Friday 21 August 2020

सारा दुख गुस्से में बदल जाय तो दरक सकते हैं बड़े से बड़े किले (सुभाष राय की कोरोजीवी कविताएँ)

कोरोना समय ने सबसे अधिक बेपर्दा किया है भारतीय राजनीति के चरित्र को| यह तो पहले से तय था कि यहाँ लाशों पर राजनीति होती है लेकिन इधर कोरोना ने उसे पूर्ण विश्वास में बदल दिया| मरते और बिलखते लोगों को जिन्दा मरने के लिए छोड़ दिया गया तो जो इनमें शामिल नहीं थे उन्हें जबरन ऐसा बना दिया गया| जिन्दा आदमी और उसके दुःख-सुख यहाँ कोई मायने नहीं रखते| वह सब भाग्य-भरोसे छोड़ दिए गए हैं| अन्न-दाना के अभाव में बदतर स्थिति को मजबूर और विवश जन आत्मनिर्भर होने के स्वप्न में बेघर हो गया है| उनके अधिकार और कर्तव्य को सड़कों पर लावारिस भटकते देखा जा सकता है| कोरोजीवी कविता जन के साथ खड़ी है| उनके यथार्थ दुःख को शब्द देकर राजनीतिक षड्यंत्र को असफल बनाने का पूरा श्रम कर रही है|

कोरोजीवी कविता के दायरे में यदि मुझे कुछ शब्दों में सुभाष राय की कवि-दृष्टि स्पष्ट करना हो तो मैं कहना चाहूँगा कि सुभाष राय मानवीय करुणा और राजनीतिक चेतना के कवि हैं| अब यह प्रश्न उठ सकता है कि राजनीतिक चेतना के साथ मानवीय करुणा कैसे सम्भव है? तो मनुष्यता की विकास

का जो मार्ग है वह राजनीतिक षड्यंत्रों को पार करने के बाद ही खुलता है| यहाँ यह समझना जरूरी है कि सत्ताएँ दिल से नहीं दिमाग से संचालित होती हैं| व्यक्ति एक निमित्त मात्र होता है जिस पर विचार से ज्यादा विचारधारा का दबाव होता है| विचारधाराएं अपने ब्रांड को महत्त्व देती हैं न कि जन के हृदय में उठने वाली संवेदनाओं को| कई बार उनकी नींव इन्हीं संवेदनाओं पर टिकी होती है जिनका होना मनुष्य बने रहने के लिए जरूरी होता है|

मनुष्य की संवेदनाओं पर जब विचारधाराओं की नींव तैयार की जाती है तो चाहकर भी इस षड़यंत्र से बाहर हम कहाँ रह पाते हैं? मनुष्य की गर्दन इस तरह फंसी होती है कि वह कातर नज़रों से देखता है कि कहीं कोई आए और उसे मुक्त करे| कवि और कविता की छटपटाहट सही अर्थों में मनुष्य के मुक्ति की छटपटाहट है| सुभाष राय की कवि-दृष्टि बराबर इस तलाश में व्यस्त है कि क्रूर सत्ता के षड्यंत्रों से कैसे मनुष्य को मुक्त रखा जाए| सत्ताएं गोटियाँ बिछा रही हैं और कवि रेशा-रेशा उन्हें उधेड़ रहा है| वह अपनी कविता को माध्यम बनाकर जितनी गहराई में जा रहा है, मनुष्य उतना ही क्षत-विक्षत दिखाई दे रहा है| वह देखता है कि सत्ता के मद में चूर नीति-नियंताओं ने “अचानक शहर/ पर ताला लगा दिया/ हजारों लोग सड़क पर आ गये|” वे बार-बार रोके गए लोगों द्वारा लेकिन सच्चाई यह है कि “जितने रोके गये, उससे ज्यादा/ निकल आये सड़कों पर/ दुनिया भौचक रह गयी / अनगिन पांवों को दुख भरी लय में/ एक ही दिशा में‌ चलते देखकर|” सत्ता की क्रूरता यहाँ भी नहीं रुक जाती है| वेबस और विबस आम आदमी ‘घर वापसी’ के लिए “कुछ साइकिल से, कुछ रिक्शे से/ और बाकी साहस बटोरकर/ पैदल ही चल पड़े गाँव की ओर/ अपना सामान, अपने बच्चे/ कंधे पर सम्भाले हुए/ भूख, दूरी, थकान और/ मृत्यु को चुनौती देते हुए|” यहाँ आम आदमी से यही चूक हो गयी कि वे सत्ता को भी चुनौती दे रहे थे|

