Thursday, 16 April 2020

दो लघुकथा : 1. आलोचक ऐसे भी होते हैं 2. देवि नहीं हो पर सुंदर हो

आलोचक ऐसे भी होते हैं

विवेक कुछ पढ़ रहा था| कहीं गहरे में खोया हुआ था| रह-रह कर झुंझला भी रहा था शायद किसी किताब में कुछ खोज रहा था| श्वेता मोबाइल चलाते हुए मुस्करा रही थी| वह मुस्कराए जा रही थी अपनी गति में और विवेक उसे देखते हुए गुस्साए जा रहा था| श्वेता जोर से हँसी तो विवेक अधिक गुस्सा गया| “क्या हँस रही हो श्वेता..,दिखाई नहीं दे रहा है कब से परेशान हूँ मैं कविता को समझने में...तुम हो कि हँसे जा रही हो...हद है|” वह अपनी गुस्सा उतारते हुए बोला|
“हद तो भाई तुम जैसे आलोचकों की है| पता नहीं कविता समझ रहे हो या कविताओं को” श्वेता इतना कहते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ी|
“क्या...आलोचकों के बारे में ऐसा कहते हुए कुछ तो शर्म आनी चाहिए| एक तो हम बिचारे इतना मेहनत करते हैं, तुम जैसे कवियों कवयित्रियों को प्रकाश में लाते हैं... दूसरे ये लांछन...तुम औरतों की यही आदतें मुझे बुरी लगती है” विवेक गुस्से में ही बोल पड़ा|
अब श्वेता हँसना भूल गयी थी| मुस्कराने की वह अदा गायब हो चुकी थी| भौं चढाते हुए उसने विवेक से कहा “देखो विवेक! हम औरतें इतनी भी गयी-गुजरी नहीं हैं कि तुम जैसे आलोचक प्रकाश में लाओ तो आएं| तुम जैसे आलोचकों की जिस्म-लोलुपता किसी से छिपी नहीं है| यह लांछन नहीं है| हकीकत है|”
“क्या हकीकत है? स्त्रियाँ खुद ही अप्रोच करती हैं| समीक्षा और आलोचना की भूख में बिछने के लिए तैयार रहती हैं|” प्रतिउत्तर में विवेक ने भी भौं चढ़ाकर बोला|
विवेक के प्रतिउत्तर को श्वेता झेल नहीं सकी| वह तिलमिलाती हुई बोली-“बस विवेक! बस! इससे अधिक बोलने की कोशिश मत करना| तुम सुनी-सुनाई बात कर रहे होगे मेरे पास तो प्रमाण हैं|”
“कैसा प्रमाण है तुम्हारे पास श्वेता? ज़रा मैं भी तो देखूं” टेस में आकर विवेक बोला|
“आओ इधर दिखाती हूँ| तुम्हारे समय के जितने भी बड़े आलोचक हैं उनमें से लगभग मुझसे चैट कर रहे हैं| देखो और पढो| कौन कितना बिछ रहा है...यह भी न देख सको तो कम से कम समझने की कोशिश तो करो|”
“तुम्हारी कविता में जो कहन है वह वाकई सबसे अलग करती है तुम्हें....बिम्बों का चयन गज़ब का है तुम्हारा श्वेता, चन्द्रमा में चकोर वाह...श्वेता मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि तुम्हारी कविता के आगे बड़ी से बड़ी कवयित्री पानी भरें...जितनी सुंदर तुम हो उतनी ही सुंदर कविता...भाई सौंदर्य और सुन्दरता का असर तो अभिव्यक्ति पर पड़ता ही है...इस बार तुम हमारे प्रोग्राम में जरूर आना...कविता नहीं सुन्दरता है आजकल साहित्य का पैमाना और वह है तुम्हारे अन्दर श्वेता” विवेक एक-एक कमेन्ट पढ़ रहा है और अपने बाल पकड़कर नोचे जा रहा है| बहुत-ही कमजोर रचना पर ऐसी प्रतिक्रिया और वह भी कद्दावर आलोचकों की, विवेक हैरान था....|
श्वेता विवेक की मनःस्थिति को समझते हुए बोली-“देखा विवेक! ये हैं तुम्हारे समय के आलोचक...कैसे बिछ रहे हैं...औरतें जो चाहें इनसे करवा सकती हैं...इन सबों ने मुझे अभी तक देखा नहीं है, लेकिन जिस तरीके से मर रहे हैं, जैसे मेरे सबसे अन्तरंग यही हों...अब मत कहना कि स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं...मिस्टर पुरुष... ऐसे ...ही ...होते ...हैं...” वह बोले जा रही थी और विवेक शर्म और लज्जा से नीचे की जमीन कुरेंद रहा था क्योंकि अनाम आईडी से कमेन्ट करने वालों में वह स्वयं एक था|


देवि नहीं हो पर सुंदर हो


"क्या पढ़ते रहते हो हर समय?" सुनीता नाक भौं सिकोड़ते हुए बोली, उसके स्वभाव में जिज्ञासा से कहीं अधिक अहम् दिखाई दे रहा था|
"कुछ नहीं बस यही एक समीक्षा लिखाना था तो सोचा कुछ पढ़ लूँ..." अपनी थकावट को लम्बी साँसों में दूर फेंकते अमितेश धीरे से बोला|
"बताइये भला पढ़कर भी कोई समीक्षा लिखता है क्या?" उसी मुद्रा में और इस बार उसके होंठ ऐसा लग रहा था जैसे अमितेश को चिढ़ा रहे हों...| कुछ हैरान होते हुए अमितेश बोला "नहीं तो बिना पढ़े कैसे लिखेगा? कौन पढ़ेगा इसे?"
"मैनें आज तक कोई भी किताब पूरी नहीं पढ़ी फिर भी देखो जो कुछ लिख देती हूँ, लोग आह-वाह किये बिना रह नहीं पाते...सीखो कुछ..." कहकर ऐसी इठलाई सुनीता कि अमितेश ईर्ष्या भरी निगाहों से देखने लगा..."सही है ईश्वर ने मुझे वह गुण नहीं दिया जो तुम पाई हो..." कहकर वह फिर पढने लगता है|
क्या बात कर रहे हो...! जैसे मैं इंसान नहीं कोई देवी हूँ..." कुछ गर्व भरे अंदाज में वह बोल उठी....
अमितेश ने धीमे स्वर में लेकिन बड़ी आत्मविश्वास से कहा "देवि भले नहीं हो सुनीता...सुन्दर हो...इसमें कोई शक नहीं है|"

1 comment:

Unknown said...

दोनों लघु कथाएं एक नया कथ्य लेकर उपस्थित हुई हैं। कोई विचार सहसा कैसे मन में उत्पन्न हो सकता है इसके पीछे कोई ना कोई यथार्थ या अनुभव अवश्य रहा होगा। लघु कथा के माध्यम से आलोचकों पर जो चुटकी ली गई है वह सच में सराहनीय है।