Saturday, 12 November 2016

अपनत्व में दूर हो जाता है अलग होने का भाव



हाँ यह सच है
और स्वीकारता हूँ मैं यह बात कि
तुम मेरे उतने ही करीब हो जितना कि
वह क्षितिज जो दिखाई दे रहा है, दूर सामने से
पास, बहुत पास, हमारे और तुम्हारे आँखों के सामने

स्वीकार यह भी करता हूँ मैं कि
तुम मुझसे दूर हो उतना ही जितना कि वह क्षितिज
जितना पास आने की कोशिश करता हूँ,
दूर होते जाते हो
मैं चलता जाता हूँ
तुम बढ़ते जाते हो, बढ़ते जाते हो,
हताश होता हूँ तुम्हारी इस प्रतिभा को देखकर,
निष्ठुरता को देखकर और समझकर भी
यह आदत कि एक आकर्षण भर देते हो अपने पास बुलाने का और बाद में
गायब हो जाते हो, कि, भटकन का रास्ता अपना ले,
चाहने वाला तुम्हें, ताकि दूसरा तुम्हें चाहने की कोशिश न करे,
बरक़रार रहे रहस्य तुम्हारा अदृश्य रहने का
    
कभी कभी ऐसा लगता है
परखना चाहते हो मेरे चलते रहने के प्रक्रिया को
और अनवरत जारी रखना चाहते हो अपना आगे बढ़ते रहना,
लेकिन फिर भी मनुष्य हूँ मैं, मनुष्यता की पहचान नहीं गायब होने देना चाहता,
चलते रहने की जिद है मैं नहीं छोड़ता, नहीं हारता, नहीं करता समाप्त
अपनी जिजीविषा को और उस चाहत को भी,
जो तुम्हारे पास तक आने के लिए मजबूर करती रही, दूर करती रही अपनों से और 
बेगानों के करीब करती रही, तुम्हारे इस आदत से इतना तो फायदा हुआ ही
कि नहीं था पहचान जिनसे वे पहचानने लगे, ग्रह, नक्षत्र, तारे
सब अपने लगे और सब मुझे अपनाने लगे,        
अपनत्व में दूर हो जाता है अलग होने का भाव

यह समझने और मन को अपने समझाने लगे ||

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