रश्म
अदायगी की विधिवत अनुपालना यदि कहीं होती है तो भारत में| यहाँ सभी स्थितियों का एक
उत्सव होता है| त्यौहार से लेकर सामान्य दिनों को भी उत्सव के रूप में जिया जाता
है| जन्म से लेकर मृत्यु तक का एक उत्सव होता है|
उत्सव में रीति-रिवाजों का केक काटा जाता है| सभी उस केक खाने की नीति में
भागीदारी करते हैं| एक कदम पीछे कोई नहीं रहना चाहता कि कहीं लोग उसकी सह्भागिकता
को लेकर कोई प्रश्न न उठा दें| प्रश्न न उठे इस पर जोखिम इतना कि बच्चे से लेकर
बुजुर्ग तक शामिल हो जाते हैं| व्हाट्सएप, फेसबुक से लेकर ट्विटर अकाउंट तक
उत्सव-कार्ड और शुभकामना संदेशों से भर जाते हैं|
सोचने
को हम सोच सकते हैं कि क्या भूख का भी कोई उत्सव होता है क्या? भला मृत्यु का
उत्सव भी मनाया जाता है क्या? यह सब महज सोचने के विषय हैं| इस पर गौर करने की कोई
जरूरत नहीं है| जरूरत वैसे भी यहाँ किसी भी जिम्मेदार स्थिति की नहीं है क्योंकि
हम सब सहने-भूलने और अपराध करने के अभ्यस्त हो चुके हैं| अभ्यस्त लोग इधर-उधर की
बातों पर कोई विमर्श नहीं करते| विमर्श करने लायक वे होते ही नहीं|
जो
भूख का जश्न मनाए| जो किसी के अकाल और असमय मृत्यु पर तांडव रचाए, भला उसमें
विमर्श की बौद्धिकता कैसे देखी जा सकती है? हम देख सकते हैं क्योंकि हम भी उन्हीं
तमाम में से एक हैं| पारम्पराओं का दीप यदि जलाया जाता है तो हम भी परम्पराओं के
अनुगामी हैं| जलाना हमने भी सीखा है| जब मैं ‘हम’ और ‘हमने’ शब्द का प्रयोग कर रहा
हूँ तो उसे सम्पूर्ण भारतवासी की आवाज समझी जाए| अंततः हैं तो हम सभी उत्सवधर्मी
ही|
इधर
पूरे दिन मजदूर दिवस मनाया गया| फेसबुक पर कविताएँ लिखी गयीं| व्हाट्सएप पर
कार्ड्स भेजे गए| कविताएँ शेयर की गयीं| प्राप्त करने वाले और भेजने वाले दोनों
खुद हुए| हाय-हैलो की रवायत में मजदूर समृद्ध हो गए| धनवान हो गए| सम्पन्न हो गए|
उनकी सम्पन्नता में हमने अपनी विशालता भी महसूस कर ली| आश्चर्य की बात ये है कि यह
सब होने में मात्र 24 घंटे लगे|
मजे
की बात कहें या विडंबना की, इधर यह सब हो रहा था और उधर लगभग 30-35 दिन से मजदूर
सड़कों पर थे| दिन-रात वे महज चल रहे थे और चलते जा रहे थे| न घर था न ठिकाना| कहाँ
रहना है और कहाँ जाना है यह भी नहीं पता था| फिर भी वे चलते जा रहे थे| चिलचिलाती
धूप में पसीने से तरबतर होकर चैनल उनकी तस्वीरें दिखाकर उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ा
रहे थे| पुलिस महकमें के लोग उन्हें रोकते और मारते हुए लॉकडाउन की शिक्षा दे रहे
थे| नेता वगैरह हिन्दू-मुसलमान में जुटे हुए थे| कवि कविताएँ लिख रहे थे और फेसबुक
पर लाइव होकर अपने हुनर का सौन्दर्य दर्शन करा रहे थे|
बच्चे
जब दूध के लिए रो रहे थे, बुजुर्ग जब दवाई के लिए भटक रहे थे, युवा के स्वप्न लुट
रहे थे और भरे-पूरे परिवेश में कंगाली मुक्त होकर अट्टहास कर रही थी, हम, आप और
सभी शुभकामनाओं में व्यस्त थे| यह व्यस्तता भी ऐसी कि मानों किसी की शव यात्रा में
डीजे डांस करते हुए शोक का मखौल निघर्घटपने से उड़ा रहे हों; यह सब हुआ और अभी भी
हो रहा है, हमें इसका थोडा भी अफ़सोस कहाँ हुआ?
