मदन कश्यप उन गिने-चुने कवियों में
हैं जिनकी गिनती कविता की समकालीनता में न की जाए तो समकालीन कविता पर चर्चा करना
अधूरा रहेगा| जिन विषयों से हमारा परिवेश गहरे में सम्बद्ध है, जिन प्रश्नों से
टकराने और जिन मूल्यों को बचाए रखने में रचनाकार सक्रिय और सतर्क हैं, वह सब मदन
कश्यप के यहाँ जरूरी भूमिका में चिह्नित हैं| उनके कविता-संसार से गुजरते हुए यदि
हम देखें तो स्त्री-संसार के वे सभी अनछुए पहलू सिद्दत से वर्तमान हैं, जिन पर या
तो कम बात की गयी है और यदि की भी गयी है तो कहीं क्रांति की पराकाष्ठा है तो कहीं
आदर्शों की अनुर्वर खेती| कहीं स्त्रियों को इतना अधिक शक्तिदायिनी बना दिया गया
है कि कहीं भी उसका मूल रूप नहीं रह जाता और कहीं सौन्दर्य की ऐसी मूर्ति में
परिवर्तित कर दिया गया है कि भारतीय परिवेश में स्त्री की क्या स्थिति है, हम
भूलने लगते हैं| जैसा परिवेश में स्त्रियाँ हैं और उसी परिवेश से ली गयी
स्त्री-सम्वेदना का यथार्थ जिस रूप में यहाँ है अन्यत्र वैसा दिखाई दे, कुछ संदेह
होता है|
मदन कश्यप स्त्री की कंचन और कामिनी
रूप के आग्रही नहीं हैं| वे उसे स्वप्नों की मालकिन बनाते हुए इन्द्र की परी तो बिलकुल नहीं बनाते| देवी रूप में भी देखने
के अभ्यस्त नहीं हो पाए स्त्री को| विज्ञापन युग में चेहरे की अतिश्योक्तिपूर्ण
उपमानों का चयन नहीं होता है उनसे तो इसका सीधा-सा अर्थ यही हुआ कि वे मनुष्य-रूप
में ही देखने के अभिलाषी हैं| कवि जानता है कि मनुष्य को यदि मनुष्य समझा गया तो
उसके अस्तित्व के लिए यह बड़ी बात है| देवत्व के आवरण में जीते-जागते मनुष्य को
पत्थर बना देने की तरतीबें विकसित की जा सकती हैं, मनुष्यत्व तो आदमी और आदमीयत को
जिन्दा रखने में है|
हिंदी कविता में स्त्री-सौंदर्य पर
बहुत बात हुई है| दुःख पर कम| क्या स्त्रियों का कोई दुःख नहीं होता? क्या वह हर
समय सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बनी रहती हैं या रह सकती हैं? आँखों से गिरते आँसू भी
उन्हें मादक बनाते हैं ऐसा विधान साहित्य में मिले तो अचरज नहीं है| यह भी एक
विधान है पुरुष सौन्दर्य-दृष्टि में कि स्त्रियाँ जितना तड़पेंगी सुख की अनुभूति
उतनी ही अधिक होगी| अब यह हकीकत तो नहीं हो सकता| इसे क्रूर मानसिकता और विलासी
प्रवृत्ति का वहशीपन जरूर समझा जाना चाहिए|
भेड़ियों की नजर में ‘सत्रह साल’ की
लड़की एक मनुष्य नहीं है ‘माल’ है| खेलने-छेड़ने और मनमाफिक आनंद उठाने की वस्तु भर|
वस्तु को भी निर्दयता से मरोड़ते या तोड़ते हुए सहृदय में पीड़ा का संचार करता है
लेकिन “वे मज़े के लिए उसके अंगों को मरोड़ रहे थे/ मज़े के लिए उसके कपडे फाड़ रहे
