अन्य विधाओं
की अपेक्षा नाट्य-विधा का प्रभाव मन-मस्तिष्क पर अधिक पड़ता है| दृश्यों के रूपांतरण
और सम्वादों की व्यावहारिकता में घटनाओं का जो प्रत्यक्षीकरण किया जाता है...सहज
ही हम अनुसरण करने के लिए बाध्य होने लगते है| कई बार समय और परिस्थिति का समीकरण
इतना सघन होता है कि चाहते हुए भी हम स्वयं को उससे अलग नहीं देख पाते| जिस विशेष
उद्देश्य को लेकर नाटककार सृजन-सक्रियता में प्रवृत्त होता है, जीवंत अभिनय के
माध्यम से वह उद्देश्य हमारा (दर्शकों का) अपना उद्देश्य बन जाता है|
आस्था प्रकाशन
जालंधर द्वारा सद्यः प्रकाशित अजय शर्मा की नाट्य कृति "मुहम्मद
जलालुद्दीन" नये वर्ष के आगमन पर ही सामंजस्य एवं समन्वय की भावभूमि को
समृद्ध करने की प्रेरणा लिए हम सबके सामने है| आज जिस तरह विभेदता की दीवारें मजबूत हो रही हैं| अलगाव की
नियति प्रमुखता पा रही है| बँटने-बाँटने की प्रवृत्ति को खुलेआम बढ़ावा दिया जा रहा
है| देश जातीय उन्माद एवं सांप्रदायिक कटुता वाली मानसिकता का शिकार हो रहा है|
ऐसी स्थिति में नाटकों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है कि मंचों के माध्यम से घर-घर,
द्वार-द्वार समन्वय एवं सामाजिकता का दृश्य प्रस्तुत किया जाए, ताकि लोग अंध
उग्रता के शिकार न होकर मानवीय मार्ग पर बढ़ते रहें|
‘मुहम्मद
जलालुद्दीन’ नाटक को पढ़ते हुए हम बड़े आत्मविश्वास के साथ कह सकते हैं कि दिन-ब-दिन
सांप्रदायिक वैमनस्यता की ऊंची हो रही दीवाल को इस नाटक के पात्र ढहाकर नवीन चेतना
एवं वैचारिक ऊर्जा से समृद्ध नींव का शिलान्यास करने में सक्षम है| इस नींव के माध्यम से बड़े दीवार उठाए जा सकते हैं जिसमें
विभिन्न वर्गों एवं सम्प्रदायों का समान सामाजिक प्रतिनिधित्व सम्भव हो सके और लोग
एक ही छत के नीचे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें|
जालंधर से चलकर अपनी स्वप्नों की दुनिया मुम्बई
में पहुँचने के लिए एक अजनबी (मोहन जालंधरी) ट्रेन-यात्रा करता है| जब तक वह मुम्बई
पहुंचता एक साम्प्रदायिक हिंसा होती है| हिन्दू-मुस्लिम को मारने-काटने का दौर
चलता है| मुस्लिमों की खोज में अचानक सामने उपस्थित हुए भीड़ से अजनबी यह स्पष्ट
नहीं कर पाता कि वह कौन है और मुसलमान समझकर उसे बुरी तरह से हिन्दू-समर्थकों
द्वारा मारा-पीटा जाता है| यह मारपीट इतनी भयानक होती है कि वह मृत समझकर छोड़ा
जाता है|
पूरा शहर
साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में है और वह गिरते-पड़ते किसी तरह एक घर के दरवाजे पर
दस्तक देता है| जिस परिवार में उसका उपस्थित होना होता है वह एक मुस्लिम परिवार
है| किसी अजनबी का ऐसे माहौल में आना अनिश्चित खतरे से कम नहीं माना जाता| इस
परिवार में अम्मा, बशीर, आलम और सलमा हैं| सलमा एक नर्स की भूमिका में है| बशीर और
आलम उसके भाई हैं| परिवार के सदस्यों द्वारा किसी अनागत भय से उसे स्वीकार करने
में हिचक स्वाभाविक है| बशीर और आलम द्वारा खतना चेक करने की स्थिति पर उसे स्वीकर
किया जाता है जिसमें सलमा की उपस्थिति पात्रों को दूर तक सोचने के लिए विवश करती
है| इसलिए भी क्योंकि वह अपनी पूरी कोशिश में अजनबी की मूल पहचान को छिपाने की
कोशिश करती है|
यह अपनी तरह
का एक सच है कि घटनाएँ और परिस्थितियां कभी भी निमंत्रण देकर नहीं आतीं|
ये जब भी आती हैं अचानक आती हैं|
सांप्रदायिक घटनाएँ तो होती ही हैं पुवाल से उठे धुएँ की
तरह|
