Friday 11 January 2019

जनजीवन से दूर होती नवगीत विधा (पूर्णिमा वर्मन और नचिकेता के नवगीत-दृष्टि की परख)

गीत विधा की जिन भाउक, आत्ममुग्ध, श्रृंगारिक एवं निरा वैयक्तिक प्रवृत्तियों के प्रतिरोध में नवगीत विधा का सृजन संभव होता है, यथार्थ की जिस मांग के साथ उसकी अभिव्यक्ति को धारदार बनाने की पुरजोर कोशिशें इसके अवतरण काल में की गयी होती हैं, आज के बहुत से रचनाकार वाह-वाह के इर्द-गिर्द रहते हुए उसे खारिज कर रहे हैं| जिन प्रवृत्तियों के आसरे वह नयी कविता से होड़ लेती दिखाई दे रही थी, आज के अधिकतर नवगीतकार उन सारी संकल्पनाओं को हाशिए पर लाकर रख दिए हैं| इनको पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे गीत नवगीत हैं और नवगीत न गीत है न नवगीत है|

इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण जो है वह है महानगरीय कुलीन परिवेश में रहते हुए जर्जर गाँव की कल्पना में खोए रहना| जो कल्पना में होता है साकार होने के लिए प्रयत्नरत होता है| साकार वही होता है जिसमें श्रमधर्मिता की ललक होती है| यह ललक खेत-खलिहानों, मेड़ो, ग्रामीण रीति-रिवाजों आज में रचे-बसे होने के कारण जन्म लेती है| अब जिन्हें गुलमोहर और अमलताश के सौंदर्य लुभा रहे हैं उन्हें गरीब और मजदूर आदमी के श्रमस्वेद से उपजी वेदनाएं क्यों पसंद आएँगे?

नवगीतकारों का सबसे बड़ा स्वप्न है पक्के फर्शों पर विचरण करते हुए पगडण्डी की मनमोहकता को प्राप्त करना| एसी रूमों में सोते हुए बगीचे की हवा का उपभोग करना| उन्हें शायद यह नहीं पता है कि गाँव अपनी तमाम विसंगतियों के साथ शहर नहीं हो सकता| शहर अपनी तमाम संगतियों के साथ गाँव नहीं हो सकता| गाँव की जमीन और जन के यथार्थ को प्रस्तुत करने के लिए जरूरी है कि वहां के लोक-मन की वेदना और जीवन-विसंगतियों को रचनाकार झेल रहा हो या झेला हो|

नवगीत विधा के क्षेत्र में यह कितनी विडंबना की बात है कि सामंतवादी मानसिकता के पोषक लोग ही इसके अगुवा हैं| आखिर इससे बड़ी विसंगति इधर और क्या होगी कि जिनके पैर कभी जमीन पर नहीं पड़े वे काँटों की चुभन पर नवगीत लिख रहे हैं और जिनके पैर हर समय काँटों में हैं वे मौन होकर बैठे हैं| यथार्थ की ऐसी अभिव्यक्ति शायद ही किसी अन्य विधाओं में देखने को मिले|

जिन्हें यह लगता है कि नवगीत समकालीन हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में सशक्त और मजबूत स्थिति में है, उन्हें यथार्थ स्थिति का विधवत मूल्यांकन करना चाहिए| यहाँ सृजन से अधिक हो-हल्ला है| भीड़ है भेड़चाल है भेड़िया धसान है| नवगीत के कई बड़े हस्ताक्षरों को पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचने में विवश हुआ हूँ कि समकालीन हिंदी कविता (गद्य कविता) से कम अधिक दयनीय दशा नवगीत विधा की नहीं है| गुटबाजी, जुगाड़बाजी, जालसाजी, मौकापरस्ती और सामंतवादी मानसिकता यहाँ खूब फल-फूल रही है| जन की विधा से जन गायब है| छंदों के गुणा-भाग विद्वता का मूर्ख प्रदर्शन है| नाम है बड़ा छोटा दर्शन है| आश्चर्य नहीं कि लोक के प्रति गीत की यथार्थता इन कुछ नवगीतकारों से कहीं अधिक स्पष्ट और सामयिक है| 