थे/ मज़े के लिए उसे जलती सिगरेट से दाग रहे थे/ उन्हें बेहद मज़ा आ रहा था/
तमाशबीनों को अचरज हो रहा था/ कि वह एक जीवधारी की तरह चीख रही थी/ बचाने के लिए
गुहार लगा रही थी/ जबकि उनकी निगाह में वह सिर्फ एक माल थी सत्रह साल की!”[1] यह
कवि बता नहीं रहा है स्त्रियों की जो छवि हमारे मस्तिष्क में है वही वह यथार्थ रूप
में दिखा रहा है|
यह दिखाना महज दिखाना भर नहीं है कि
देखो और भूल जाओ बल्कि निर्भया से लेकर आसिफ़ा, प्रियंका, नोयडा कांड तक की घटनाओं
का जो समाजीकरण हमारे परिवेश में रिवाज के रूप में बनता जा रहा है, याद दिलाना है|
वह याद दिलाता है कि स्त्रियाँ वस्तु नहीं मनुष्य हैं| उनके मनुष्य होने का दुःख
पुरुषों के पुरुषत्व के क्षीण होने से कहीं अधिक भयावह और रोंगटे खड़ा करने वाला
दुःख है| ‘निठारी : एक अधूरी कविता’ और ‘निठारी की बच्ची’ इन दो कविताओं में इस
दुःख को जितनी स्पष्टता के चिह्नित करने का प्रयास किया गया है कवि द्वारा वह हमें
विस्मित करता है|
ऐसा भी दृश्य हो सकता है? व्यापार
ऐसा भी कोई करता है? पढ़ते हुए तो आँखों से लहू टपकते हैं और जब आप उस पर सोचते हैं
तो जी करता है नरभक्षियों एक साथ समाप्त कर दिया जाए तो गलत न होगा| इसे भाउकता तो
बिलकुल न समझा जाए क्योंकि यह हद दर्जे की क्रूरता थी| “पहले कुछ बड़ी लड़कियां थीं/
जो रोयीं-चिल्लाईं/ लेकिन दहशत और दरिंदगी का वह विकराल रूप नहीं दिखा/ जो देखना
चाहते थे उन्मत्त सौदागर/...खेल में और अधिक और अधिक/ मज़ा लेने के लिए/ धीरे-धीरे
लड़कियों की उम्र घटाई गयी/ फिर चार-छः साल की बच्चियों को शिकार बनाया गया|”[2] शिकार
बनी ये बच्चियां रोती थीं तो उन्हें आनंद आता था| आनन्द की यह अनुभूति क्या मानवीय
कही जा सकती है? क्या इनकी चीखों-चिल्लाहटों का कोई असर नहीं पड़ता था उन पर?
कवि जानना चाहता है कि “आखिर क्या
कसूर था उन लड़कियों का/ यही न कि वे गरीब थीं/ रेहड़ी लगाने वालों/ और चौका-बर्तन
करने वालियों की बेटियां थीं?”[3] दिन
भर मांगने-खाने में व्यस्त रहने वाली इन लड़कियों के लिए सरकार की कोई स्कीम क्यों
नहीं काम आई? क्यों नहीं मार्किट में इनकी योग्यता का कोई कार्य निकलकर आया? ये
प्रश्न हैं जिनसे हर व्यक्ति आज तक जूझ रहा है| कवि स्वयं जूझता है तो उत्तर जो
मिलता है वह और अधिक भयावह है “बाज़ार और सरकार की नज़र में/ कोई कीमत नहीं थी उनकी/
पर मरते ही बेशकीमती हो जाती थीं/ आँखें, जिगर टिसू मज्जा/ कितना कुछ होता था
बेचने को”[4] लोग
बेचते थे और वह बिक भी जाती थीं? खरीद भी लेते थे लोग? कैसे लोग हैं जो बेचते हैं
और कैसे लोग हैं जो खरीदते हैं?
