Friday 1 February 2019

व्यंग्य-विधा की सम्पूर्णता को व्याख्यायित करती पुस्तक “चयन और चिंतन : व्यंग्य के संग”



          वैसे तो बहुत-से संपादकों द्वारा किताबें बहुत-सी सम्पादित की जा रही हैं, जरूरी भी है, इसी बहाने बहुत से विमर्श निकल कर सामने आ रहे हैं, लेकिन एक सच यह भी है कि बहुत ही कम पुस्तकें ऐसी हैं जिन्हें समय के समकाल में रखकर चिन्तन-विमर्श के दायरे में बात करते हुए देखा-परखा जा सके| "चयन और चिंतन व्यंग्य के संग" राहुल देव द्वारा सम्पादित नव्य प्रकाशित पुस्तक है| आलोच्य पुस्तक कुल दो भागों--"तीन चयनित व्यंग्य" और "समग्र चिंतन" में विभाजित होकर एक पूरे कालखंड को व्याख्यायित करने की क्षमता से परिपूर्ण है| परिपूर्ण इसलिए क्योंकि संपादक स्वयं एक कवि और आलोचक की ज़िम्मेदार भूमिका में वर्तमान है| समय और समाज को परखने का उसका अपना नजरिया है| यह भी सही है कि वर्तमान समय में व्यंग्य जैसी सशक्त विधा पर बात करने के लिए युवा-दृष्टि और प्रतिभा में बहुत कम आगे आए हैं|
पहले तो चयन-दृष्टि की तहकीकात करते हुए पुस्तक में शामिल रचनाकारों की समकालीनता आकर्षित करती है, जिसमें-सूर्यकांत नागर, सूर्यबाला, ज्ञान चतुर्वेदी, सुरेश कान्त, हरीश नवल, अंजनी चौहान, जवाहर चौधरी, आलोक पुराणिक, सुशील सिद्धार्थ और अतुल चतुर्वेदी जैसे अपने समय के कुल 10 प्रमुख हस्ताक्षर की तीन-तीन व्यंग्य रचनाओं को शामिल किया गया है, बाद उसके रचनाओं से जुड़ने की कोशिश में सामयिक मुद्दों को साहित्य-सन्दर्भ से जोड़ने की प्रतिबद्धता प्रभावित करती है, जिसमें उपर्युक्त सभी रचनाकारों के सामाजिक दायित्व को परखते हुए कैलाश मंडलेकर, गिरीश पंकज, विवेक मिश्र, शशिकांत सिंह, डॉ० मधुसूदन पाटिल, मलय जैन, निर्मल गुप्त, डॉ० नितिन सेठी, राहुल देव, और भुवनेश्वर उपाध्याय सरीखे कुल 10 रचनाकारों की आलोचना-दृष्टि व्यंग्यबोध की अनिवार्यता पर विमर्शात्मक वातावरण का परिवेश निर्माण करते हैं| संपादक अपनी लम्बी भूमिका में ‘व्यंग्य के संग’ चलने के लिए जैसे विवश करता है| चयनित तीस व्यंग्य रचनाओं में पाठक अपने समय और समाज को पूर्ण रूप से समाहित पाता है| इसलिए व्यंग्य विधा की समझ और सार्थकता पर एक पूरा साहित्यिक सर्वेक्षण प्राप्त करके उसकी प्रासंगकिता और अनिवार्यता पर बात करने के लिए सहृदयी पाठक का विवश हो जाना आश्चर्य की बात भी नहीं है|
