Sunday 27 January 2019

ग़ज़ल मिलन-बिछडन की ऊब से प्रेरित कुंठा भर नहीं है




समय की नब्ज़ और समाज की हकीकत को अभिव्यक्त करने में हिंदी ग़ज़ल ने इधर के दिनों अच्छा प्रयास किया है| यह विधा अपनी बनावट-बुनावट में साहित्यिक और सामाजिक है जहाँ शिल्प और सम्वेदना के स्तर पर अति के लिए कोई जगह नहीं है| इन दिनों इस विधा में अतिशय भाउकता की त्याग और यथार्थ अभिव्यक्ति की प्रतिबद्धता का नया मुहावरा विकसित हुआ है| कहना होगा कि यहाँ कोरी राजनीतिक नारे मात्र नहीं हैं, सहस्तित्व की भावना और सामाजिक संस्कार की उर्वर जमीन है| जन-जीवन की सम्वेदनाएँ यहाँ पुष्पित-पल्लवित हैं साथ-साथ लोक-व्यवहार अपनी सम्पूर्णता के साथ समादृत है| इस दृष्टि से जब हम मूल्यांकन करते हैं तो यह पाते हैं कि अनिरुद्ध सिन्हा की सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह ‘ताकि हम बचे रहें’ समकालीन रचनाधर्मिता में ग़ज़ल की सम्पूर्णता को प्रस्तुत करने में पूर्ण सहायक है|

आलोच्य संग्रह के हवाले से कहें तो अनिरुद्ध सिन्हा की गज़लें हमें व्यावहारिकता के ऐसे ही धरातल पर ले जाती हैं जहाँ से जीवन शुरू होता है, जिसे जीते हुए हम अपने दैनिक जीवन में परिदृश्य की उन सच्चाइयों से टकराते महसूसते आगे बढ़ते हैं, जो अनुभवों से प्राप्त होती हैं| साहित्य यदि अनुभव के रास्ते अनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति है तो अनिरुद्ध सिन्हा की काव्य-दृष्टि उस अभिव्यक्ति की कसौटी है जहाँ से मान और ईमान के बीच संघर्ष शुरू होता है| इस संघर्ष में सबसे अधिक हानि पारस्परिक विश्वास को हुई है| प्रेम का स्थान घृणा, हर्ष का विषाद, स्नेह का ईर्ष्या ने ले लिया है| प्रेम-प्रस्ताव को मनुष्यता के दायरे से ही जैसे निकाल दिया गया है| यहाँ आवश्यकता किसी की तनहाई नहीं है बाज़ार के अनुसार स्वयं को ढाल लेने की नीयति है| इस नीयति में व्यक्ति की जरूरतें मानवीय व्यवहार नहीं बाज़ार के समीकरण निर्धारित कर रहे हैं| प्रेम के बदले हुए स्वरूप में संकेतों की गिरती साख पर हालांकि कवि चेताता है “इंकार को समझो कभी इकरार को समझो/ जैसे भी हो ऐ दोस्त मेरे प्यार को समझो” लेकिन जैसे ही उसे यह आभास होता है कि हम अब लोक-ग्राम में न होकर बाज़ार में हैं यह सलाह देना उचित समझता है कि-

