एक दूसरे के सुख- दुःख में , विपदा आपदा में , स्थितियों और परिस्थितियों में , एक साथ रहेने की कसमें खाई थी . ली थी . यह कहके " भैया मेरे राखी का लाज निभाना " और आज आज वह जा रही है . किसी दूसरे के घर , किसी दूसरे की दुनिया में . सजाने सवारने . आबाद करने उसे . बर्बाद करके भाई के घर को , भाई के अरमानों को . इच्छाओं और अभिलाषाओं को "
यह भी उसने देखा था . रो रहा था वह सिसक सिसक कर . भोकर छोडकर , गलाफाड़ कर नहीं , हुचक हुचक कर .क्योंकि चिल्लाने से वेदना दब जाति है . गम का उफान हल्का हो जाता है . और हिचकने से वह अन्दर ही अन्दर उबाल फेंकती है . झंकार करती है . इस सामाजिक व्यवस्था से , इस सामाजिक परम्परा से , लड़ने के लिए , प्रतिवाद करने के लिए , द्रोह और विद्रोह करने के लिए .
तभी बारात मालिक बजा वालो को साथ लेकर पहुंचा था . विदाई नहीं पाए थे वे . सब पा गये थे . और फिर खीझा था इस सामाजिक व्यवस्था से " एक तरफ वह रो रहा है . उसका सब कुछ चला जा रहा है दुखी है , प्रताड़ित है समय की मार से और दूसरी तरफ इन्हें विदाई की पड़ी है . किसी का घर जले और कोई घूर बताए . भला ये भी को मानवीयता है . कोई इंसानियत है . लोलुप दम्भी , लालची क्या इसके बहन बेटी नहीं हैं . क्या यह समाज से बहार है या वह जिन स्थितियों परिस्थितियों से गुजर रहा रहा है नही बीतेगी इस पर , नहीं गुजरेगी इस पर ."
और भूल गया था वह रोना . हिचकियाँ बंद हो गयी थी . आंसू रुक गये थे . क्योंकि सारे दुःख , सारे गम , और विपदा से भी बदा स्तित्वा होता है जिम्मेदारी का . खासकर तब जब पिता न हो और घर का सारा कारोबार उसी को सम्हालना हो . " महसूस किया था वह और उठकर चल दिया था उस मंडप से , उस द्वार से , यह सोचकर " गलती उसकी नहीं है और ना ही तो उसकी 'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है ."
घर की मालकिन थी . घर का सारा काम काज , साफ-सफाई ,चौका -बर्तन , खाना-पीना , दिया -सलाई आदि सभी जिम्मेदारियां निभाती आई थी . जिसको वह पाली पोशी थी .आज वह विदा होकर जा रही थी और माँ उसकी रो रही थी छाती पीट पीटकर .
'सही है पर उसमे ढोंग है . दिखावापन है . रुढियों के आवरण में पिसता हुआ जीवन है . पर यहाँ वास्तविकता है . सत्य है . और सत्य होता भी वहीँ है जहां दुःख होता है , गम होता है और होती है विपदा . " दूसरा उस बात को स्पष्ट करते हुए बोला था .
इसके पहले ही वह एक बारात कर चूका था . दूसरे में सामिल हुआ था .खूब मजा उठाया था पहले बारात में . जम के काफी लिया था . मिठाइयाँ तो खूब खाया था .बफर सिस्टम था . कोई पाबन्दी नहीं थी .ना ही तो किसी से कुछ मांगना था . और न ही तो किसी का इंतजार करना था . सभी कुछ तो सजा कर रखा हुआ था . जो मर्जी सो खाता . छोला, फुलकी , कुल्फी , चाट, पापड़ क्या नहीं खाया था वह .पर अब इतना ज्यादा खाया था कि और खाया नहीं जाता था .तब देखने लगा था खड़ा होकर अन्यों को .