पूर्णिमा बर्मन

ऐसे बहुत से रचनाकार हैं जो नवगीत के जितने बड़े हितैषी हैं उतने ही अधिक गर्त में उसे ले जा रहे हैं| यह मंचों से सुनना सुखद लगता है कि वैश्विक विमर्श के पटल पर नवगीत का मुकाबला कोई नहीं कर सकता लेकिन जब यथार्थ परिदृश्य का अवलोकन करते हैं तो निराशा हाथ लगती है| रचनाकार जन-सम्वेदना और अस्मितावादी विमर्श की अभिव्यक्ति करने की बजाय अपने ही सुख-सुविधा का चित्रण करने में मशगूल है| पूर्णिमा वर्मन ऐसी ही रचनाकार हैं| कहने को तो ये समकालीन हिंदी नवगीत की सशक्त हस्ताक्षर हैं लेकिन नवगीत की जन-जमीन से कोई ताल्लुकात इनका नहीं है| दरबारी संस्कृति की मादक अभिव्यक्ति और अभिजात्यवादी सुख-सुविधा में पगी मानसिकता का पूरा नजारा इनके यहाँ देखा जा सकता है| पूर्णिमा का एक नवगीत है ‘सुहाने दिन’, ये दिन तब के परिवेश में सुहाने हैं जब साधारण जन के समय भय, अशांति और आतंक के साये में गुजर रहे हैं| शहर विसंगतियों की भेंट चढ़कर कब्रगाह बन रहे हैं| अनुराग, प्रेम और सद्भाव की जगह घृणा, मनमुटाव और वैचारिक टकराहट ले रहे हैं| कवयित्री का ये कहना कि-

फिर सुहाने हो गये हैं दिन/ शरद की ओट लेकर/ क्यारियों में रंग डूबी चुन्नियाँ हैं/ झिलमिलाती ओस की/ कुछ पन्नियाँ हैं/ फिर शहर के हो गये हैं दिन/ हवा के कोट लेकर/
धूप में फिर/ गीत कोई गुनगुनाना है/ और नभ के हाथ/ सूरज झुनझुना है/ फिर गली में खो गये हैं दिन/ हरे अखरोट लेकर
अब न मौसम/ खिडकियों पर चीखता है/ हर तरफ अनुराग/ मद्धिम भीगता है/ फिर सुहाने हो गये हैं दिन/ ख़ुशी के ओट लेकर (सुहाने दिन)
         
ध्यान रहे शरद ऋतु के आगमन से प्रकृति जहाँ सौन्दर्य से परिपूर्ण हो रही होती है वहीं आम आदमी अपने जीने का संसाधन इकट्ठे करने के जुगाड़ में लग जाता है| विश्व का अधिकांश आज भी बगैर कपडे के गुजर-बसर कर रहा है| जनसंख्या का अधिक भाग आज भी निर्वस्त्र रहने के लिए बाध्य है| यह प्रश्न विचारणीय है कि जहाँ से लोगों के बुरे दिन शुरू होने लगते हैं वहीं से कवयित्री के अच्छे दिन दिखाई देने लगते हैं| दुःख को देखकर जहाँ वेदना से कवि का हृदय चीत्कार कर देना चाहिए वहीं कवयित्री सुख-लिप्सा के गीत मगन होकर गा रही है| इस स्थिति पर पूर्णिमा का एक गीत और ध्यान खींचता है-
“माघ का/ सुंदर सवेरा/ खिल रहा बटियों के ऊपर/ तरल जलधारा लरजती/ ठिठक चलती/ और तुहिनों से सजी/ पूरब की धरती/ शांत निर्मल सुखद किरणे/ उतरतीं/ निःशब्द पग धर/ मंदिरों की घंटियाँ / बजतीं मधुर-सी/ गूँजती फिरतीं/ दिशाओं में भँवर सी/ साथ ताली दे रहे हैं/ गंडकी के/ शब्द सत्वर/ शालिग्रामों की चरण रज/ गहे यह मन/ सदा मंगल दायिनी हो/ प्रकृति पावन/ पर्वतों से दीप्त उतरें/ स्वस्ति मुद्रा में/ शुभंकर”