मना कि बहुत ख़ास है तन्हाई तुम्हारी
बाज़ार में आए हो तो बाज़ार को समझो||

अपने वर्तमान की शांति के लिए भविष्य की संभावनाओं को जिस तरह से हमने बाज़ार के हाथों सौंपा है सच कहें तो मानवीय स्वप्न-भूमि को उर्वर बनाने की बजाय बंजर बना देने की ख्वाहिश को खाद-बिसार दिया है| यह उसी का परिणाम है कि पारिवारिक दायित्वबोध का क्षरण तो हुआ ही, इधर के दिनों में सम्बन्धों के बीच कलरव करती पारस्परिक बंधुत्व भी अतीत होने के करीब है| यहाँ एकाकी का खतरा मडराने लगा है| कवि का यह कहना कि “सभी रिश्ते हैं मतलब के सभी मतलब के हैं साथी/ मज़ा आता नहीं है अब किसी के साथ जीने में” बढ़ रही एकाकी प्रवृत्ति का बड़ा उदहारण है| यहाँ अनिरुद्ध जब बाज़ार के प्रभाव में परिवेश का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि “सिलसिले बढ़ने लगे ये इस नए माहौल में/ घर के अंदर रोज़ कितने घर नए बनने लगे|”  घर के अन्दर घर तैयार होने की यथास्थिति में यहाँ बाज़ार के प्रभावी होने के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन का माहौल भी एक बड़ा कारक है| इसमें युवा अपने से बड़ी पीढ़ी को सुनने के लिए तैयार नहीं है| स्वच्छंदता की आंच में इस कदर झुलसे हुए लोग हैं कि बड़ों की सीखें उन्हें किसी बड़ी रुकावट से कमतर नहीं दिखाई देती| जबकि लोक-समृद्धि बाज़ार की चकाचौंध में न सम्भव होकर बड़ों-बुजुर्गों द्वारा अर्जित उन अनुभवों में है जिसे वे समय और समाज में संघर्ष करते हुए कमाए हैं-कवि की मानें तो यह स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए-

“ये जो कदमों के हैं निशां यारों
मंज़िलों का यही पता देंगे
हम तो जुगनू हैं जल बुझेंगे मगर
आने वालों को रास्ता देंगे||”

समय की आपाधापी में ‘जल-बुझ’ कर भी भविष्य की पीढ़ी को रास्ता दिखाने का कार्य हमारा लोक करता आया है| ऐसा लोक जो बाज़ार के सौन्दर्यीकरण से कोशों दूर है| अनिरुद्ध सिन्हा यहाँ बाज़ार की अपेक्षा लोक को और युवा-स्वच्छंदता की अपेक्षा समर्पण को अधिक तरजीह देते हैं| ऐसा इसलिए भी क्योंकि उनकी दृष्टि में बढ़ना महज कद और समय का बढ़ना नहीं होता| आदतों और आदतन अपनाई गयी प्रवृत्तियों का घटना-बढना भी उसी के दायरे में आता है| युवाओं की स्वच्छंद प्रवृत्ति से नवीन रीतियों का निर्माण करता परिवेश अँधेरे की चकमक से आच्छादित तो हुआ है लेकिन ऐसा होना अनुभवशील जन के पीछे हटने का संकेत भी है और यही हमारे समय की बड़ी कमजोरी है-

नई तहजीब अपना कद बढ़ाती जा रही है
पुराना जो है धीरे-धीरे हटता जा रहा है||

पुराने के हटने से युवाओं में भटकाव अधिक दिखाई दे रहा है| लोक व्यवहार में शामिल होने के बाद अनुशासन एक विशेष प्रकार की सामाजिक जरूरत बनकर हमारे सामने प्रस्तुत होती है| कवि इस जरूरत की पूर्ति के लिए लोक के अंतस्तल में प्रवेश करता है| इस लोक में बुजुर्ग हैं, परंपरा है और है अनुशासन का महत्त्व, जहाँ चलते हुए वह कभी इसलिए विपरीत मौसमों में भी सदाबहार बना रहा क्योंकि उसके साथ बुजुर्गों की दुवा थी-

घर से निकले तो बुजुर्गों की दुआ साथ रही
इसलिए राह में मौसम से सताया न गया|”

यह दुआ संग-साथ रहती है तो समय अनुशासित रहता है| जैसे ही इसकी अनुपस्थिति हुई करवट बदलते हुए वही समय परिवेश के लिए विषधर बनकर समाज को डंसने लगता है| अब, जब स्वच्छंदता की दहलीज को भी पार करने लगा है हमारा परिवेश तो गज़लकार का यह कहना जायज हो उठता है कि “इस दौर में जीना कोई आसान नहीं है/ है कौन वो जो आज परेशान नहीं है|”  परेशानी का सबब इधर के ग़ज़लकारों को खूब हुआ है| ये वाक्य युग-विसंगतियों को परखते हुए निकले हैं| संघर्ष की अदम्य जिजीविषा लिए ये भावनाएं दयनीयता का दिग्दर्शन कराने के लिए पर्याप्त हैं|