"कैसे कैसे आदमी आये हैं हमारे गाँव के , हमारे सगे सम्बन्धी ,हमारे अतिथि . ........ पर नहीं नहीं वे नहीं हो सकते " असमंजस में पड़ा था वह " अरे!यह रवि पंडित है . ये तो चप्पल पहनकर खाना खाना गलत समझते है .और यह क्या विनय जी तो कभी पन्त में बैठ कर खाते ही नहीं थे . " यह आशचर्य हुआ था उसको . इसलिए नहीं कि वे खाना खा रहे थे . अपितु इसलिए कि ये धर्म के सबसे बड़े ठीकेदार थे . पर आज उनका व्रत , उनका संयम ,धिर्म उनका स्वयं पर रो रहा था और वे खाए जा रहे थे . इनके साथ ही गाँव के अन्य मानिंद व्यक्ति भी थे जो लीनों में खड़े होकर , कतारों में खड़े होकर , कलछुल हाथ में लेकर खाना ले रहे थे . खा रहे थे . हंस रहे थे . चिल्ला रहे थे .मनो उस व्यवस्था पर नहीं , उस सिस्टम पर नहीं. मानवीयता पर मानव द्वारा बनाये गये समाज पर . क्योंकि कुत्ते भी इस तरंह क्या खाना खाना पसंद करते . कवर उठाओ , उठाकर फैंक दो क्या मजाल कि मुंह मार दे . पर यहाँ मुंह ही नहीं मार रहे हैं . घिस रहे हैं "
एक एक करके उसे वह सारा दृश्य याद आ जाता है . पर रात्रि में ही वह चला आया था विदाई के इस माहौल से साक्षात्कार उस दिन उसका नहीं हुआ था .पर आज , आज वह दुखी है . आज वह परेशां है और है वह चिंतित लोगों को देखकर , समझकर जानकर .
यही है मानव यही है मानव समाज . एक के गम के लिए , एक के दुःख के लिए , एक के विपदाओं , वेदनाओं में सांत्वना देने के लिए दूसरों के संबंधों का आधारस्तंभ क्या ऐसा ही होना चाहिए . वह अपना सब कुछ दे दिया . रुपये- पैसे , सर-सामान ,जहां तक हो सकता था दे दिया . . जीवन की आस जीवन की डोर, जो एक मात्र अंधे की लाठी थी सौंप दिया उसको .पर क्या वे जो यहाँ पर आये हैं . खा रहे हैं . खाए हैं . क्या उन्हें रंच मात्र भी अफ़सोस है . दुःख है . उस माँ के लिए , उस भी के लिए . जो रो रहे हैं , विलख रहे हैं , सिसक रहे हैं? .............. सोंच रहा है वह उस रोती हुई आवाज को सुनकर ..
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लावारिस सा असहाय सा लड़की का भाई , दीन हीन , सामाजिक परम्पराओं के दंश से शोषित और व्यवहार से अफ्सोषित , दुखी चेहरा लेकर रो रहा था . सिसक रहा था . मानो इस बात को भुलाने की कोशिश कर रहा था " उसके भी कोई बहन थी . राखी बंधी थी. एक दूसरे के सुख- दुःख में , विपदा आपदा में , स्थितियों और परिस्थितियों में , एक साथ रहेने की कसमें खाई थी . ली थी . यह कहके " भैया मेरे राखी का लाज निभाना " और आज आज वह जा रही है . किसी दूसरे के घर , किसी दूसरे की दुनिया में . सजाने सवारने . आबाद करने उसे . बर्बाद करके भाई के घर को , भाई के अरमानों को . इच्छाओं और अभिलाषाओं को "
यह भी उसने देखा था . रो रहा था वह सिसक सिसक कर . भोकर छोडकर , गलाफाड़ कर नहीं , हुचक हुचक कर .क्योंकि चिल्लाने से वेदना दब जाति है . गम का उफान हल्का हो जाता है . और हिचकने से वह अन्दर ही अन्दर उबाल फेंकती है . झंकार करती है . इस सामाजिक व्यवस्था से , इस सामाजिक परम्परा से , लड़ने के लिए , प्रतिवाद करने के लिए , द्रोह और विद्रोह करने के लिए .