‘पूरब की धरती’ के जिस प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा का महिमागान करते हुए कवयित्री ‘शांत सुखद निर्मल किरणें’ का चित्रांकन करते नहीं थक रही हैं, यह वही मौसम है जब आम जन मानस के हाथों का लोटा भी कंपकपी से छूट जाता है| कितने ही परिवार तो ऐसे भी हैं जो जल रहे अलाव के सामने बैठे पूरी रात गुजार देते हैं| ठंडी की कशमकश में कोई मेहमान आ जाए तो परीक्षा ही हो जाती है परिवेश की| न तो फटे-चिथे कपड़े में धूल-धूसरित वे मासूम बचपन कवयित्री को दिखाई देते हैं जिन्हें स्यूटर और जूते तक नशीब नहीं होते और न ही तो उन लाचार माता-पिता की बेबसी नजर आती है जिनकी आँखों से पानी नहीं बेबस आँसू की बूँदें टपकती हैं| ऐसे ही एक नवगीत में प्रिय का वियोग न सहन कर पाने पर कवयित्री का “जीना/ बेहाल हुआ/ काटे कंगना, बिछुआ/ काम काज भाए नहीं/ भाए मीठा सतुआ” वाली स्थिति का पता चलता है| यहाँ गरीबी और तंगहाली का जैसे मजाक उड़ाया जाता है| जिस परिवार में पेट भरने के लिए सत्तू का प्रयोग होता है उसी परिवेश की इस कवयित्री को “मीठा सतुआ” तब भाता है जब उसका मन-प्रेमी उससे दूर होता है| एक तरफ बस्तियां बीरान होती रहीं| लोगों के परिवार उजड़ते रहे दूसरी तरफ कवयित्री के मन-मस्तिष्क में इन सबकी चिंता की बजाय “सोनचम्पा महकती रही रात भर/ चांदनी सुख की झरती/ रही रात भर|” कोई अमानवीय प्रवृत्ति ही होगी जो इस तरह जीवनधर्मिता का मखौल उड़ाएगी| निश्चित ही इस लोक की बात न करके कवयित्री महादेवी वर्मा वाले क्षितिज के पार झाँकने के लिए व्याकुल है|
         
यह कहना कोई आश्चर्य नहीं है कि जहाँ से नवगीत की यात्रा शुरू होती है उसके बाद का बाद का भारतीय ही नहीं वैश्विक जीवन भी उथल-पुथल का जीवन रहा है| व्यक्ति की जीवन शैली में यहीं कहीं उत्तर आधुनिकता की रंगत धीरे से प्रवेश करने लगती है| टेलीविजन की लोकप्रियता, मॉल संस्कृति का मेला, महानगरीय परिवेश की उठापटक यहीं से शुरू होती है| यहीं से व्यक्ति अतीत के मोह से छुटकारा पाना चाहता है और भविष्य से बेखबर वर्तमान के संघर्ष को धार देना चाहता है| ऐसे परिदृश्य में जहाँ आततायी शक्तियों के प्रतिरोध में नवगीत के स्वर तीखे होने चाहिए वहीं कवयित्री पूर्ण रूप से स्वप्नजीवी बनकर “ढूंढ तो लोगे” के माध्यम से लुकाछिपी का खेल खेल रही है| दरअसल यह लुकाछिपी कवयित्री के वैयक्तिक विलास की तो लुकाछिपी है ही कहीं न कहीं नवगीत के भविष्य के साथ भी लुकाछिपी है| नवगीत के प्रारंभ परिचय से तो यह आभास हुआ था कि समकालीन कविता के बनिस्बत आलोचक नवगीत विधा को तवज्जो नहीं दे रहे हैं अब पूर्णिमा के इन नवगीतों के देखने के बाद यथार्थ का यह परिदृश्य मानसिकता को संशय में डाल रही है आखिर ऐसे गीतों को क्यों तवज्जो दें? ऐसे गैरजिम्मेदाराना व्यवहार समय और परिवेश के साथ कौन कर सकता है कि एक तरफ कहीं मातम मनाया जा रहा तो दूसरी तरफ उत्सव के नगाड़े बजाए जा रहे हैं| इसी के साथ एक अन्य पूरे गीत को पढने की जोहमत उठाएँ तो परिदृश्य और भी स्पष्ट हो जाता है-
 “ठीक सामने धूप खड़ी हो/ हरियल पत्तों बेल चढ़ी हो/ दरवाजा तो बंद हो लेकिन/ परदे पर एक/ डोर बंधी हो/ तो फिर वह ही है घर मेरा/ ढूंढ तो लोगे घर तुम मेरा
बहुत पुरानी सी दीवार है/ नीले रंग से पुता द्वार है/ पीतल के जो लैंप लगे हैं/ जाने कितनी/ रात जगे हैं/ राह देखते हुआ सवेरा/ ढूंढ तो लोगे घर तुम मेरा
पत्थर पर एक नाम लिखा है/ मेरा है पर मिटा-मिटा है/ ध्यान से पढ़ने में आएगा/ घर मेरा है/ बतलायेगा/ है छोटा सा रैन बसेरा
काँच पे हल्की दस्तक देना/ दो पल इन्तजार कर लेना/ बहुत दिनों के बाद मिलेंगे/ देखो आँखें/ भर मत लेना/ हंसकर सहना समय सुनहरा/ ढूंढ तो लोगे घर तुम मेरा”    