यहाँ यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि अनिरुद्ध सिन्हा का कवि-हृदय संघर्ष-भूमि से गहरे में जुड़ा है इसलिए उसका संघर्ष हमारे अपने लोक का संघर्ष है| एक बड़ा सच यह भी है कि जीवन में बहुत सी घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें विस्मृत नहीं किया जा सकता| बहुत सी घटनाएँ ऐसी होती हैं जिनके वर्तमान होने की परिकल्पना से ही हम सिहर उठते हैं| कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें हर हाल में घटित होना ही है| यही घटनाएँ युग-समय की लकीर खींचती हैं और इन्हीं घटनाओं के इर्द-गिर्द हमारा अस्तित्वबोध हमें जागरूक रहने के लिए प्रेरित करता है| हालांकि कवि यह पूछना चाहता है कि “सुलगा हुआ है दिल में वही एक ही सवाल/ रौशन हो आदमी का मुकद्दर कहाँ गया/ मुश्किल के इस सफ़र में मुझे भी तलाश है/ जो सर उठा यकीन से वो सर कहाँ गया|” इन प्रश्नों से यह तो प्रमाणित होता ही है कि जागरूक होने वाले व्यक्तित्व या तो गायब कर दिए जाते हैं या फिर परेशानियों के मंजर में घुटते हुए युग-विसंगतियों को सहते-सहते ऐसे विलीन हो जाते हैं कि उनका पता नहीं चल पाता| 

 आलोच्य संग्रह में बदलते समय और समाज की यथार्थ परिदृश्य का जो खाका खींचा गया उसकी प्रमाणिकता को इनकार नहीं किया जा सकता| देखिये तो मेहरबानों की है भीड़/ सोचिए तो एक भी अपना नहींइस अस्मितावादी वादी युग में अपनों की तलाश और उसकी पहचान जरूरी हो गयी है| अपना वह जिससे देश-समाज की बातें हो सकती हैं| जीवन-समय के महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जा सकते हैं| खासकर ऐसे समय जब सभी बुद्धिमान होने का दंभ और विद्वान होने की ग़लतफ़हमी में जिए जा रहे हैं| जिनको लगता है समय ऐसा नहीं उन्हें पता होना चाहिए कि हर किसी सवाल का उसमें ही जवाब है/ मैं जुबां से क्या कहूँ सामने किताब है|” एक ऐसी किताब जो अपने समय के सच को परत-दर-परत अभियक्त करने का जोखिम इसलिए उठाती है ताकि हम बचे रहें|”

लोक जीवन की अपनी विसंगतियां हैं| अपनी समस्याएँ हैं| जीवन जीने की लालसा में सदियाँ गुजार दी मनुष्य ने लेकिन रहने के लिए घर और पहनने के लिए कपड़े आज भी नहीं नशीब हो सके हैं| पेड़ों के नीचे और जंगलों के घने परिवेश में रहने के लिए आज भी अभिशप्त है जीवन| आज भी भूख से तर-वितर बचपन सडकों, प्लेटफार्मों, गाड़ियों आदि के सामने रेंगते-रेघते देखे जा सकते हैं| ऐसे भी लोग हैं जिन्हें बेबस जीवन की दंश नहीं दिखाई दे रहे हैं| रोटी की तलाश में भटकते लोग और अविश्वास के अंतर्विरोध में सिसकते सम्बन्ध नहीं नजर आ रहे हैं| उन्हें सच दिखाने के लिए जरूरी है कि दरों-दीवार के परदे उठा दो/ कहीं कुछ नहीं बदला दिखा दो|”

कुछ नहीं बदला यानि जिन परेशानियों और परिस्थितियों से जूझते हुए हम विकास के पैमाने निर्धारित करते रहे उन्हीं परेशानियों और परिस्थितियों में आज भी जूझ रहे हैं| इधर की राजनीतिक गुटबंदियों ने लोक को गर्त में ले जाने का पूरा प्रयास किया है| विचलित जन समुदाय आरोप-प्रत्यारोप के खेल में खो-सा गया है| सियासत हर जगह ठीक नहीं होती| बने बनाए सम्बन्धात्मक समीकरण को यह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में मुखौटा बनाकर नष्टप्राय कर डालती है| इसीलिए अनुरुद्ध सिन्हा कहते हैं कि “शब्द की मुट्ठियों में सियासत न कर/ ये अदब के घरौंदे बिखर जाएँगे” लेकिन लोगबाग हैं कि सियासत की जमीन में सम्बन्धों की फसल उगाने की बजाय नफरत और हिंसा के बगीचे लगा रहे हैं| आज के इस भौकाली समय में यह कम मामूली बात नहीं है कि “हमें खुद में सिमटने का सलीका जो सिखा दे/ किताबों से वही क़िस्सा निकाला जा रहा है|” जहाँ अतीत के किस्से और स्मृति में रची-बसी कहानियां नहीं हैं वहां मनुष्यता नहीं दानवता जरूर पुष्पित और पल्लवित होती है|