तभी बारात मालिक बजा वालो को साथ लेकर पहुंचा था . विदाई नहीं पाए थे वे . सब पा गये थे . और फिर खीझा था इस सामाजिक व्यवस्था से " एक तरफ वह रो रहा है . उसका सब कुछ चला जा रहा है दुखी है , प्रताड़ित है समय की मार से और दूसरी तरफ इन्हें विदाई की पड़ी है . किसी का घर जले और कोई घूर बताए . भला ये भी को मानवीयता है . कोई इंसानियत है . लोलुप दम्भी , लालची क्या इसके बहन बेटी नहीं हैं . क्या यह समाज से बहार है या वह जिन स्थितियों परिस्थितियों से गुजर रहा रहा है नही बीतेगी इस पर , नहीं गुजरेगी इस पर ."
और भूल गया था वह रोना . हिचकियाँ बंद हो गयी थी . आंसू रुक गये थे . क्योंकि सारे दुःख , सारे गम , और विपदा से भी बदा स्तित्वा होता है जिम्मेदारी का . खासकर तब जब पिता न हो और घर का सारा कारोबार उसी को सम्हालना हो . " महसूस किया था वह और उठकर चल दिया था उस मंडप से , उस द्वार से , यह सोचकर " गलती उसकी नहीं है और ना ही तो उसकी 'दस्तूर दुनिया की हम सबको निभाना है ."
मन का लहर
मन का लहर
सुन्दर होता है कितना
आसमान में चमचमाते
टिमटिमाते तारों जैसा
चमकाना भी क्या
होता है सुन्दर इतना
या स्तित्व मात्र
नदी के किनारे
लहर के झोकों से
थक , हर , बैठे सुस्ताये
रेतीले खंडहरों जितना
होता है बस इतना
मन का लहर सुन्दर
बुझे बुझे रेतीले खँडहर जितना .........
सुन्दर होता है कितना
आसमान में चमचमाते
टिमटिमाते तारों जैसा
चमकाना भी क्या
होता है सुन्दर इतना
या स्तित्व मात्र
नदी के किनारे
लहर के झोकों से
थक , हर , बैठे सुस्ताये
रेतीले खंडहरों जितना
होता है बस इतना
मन का लहर सुन्दर
बुझे बुझे रेतीले खँडहर जितना .........
मध्यवर्गीय परिवार
सब कुछ होता देख
चुप हो देखते रहना
होगा बदा में देगा भगवान
भाग्य को अपने कोसते रहना
मर्जी है उसकी
सह लेना
सबकुछ
लुटने के बाद भी
'कुछ' तो है कहते रहना
आ जाना सड़क पर
आह्वान के लिए नहीं
दान के लिए
क्या यही है
मध्यवर्गीय परिवार
सब कुछ गंवाकर
बस सोचते रहना ...............
मध्यवर्गीय परिवार
चुप हो देखते रहना
होगा बदा में देगा भगवान
भाग्य को अपने कोसते रहना
मर्जी है उसकी
सह लेना
सबकुछ
लुटने के बाद भी
'कुछ' तो है कहते रहना
आ जाना सड़क पर
आह्वान के लिए नहीं
दान के लिए
क्या यही है
मध्यवर्गीय परिवार
सब कुछ गंवाकर
बस सोचते रहना ...............
मध्यवर्गीय परिवार
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस और राष्ट्रीय शिक्षक दिवस पर
आज मैं कुछ सोच रहा हूँ . समझ रहा हूँ. विचार कर रहा हूँ . यह जानते हुए
भी कि इसका कोई प्रतिफल मुझे प्राप्त होने वाला नही है , पर क्योंकि एक
नागरिक हूँ देश का , सदस्य हूँ समाज का , अंश हूँ समुदाय का , प्रतिभागी
हूँ भविष्य में बन्ने वाले किसी संगठन विशेष का इसलिए उस मंच पर जहां बहुत
सी मूर्तियाँ दिखती हैं अपनी अपनी भूमिका में , कोई किसी रूप में तो किसी
रूप में . अवसर सभी को मिलता है , परिस्थितियाँ सभी को मिलती हैं पर
समयाभाव के कारन स्थितियां परिवर्तित कर दी जाती है .
unhin स्थितियों पर कर रहा विचार पूर्ण व्यवहार हूँ .