‘पीतल के लैंप’ और रात जगने की क्रिया का नवगीत की समकालीनता से क्या सम्बन्ध है भला? भूख-प्यास, गरीबी-लाचारी से इन गीतों का है कोई वास्ता? जब कवयित्री यह कहती है कि “कितने कमल खिले जीवन में/ जिनको हमने नहीं चुना/ जीने की/ आपाधापी में भूला हमने/ ऊँचा ही ऊंचा/ तो हरदम झूला हमने/ तालों की गहराई पर/ जीवन की/ सच्चाई पर/ पत्ते जो भी लिखे गये थे/ उनको हमने नहीं गुना”, तो उसके परिवेश से अपरिचितों की तरह रहने के संकेत मिल जाते हैं| यह संकेत तब और विश्वास में बदल जाते हैं जब नून-तेल-लकड़ी की जुगाड़ में भटक रहे जनसमुदाय की आशाओं आकांक्षाओं को मटियामेट करती कवयित्री की जागरूक चेतना में “मधुर छनती/ झर रही यह धूप सर्दी की/ याद आती चाय अदरक और हल्दी की/ पाँव के नीचे/नरम है दूब मनभावन/ चुभ रही फिर भी/ हवाएँ कड़क वर्दी सी|” कहाँ तो कोई कंकड़-पत्थर पर चलने-ढोने के लिए विवश है और कहाँ तो किसी के “पाँव के नीचे नरम है दूब मनभावन|” इससे तो यही स्पष्ट होता है कि ग्रामीण परिवेश से कवयित्री पूरी तरह अपरिचित है अपने परिवेश से भी उसे कोई प्रेम नहीं है| है तो महज अपनी सुख-सुविधा से जो उसके कवि-हृदय से निकले शब्दों को फर्जी प्रमाणित करते हैं| यहाँ न तो अनुभव है और न ही तो अनुभूति| सौंदर्य की चकाचौंध में यथार्थ वैसे दिखाई भी कहाँ देता है?

          पूर्णिमा बर्मन स्वभाव से अच्छी हैं व्यावहारिक हैं सामाजिक भी हैं लेकिन एक रचनाकार के तौर पर उतनी सफल हैं, ऐसा कहने में मुझे संकोच है| जिस सामाजिक अनुभूति की आवश्यकता समकालीन जीवन-समय को है उसका अभाव इनकी रचनाओं में खटकता है| नवगीत की बनावट और बुनावट में कई बार ऐसा लगता है जैसे कवयित्री जबरजस्ती नवगीत लिखना चाहती है| गीत के भाव छायावादी तो हैं ही हालावादी की प्रवृत्ति भी दृष्टिगत होती है|

नचिकेता

हिंदी नवगीत के मठों ने योग्य रचनाकारों को उपेक्षित किया है तो मठाधीशों ने शोषण| ऐसे बहुत से रचनाकार मिल जायेंगे जो स्वयं को क्रन्तिकारी, मानवतावादी और जनवादी होने का प्रमाण आपको दिखाते नजर आएँगे| इनके कहे पर न जाकर यदि इनकी रचनाओं के माध्यम से यथार्थ परिदृश्य का अवलोकन करने का प्रयास करेंगे तो आप पायेंगे कि इनसे बड़ा दुराचारी और अनाचारी इस विधा में कोई और नहीं है| रुतबा और योग्यता के एवज में (सही अर्थों में जो इनके पास नहीं है) दूसरों को शोषित करने का इनका जन्मसिद्ध अधिकार है| ये स्वयं को मानते तो बहुत शालीन हैं लेकिन इनकी छवि समाज में एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में बनी हुई है जो एक घर, एक परिवार, एक समुदाय का नहीं अपितु पूरे परिवेश की फसलें, खेत, विचार को या तो चर कर बैठे हैं या फिर पूरी उर्वर और पुष्पित-पल्लवित सामाजिक भावभूमि को बंजर बनाने के प्रयास में सक्रिय हैं|