एक हद तक ‘भूख, दूरी, थकान औरमृत्यु’ को तो चुनौती दी जा सकती है क्योंकि यह सब संवेदना आधारित होती हैं| संवेदनाएं कभी धोखा नहीं देतीं लेकिन सत्ताएं अंधी बहरी और गैरजिम्मेदार होती हैं| उनमें संवेदना नहीं क्रूरता दिखाई देती है| आम को ख़ास की क्रूरता से टकराने का प्रतिफल यह मिलता है कि “कुछ रास्ते में मारे गये/ धूप‌ और थकान से/ कुछ ट्रक से टकराकर/ कुछ नींद में ट्रेन से कटकर/ रोटियां टूटे हुए सपनों की/ मानिंद बिखर गयीं पटरी पर|” कवि का प्रयास और कविता का संघर्ष यहीं से प्रतिरोध का पक्ष मजबूत करते हैं| यही प्रतिरोध जनता को जागरूक करने का कार्य करती है| कवि तो यहाँ तक कहता है कि “तूफानों से टकराने के/ मौके जब भी मिलें/ पीछे नहीं हटना चाहिए/ सारे जोड़ों की परीक्षा/ हो जाती है एक बार/ पता चल जाता है/ कितना मुकम्मल‌ है/ भीतर का तूफान|” भूख और अभाव की स्थिति में ही ‘भीतर का तूफ़ान’ जगता है और प्रतिरोध का विकल्प अपनाकर परिवर्तन की नींव डालता है|

कोरोना समय में ‘सड़क पर’ चलते हुए जन के माध्यम से सत्ता के समक्ष खड़े होकर कविता यह स्पष्ट करती है- “जो सड़क पर होंगे/ वे एक न एक दिन समझ ही‌ जायेंगे/ कि सड़क एक संभावना है/ वे समझ जायेंगे कि जैसे/ सड़कें तमाम मुश्किलें पार/ करती चली जाती हैं गांव तक/ बिलकुल वैसे ही जा / सकतीं हैं संसद तक|” जिस दिन भूखे, लाचार और वेबस लोगों को उनके गाँव तक पहुंचाने वाली सड़कें संसद तक पहुंचाना शुरू कर देंगी उसी दिन से जो जन गलत नीतियों के कारण भूख और प्यास

से टूट रहे हैं, जर्जर हो रहे हैं, अपने होने को लेकर हतप्रभ और परेशान हैं वही लोग विचारधारा के केन्द्र में होंगे| यह कहते हुए कवि उसी तरफ इशारा करता है-“आप ने फैसले किये/ सैकड़ों लोगों ने जानें गंवा दीं/ आप ने फैसले किये/ गरीबों के भूखों मरने की नौबत आ गयी/ आप ने फैसले किये/ बीमारी और विकराल होती गयी/ आप ने बहुत फैसले कर लिए / अब जनता की बारी है” क्योंकि वह महज फैसले सुनने के लिए नहीं है| जब भी कोई आपदा आती है या आने को होता है, सत्ता या तो संदेश देती है या फिर फैसले सुनाती है| सत्ता किस तरह फैसले सुनाती है यह सुभाष राय की इन दो छोटी कविताओं को पढ़कर समझिये-कवि बताता है इन कविताओं के बारे में “मैं पिछले वर्ष सोमनाथ में था, समुद्री तूफान 'वायु' टकराने वाला था और निकलने के सारे रास्ते बंद थे। कैसा लगा था तब, देखिये” और समझिये भी फैसले की क्रोनोलॉजी को-

1.

सरकार ने कहा है,

आप सोइये, हम जाग रहे हैं/ जब तक सरकार है

आप को फिक्र करने की जरूरत नहीं/ तूफान को गुजर जाने

दीजिये नींद के भीतर से/ आप सोइये हम जाग रहे हैं

2.