आश्चर्य तो तब होता है जब इस विधा की सशक्त भूमिका से अनभिज्ञता जाहिर करते हुए लोग इसे मात्र हँसी-मजाक की श्रेणी में फिट कर देने की जिद पाल बैठते हैं| जनसामान्य ऐसा सोचे यह तो कुछ समझ आती है लेकिन इधर अकादमिक क्षेत्रों में शोध और साहित्य-समझ की दृष्टि रखने वाले भी व्यंग्य के प्रति यही भाव रखते हैं, चिंतित होना स्वाभाविक है| संपादक राहुल देव का यह कहना "व्यंग्य को सही ढंग से एवं समुचित परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का गंभीर प्रयास वस्तुतः अभी तक हुआ ही नहीं है| अभी भी गंभीर सहित्यिक विमर्शों से व्यंग्य को बहिष्कृत ही रखने का जतन किया जाता है| विश्वविद्यालयीय समालोचना एवं पाठ्यक्रम में उसका स्थान नगण्य ही है| वह आलोचना-विमर्श में गौण ही रहे, इसके लिए प्रत्यक्ष एवं छद्म प्रयास अभी भी चलते रहते हैं, हालाँकि उस हिकारत की नजर से अब भी उसे हाशिये पर रखने की कोशिशों में कोई कमी नहीं आई है”, समकालीन व्यंग्य विधा की शक्ति और सामर्थ्य को हाशिए पर रख कर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की लालसा सँजोए आलोचकों की पक्षपातपूर्ण रवैये को दिखाना तो है ही, मानवीय जीवन-विसंगतियों में व्यंग्य विधा की अनिवार्यता पर विचार करना भी है|
इसमें कोई शक नहीं है कि वर्तमान को पैनी निगाहों से परखते हुए उस पर अभिव्यक्ति देना आवश्यक हो गया है| यह अभिव्यक्ति व्यंग्य विधा में अधिक धारदार होगी, इसमें कोई दो राय नहीं है, जिसे पुस्तक की भूमिका में ही सम्पादक स्पष्ट करता है--"निश्चित ही आज का समय व्यंग्य लेखन के लिए ज्यादा अनुकूल है| वैश्वीकरण और आवारा पूँजी के प्रभाव से जनविरोधी ताकतें अपनी पैठ बढ़ा रही हैं, मानवीय सभ्यता और साझा संस्कृति पर हमले तेज हो रहे हैं इसलिए भी व्यंग्यकार का दायित्व साहित्य की ओर से बढ़ जाता है कि वह इनसे उपजने वाली महीन-से-महीन विसंगति को पकड़ कर उस पर अपनी कलम चलाकर समाज को सही दिशा में ले जाने का महत कार्य कर सकें|"
सूर्यकांत नागर की ‘पुस्तक मेले में लेखक’, हरीश नवल की ‘पुस्तक (झ) मेला’ और अतुल चतुर्वेदी की ‘साहित्य में तिलक दर्शन’, ज्ञान चतुर्वेदी की “मूर्खता में ही होशियारी है” ने लेखक-प्रकाशक-पुस्तक-विक्रेता के अंतर्संबंधों के माध्यम से साहित्य की यथास्थिति पर गहन सर्वेक्षण प्रस्तुत किया है| भारतीय समाज में प्रतिष्ठित लेखकों की जो नयी सूची बनकर तैयार हुई है उनमें अध्ययन-प्रियता कम लेखन-अभिरुचि अधिक देखने को मिली है| यह अभिरुचि ऐक्षिक न होकर नक़ल और चोरी की अभिरुचि बनकर विकसित हुई है| साहित्य-संसार के लिए यह एक तरह से खतरनाक प्रवृत्ति तो है लेकिन “उनका मानना है कि दूसरों का लिखा पढ़ने से उनकी मौलिकता नष्ट होती है| गुट-गिरोह वाले साहित्य-जगत में वे अपनी मौलिक दृष्टि, मूल्य चेतना और स्वतंत्र विचारधारा के बलबूते पर ही तो जिन्दा हैं| आज तक कभी मुझ पर नक़ल का आरोप नहीं लगा तो महज यह मेरी ईमानदारी की वजह से|(सूर्यकांत नागर-पुस्तक मेले में लेखक, पृष्ठ-15-16)” इस प्रकार की ईमानदारी ने प्रकाशकों के लिए कमाई का माध्यम तो जरूर पैदा किया है लेकिन शुद्ध साहित्य की उपलब्धता पर एक बड़ा सवाल भी खड़ा कर रहा है| प्रकाशक