Thursday 20 October 2016

दूब और मनुष्य, हमारे विकास की कहानी

दूब और मनुष्य 

देख रहे हो न
दूबों के संघर्ष-गाथा को

बरसात के मौसम में
पानी के नीचे दबे होने के बावजूद
धूप से अठखेलियाँ करते
कैसे हमें बता रहे हैं
संघर्षों के सघन छाया में
मुस्कुराते रहने की कला

कैसे हमें सिखा रहे हैं
धूप, पानी, हवा के थपेड़ों को
सहते रहने और
मृतप्राय हो जाने के बावजूद
अपने वारिस को तैयार करना
शोषकों से लेकर खुराक अपनी
फिर फिर से उठ खड़ा होना
  







हमारे विकास की कहानी


पता है तुम्हें
ये जो झाड़-झंखाड़ दिखाई दे रहे हैं
हमारे परिवेश में
हम सब के बीच
देख कर जिनको
वितृष्णा सी होती है हमें

लाखों बार साफ़-सफाई करने के बावजूद
ख़तम नहीं होते और अधिक बढ़ते जाते हैं
एक से दूसरे और दूसरे से,
तीसरे स्थान तक फैलते जाते हैं
फैलते जाते हैं
हमारे तुम्हारे सोच के विपरीत  

ये कुछ या कोई और नहीं
हमारे विकास की कहानी हैं

जैसे हम मिटे थे कभी
मिटाते रहे थे लोग
हमारे अंतिम पहचान तक को

नहीं छोड़ा था हमने मुस्कुराना
हंसना और जीवन जीने की
जिजीविषा को बढ़ाते रहना  

समय ने और भी जोर लगाये थे
हमारे ऊपर समस्याओं के अम्बार को
ला-लाकर अन्यानेक जगहों से
इकठ्ठा किये थे और भी अधिक
और भी अधिक हम घबड़ाए थे

बावजूद इसके हम बढ़ते रहे
असभ्यता से सभ्यता की ओर और
सभ्यता से असभ्यता की ओर

आज भी हमारी उन्मुखता
छिपी नहीं है किसी से
हम बढ़े थे और बढ़ते रहे हैं
विमुखता की प्रवृत्ति को
हमने नहीं अपनाया कभी 

न्हास में भी विकास की
संभावना को जीवित रखते हैं हम
उजड़कर भी सम्भलने की इच्छा से
संयमित और मर्यादित हैं हम

मर्यादा में झाड़-झंखाड़ भी हैं
इसलिए वे समृद्ध हो रहे हैं
दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं
हमारे तुम्हारे बीच

संयम में रहने की कोशिश
हम भी करते हैं
इसलिए विकसित हैं हम
असंयमित होने की प्रक्रिया में
हम हो जाएँगे खर-पतवार

झाड़-झंखाड़ के मध्य
गिनती हमारी भी इकट्ठे हुए अम्बार
की तरह करेगी हमारी सल्तनत
अंततः वे भी कहेंगे हमें 
ये कुछ या कोई और नहीं

हमारे विकास की कहानी हैं 

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