सरकार ने कहा है,

आप अगर सागर के नजदीक हैं/ तो सुबह तक निकल लें

आप की सुविधा का/ पूरा इंतजाम किया गया है

सारी बसें, ट्रेनें और उड़ानें/ रद्द कर दी गयी हैं|”

गज़ब की स्थिति है| एक तरफ यह कि “जब तक सरकार है/ आप को फिक्र करने की जरूरत नहीं” दूसरी तरफ यह कि “आप अगर सागर के नजदीक हैं/ तो सुबह तक निकल लें/ आप की सुविधा का/ पूरा इंतजाम किया गया है/ सारी बसें, ट्रेनें और उड़ानें/ रद्द कर दी गयी हैं|” यहाँ इस फैसले और ऐलान से दो ही बातें निकलकर आती हैं – एक, या तो जानता पागल और मूर्ख है, दो-या तो सत्ता एकदम समझदार और चालाका है| यही चालाकी और समझदारी भरे कार्य इस कोरोना समय में भी जनता के साथ किये गये| और वह अनिर्णय की स्थिति में बस अड्डों पर दोहरी मार झेलने के लिए विवश हुई| इस कोरोना समय में भी राजनीति ने अपना वास्तविक चेहरा नहीं छुपाया| सत्ता उसी तरह क्रूर और अमानवीय बनी रही जैसा पहले रहती आई या थी| कवि स्तब्ध रहे और कविता प्रतिरोध में त्यौरियां चढ़ाए फडफडाती रही| कवि की स्तब्धता ने कविता को आक्रामक बनाया और कविता ने प्रतिरोध की संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन करने का बीड़ा उठाया| कवि और कविता भी, यही बताना चाहता है सत्ता को कि कि यह राजतन्त्र और तानाशाही का समय नहीं है, सही मायने में लोकतंत्र है| यहाँ ‘लोक’ के मन और ‘निर्णय’ तक ही सत्ताएं जीवित रहती हैं|

कवि यह भी जानता है कि राजनीति ‘लोक-मन’ निर्दयी नहीं होते और न ही तो क्रूर और आततायी होते हैं इसलिए ऐसे ‘निर्णय’ लेने में बहुत दिन लगा देते हैं| कवि चाहता है कि हमारे समय का लोकमन निर्णय-क्षमता से परिपूर्ण हो, इसीलिए वह देश के हर नागरिक, बड़ा हो कि छोटा, को सत्ता की सच्चाई बताना चाहता है “उन्हें खुशी होती है/ लोगों को राहत देकर/ तो उनकी खुशी के लिए/ किसी को तो‌ मरना पड़ेगा/ ताकि उसके परिजन पा सकें राहत/ वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को/ राहत पहुंचाना चाहते हैं/ इसके लिए ज्यादा से ज्यादा/ लोगों को मरना पड़ेगा|” हाल में हुए दिल्ली दंगे से लेकर कोरोना काल तक देखो, देखना है तो नोटबंदी से लेकर तालाबंदी तक देखो, लोग मरते गए और राहत का ऐलान होता गया| लाशों को रखकर राजनीति हुई लाशों के एवज में राजनीति हुई और हो रही है| कवि सत्ता से उपजी देश की यथार्थ तस्वीर लोगों को दिखाना चाहता है| दिखाना चाहता है कि पहले लोगों को भूखा छोड़ा जाता है और जब मरने लगते हैं तो उस ‘भूख’ पर षड्यंत्रों के जाल बिछाए जाते हैं| जाल में हर समय निर्दोष लोग फंसते हैं शिकारी बच कर निकल लेते हैं| “भूखा होना कोई अपराध नहीं” कविता में कवि जो कुछ दिखाता है उस पर गंभीरता से विचार करने के लिए विवश होना पड़ता है-यह कविता पढ़िए और देखिये-

“वह भूखी थी/ भूखा होना कोई अपराध नहीं है/ उसे कैसे पता चलता कि यह जो फल/ की‌ तरह दिख रहा है, फल नहीं है/ उसने केवल एक अननास/ उठाया था खाने के लिए/ वह अकेले शिकार नहीं हुई/ उसका अजन्मा बच्चा भी मारा गया/ उसकी कई पीढ़ियां मारी गयीं/ थोड़ा जंगल भी मारा गया/ शिकारी निकल गया जाल बिछाकर/ वे भी भूखे थे/ वे बस जिंदा रहना चाहते थे/ जिंदा रहने की आकांक्षा कोई अपराध नहीं है/ पुराने नोट बेकार हो गये थे/ वे लाइन में खड़े थे पैसे निकालने के लिए/ घंटों खड़े-खड़े बेहोश होकर गिरे और मारे गये/ जब अचानक पूरा देश बंद कर दिया गया/ और उनके पास खाने को कुछ नहीं बचा/ वे शहरों से निकल पड़े गांवों के लिए/ वे भी अकेले शिकार नहीं हुए रास्ते में/ उनके साथ मारे गये उनके बच्चे/ उनकी कई पीढ़ियां/ थोड़ा देश भी मारा गया|”