के अनुसार “मेरे पास बड़े लेखक पांडुलिपियाँ छोड़ते हैं जो बड़े प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत हो चुकी होती हैं उनमें प्रायः कबाड़ा ही होता है, मैं छांट-छांटकर सम्पादित कर उनकी पुस्तकें छाप देता हूँ| ये बड़े लेखक बड़ी खरीद के उपक्रमों में मेंबर होते हैं, देशी-विदेशी गोष्ठियों में जाते रहते हैं तथा प्रायः हिंदी विभागों में प्रोफ़ेसर, रीडर आदि होते हैं, अतः पुस्तकों को खरीद कर देते हैं|(हरीश नवल, पुस्तक (झ) मेला), पृष्ठ-83)” पुस्तकों की खरीद-फरोख्त और छपाई को लेकर यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे कोई भी पाठक-वर्ग या साहित्य प्रेमी झुठला नहीं सकता| एक सच्चाई यह भी है कि प्राध्यापक-वर्ग ने साहित्य की इस खरीद-फरोख्त में बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन किया है| लेखक-प्रकाशक-पुस्तक-विक्रेता के बीच से पाठक-वर्ग पूर्ण रूप से गायब है| पुस्तक मेले का बड़ा आयोजन पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए नहीं अपितु इस गठजोड़ को साधने के लिए होता, यह हरीश नवल जैसे रचनाकार को अच्छी तरह से पता है| एक पाठक की यथास्थिति को स्पष्ट करते हुए हरीश नवल का यह कहना कि “देखिये, हम पाठक हैं, सब कुछ हमारे लिए ही है| सरकार इतना बड़ा तामझाम हमारे लिए ही करती है| हम उद्घाटन समारोह में जाने लगे-हमें रोक दिया गया क्योंकि इन्वीटेशन नहीं था| वहां सब सहाबी ठाट-बाट वाले ही थे| हम देख रहे थे कि वहां हमारे प्रिय लेखक थे, अप्रिय राजनेता थे, सरकारी अफसर थे, पर हम न थे, हम दूर से ही ताक रहे थे...हम तो अब लेखक बनेंगे या प्रकाशक, पाठक के रूप में जाना ठीक नहीं लगा| पुस्तक मेला जरूर लगे, हम जरूर जाएँ पर पाठक के रूप में नहीं—उसकी वहां कतई जरूरत नहीं| (हरीश नवल, पुस्तक (झ) मेला, पृष्ठ-85)”   
ईमानदार पाठक के अभाव और पुस्तक की धंधेबाजी प्रकाशकीय योजना के तहत गंभीर साहित्य का मुद्दा हाशिए पर है| यह अपनी तरह का एक सच है कि आलोचना विधा विमर्श और गंभीर पाठकीय समझ विकसित करने की बजाय महज अपना नंबर बनाने और साहित्य की दुनिया में चाटुकारी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का एक माध्यम भर रह गयी है| एक समय था जब साहित्य में किसी एक विधा के आगमन पर चर्चा-परिचर्चा का दौर गरम होता था, साहित्यकार और आलोचक के मध्य वैचारिक मतभेद के चलते मनभेद तक की स्थिति देखने को मिलती थी लेकिन “इन दिनों साहित्य में जोखिम उठाने का मौसम नहीं है| साहित्य वो जो सर्व सुख प्रदान करे| यश, धन और रचनात्मक सुख| किसी के फटे में टांग देने के दिन नहीं है ये| सबको साधने के लचीले दिन हैं ये| सबकी प्रशंसा में दो-चार स्फुट वाक्य लिख दो या कह दो|(अतुल चतुर्वेदी, साहित्य में तिलक