इस अर्थ में सांप्रदायिक समीकरण देश का वही है| हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई की जटिल गुत्थियों से आजाद नहीं हो सके हैं हम| समस्याओं को जितना सुलझाने की कोशिश की जाती है वह उतनी ही उलझती जाती है| अनिरुद्ध सिन्हा का प्रयास है कि इन बनी-बनाई धारणाओं से हमारा लोक ऊपर उठे| कुछ ऐसा प्रयास लोगों द्वारा जिससे यह उलझाव दूर हो और मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा में मनुष्यता की सम्भावनाओं को प्राप्त कर सके| वे कहते हैं

हिन्दू कि मुसलमाँ कि ईसाई हो या कि सिख
मिल-जुल के रामराज के दीपक जलाइये
कोई भी रोग रह न सके लाइलाज अब
हर मर्ज़ के इलाज के दीपक जलाइये|”

दीपक जलाए जाने के ऐसे समय में जब जीवन को उजाड़कर जन को बचाने की जुगत की जा रही है, कवि और कविता की प्रासंगिकता बढ़ गयी है| रचनाकारों की भी ऐसी नियति हो गयी है कि जीवन-जरूरतों में उलझा असहाय मनुष्य नहीं पक्ष और विपक्ष दिखाई दे रहा है| अनिरुद्ध सिन्हा का ये कहना हमें संतोष देता है कि कोई किसी की तरफ़ है कोई किसी की तरफ/ वो एक हम हैं जो रहते हैं ज़िन्दगी की तरफ़|” इसमें कोई संदेह नहीं है कि रचनाकारों का जिंदगी की तरफ रहना भविष्य की संभावनाशील उर्वर-भूमि को बचाना है|

इस संग्रह की अधिकांश गज़लों में समकालीन विसंगतियों की गहरी सिनाख्त न करते हुए कवि ने प्रेम-स्थिति की स्पष्टता को जन सामान्य के सामने प्रस्तुत करना चाहा है| इस प्रस्तुतिकिरण में अनिरुद्ध सिन्हा उतने हद सफल नहीं हो पाते हैं जितना अपनी यथार्थ-अभिव्यक्ति में हुए हैं| प्रेम सदैव से एक ऐसा विषय रहा है जिसे लगभग रचनाकारों ने छूना चाहा है| हालांकि अनिरुद्ध सिन्हा का प्रेम वायावी प्रेम नहीं है, सहज और मानवीय संभवनाओं से परिपूर्ण प्रेम है, फिर भी आक्रोश-अभिव्यक्ति के लिए यह जरूरी था कि लोक को अनुभव देने के समय में प्रेम के पाठ पढ़ाने के प्रयत्न कुछ और समय बाद करते|

हालाँकि यह अपनी तरह की सच्चाई है कि यहाँ मांसलता नहीं है| मिलन-बिछडन की ऊब से प्रेरित कुंठा नहीं है| सहज और स्वाभाविक प्रेमाभियक्ति की तरलता में जिज्ञासु हृदय की वेदना जरूर है जो अंततः हमें मानवीय बने रहने के लिए मार्ग-निर्देशन करते प्रतीत होती है| सच यह भी है कि अनिरुद्ध सिन्हा जैसे रचनाकार ने ही ग़ज़ल विधा को नारे की शोर-गुल वाली परंपरा से उठाकर लोक-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है लेकिन इतनी सावधानी जरूर बरकरार रखने के लिए संघर्षशील बने रहना होगा कि ग़ज़ल कहीं अपनी आदिम संस्कृति की तरह न उन्मुख हो उठे|  


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