आश्चर्य तो तब होता है जब इन स्वनामधन्य रचनाकारों के ये सारे कार्य तमाम संघों की निगरानी में सम्पन्न हो रहे होते हैं| जहाँ इनके शक्ति-और सामर्थ्य के दुरूपयोग में लोक कभी कुछ बोलने का प्रयास करता है वहां इन्हीं संघों द्वारा उसे तमाम अघोषित कारनामों में उसे घेर लिया जाता है| मुझे यह भी नहीं समझ आता है कि क्या ये संघ (जनवाद, मानवतावाद, दानवतावाद आदि आदि) इन्हें ऐसा बनाने में इनके सुरक्षा कवच के रूप में काम करते हैं?

खैर, ये तो उनकी देहवादी परम्परा के पोषक और संवाहक जानें लेकिन जरूरी है कि जिन प्रतिमानों की अपेक्षा आप किसी दूसरे के लेखन में करते हैं उसकी अनुपालना आपकी रचनाओं में भी दिखाई दे| वर्तमान नवगीत विधा के ऐसे कई महारथी हैं कि किसी रचनाकार द्वारा यदि प्रेम पर लिखी कोई रचना देखते हैं तो उसे वासना-प्रेमी से लेकर ऐय्यास तक घोषित करने में कोई कोरी कसर नहीं छोड़ते लेकिन जब स्वयं अपनी मांसल अनुभूति से उपजे अनुभवजन्य परिदृश्य का चित्रांकन और चरित्रांकन करते हैं तो वहां भी जनवादी होने का स्पेस क्रिएट कर लेते हैं|

यहाँ इनके पास सबसे बड़ा हथियार होता है मनुष्य की प्राकृतिक स्वभाव से जडित देह-राग की प्रवृत्ति| यह प्रवृत्ति इन अर्थों में उनके द्वारा प्रयोग की जाती है कि जैसे वे ही स्त्रियों की यौन-इच्छाओं के रक्षक और पोषक हैं और उन्हीं द्वारा वात्स्यायन के कामसूत्र का परिवेश में प्रतिष्ठापन और सिंहावलोकन होना है| वे इन विषयों में इतने दक्ष होते हैं कि फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद से लेकर वात्स्यायन के तमाम कामसूत्रों के प्रयोग अपनी रचनाओं में करते दिखाई देते हैं|
         