दर्शन, पृष्ठ-153)” इसके पीछे एक सबसे बड़ी कमजोरी आलोचकों में अध्ययनशीलता का अभाव होना है| जो साहित्य समाज का दर्पण कहलाता था आज उसी साहित्य को समाज का अनुगामी कहा जाने लगा है| इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि “इन दिनों लेखक ललकारते नहीं, समाज के आगे मशाल नहीं लेकर चलते| बल्कि वे तो अपना बायोडेटा और प्रकाशित साहित्य की परिचय सूची लेकर चलते हैं| आवश्यकतानुसार उसकी मुंह दिखाई करते रहते हैं| (अतुल चतुर्वेदी, साहित्य में तिलक दर्शन, पृष्ठ-154)
आलोक पुराणिक, सुशील सिद्धार्थ, सूर्यबाला भारतीय धर्म, संस्कृति, भाषा और सियासत के मुहाने से अपने समय का मुहावरा गढ़ते प्रतीत होते हैं| व्यापक अर्थों में भारतीय संस्कृति का यथार्थ उसके लोक जीवन से होकर सामने आता है| व्यंग्यकार  अपनी सम्पूर्ण बोधगम्यता के साथ लोक-जीवन की आवश्यकताओं और जरूरतों को महसूसता है| भाषा एक बड़ी जरूरत है जनसामान्य के लिए, रोजगार और उच्च स्तर प्राप्त के ठिकाने से| हिंदी को पालनहार तो बना दिया गया है लेकिन उससे जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं| देश का अधिकांश अभी तक भाषाई कटुता में ही उपेक्षितों का-सा जीवन जी रहा है| जो लोग हिंदी को संस्कृति का संवाहक मान कर बैठे हैं “शोध बताती है कि दरअसल वह ख़ास-ख़ास अवसरों पर पहनी जाने वाली पोशाक थी, लगाया जाने वाला मुखौटा थी| वह एक ढपली थी, जिस पर लोग अपने-अपने राग गाया करते थे| वह चस्मा थी, जिसे लगाकर अनुदानों, पुरस्कारों की छाया में सांस्कृतिक यात्राओं का सुख लूटा जा सकता था| (सूर्यबाला, अगली सदी का शोध पत्र, पृष्ठ-29)”
उसे पता है कि अपने मूल स्वरूप में यह वही लोक है जिसने धर्म-संस्कृति जैसे जीवन-प्राण-पद्धति को वैयक्तिक स्वार्थपूर्ति का साधन बनाते हुए अतार्किकता के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया| लोक तक की यात्रा में धर्म और संस्कृति की जो मूल प्रस्तावना थी, मानवीय प्रवृत्ति का विस्तार और आचरणगत जीवन धर्मिता का सृजन, वह दूर होकर स्वार्थसिद्धि का उपक्रम भर रह गया है| यह भी एक बड़ी सच्चाई है कि धर्म-संस्कृति का झंडा लेकर चलने वालों में बहुत से लोगों को यह आज तक नहीं पता चल सका है कि धर्म और संस्कृति का यथार्थ रूप क्या है और वह हमारे जीवन में प्रासंगिक क्यों हो? ऐसा प्रश्न आते ही या तो वे पथभ्रष्ट होने का आरोप मढ़ने लगते हैं या फिर दार्शनिकता के अंदाज में कुछ कहकर आशमान ताकने लगते हैं| “धरती के लोगों की यह आदत है कि जब सामने खड़े आदमी की सामना न करना हो तब वहां देखने लगो जहाँ सामना करने के लिए कोई है ही नहीं| हमारी संस्कृति में इस बात का खूब विकास हुआ है....| (सुशील सिद्धार्थ, निंदा बहता नीर है, निन्दयोग महान, पृष्ठ-141)” विकास की अवस्था में वह देखता है कि जरूरतों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही उपलब्ध प्रवृत्तियों को एक विशेष ढांचे में ढालने का उपक्रम किया गया| वर्षों पूर्व मानवीय जीवनधर्मिता के लिए जो पैमाने परंपरा बन चुके थे, अब आज उनके परिवर्तन का समय आ गया है| यह परिवर्तन धर्म और संस्कृति के क्षेत्र का परिवर्तन होना चाहिए| लाख कोशिश करते हुए भी अभी तक की प्रगति में “सलाम को कोहराम और नमस्कार को चीत्कार में बदल देना हमारी उपलब्धि है|” इस उपलब्धि में हम सबके द्वारा बनाए गए कायदे इस तरह दैनिक जीवन के लिए घातक दिखाई देने लगे हैं कि खुलेआम “यहाँ अनेक धर्मों को मानने वाले घूम टहल रहे हैं| अचानक सब चीखने लगे हैं| धर्म जीवन पर चढ़ बैठा है| “सबका मालिक एक’ नी एक-एक कर सब मनुष्यों को डंडा चाकू लेकर दौड़ा लिया है| (सुशील सिद्धार्थ, अहा पार्क जीवन भी क्या है, पृष्ठ-135)”
तर्क पर न कसे जा सकने वाले धर्म-संस्कृति-सियासत तक़रीर और तकरार के संसाधन तो हो सकते हैं मानवीय कल्याण के पोषक नहीं| सुशील सिद्धार्थ की दृष्टि में “मतलब निकालने वाला महान होता है| जो बता सके कि इसका यह मतलब नहीं, इसका यह मतलब है| इसी हुनर के दम पर धर्म संस्कृति और सियासत का धंधा खड़ा हुआ है| एक आया, ईश्वर का मतलब यह| दूसरा आया, नहीं यह| तीसरा चौथा...| आते गये| बताते गये| मुसीबत बढ़ाते गये| मूर्ख बनाते गये| अपना धंधा फैलाते गये| इनमें से किसी से पूछो कि तुमको कैसे पता कि यही है धर्म! वह कहेगा, मैं तो यही समझता हूँ और मेरी तक़रीर यही है| इसीलिए दुनिया के दो बड़े सत्य हैं तक़रीर और तकरार|” (सुशील सिद्धार्थ, व्याख्या ही सबसे बड़ा सच है, पृष्ठ-139)
वर्तमान धर्म-संस्कृति और राजनीति तक़रीर और तकरार पर खड़ी होकर मानवीय-विनाश का माध्यम बन रही हैं| सियासत की धर्मिता जन-कल्याण के पैरोकारी में रही है, इसी बात को ध्यान में रखकर ही सिद्धांतों का निर्माण किया गया था| अब आज के समय में सभी राजनीतिक सिद्धांतों को मतलब के अनुसार ढाल लिया गया है और सिद्धान्तनिर्माताओं को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है “गांधी ने आंबेडकर ने मार्क्स  ने क्या कहा और व्याख्याकारों ने क्या को क्या से क्या बना डाला| गांधी सियासत में परिवारशाही के काम आये| अम्बेडकर सोने का कुंडल कंगन जडवाने में खर्च हुए| मार्क्स नकली बौद्धिकता की भट्ठी में झुक गये| (सुशील सिद्धार्थ, व्याख्या ही सबसे बड़ा सच है, पृष्ठ-139)” तन कर खड़ा है तो मात्र उपयोगितावादी मानसिक बुनावट जो मन माफिक चीजों को परिवर्तित कर देना चाहता है|
इसके पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वह है अपने समय की संस्कृति-संपन्न पीढ़ियों का धन-सम्पदा की तरफ मुखर होना| हमारे समकालीन समय में धन-सम्पदा की जरूरत और  आकर्षण इतना अधिक बढ़ा है कि परिवार और व्यवहार का परिवर्तन भी इसी रास्ते से होकर सामने आता है| यह तो सच है कि जरूरतों का व्यापक साम्राज्य हमने ही खड़ा किया है लेकिन कृति और प्रकृति के बीच स्पेस को भौतिकता के रंग से भरा जाएगा, भारतीय लोक-जीवन में यह कभी नहीं सोचा गया था| आलोक पौराणिक जब यह कहते हैं कि “गलत कहा है, जिसने कहा है कि प्रकृति सबके साथ एक-सा सलूक करती है| सच यह है कि प्रकृति किसी पर सावन का नृत्य बनकर उतरती है और किसी पर अँधेरा बनकर| सावन को मनोहारी बताने वाला सारा प्राचीन साहित्य मुझे झूठा नजर आता है| जिन्होंने सावन को मनोहारी लिखा होगा, वे सबके सब लोग उनके पूर्वज होंगे, जो सावन पॅकेज के तहत पंचतारा होटल में नाच करने जाते हैं” तो वह प्रकृति के साथ भौतिक संबंधों की यथार्थ व्याख्या कर रहे होते हैं|
यह भी एक सच्चाई है कि प्राचीन साहित्य में जहाँ सावन के महीने में नगर-बधुएँ गीत और मल्हार गाती हैं वहीं वर्तमान आर्थिक विसंगतियों में पिस रहा जनमानस आर्थिक संतुलन बिठाने में निमग्न रहता है| एक अर्थ-चिंतित नायिका का “मन यह सोचकर काँप उठता है कि इस महीने से बच्चे स्कूल जाना शुरू कर देंगे| स्कूल जाने के लिए ज्यादा रकम माँगना शुरू कर देंगे| किताब-कॉपी-ड्रेस-फीस-बस-का किराया-पिकनिक-बिल्डिंग फण्ड इत्यादि की मांगों से लैस बच्चे जब जुलाई से स्कूल जाना शुरू करते हैं, तो सावन बहुत डरावना लगता है| इस खर्चे के बगैर मई-जून में काम चल रहा है|....मई जून की लू-लपट सावन से ज्यादा मनभावन लगने लगती है| लू-लपट झेलना आसान है, जुलाई के खर्च झेलना आसान नहीं|” यही नहीं कहाँ तो ऐसे महीनों में अपने पतियों से मिलनी की आश संजोए नायिकाएँ वियोग संतप्त रहा करती थीं कहाँ अब यह पूछा करती हैं कि “तुम कब परदेशी होगे बालम? सब तरफ यही सन्देश सुनायी दे रहा है| सिर्फ बालम होने से अब काम नहीं चल रहा है| परदेशी होना जरूरी हो गया है| क्या दिन रहे होंगे, जब सिर्फ बालम होने से काम चल जाता था| कैसे सुन्दर, प्रेमपूर्ण दिन रहे होंगे, जब कोई बालम बताता होगा कि कंपनी विदेश भेज रही है, क्या करूं| पत्नी वही कहती होगी-ना, परदेश न जा बालम| (आलोक पौराणिक, पृष्ठ-123)
सामयिक विसंगतियों पर व्यंग्यकारों का शालीनतापूर्ण प्रहार बहुत कुछ सोचने और विचारने के लिए विवश करता है| समकालीन सरकारी लाइलाज तरतीबों के मध्य दफ्तरों में दम तोड़ती आर्थिक स्थितियों पर ‘एक जिम्मेदार आदमी का अंतिम पत्र’ लिए जवाहर चौधरी ‘दाम सरकारी, गोदाम सरिकारी’ की यथार्थता को बयान करते हैं| सरकारी खरीद-फरोख्त में लोक का किसान और किसान का लोक जिस तरह से पिस रहा है, लुट रहा है, वहां आत्महत्या जैसी स्थिति की वर्तमानता सुनिश्चित नहीं होगी तो क्या होगा? यह एक बड़ा प्रश्न है| सुरेश्कांत ‘एक देश है मेरा’ में वैचारिक उठापटक के बीच राष्ट्रद्रोही और राष्ट्रभक्त का समकालीन पैमाना लेकर प्रस्तुत हैं तो यह आभास होता है जैसे हमारा समय हमसे ही व्याख्या की उम्मीद किये बैठा हो| सूर्यबाला ने ‘या इलाही ये माजरा क्या है’ के जरिये विमर्शवादी राजनीती पर तंज कशा है जिससे गुजरते हुए ऐसो-आराम की राजनीति में लोक-मानस के प्रश्नों का अनछुआ रह जाना सालता है| ज्ञान चतुर्वेदी “रामबाबू जी का बसंत” के माध्यम से शिक्षा जगत की खबर लेते दिखाई देते हैं तो भविष्य अपनी सभी विद्रूपताओं के साथ सामने खड़ा दिखाई देता है| अतुल चतुर्वेदी के “चौपाया विमर्श से उपजे सवाल” ने मनुष्य को वर्तमान की सबसे भयानक जानवर के रूप में चिह्नित किया है, तो यह हमारे समय की उपलब्धि नहीं, मनुष्य होने की स्थिति पर बड़ा प्रश्न है कि इतने समृद्ध होने के बावजूद भी आखिर हम ऐसा क्यों हैं?
इस पुस्तक की सम्पूर्णता में कुछ विषयों से सम्बंधित व्यंग्यकारों के चयन या उनकी रचनाओं की प्रस्तुति पर निगाहें कुछ ढूंढती से दिखाई दी हैं| बाल जीवन की वर्तमान स्थिति, पर्यावरण-पारिस्थितिकी, वृद्धाश्रम की बहुलता, जैसे विषय आज गहरे में मानवीय अस्मिता के लिए एक बड़े प्रश्न हैं| इन प्रश्नों का हल और उनसे जुडी समस्याएँ हमारे समय के व्यंग्यकारों के पास बड़े पैमाने पर मौजूद हैं...फिर भी व्यंग्य-विधा को प्रमुखता देते हुए यह अपनी तरह की पहली पुस्तक कही जा सकती है| दरहकीकत तो ये है कि आज व्यंग्य-विधा पर काम करने वालों को उँगलियों पर गिना जा सकता है, उनमें से राहुल देव की उपस्थिति ने रचनाधर्मिता के व्यापक कैनवास को आशान्वित किया है|   
  आलोच्य पुस्तक में चयनित व्यंग्य-रचनाओं के साथ रचनाकारों की चिंतन प्रक्रिया से दो-चार होने की नीयति में आलोचक खरे उतरे हैं, यह संपादक की चयन-दृष्टि की सफलता ही कही जायेगी| लेकिन जब हम रचनाओं के बरक्स आलोचकीय-दृष्टि पर ठहरते हैं तो एक विरोधाभास दिखाई देता है| विरोधाभास के गलियारे से यहाँ चयनित आलोचकों की अभिव्यक्ति-दृष्टि पर बात करना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण व्यक्तित्व और रचनाधर्मिता पर अपनी बात रखी है| अच्छा होता यदि चयनित व्यंग्य-रचनाओं के सापेक्ष होकर अपने समय की आलोचकीय पड़ताल करते हुए रचना-दृष्टि का आंकलन करते| जहाँ तक मुझे लगता है संपादक अपनी जिम्मेदारी से बचते हुए आलोचकों को यह अवसर दिया है कि वे अपने माध्यम से रचनाकारों की परख करके व्यंग्य-शक्ति का परिचय दें| यदि ऐसा है तो हमें यह कहने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह भी एक बड़ा प्रयास है  जहाँ रचनाकार-संपादक-आलोचक के त्रिकोण में पाठकीय अभिरुचि को विकसित करने का कार्य किया जा रहा है|

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