दो महत्वपूर्ण दिवस 'राष्ट्रीय शिक्षक दिवस '' और ''अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस '' हमारे सामने से जा रहे हैं हर साल की तरह इस साल भी . एक की गूँज पूरे हिन्दुस्तान में है तो दूसरा सम्पूर्ण विश्व में गुंजायमान हो रहा है . दोनों का ही उद्देश्य मानव को मानवीयता प्रदान करना है . आंकड़े दोनों पर बैठे जा रहे हैं . ग्राफ दोनों का ऊंचा है लोगों को दिखाए जा रहे है . बताये जा रहे हैं न्यूज पेपरों और टीवी चनलो पर कि इस वर्ष अगले वर्ष की अपेक्षा इतने लोगो को साक्षर बनाया . इतने बेरोजगार अध्यापकों को अध्यापकी दी गयी और वरिष्ठ अध्यापकों को सम्मानित किया गया . मतलब सरकारी आंकड़े feelgood के आवरण में चमचमा रहे हैं जबकि वास्तविक स्थितिया यथार्थता के धरातल पर दम तोड़ रही हैं . सिसक रही हैं .
बात अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की
निरक्षर कौन था ? कौन है ? कौन साक्षर हुआ ? क्या इसका जवाब लिखित रूप में किसी सरकारी महकमें में पाया जा सकता है .? जो निरक्षर हैं , स्कूल नही पहुच पा रहे हैं , स्कूल का द्वार उन्हें दिखाया गया तो कैसे ? उन अनपढ़ , अशिक्षित , और नासमझ अविभावकों को साक्षरता के विषय में समुझाया गया तो कैसे ? क्या यह बताया जा सकता है ? ''सर्वशिक्षा अभियान '' '' सभी पढो , आगे बढ़ो '' का जो नारा सभ्य समाज द्वारा दिया गया है उसका कितना असर अनपढ़ और गंवारों पर पड़ा क्या कहीं दर्शाया जा सकता है ? जो पढ़े लिखे है , जो स्कूल जा रहे हैं , जिनके अविभावक समझदार हैं उन्हीं की एक लम्बी चौड़ी फ़ौज इकठ्ठा करके किसी जुलुस में दिखा देना क्या यही सर्वा शिक्षा अभियान है ?
सर्वशिक्षा अभियान'' के तहत '' मिड-डे-मिल ''योजना को आकर्षण का केंद्र बताया जा सकता है . बच्चे दिन प्रतिदिन के खानें के लालच में पढ़ने आयेंगे . गरीब अविभावको को सुविधा होगी , वे बच्चों को पढ़ने भेजेंगे . पर जरा बताइए कितने अध्यापको की तैनाती है ऐसे विद्यालयों में ? भोजन जो दिए जाते हैं , क्या यह सत्य नहीं है है कि उसमें कीड़े मकोड़े स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे होते हैं . फिर जो माता-पिता दिन - रात मजदूरी करके दो वक्त की रोटी का जुवाड करते हैं क्या वे अपने बच्चों को नहीं खिला सकेंगे ? इस जगंह मिड- डे - मिल की क्या जरूरत थी ? क्या इसके बजे कोई दूसरी योजना नहीं बनाई जा सकती थी ? बनाई जा सकती थी . पर उन ग्राम प्रधानों और अध्यापको का क्या होता जो मिड डे मिल के दाने से ही अपना पेट भर रहे हैं . इनके इस दलाली पण और धोखाधड़ी के चलते ही निचले तबके के लोग भी स्कूल नहीं भेजते अपने बच्चों को ... क्या कभी सोंचा गया .....?