नचिकेता ऐसे ही गीतकार हैं जो जन-सम्वेदना के नाम पर तन-वेदना की प्यास लिए तन-प्रेम-रोदन कर रहे हैं|  यह जानना और दिलचस्प हो उठता है कि पहले तो ये जनता के सबसे बड़े हितैषी बनते हैं| उसके श्रम और बेबसी का सहारा लेकर संगठित समूहों के भागीदार बनते हैं| जैसे ही इन्हें सिद्धि और प्रसिद्धि प्राप्त होती है वैसे ही तन की प्यास और मन की यथा-व्यथा लिए गलियों-नगरों-चौराहों पर चक्कर काटते दिखाई देते हैं| यह एक बड़ी विडंबना है कि जैसे-जैसे लोक में इनकी ख्याति होती है वैसे-वैसे मन के रास्ते तन के पारखी होने की कला में निपुण होते जाते हैं| निपुणता भी ऐसी कि मस्तराम और अन्तर्वासना डॉट कॉम के लेखक भी इनके सामने पानी भरते दिखाई दें| देह-परख का यह नमूना सहज ही ध्यान आकर्षित करता है-“दूध भरे स्तन जैसा/ तन जोबाया तेरा/ गब्भाए साठी के पौधे सी/ हो हरी भरी/ ओस धुले बेला के फूलों सी/ टटकी, सुथरी/ बदन पके कटहल जैसा/ है कोबाया तेरा/ लिपटी मोटी कमर/ रेशमी साडी में ऐसे/ कुमुद मुकुल हों सोए/ किसलय बाहों में जैसे/ है गुदाज होठों पर पसरा/ शर्माया तेरा/ हरे मटर की पहली/ गदराई सी छीमी हो/ मुझे शीत में ऊष्मा देती/ धीमी धीमी हो/ मदिराई आँखों का कोया/ लजियाया तेरा”  यहाँ ‘बदन पके कटहल’ जैसी स्थिति की यथार्थता नापने में संलग्न होना, ‘दूध भरे स्तन जैसा’ तन की परिकल्पना करना, नायिका के ‘गुदाज होठों’ की पहचान करते हुए उसे “हरे मटर की पहली/ गदराई सी छीमी” करार देना इंटरनेट पर पड़े तमाम सस्ते एवं लिजलिजे (सेक्सुअल) कहानियों की सीमा को भी लांघ जाना है| ‘लिपटी मोटी कमर’ में ‘हरी भरी..../ टटकी सुथरी’ नायिका का रूप आकर्षण कवि को इतना मंत्रमुग्ध करता है कि वह उससे मांसल अनुभूतियों के सहारे ‘शीत में ऊष्मा’ प्राप्त करता है| दरअसल यह कवि-दृष्टि की गहराई ही है कि वह ‘देह-गेह’ में प्रवृत्त होकर अनुभव से अनुभूति तक का सफ़र तय करता हुआ दिहाई देता है| इसे परिपक्वता देने में युवापन से लेकर वृद्धावस्था तक के संघर्ष को रेखांकित करना जरूरी हो जाता है|

नचिकेता का समय यथार्थतः एक ऐसा समय है कि देश में बेरोजगारी और भुखमरी का तांडव अपने चरम पर था| सांप्रदायिक उन्माद और जातीय विद्वेष से समाज आतंकित और भयभीत था| बीमारी-महामारी से गाँव के गाँव आक्रांत थे| संस्कृति कर्मियों के हृदय में जड़ परम्पराओं और रूढ़ियों से समाज को बाहर निकालने की उत्कंठा थी तो सामाजिकों को समन्वय और समानता का मार्ग तलाशने की लालसा| कवि-कलाकार-साहित्यकार अपने अपने तरीके से देश को जड़ताओं से निकाल कर गतिशील बनाने की प्रक्रिया में सक्रिय थे| यह कितनी विसंगति की बात है कि जब लोग बाग विभिन्न आन्दोलनों का हिस्सा होते हैं उस समय कवि ये स्वीकार करता है कि जन-जीवन के श्रम का यथार्थ लिखने की बजाय “मैंने होठों से/ होठों पर प्यार लिखा/ गुच्छे गुच्छे फूल रहा/ कचनार लिखा|”  जिस समय लोगबाग नौकरी आदि के लिए तरस रहे होते हैं, आततायी सत्ता के षड्यंत्रों का शिकार हो रहे होते हैं उस समय की स्थिति में कवि प्रिय-मिलन के सुख से उत्प्लावित होकर निढाल हो रहा होता है| कवि का यह कहना कि “आज/ तुम से गले मिलकर/ खुश हुआ मैं/ मिला तुमसे/ फूल औ’ मकरंद जैसा/ एक अच्छे गीत के/ लय-छंद जैसा/ चाँदनी की तरह खिलकर/ खुश हुआ मैं”  एक कवि से जनता की आशाओं और आकांक्षाओं का मजाक उड़ाना है|

यही सगल और यही चाल है जनवादी कवि रूप में शुमार नचिकेता का जो जनांदोलनों और परिवर्तनकामी समय की परिधि में जनवाद के सहारे देह-गेह में प्रवेश कर अपना समय सुनहरा और भविष्य रंगीन बनाने की कवायद में मस्त और व्यस्त रहे हैं| यह कवायद इनके बड़े गीत के इस छोटे अंश में सिद्दत से देखी जा सकती है-देख मुझे कनखी से/ होंठ काटना/ मुस्काना/ अंगड़ाई लेते ही/ पल्लू/ स्वतः खिसक जाना/ रंग चटख उठना/ उभार पर/ कसती चोली का|” ‘कसती चोली का’ रंग पहचानने की जो दृष्टि नचिकेता द्वारा यहाँ दौड़ाई जाती है वह निहायत ही सस्ती और चलताऊ किस्म की अभिव्यक्ति है जो किसी ग्रामीण युवती के रूप-आकर्षण में डूबे गंभीर कवि की नहीं, ‘सड़क छाप आशिकों’ की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है| ऐसी अभिव्यक्ति में साहित्यिकता और जन सरोकार ढूंढना हो सकता है कि आलोचकों और समीक्षकों को रास आया हो लेकिन मादकता के अंतस्तल तक डूबे नचिकेता वासना-व्यसन में निमग्न होकर डूबते उतिराते हैं न कि जन-संवेदना के चित्रण में|  