अब समझना है तो यह समझिये कि ‘जानवर’ मरे या ‘आदमी’, ‘जंगल’ मरे या ‘देश’ उन्हें बस मरना है| पीढियां भी तबाह हो जाएं तो उनका क्या जाता है? और गया कब है? मरने वाले के इतिहास को देखो, और कवि ने दो घटनाओं का जिक्र भी किया है यहाँ पर, नोटबंदी और तालाबंदी, किसको क्या फर्क पड़ा है? यह भी एक विडंबना है देश का कि मरने वाले कठघरे में खड़े दिखाई देते हैं जबकि इन्हें मारने वाले “अक्सर शिकारी निकल जाते हैं बचकर/ किसको पता नहीं, शिकारी कौन है/ कल क्या बोल पायेंगे, जो आज मौन हैं” यदि वे बोलना ही जानते तो क्या आज यह स्थिति होती क्या? और बोला ही कब सिवाय जनता को पागल, मवाली और दोषी ठहराने के? यहाँ कवि इतना कुछ दिखाने

और कहने के बाद ‘तस्वीरें’ कविता के माध्यम से जब यह कहता है कि “तस्वीरों में जितना दिखता है/ उससे ज्यादा रह जाता है बाहर/ तस्वीरें कहां बताती हैं कि कभी भी/ बदल सकती है तस्वीर” तो आश्वस्ति भी मिलती है और दुःख भी होता है| आश्वस्ति इसलिए कि “जरा सोचो ! उन तस्वीरों के बारे में/ जो‌ अब तक किसी फ्रेम में नहीं आयीं/ आयेंगी, कभी तो आयेंगी/ छल की छाती पर लाखों पांवों के/ समवेत धमक की तस्वीर/ समूची तस्वीर बदल/ जाने की तस्वीर|” दुःख इसलिए कि “शहर में छले गये लाखों लोगों का/ पैदल ही चल पड़ पड़ना गांवों की ओर/ तस्वीरों में दिखता है/ पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है/ कि‌ इतने सारे पांव चाहें तो एक झटके में/ रौंद सकते हैं शाही तख्त को/ रात-दिन चलते मजदूरों के/ चेहरों पर गहरी थकान/ और रास्तों पर जगह-जगह मौत के निशान/ तस्वीरों में दिखते हैं/ पर कोई भी तस्वीर कहां बताती है/ कि सारा दुख गुस्से में बदल जाय/ तो दरक सकते हैं बड़े से बड़े किले|” हम भारतीयों में एक चीज सामान्य है और वह है आशावादी होना इसलिए जब कवि कहता है कि “आयेंगी, कभी तो आयेंगी/ छल की छाती पर लाखों पांवों के/ समवेत धमक की तस्वीर/ समूची तस्वीर बदल/ जाने की तस्वीर तो विश्वास मानिए जितने भी दुःख होते हैं सब आश्वस्ति के साँचे में ढलकर परिवर्तन की लालसा लिए सुख में परिवर्तित होने लगते हैं| यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि इन ‘तस्वीरों के बाहर’ यदि कोई देख सकता है तो वह है कवि और कविता| इसलिए क्योंकि इन्हें जन की वेदना से कहीं अधिक पहचान उनकी संवेदना की होती है|

          सुभाष राय संवेदना के पारखी कवि हैं इसी लिए उन्हें मानवीय करुणा का कवि कहता हूँ| दरअसल करुणा का भाव वहां उत्पन्न होती है जहाँ आत्मीयता होती है| सुभाष राय इस देश के प्रत्येक उस नागरिक से आत्मीय व्यवहार रखते हैं जो दीन है, दयनीय है अथवा सत्ता के हाथों का खिलौना बनाए जाने के लिए जिन पर जाल बिछा दिया गया है| कवि यह जानता है कि हर हाल में सत्ता अपना हित साधेगी और जो कुछ मनुष्यता बची है या मनुष्यता जिनसे समृद्ध होनी है उन्हें क्रूर बना देगी| वह इसीलिए सचेत करता है ज्योति को, वही ज्योति जो अपने पिता को सायकिल पर बिठाकर दिल्ली से बिहार ले आई थी-“सावधान रहना बेटी !/ जब भी कोई साहस, कोई इरादा, कोई रोशनी/ दिखती है, वे डर जाते हैं/ और कोई जाल बुनने लगते हैं” ताकि अंधेरों की बस्ती में उजाले की रौशनी न बिखर सके| किसी भी रूप में भला मानुष सत्ता के षड्यंत्रों का शिकार न हो, यह कवि कोशिश रहती है|

          यदि मैं यह कहूं कि सत्ता के प्रतिरोध में सुभाष राय ‘हिंदी कविता के भविष्य हैं’ तो आपको कैसा लगेगा? सोचना| ऐसा इसलिए क्योंकि पहले ही दो स्थापना दे चुका हूँ ‘मानवीय करुणा और राजनीतिक चेतना का कवि’, और दोनों जैसे लोगों को आक्रामक होने के लिए आमंत्रित कर रही हैं मुझ पर फिर भी यह स्पष्ट कर दूँ कि कभी पढ़िए और कवि की सपाटबयानी को नहीं ‘स्पष्ट ज़िम्मेदारी’ को समझने की कोशिश कीजिए| बहुत कम चेहरे हैं इधर समकालीन कविता में जिनकी लगभग कविताओं में राजनीतिक प्रतिरोध की क्षमता दिखाई देती है| अपनी बात उन्हीं की कविता के इस अंश के साथ समाप्त करता हूँ-

“जीतेंगे वे जो लड़ेगे

युद्ध टालने के लिए

भूख, बीमारी और मौतों से

लोगों को बचाने के लिए

कल सिर्फ वही जियेंगे

जो आज मरेंगे दूसरों के लिए”

 

कुछ कोरोजीवी कविताएँ


बहुत सरल नहीं होती है प्रतीक्षा

कुछ ध्वनियां हैं अंतरिक्ष में
जो अभी तक हमारे पास नहीं पहुंची
कुछ रोशनियां भी हजारों साल से
चली आ रही हैं हमारी ओर
कुछ कविताएं हैं उनमें
गूंजती हुई, चमकती हुई
दरवाजे, खिड़कियाँ खोल दो
दीवारों से बाहर निकल जाओ
बहुत सरल नहीं होती है प्रतीक्षा
एक बार ठीक से सोच लो फिर आओ
आओ तो, अनंत समय लेकर आओ


एक था राजा

राजा के शौक में शामिल था शिकार
वह उनका शिकार करता था
जो उसके निर्मम इरादे पहचानते
जो उसके झूठ का पर्दाफाश करते
उसकी कमअकली की ओर इशारा करते
वह उन सबका शिकार करता
जो उसके लिए खतरा हो सकते थे
जो भी उसके हुक्म की नुक्ताचीनी करता
किसी वाहन से टकराकर
किसी ऊँची इमारत से गिरकर
किसी नदी में बहकर मारा जाता
वह शेर की खाल में भूसा भरकर
उसे ऊँची जगह पर रखवाता
ताकि लोग भूलें नहीं कि वह
शिकार करने की कुवत रखता है
वह नहीं चाहता था कि उसके राज्य में
कोई बहादुर, कोई साहसी बचे
कोई उसे टोकने की हिम्मत करे
वह चाहता था कि सिर्फ उसका हुक्म चले
वही बोले, कोई और न बोले

सुन रहा हूँ 

सुन रहा हूँ
डरावने सन्नाटे में खांसने, छींकने और
शून्य में डूबते जाने की आवाजें सुन रहा हूँ
लाशों का हंसना सुन रहा हूँ
अस्पतालों और श्मशानों की
असमर्थता सुन रहा हूँ
पहली बार इतने करीब से
मृत्यु की धड़कनें सुन रहा हूँ
सुन रहा हूँ
सफलता के आत्मगान सुन रहा हूँ
बिहान के पक्ष में रात का बयान सुन रहा हूँ
तेज धार वाले श्लोक सुन रहा हूँ
भाषा में‌ क्रूरता सुन रहा हूँ
टैंक सुन रहा हूँ, तोप सुन रहा हूँ
झूठ के घंटनाद सुन रहा हूँ
सहयोग के लिए आभार सुन रहा हूँ
मूर्तियों के जंगल में पत्थर की
जयजयकार सुन रहा हूँ


प्रार्थना

जब भी डर लगा हमने प्रार्थना की
किसी ने जुल्म ढाये हमने प्रार्थना की
हमने देवता की प्रार्थना की, राजा की प्रार्थना की
जीते हुए प्रार्थना की, मरते हुए प्रार्थना की
हमने इतनी प्रार्थनाएँ की कि झुक गये प्रार्थना में ही
और अब सीधे खड़े होना चाहते हैं
तो प्रार्थनाएँ काम नहीं आ रहीं

एक लड़की

वह रोज सुबह आती है
मेरे घर अपने काम पर
वह बहुत कम बोलती है
हंसती तो बिलकुल ही नहीं
वह जानती है कि आज के समय में
एक लड़की का मुक्त होकर हंसना
उसे मुश्किल में डाल सकता है
वह चमकती रहती है
काम करके जाने के बाद
मेरे घर में जगह-जगह
सबसे खूबसूरत लगता है
उसके हाथ का सना हुआ आटा
जैसे वह थाली में रख गयी हो
एक छोटी सी पृथ्वी
गोल और सुंदर

 दो पक्षियों की बात


वे सिर्फ चूँ चाँ चीं, चूँ चां चीं नहीं करते
तो फिर रोज सवेरे अलग- अलग डाल पर बैठे
दो पक्षी आखिर क्या बात करते हैं
वे बात कर सकते हैं खाना-पानी के बारे में
बहेलिये की निर्ममता के बारे में
जंगल पर उसकी निगरानी के बारे में
इस बारे में कि रोज कुछ पक्षी
आखिर कहां गायब हो जाते हैं
और जो कोई भी मुंह खोलता है
वह अगले दिन पिंजरे में क्यों मिलता है
वे बात कर सकते हैं कि कैसे
बहेलिया कैद पक्षियों से उनके
घोंसलों, अंडों और बच्चों के बारे में पूछता है
पूछता है कि उनमें क्या-क्या बातें होती हैं
जाल लेकर उड़ जाने की साजिश में
आखिर कौन-कौन शामिल है
सही जवाब देने पर भी संतुष्ट नहीं होता है
कई बार गुस्सा होकर पंख नोंच लेता है
गर्दन दबाने की कोशिश करता है
कई बार प्यार से कहता है कि आजादी
चाहते हो तो मुखबिर बन जाओ
एक पक्षी बोलता है, ज्यादा चूं- चां ठीक नहीं
बच्चों को समझाना होगा कि वे
ऊंची उड़ान के चक्कर में न पड़ें
हो सके तो बहेलिये के पक्ष में रहें
उसे शिकार करने में मदद करें
दूसरा कहता है, मेरे पुरखे हमेशा
बोलते आये हैं, मैं भी चुप नहीं रहूंगा
बहेलिये को चकमा दे सकते हैं मेरे पंख
ऐसे बहुतेरे आये और चले गये
एक दिन इसे भी जाना ही होगा
इस सवाल पर रोज दोनों में खूब बकझक
होती है पर सहमति कभी नहीं होती
हो सकता है‌, दोनों कोरोना पर बातें करते हों
आदमियों से दूरी बनाये रखो
वे कोरोना से भी खतरनाक हैं
वे लाश भी हजम कर जाते हैं
संभव है वे प्रेम की बातें करते हों
लेकिन हम क्या करेंगे प्रेम का
प्रेम करना कहां आया हमें
मानुष की नजर तो हमेशा ही
कुछ पाने पर टिकी रही
उसने मानुष को कब कितना प्रेम किया
दो पक्षी कुछ तो बात करते हैं
पता नहीं, हम सही अनुवाद कर पाये या नहीं
हे, पक्षियों ! तुम्हीं बताओ न, तुम रोज सुबह
आपस में क्या बातें करते हो?
तुम्हें हिंदी आती है क्या?
(विष्णु नागर जी की एक
टिप्पणी से प्रेरित)

4 comments:

रेणु said...

निशब्द कर दे रही हैं कोरोजीवी जी की कवितायें !! साधा लेखन समाज , राजनीति और समय के मर्मान्तक दौर का सशक्त दस्तावेज है | बहुत महत्वपूर्ण लेख है साधुवाद और शुभकामनाएं\ |

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

जी! बहुत आभार आपका| आपकी प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण है|

गीता पंडित said...

बहुत अच्छी व्याख्या की अनिल आपने. सुभाष जी की कविताओं के साथ आपने पूरा न्याय किया है. आप दोनों को बधाई.

अनिल पाण्डेय (anilpandey650@gmail.com) said...

बहुत आभार मैम आपका। स्नेह बना रहे ऐसे ही।