बात राष्ट्रीय शिक्षक दिवस की
निरक्षरों को साक्षर बनाये कौन , माता-पिता या अध्यापक ?माता - पिता तो अपनी भूमिका अदा कर देते हैं . नहला दुला कर भेज देते हैं . खाने की चिंता भी नहीं रही पर जिस स्कूल में वे आते हैं , जिनके आश्रय में उनको रखा जाता है , वह अध्यापक ही तो है ? आखिर उसकी कमी कौन पूरा करे ? कई स्कूल तो ऐसे हैं जहाँ पर एक भी अध्यापक नहीं है . विद्यार्थी ही शिक्षक है विद्यार्थी ही शिक्षार्थी . कितने विद्यालय इस तरीके के भी हैं जहाँ अभी तक आवास की उपलब्धता नहीं हो सकी है और एक अध्यापक के सर पर ३००-४०० बच्चों को ठोका जा रहा है . क्या यह बात समझा जा सकता है कि अध्यापक भी आम लोगों की तरह एक आम इन्सान ही है ना कि कोई जादूगर या भगवान जो इतनी बड़ी संख्या को पढ़ा सके .
स्पष्ट है कि ना तो वह पढ़ा सकता है और ना ही तो उन्हें अपने कंट्रोल में ही रख सकता है . जमाना भी वह नहीं है कि मार पीट दे किसी बच्चे को और उसके डर से सहमें रहे सभी , क्योंकि कानून के दायरे में अब एक बात और आनें वाली है ''न तो अध्यापक बच्चे को चाटा मार सकता है और ना ही तो उन्हें मुर्गा ही बना सकता है (दैनिक जागरण) मतलब अब वह एक ही कार्य कर सकता है कि एक डंडी लेकर भेड़ चरवाहों की तरह बैठा रहे और इशारे से सिर्फ उसे निर्देशित करता रहे . कहीं वह भेड़ बहंक जाए . किसी का कुछ नुकसान कर दे मार वह चरवाह ही खाए . उसकी दशा पर रोने वाला कोई नही . वेतन के रूप में तनख्वाह जो पा रहा है . सांसदों की तनख्वाह बढ़ाई जा रही है . विधायकों की तनख्वाह बधाई जा रही है . कहीं कोई कुछ भोलने वाला नहीं . फिर अध्यापकों के वेतन पर इतनीं बड़ी आपत्ति क्यों ? वह जो आठ घंटे बड़ी मशक्क्कत करता है , ३००-४०० बच्चों के बीच माथा-पच्ची करता है . स्वयं के स्तित्त्व को भुलाकर बच्चों के व्यवहार को वरण करता है , क्या कभी उसकी परेसनियों मजबूरियों और दिक्कतों को समझा गया ? अगर समझा भी गया तो क्या अध्यापको की नियुक्तियों को बढाया नहीं जा सकता ? क्या हिंदुस्तान में स्नातकों की कमी है ? ? बी एड धारको की कमी है या फिर वे मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं ? स्नातक हैं . बी एड धारक हैं . सक्षम हैं मानसिक रूप से वे पर अध्यापकी करने के लिए पुलिसों की लाठी खाने के लिए . जेल जाने के लिए . दौड़ा दौड़ा कर पीते जाने के लिए .