वासना से उद्दीप्त कामुकता की हद तक नचिकेता की यही पारखी दृष्टि अपने आने वाली पीढ़ी को संस्कार देने के लिए जमीन तैयार करती है| स्त्री-स्वतन्त्रता और प्रेम-पवित्रता जैसे शब्दों के आवरण में देह-गेह-व्यापार का नंगा नाच इसी रचनात्मक दृष्टि की आड़ में खेला जाता है| ‘खेल’ की क्रिया में नायक माहिर है लेकिन नायिका की शिथिलता रति-क्रिया में बाधक बनती है| कवि स्वयं स्वीकार करता है कि “गरम सांस में रचा नरम/ आलिंगन मुझे दिया/ रगड़ी मेहुनाई/ माचिस पर लहरी आग नहीं|” अतृप्त वास्नात्मक हृदय की तड़पन और असफल रति-प्रसंग का ऐसा उदहारण समकालीन हिंदी कविता के कामदेव और रसिकरंजन अशोक वाजपेयी के यहाँ भी दुर्लभ है| नचिकेता उनके अनुभवों के यथार्थ से दो कदम आगे बढ़ते हुए अपना अनुभूतिजन्य यथार्थ कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि पाठक भी इस्तर-बिस्तर के दरकन को खोजने लगता है| यथा-
“आज अधूरे मन से तुमने/ चुम्बन मुझे दिया/ भरे कुचों की/ छुअन नहीं गरमाहट भर पाई / मंजरियों से लदी आम की डाली लरुआई/ अंतस्तल में सूखा, प्यासा/ सावन मुझे दिया/ तरु से लिपटी/ अमरबेल में मिला कसाव नहीं/ आँखों के कोये में टुह टुह खिला गुलाब नहीं/ गरम सांस से रचा नरम/ आलिंगन मुझे दिया/ रगड़ी मेहुनाई/ माचिस पर लहरी आग नहीं/ आलापन के बावजूद गा पाया राग नहीं/ फिसलन भरी ढलानों का/ आरोहण मुझे दिया|”

कहना न होगा कि ऐसे गीत ही धीरे-धीरे जन-समाज के लिए नासूर बनने लगते हैं| भोजपुरी हिंदी फिल्मों के गीतों को एक बानगी के तौर पर लिया जा सकता है| “सैंया जी सब कुछ मांगेला गमछा बिछा के” से “लहंगा उठाई देब रिमोट से” तक की यात्रा में भोजपुरी फ़िल्मी गीतों ने जो सीख-संस्कार परिवेश को दिया है, उसका परिणाम हम सबके सामने आ रहा है| नित प्रतिदिन घटित होते घटनाओं के आधार पर यह कहना गलत न होगा कि समाज में स्त्री-शोषण की समस्या यहीं कहीं से ऊर्जा पाती हैं| ऐसा इसलिए क्योंकि स्त्री जहाँ संवेदना और मनुष्य-रूप न होकर इच्छा पूर्ति का साधन भर रह जाती है वहां उसे सिर्फ उपभोग की दृष्टि से ही देखा जा सकता है| कवि स्वयं ऐसा स्वीकार करता है कि भर गयी सिहरन/ हवा में छू तुम्हारी देह/ और मैं पी रहा छककर/ इन्द्रधनुषी नेह” इन्द्रधनुषी नेह को छू कर पीने की यह क्रिया स्त्री को महज वासना के साधन के रूप में प्रयोग करने की हठधर्मिता है|