यह सब उस देश में हो रहा है जो
लड़कियों को देवी के रूप में मान्यता देता है और वह भी गरीबों के साथ जिस पर कि
सारी योजनाएं आधारित हैं सरकार की? तो क्या गरीब होना इतना बड़ा अपराध है? क्या
मजदूरों और रेहड़ी वालों की सन्तान होना इतना बड़ा अभिशाप है? इस पर न तो सरकार कुछ
बोलने के लिए राजी है और न ही मीडिया, इसलिए भी क्योंकि “गरीबों की बेटियों का
लापता होना/ कोई खबर नहीं बन पाती है/ क्योंकि वहां दिखाने लायक कुछ नहीं होता/
रोती-बिलखती निर्धन माताओं की/ न तो ऑंखें कटीली हैं/ न ही छातियाँ उठी हुई/ जहाँ
टिक सके कैमरा|”[5]
कैमरे की नियति और सरकारों की मंशा अब इससे अधिक और क्या स्पष्ट होगी?
कहाँ तो दिन भर अभिनेत्रियों
नयन-नक्श को दिखाते नहीं थकते, कहाँ तो अजय देवगन की बेटी और शाहरूख खान की बेटी
के नखरे मीडिया के विमर्श और मुद्दे बनाए जाते हैं और कहाँ ये गम्भीर समस्याएँ? यह
भी तो एक सच है कि इनका जन्म इसलिए नहीं हुआ है कि मनुष्य होने की स्वाभाविक
प्रक्रिया है, इसलिए हुआ है कि इन्हें बाज़ार की वस्तु बनाकर मोटी रकम कमाई जा सके|
पोर्न इंडस्ट्रीज से लेकर सेक्स रैकेट तक इन्हीं के दम पर चल रहे हैं| मीडिया से
लेकर सरकारी कारिंदे तक यहाँ के नफे-नुक्सान की प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं| कोई
क्यों चाहेगा चलते-फिरते व्यापार को बंद करवाना?
कविगण और बुद्धिजीवी वर्ग कविता में
क्रांति और कलावाद और यथार्थ अभिव्यक्ति पर चर्चा में व्यस्त हैं, उन्हें इन घटित
समस्याओं से क्या लेना-देना भला? ये विषय नाम-इनाम तो नहीं दिला सकते| ये विषय
सत्ता की कुर्सी भी कहाँ दिला सकते हैं? इन विषयों पर चुप रहना जरूर मुनाफे का
सौदा हो सकता है| चुप रहने मात्र से आप नाम-इनाम पा सकते हैं| मंत्री-संतरी बनाए
जा सकते हैं| बड़े आदमियों में गिनती हो सकती है| मंत्रियों से लेकर विधायकों और
सांसदों तक को इस व्यापार क हिस्सा होते देखा गया है| तभी तो-
“जब
कविगण लिख रहे थे बहुआयामी कविताएँ
कर
रहे थे शिल्प में बदलाव की जरूरत पर बहस
बुद्धिजीवी
चिंतित हो रहे थे/ इराक़ में अमेरिकी फौजों की बर्बरता से
और
चर्चा कर रहे थे पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी की सम्भावनाओं पर
जनतंत्र
के रणनीतिकार/ उचक-उचक कर देख रहे थे कश्मीर को
उसी
समय राजधानी के घुटने के पास/ घटित हो रहा था निठारी|”[6]
हम वैश्विक चिंताओं से दबे जा रहे
थे, परेशां थे और मरे जा रहे थे, इधर गरीब लड़कियां निरपराध मारी जा रही थीं| नोची
और खसोटी जा रहीं थीं| इनका सिसकना, रोना, चिल्लाना, तडपना हमारे लिए असह्य हो
सकता है उनके लिए कैसे होगा जो जिस्म-बाज़ार के हिस्सा हैं? जिस्म बाज़ार का तो ये
कड़वा सच है कि किसी की हंसी बिकती है तो किसी के आँसू| बाज़ारू-हिस्से की इस सच्चाई