बधाई
देने वाले तमाम थे| अफ़सोस जताने वाले भी कम नहीं थे| किसी की विपदा पर किसी की
असहायता पर कविता लिख कर आह-वाह बटोरने वाले भी कहाँ कम थे? चाहते तो किसी भी शहर
का मजदूर दर-से-बदर नहीं होता| घर से बेघर होकर दीन-हीन दशा में दर-दर न भटकते|
सवाल यह है कि हम आज भी अपनी गलती नहीं मानेंगे| हम आज भी नहीं मानेगे कि इनके
प्रति हमारा भी कोई कर्तव्य है? हम भी कहीं न कहीं इनकी दुर्गति के भागीदार हैं?
हमारी भी कोई जिम्मेदारी बनती है इन सभी के प्रति?
हमने
यह सब नहीं सोचा| हम यह सब सोचते ही कहाँ हैं? हमारे पास इन विषयों सोचने के लिए
समय ही कहाँ है? जब तक इनके विषय में चिंता करेंगे तब तक बहुत-से अवसर हाथ से निकल
जाएंगे, उनका लाभ कैसे लिया जा सकेगा भला? फेसबुक के ही कितने
मित्र हैं जिनके जन्मदिवस की बधाई देनी होती है...पोस्ट लगाने होते हैं...नयी
रचनाओं से लेकर नई ली गयी तस्वीरों को भी फेसबुक पर लगाने होते हैं...जब हम उनकी
स्थिति या यथास्थिति पर विचार या विमर्श करेंगे तो भला इन अवसरों का लाभ कैसे उठा
पायेंगे?
मजदूरों
के दुःख तो आते-जाते रहते हैं...रोज ही तो मरते हैं...गाँव में रहें या शहर में
होते तो मरने के लिए ही हैं...हम क्यों भला उनके सन्दर्भ में चिंता करें? इन
चिंताओं में सगे-सम्बन्धियों के नाराज होने के आसार भी बढ़ जाते हैं| तो क्यों न हम
सभी फेसबुक और व्हाट्सएप पर मजदूर-मजदूर खेलें? भाग्य और दुर्भाग्य भी तो कुछ होता
है आखिर? आखिर क्या जरूरत थी इस गर्मी में निकलने के लिए? सरकारें सहायता दे रही
हैं, भोजन दे रही हैं, खर्चे के लिए पैसे अकाउंट में डाल रही हैं| अब इन्हें भटकना
ही है तो भटकें, भला हम इनके रोने में अपने रोने का आभास क्यों करें?
बड़ी
मुश्किल से तो घर रहने का अवसर मिला है| खाना-पकाने के दिन फिर कहाँ मिलेंगे आखिर?
अपने मित्र भी सोचते थे कि ये लोग क्या खाते-बनाते हैं, अब भला इससे अच्छा अवसर
कहाँ मिलेगा अपना हुनर दिखाने का? अब क्योंकि मनुष्य हैं, तो मनुष्यधर्मी उत्सव
में शामिल होना हमारा कर्तव्य ही नहीं अधिकार भी है| इसलिए उन्हें बधाई देना उचित
बनता है, उनकी स्थिति के लिए हम जिम्मेदार ही कहाँ हैं?
कोसना
है तो सरकार को कोसा जाए...मजदूरों ने उन्हें चुना है| हम अपने को शर्मिंदा क्यों
मानें भला? हम तो दिन-रात उनके पक्ष में पोस्ट-पर-पोस्ट लिखे जा रहे हैं...अब इससे
अधिक कर ही क्या सकते हैं? यह भी बात सही है| यह स्थिति भी ठीक है| हम जब अपने घर
के बगल अचानक हो आए गड्ढे को माटी डालकर पाट नहीं सकते और उसके लिए सरकारी
कारिंदों के आने का इंतज़ार करते रहते हैं, तो भला इन मजदूरों के पक्ष में क्या
बोलेंगे और करेंगे?
तो
यह गर्व का विषय हो सकता है कि हमने मजदूरों को बधाई दी| कविता लिखी| कहानी लिखी|
वीडियो बनाए| मजदूर लाभान्वित हुए या नहीं हम जरूर हुए| हमें जो नहीं जानते थे वे
भी श्रम, पसीना, मजदूर, भूख, कंगाली आदि पर चर्चा-परिचर्चा करके और कविता-वविता
लिखकर अपना नाम क्रांतिकारी कवियों और चिंतित दार्शनिकों में लिखवा ही लिया| और
अंततः इसी तरह हमने मजदूर दिवस मना लिया
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