आखिर यह विडंबना ही तो है , दुर्भाग्य ही तो है देश का कि एक तरफ अध्यापकों की व्यापक कमी है और दूसरी तरफ प्रशिक्षित डिग्री धारक , प्राइवेट अध्यापक दौड़ा दौड़ा कर पीटे जा रहे हैं सडकों पर . फिर शिक्षक दिवस किस बात का ? क्या गिने चुने व्यक्तियों को राष्ट्रीय पुरस्कार दे देना ही शिक्षक दिवस है ? यदि ऐसा है तो क्या इसे राजनीतिक दांव नहीं कहा जा सकता ? सबको अँधेरे में रखकर एक को उजाला देना या सभी को भूखे रखकर एक को खीर खिलाना राजनीती नही तो आखिर क्या है ? इस राजनीतिक सोंच को बदलना होगा . परिवर्तित करना होगा उनको अपने इरादों को . ''सभी पढो , सभी बढ़ो '' के सपने को साकार भी तभी किया जा सकता है . क्यों कि कोई अध्यापक अपने स्तित्त्व को बेंच नहीं सकता . हर एक राजनीतिज्ञों की तरंह वे 'बिन पेन के लोटा ' नहीं होते हैं . उनका अपना एक सम्माननीय स्तर होता है . एक स्तित्त्व होता है. और ऐसी जगंह पर भारतीय राष्ट्रपति जी को उन अध्यापको से रोज स्कूल आने और शिक्षण कार्य जरी रखने की शिक्षा देने से ज्यादा बेहतर होगा कि अपने ही राजनीतिज्ञों के नेक नशीहत दें ताकि उनकी नज़रों में भी ''अध्यापकी '' की सार्थकता हो , और कम से कम अध्यापकों और शिक्षको के पक्ष में जो निर्णय लें उसका कोई निहितार्थ निकले . .......
unhin स्थितियों पर कर रहा विचार पूर्ण व्यवहार हूँ .
दो महत्वपूर्ण दिवस 'राष्ट्रीय शिक्षक दिवस '' और ''अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस '' हमारे सामने से जा रहे हैं हर साल की तरह इस साल भी . एक की गूँज पूरे हिन्दुस्तान में है तो दूसरा सम्पूर्ण विश्व में गुंजायमान हो रहा है . दोनों का ही उद्देश्य मानव को मानवीयता प्रदान करना है . आंकड़े दोनों पर बैठे जा रहे हैं . ग्राफ दोनों का ऊंचा है लोगों को दिखाए जा रहे है . बताये जा रहे हैं न्यूज पेपरों और टीवी चनलो पर कि इस वर्ष अगले वर्ष की अपेक्षा इतने लोगो को साक्षर बनाया . इतने बेरोजगार अध्यापकों को अध्यापकी दी गयी और वरिष्ठ अध्यापकों को सम्मानित किया गया . मतलब सरकारी आंकड़े feelgood के आवरण में चमचमा रहे हैं जबकि वास्तविक स्थितिया यथार्थता के धरातल पर दम तोड़ रही हैं . सिसक रही हैं .
बात अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस की
निरक्षर कौन था ? कौन है ? कौन साक्षर हुआ ? क्या इसका जवाब लिखित रूप में किसी सरकारी महकमें में पाया जा सकता है .? जो निरक्षर हैं , स्कूल नही पहुच पा रहे हैं , स्कूल का द्वार उन्हें दिखाया गया तो कैसे ? उन अनपढ़ , अशिक्षित , और नासमझ अविभावकों को साक्षरता के विषय में समुझाया गया तो कैसे ? क्या यह बताया जा सकता है ? ''सर्वशिक्षा अभियान '' '' सभी पढो , आगे बढ़ो '' का जो नारा सभ्य समाज द्वारा दिया गया है उसका कितना असर अनपढ़ और गंवारों पर पड़ा क्या कहीं दर्शाया जा सकता है ? जो पढ़े लिखे है , जो स्कूल जा रहे हैं , जिनके अविभावक समझदार हैं उन्हीं की एक लम्बी चौड़ी फ़ौज इकठ्ठा करके किसी जुलुस में दिखा देना क्या यही सर्वा शिक्षा अभियान है ?