इस हठधर्मिता के दायरे में स्त्री के कमर, स्तन और यौवन से नचिकेता की भिज्ञता इतनी गहरी है कि एक विक्षिप्त काम-पीड़ित पशुता की हद तक गुजरने के लिए लालायित दिखाई देते हैं| थोडा सा सुकून उन्हें तब मिलता है जब  “गुदगुदाती हो बदन/ हलकी छुअन से/ थकन हर लेती/ छुअन के बाँकपन से/ हँसी अधरों पर/ न पल भर मंद होती|” हालांकि यह कहा जाता है कि बढती उम्र के साथ यौनेच्छा मनुष्य की घटती जाती है लेकिन नचिकेता की अटकती-भटकती देह-इच्छा साठ के पार भी कविता के सार्वजनिक पृष्ठभूमि पर यह चाहती है कि “सांस से/ साँसें मिला लें आज फिर/ फूल होठों पर खिला लें/ आज फिर/ मान की/ मनुहार की बातें करें/ बांह में/ कस लें परस्पर देह फिर/ भरें आदिम राग से/ यह गेह फिर/ सृष्टि के/ संसार की बातें करें|” जबकि यह समय ‘सृष्टि की संसार की बातें’ करने की नहीं समय के विपरीत होने और समाज को अनुभव बाटने का समय होता है| नचिकेता शिक्षा देते भी हैं तो वासना में डूबे हुए काम-बाण से आहत इस रूप में कि “आओ जैसे/ दूध उतरते स्तन में/ मिलने की इच्छाएं जगती/ हैं मन में|”

इन कविताओं को पढ़ते हुए कई बार यह लगता है कि नचिकेता अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं जिनके लिए सामाजिक व्यवहार की स्मृतियाँ कोई माने नहीं रखती लेकिन देह-मिलन से उपजे यादों का यथार्थ उन्हें बेचैन करता है| वे स्वीकारते हैं कि “मैं भूल नहीं पाया/ गरमाती साँसों को/ पहले आलिंगन के/ अरवा अहसासों को/ है धंसा अधर का/ होना गोलाकार अभी|” यह अधर के गोलाकार होने की स्मृति का ही असर है कि नायिका के विषय में वे कह उठते हैं “पके हुए तरबूजे की/ हो टुहटुह फाकें तुम” जिन्हें “हो रहा है ठण्ड का अहसास/ अब तो पास आओ|” स्त्री-देह के लिए नचिकेता जैसे मदांध लोगों की आकर्षण और घर्षण की ऐसी उद्याम इच्छा ने परिवेश को असंतुलित बनाकर रख दिया है| ऐसे कामी लोगों के लिए स्त्री मनुष्य नहीं है| सहधर्मिणी और सहयात्री तो हो ही नहीं सकती| यदि कुछ हो सकती है तो वासना पूर्ति के संसाधन के रूप में “गन्ने की मिठास/ मिर्ची का तीखापन” हो सकती है|

नचिकेता निश्चित ही गीत और नवगीत के अतीत और वर्तमान हैं| भविष्य भी इनको इस अर्थ में माना जा सकता है कि युवा पीढ़ी को इनसे बहुत कुछ सीखना है| अब यहाँ विडंबना ये है कि जिनसे बाल जीवन कुछ सीख सकता है, जिनका अनुकरण कर सकता है वे देह-राग में मस्त और व्यस्त हैं और जिनसे देश-समाज को कुछ आशाएं हैं वे भक्ति में श्रद्धानवत होकर ऐसे रचनाकारों के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं| यह सच है कि हिंदी नवगीत में जनवाद को प्रवेश दिलाने में नचिकेता का विशेष योगदान है लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि भोगवाद की परंपरा में इस विधा को समृद्ध करने में इनके श्रम को नकारा नहीं जा सकता| अब यह तो पाठक-वर्ग को निर्णय करना है कि वह क्या चाहता है? प्रेम के आवरण में वासना के दलदल में फंसे पोर्न कंटेंट पर कार्य करने वाले ऐसे कवि की मांसल अभिव्यक्ति? मस्तराम, अन्तर्वासना डॉट कॉम की तर्ज पर नायिका के सौंदर्य का वर्णन करने वाले कामी और भोगी रचनाकार की मदांध और निष्क्रियता के हद तक गिरी वैचारिक अधोपतन? 
(रेवांत में प्रकाशित)

No comments: