प्रेम में डूबने और गहराई तक जाकर
उसका रसपान करने की चाहत सबके हृदय में उठती है, जैसा कि अनुभव से अभी तक हमने
जाना है, परन्तु प्रेम को इस चाहत के अनुसार प्राप्त करने की जितनी अधिक क्षमता और
जितनी अधिक संभावना एक कवि में देखी जा सकती है...किसी और में दिखाई देना मुश्किल
ही है | वैसे कहा तो यह भी जाता है कि नैसर्गिक रूप से प्रेम करने वाला प्रत्येक
व्यक्ति या तो एक बड़ा दार्शनिक होता है या फिर एक कवि | पर सवाल यह भी है कि इस
संसार में प्रेम करते कितने हैं? कौन हैं वे जो प्रेम करते हैं और क्यों करते हैं?
वे जो प्रेम करते हैं या जिन्हें प्रेम होने का भ्रम होता है, क्या प्रेम के
स्वरूप या अस्तित्त्व की पहचान करने की समझ उनमें विकसित हो पाती है? अपने समय का
प्रेम को लेकर यह एक बड़ा सवाल है | इस सवाल से जूझने का साहस कबीर ने भी किया था,
मीरा ने भी किया था | बाजार में खड़े होकर सबके ‘खैर’ की दुआ मांगना कबीर का प्रेम
की पराकाष्ठा पर पहुँचना था तो हरि-प्रेम में मगन होकर संसार के जड़-चेतन में कृष्ण
की मूर्ति देखते हुए समाज-विशेष के प्रचलित मानदंडो को नकारते हुए घर विहीन हो
जाना प्रेम के अस्तित्त्व को बचाए रखने का ही साहस था | यह साहस ‘मैं ख्वाब हूँ
तेरा’ में भी वर्तमान है |
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