सर्वशिक्षा अभियान'' के तहत '' मिड-डे-मिल ''योजना को आकर्षण का केंद्र बताया जा सकता है . बच्चे दिन प्रतिदिन के खानें के लालच में पढ़ने आयेंगे . गरीब अविभावको को सुविधा होगी , वे बच्चों को पढ़ने भेजेंगे . पर जरा बताइए कितने अध्यापको की तैनाती है ऐसे विद्यालयों में ? भोजन जो दिए जाते हैं , क्या यह सत्य नहीं है है कि उसमें कीड़े मकोड़े स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे होते हैं . फिर जो माता-पिता दिन - रात मजदूरी करके दो वक्त की रोटी का जुवाड करते हैं क्या वे अपने बच्चों को नहीं खिला सकेंगे ? इस जगंह मिड- डे - मिल की क्या जरूरत थी ? क्या इसके बजे कोई दूसरी योजना नहीं बनाई जा सकती थी ? बनाई जा सकती थी . पर उन ग्राम प्रधानों और अध्यापको का क्या होता जो मिड डे मिल के दाने से ही अपना पेट भर रहे हैं . इनके इस दलाली पण और धोखाधड़ी के चलते ही निचले तबके के लोग भी स्कूल नहीं भेजते अपने बच्चों को ... क्या कभी सोंचा गया .....?
बात राष्ट्रीय शिक्षक दिवस की
निरक्षरों को साक्षर बनाये कौन , माता-पिता या अध्यापक ?माता - पिता तो अपनी भूमिका अदा कर देते हैं . नहला दुला कर भेज देते हैं . खाने की चिंता भी नहीं रही पर जिस स्कूल में वे आते हैं , जिनके आश्रय में उनको रखा जाता है , वह अध्यापक ही तो है ? आखिर उसकी कमी कौन पूरा करे ? कई स्कूल तो ऐसे हैं जहाँ पर एक भी अध्यापक नहीं है . विद्यार्थी ही शिक्षक है विद्यार्थी ही शिक्षार्थी . कितने विद्यालय इस तरीके के भी हैं जहाँ अभी तक आवास की उपलब्धता नहीं हो सकी है और एक अध्यापक के सर पर ३००-४०० बच्चों को ठोका जा रहा है . क्या यह बात समझा जा सकता है कि अध्यापक भी आम लोगों की तरह एक आम इन्सान ही है ना कि कोई जादूगर या भगवान जो इतनी बड़ी संख्या को पढ़ा सके .
स्पष्ट है कि ना तो वह पढ़ा सकता है और ना ही तो उन्हें अपने कंट्रोल में ही रख सकता है . जमाना भी वह नहीं है कि मार पीट दे किसी बच्चे को और उसके डर से सहमें रहे सभी , क्योंकि कानून के दायरे में अब एक बात और आनें वाली है ''न तो अध्यापक बच्चे को चाटा मार सकता है और ना ही तो उन्हें मुर्गा ही बना सकता है (दैनिक जागरण) मतलब अब वह एक ही कार्य कर सकता है कि एक डंडी लेकर भेड़ चरवाहों की तरह बैठा रहे और इशारे से सिर्फ उसे निर्देशित करता रहे . कहीं वह भेड़ बहंक जाए . किसी का कुछ नुकसान कर दे मार वह चरवाह ही खाए . उसकी दशा पर रोने वाला कोई नही . वेतन के रूप में तनख्वाह जो पा रहा है . सांसदों की तनख्वाह बढ़ाई जा रही है . विधायकों की तनख्वाह बधाई जा रही है . कहीं कोई कुछ भोलने वाला नहीं . फिर अध्यापकों के वेतन पर इतनीं बड़ी आपत्ति क्यों ? वह जो आठ घंटे बड़ी मशक्क्कत करता है , ३००-४०० बच्चों के बीच माथा-पच्ची करता है . स्वयं के स्तित्त्व को भुलाकर बच्चों के व्यवहार को वरण करता है , क्या कभी उसकी परेसनियों मजबूरियों और दिक्कतों को समझा गया ? अगर समझा भी गया तो क्या अध्यापको की नियुक्तियों को बढाया नहीं जा सकता ? क्या हिंदुस्तान में स्नातकों की कमी है ? ? बी एड धारको की कमी है या फिर वे मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं ? स्नातक हैं . बी एड धारक हैं . सक्षम हैं मानसिक रूप से वे पर अध्यापकी करने के लिए पुलिसों की लाठी खाने के लिए . जेल जाने के लिए . दौड़ा दौड़ा कर पीते जाने के लिए .