से कवि रू-ब-रू होते हुए पश्चिमी स्भ्यता के सूरमाओं को भी धिक्कारता है तो लगता
है कि यह सब पश्चिमी देशों से कहीं अधिक हमारे यहाँ की विशेषता बनती जा रही
है-“डब्ल्यू डब्ल्यू ऍफ़’ की नकली लड़ाइयों/ और कालगर्ल की ब्लू फिल्मों से ऊबे हुए/
पश्चिम के महान सभ्य लोग/ अब सच्चा खून और सच्ची दहशत देखना चाहते हैं/ वहशीपन का
वह खेल जो हिंस्र पशुओं को शर्मिंदा कर दे|”[7]
बाज़ार और वहशियों की दरिंदगी की
शिकार ‘निठारी की बच्ची’ में ऐसी तमाम बच्चियों का समवेत दुःख कवि को अवाक् कर
देता है| वह कई बार ‘जड़वत खड़ा रहा बिजूके की तरह/ बच्चियों के शरीर से खून टपक रहा
था/ और आँखों से दहशत/ चीखें बर्फ की तरह जम गयी थीं उनके चेहरों पर|’[8] कई
बार लड़कियों की चीख, पीड़ा व्यथित करती हैं तो कई-कई बार वह टूटकर टूटता रहता है|
कवि-स्वप्न का यह मंजर कल्पना से दूर जीवन-जगत का यथार्थ बनता जाता है और उसका यह
प्रश्न हर सम्वेदनशील व्यक्ति का प्रश्न बन उठता है “क्या इसी परिणति के लिए पैदा
हुई थीं/ ये लड़कियां इस सुंदर धरती पर?” धरती को सुंदर कहना इतनी घृणा के बावजूद स्त्री
के योगदान को याद करना नहीं है तो क्या है, यह भी एक कवि ही कर सकता है| वह जानता
है कि “स्त्रियों ने रची हैं दुनियां की सभी लोककथाएँ/ उन्हींके कंठ से फूटे हैं
सारे लोकगीत/ गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए हैं/ सितारों को उनके नाम!”[9] जिनकी
वजह से प्रेम बचा है, जीवन बचा है और सबसे बड़ी बात कि हरियाली बची हुई है| उर्वरता
बनी हुई है जन और जीवन की| बावजूद इसके जितना बड़ा होता है घर/ उतना ही छोटा होता
है स्त्री का कोना|”
यह किसी अन्य परिवेश की नहीं, उसी
लोक की बात हो रही है जहाँ लड़कियों का पैदा होना किसी अनहोनी का घटित होना है|
जहाँ लडकियों का बड़ी होना सबसे बड़ी समस्या का जन्म लेना है| तमाम नियमों, हिदायतों
और कानूनों की दहलीज में कसकर उसे यह आभास दिलाना कि वह ‘लड़की ही है’ और उसका
अस्तित्व महज हिदायतों के घेरे में सीमित रहने से है, उसी लोक की बात हो रही है|
हिदायतें भी कैसी यह जान लेना जरूरी है-
“पलकें
झुकाकर/ सपनों को छोटा करो मेरी बेटी
नींद
को छोटा करो/ देर से सूतो/ पर देर तक न सूतो
होठों
से बाहर न आए हंसी/ आँखों तक पहुंच न पाए
कोई ख़ुशी
कलेजे
में दबा रहे कोई दुःख/ भूख और विचारों को मारना सीखो
अपने
को अपने ही भीतर गाड़ना सीखो|”[10]
यह सीख बचपन से देना शुरू होता है|
ये हिदायतें उसे पल-प्रतिपल देश-समाज-परिवेश-परिवार द्वारा दिया जाता रहता है| यह
सब होते हुए कवि यह भी देखता है कि कैसे “कोमल कोमल शब्दों में/ जारी होती रहीं
क्रूर हिदायतें/ फिर भी बड़ी हो गयी बेटी/ बड़े हो गये उसके सपने!”[11]
लेकिन सपनों का बड़ा होना पूरा होना कतई नहीं है| यह स्वप्न भी किसी के लिए पहले
आरक्षित हैं, ठीक वैसे ही जैसे गरीब और मजबूर आदमी के जीवन का सुख, किसी जमीदार या
दबंगों के लिए|
तमाम अवरोधों से घिरे होने के
बावजूद यदि वह बड़ी होती है तो उसके साथ ही “बड़े हो रहे हैं भेड़िये/ बड़े हो रहे हैं
सियार|”[12]
भेड़ियों और सियारों का आतंक इतना है कि चीख भी नहीं सुनाई देती हंसी और
मुस्कराहटों का क्या होता होगा? कवि क्योंकि हर तरह के परिवेश की यथास्थिति से
परिचित है, गाँव हो कि शहर, इसीलिए वह देखता है कि “माँ की करुणा के भीतर फूट रही
है बेचैनी/ पिता की चट्टानी छाती में/ दिखने लगे हैं दरकने के निशान/ बड़ी हो रही
है बेटी!”[13]
चिंताएं और बेचैनियाँ बढ़ती जा रही हैं| जिस समय माँ बेचैनी की पराकाष्ठा तक जाकर
बेटी की सुरक्षा की दुआ मांगती है बाप उसकी संरक्षित रहने की परिवेश से मिन्नतें
करता है उसी समय बेटियों का आतंकित होते हुए यह निवेदन करना हृदय के अन्तस्तल को
हिला जाता है-“बाबा बाबा/ मुझे मकई के ढोलने की तरह/ मरुए में लटका दो/ बाबा बाबा/
मुझे लाल चावल की तरह/ कोठी में लुका दो/ बाबा बाबा/ मुझे माई के ढोलने की तरह/
कठही सन्दूक में छुपा दो|”[14] भेड़ियों
और सियारों के रूप में बड़े हो रहे पशु-मानुष से भयभीत एक लड़की की मनोदशा का ऐसा
दृश्य हिंदी कविता में दुर्लभ है|
दुर्लभ माँ और पिता की असहायता का
ऐसा रेखांकन भी है कि-“मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया/ चावल को कन और भूसी/
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा/ तुहे कौन बचाएगा मेरी बेटी!”[15] संभव
है कि यह आपको कवि की कल्पना भर लगे, यह भी सम्भव है कि यह कवि का आलाप-प्रलाप लगे
लेकिन यदि थोड़ी भी दृष्टि है और परिवेश में थोड़ी भी चैतन्यता से रहते हों, तो ये
घटनाएं आपको अपनी घटनाएं लगेंगी| ये घटनाएँ आपको बड़ी हो रही लड़कियों की ही नहीं
अपितु उन सभी स्त्रियों की घटनाएँ लगेंगी, जिनके शादी-व्याह हो चुके हैं, जो
बच्चों की माँ हो चुकी हैं| जब कभी उनसे यह पूछने की कोशिश करें कि इतने दुःख,
इतनी बंदिशें, इतनी हिदायतें कैसे झेल लेती हैं? कैसे कर लेती हैं निर्वहन इतने
संकीर्ण समाज में? तो इन प्रश्नों पर बोलने की अपेक्षा-“रोने लगती हैं स्त्रियाँ|”
कवि जब इस स्थिति के तह तक जाने की कोशिश करता है तो पाता है “कि अपनी ही व्यथा
क्या कम होती है रोने के लिए/ रोने लगती हैं स्त्रियाँ/ कि रोने के सिवा और कुछ कर
क्यों नहीं पातीं|”[16]
यह मनोविज्ञान फिर भी समझना शेष
रहता है कि आखिर इतनी मुसीबतों के बावजूद कैसे खुश रहती हैं स्त्रियाँ? हर स्त्री
इन विपदाओं की साँझी होती हैं फिर भी कैसे समूह में रह लेती हैं? कैसे अपना दुःख
सुना लेती हैं और दूसरों का सुन लेती हैं? इस स्थिति पर विचार करते हुए मदन कश्यप
पाते हैं कि “गम हो या ख़ुशी/ चुपचाप नहीं पचा पाती हैं स्त्रियाँ/ मिलकर बतियाती
हैं/ मिलकर गाती हैं/ इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती हैं|”[17]
इसीलिए वह महज आज पर निर्भर होती हैं| अधिकांश स्त्रियों की आँखों में भविष्य का
उन्माद नहीं वर्तमान का व्यवहार दिखाई देता है| वह ये भी जानती हैं कि “आज का
दुःख/ बस आज का दुःख है/ कल यदि होगा/ तो वह कल का अपना दुःख होगा/ आज का दुःख कल
अतीत बन चुका होगा/ जो हम दुःख को झेलते चले जाते हैं/ तो दरसल वह बीतता चला जाता
है|”[18] सही
अर्थों में दुःख के बीतते चले जाने की कहानी स्त्रियों की व्यथा-कथा है|
स्त्रियों की इस व्यथा-कथा से कवि
का वास्ता है क्योंकि वह इस परिवेश का जिम्मेदार नागरिक है| कवि जिस समय जिम्मेदार
नागरिक की भूमिका में होता है उस समय वह कोरी कल्पना के आसरे सौन्दर्य का पुलिंदा
नहीं खड़ा करता, यथार्थ के माध्यम से सच का स्वीकर प्रस्तुत करता है और देश समाज को
विमर्श करने के लिए आमंत्रित करता है| कवि अपनी जागरूक दृष्टि में स्त्री के उस
रूप को नहीं पसंद करता जिसके लिए वह पर्याय हो चुकी है अपितु उस रूप को महत्त्व
देता है जिसे कोई पुरुष और यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी महत्त्व नहीं देतीं| कवि यह
मानता है और अपनी तरह सबको मानने पर एक हद तक विवश करता है-
“जब
तम्हें देखा
तुम
खूबसूरत लगी
जब
तम्हें सुना
तुम
और भी खूबसूरत लगी
जब
हवा में तनी तुम्हारी मुट्ठी
तुम
सबसे खूबसूरत लगी!”
जिस समय स्त्रियों पर सबसे अधिक
अत्याचार हो रहे हों, जिसे वासना-पूर्ति का साधन और वस्तु-विक्री का माध्यम भर
समझा जा रहा हो, ऐसे अमानवीय और विज्ञापन युग में ‘तनी मुट्ठी’ लिए स्त्रियों का
रूप उसके प्रति हिंसक वृत्तियों की आकांक्षाओं को सीमित करती है| अपने होने का
एहसास दिलाती है| मदन कश्यप के स्त्री-पात्रों की ‘तनी हुई मुट्ठी’ “नारी तुम केवल
श्रद्धा हो” या ‘अबला जीवन’ से आगे और बहुत आगे की स्त्री का स्वीकार है जो
पर्दों, दीवारों और सौंदर्य-प्रसाधनों में सीमित रहने वाली हिदायतों से बाहर
निकलकर अपनी दुनिया, अपना अधिकार और अपनी शक्ति-सामर्थ्य के लिए संघर्षरत है| वह
स्त्री, जो घर से मिले ‘कोमल-कोमल शब्दों’ में सीमित होने की हिदायतों को चुनौती
दे रही है और हमें क्या करना है, इसका निर्णय ले रही है, पहले से कहीं अधिक
सम्पन्न और सुन्दर लग रही है|
[1]
कश्यप, मदन : दूर तक चुप्पी, नई दिल्ली : वाणी
प्रकाशन, 2014, पृष्ठ-53
[2]
कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली :
किताबघर प्रकाशन, 2015, 85
[6]
कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली :
किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-87
[10]
कश्यप, मदन : अपना ही देश, नई दिल्ली :
किताबघर प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-15-16
1 comment:
बहुत महत्वपूर्ण विश्लेषण👌🏻👌🏻
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