आखिर यह विडंबना ही तो है , दुर्भाग्य ही तो है देश का कि एक तरफ अध्यापकों की व्यापक कमी है और दूसरी तरफ प्रशिक्षित डिग्री धारक , प्राइवेट अध्यापक दौड़ा दौड़ा कर पीटे जा रहे हैं सडकों पर . फिर शिक्षक दिवस किस बात का ? क्या गिने चुने व्यक्तियों को राष्ट्रीय पुरस्कार दे देना ही शिक्षक दिवस है ? यदि ऐसा है तो क्या इसे राजनीतिक दांव नहीं कहा जा सकता ? सबको अँधेरे में रखकर एक को उजाला देना या सभी को भूखे रखकर एक को खीर खिलाना राजनीती नही तो आखिर क्या है ? इस राजनीतिक सोंच को बदलना होगा . परिवर्तित करना होगा उनको अपने इरादों को . ''सभी पढो , सभी बढ़ो '' के सपने को साकार भी तभी किया जा सकता है . क्यों कि कोई अध्यापक अपने स्तित्त्व को बेंच नहीं सकता . हर एक राजनीतिज्ञों की तरंह वे 'बिन पेन के लोटा ' नहीं होते हैं . उनका अपना एक सम्माननीय स्तर होता है . एक स्तित्त्व होता है. और ऐसी जगंह पर भारतीय राष्ट्रपति जी को उन अध्यापको से रोज स्कूल आने और शिक्षण कार्य जरी रखने की शिक्षा देने से ज्यादा बेहतर होगा कि अपने ही राजनीतिज्ञों के नेक नशीहत दें ताकि उनकी नज़रों में भी ''अध्यापकी '' की सार्थकता हो , और कम से कम अध्यापकों और शिक्षको के पक्ष में जो निर्णय लें उसका कोई निहितार्थ निकले . .......
शनिवार, 25 सितंबर 2010
कुछ दोहे
याद न कर मन और अब , याद रहे ना कोय
जे मन उलझा याद में , याद गये ना कोय ....
आंसू पानी एक सम , एक प्राण दो रूप
एक रहे जीवन सरल , एक रहे नर - रूप ......
मन क्यों मन से दूर है , मनन का है फेर
मन मांगे मन ना मिलै , मन का है अंधेर .. ..
ध्यान रहा निज रूप का , मन का सुनी गुहार
रूप घटा यौवन ज़रा , फीका मन का द्वार .....
हार न माँ बढ़त चल , सब जग निज घर द्वार
सब संग प्रेम बढाय के , हो जा गले का हार .....
गिरत बूँद मन होत खुश , बूँद गिरे दुख धोय
बूंदन की महिमा बहुत , सागर पूरित होय ......
प्यासी धरती धधक कर , नभ से मांगी तोय
जे नभ बरसा गरजकर , होत ख़ुशी सब कोय .....
जे मन उलझा याद में , याद गये ना कोय ....
आंसू पानी एक सम , एक प्राण दो रूप
एक रहे जीवन सरल , एक रहे नर - रूप ......
मन क्यों मन से दूर है , मनन का है फेर
मन मांगे मन ना मिलै , मन का है अंधेर .. ..
ध्यान रहा निज रूप का , मन का सुनी गुहार
रूप घटा यौवन ज़रा , फीका मन का द्वार .....
हार न माँ बढ़त चल , सब जग निज घर द्वार
सब संग प्रेम बढाय के , हो जा गले का हार .....
गिरत बूँद मन होत खुश , बूँद गिरे दुख धोय
बूंदन की महिमा बहुत , सागर पूरित होय ......
प्यासी धरती धधक कर , नभ से मांगी तोय
जे नभ बरसा गरजकर , होत ख़ुशी सब कोय .....
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