यदि थोड़ी देर उसके जलने का इंतज़ार कर लें तो सब जलकर शांत
हो जाता है लेकिन यदि उसी के साथ जलने का उपक्रम करने लगें तो सब जलकर राख भी हो
जाता है|
इन क्षणिक विसंगतियों से परिपूर्ण घटनाओं से लड़ने और एक हद
तक जूझने का तरीका हमें यह नाट्य-कृति सिखाती है| सहज-सम्वाद के माध्यम से सीखने-सिखाने की यह स्थिति उस समय
हमें सोचने के लिए विवश करती है जब सबको अक्ल देने की बात करने वाली अम्मा से आलम
कहता है “अम्मा, अकल तो सबकी नेक ही होती है, लेकिन जिस तरह का माहौल चल रहा है,
उस माहौल में तो सबकी अकल घास चरने चली जाती है|” ये माहौल उसी तरह के होते हैं जब हम एक दूसरे के
परम हितैषी होते हुए भी बड़े दुश्मन बनकर उसे मार डालने के लिए उद्यत हो उठते हैं|
जिन हिन्दू
परिवारों के बीच गिने-चुने मुस्लिम समुदाय के आपसी जीवन-यापन कर रहे थे उसी परिवेश
में बशीर की मानें तो “बाहर हर मुसलमान को शक की निगाह से देखा जा रहा है| कुछ लोग
तो अपनी पहचान बदलकर घर से बाहर निकल रहे हैं|” ऐसे माहौल में मुस्लिम समुदाय को
निःसंदेह दोहरा जीवन जीना होता है| एक तो स्वयं को जिन्दा रखने के लिए संघर्ष करना
होता है दूसरे अपनी मजहब और कौम को सुरक्षित को सुरक्षित रखने के लिए तमाम प्रकार
की ज्यादतियों को सहना पड़ता है| बशीर जिस समय अजनबी की सेवा करने का अवसर पाता है
वह समय दर्शकों के लिए यह सुनना किसी कारुणिक समय की दारुण दशा से कमतर नहीं
होतीप-“उस परवरदिगार ने हमें मौका दिया है, इसकी सेवा करने का| यह हमारा फ़र्ज़ है
कि हम एक सच्चे मुसलमान होने की ज़िम्मेदारी निभाएं| यही वह मुबारक घड़ी है जो हमें
अपने मज़हब की हिफ़ाजत करने का मौका दे रही है| इसे किसी भी तरह से गंवाना नहीं
चाहिए|” अफ़सोस उस समय होता है जब ऐसे अवसर को निभाने के बाद भी उन्हें गद्दार और
मौकापरस्त होने की भूमिका से नवाजा जाता है| सच तो यह है कि दंगों के ऐसे परिवेश
में रिश्ते-नाते, मित्रता-व्यवहार गौड़ हो जाते हैं और धर्म-सम्प्रदाय, जाति-पाति
मुख्य हो जाते हैं| ये इतने मुख्य हो जाते हैं कि हमें शैतान बनाकर छोड़ते हैं|
शैतानी की स्थिति में मानवीयता की हत्या होना तय माना जाता है|
विभाजन के बाद
से ही हिन्दू-मुस्लिम के बीच संशय बढ़ा है| कई बार यह संशय इतना विकराल रूप धारण कर
लेता है कि बात-चीत की तो बात दूर लोग एक-दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते| दोनों
सम्प्रदायों में वर्तमान भेद-नीति कब सांप्रदायिक जहर का रूप लेकर परिवेश को अशांत
कर जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता| ‘मुहम्मद जलालुद्दीन’ का कथानक इसी अशांत
साम्प्रदायिक परिवेश से सम्बद्ध है| दंगों की नीयति और बदनीयति से उपजी विसंगतियाँ
इसके मूल में है| इस नाटक में समन्वय की धारणा से सृजित किये गये पात्र सक्रिय
भूमिका का निर्वहन करते हैं| इनके चरित्र समाज के उन हिस्सों के लिए अनुकरणीय हैं
जहाँ आए दिन हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर दंगों का वातावरण तैयार होता है| अम्मा का
यह कहना हर उस इंसान को प्रभावित करता है जो किसी न किसी रूप में घटनाओं के शिकार
हुए हैं और उनको भी जो ऐसे वातवरण में आक्रोश में आकर अपना कर्तव्य भूल जाते हैं—“अब
इसका मजहब, जात-पात कोई भी हो लेकिन बेहोश इंसान तो केवल एक इंसान है, इसके सिवा
कुछ भी नहीं| देखो इसके खून का रंग, क्या तुम्हारे खून से कहीं अलग है? हर बंदा
खुदा का बन्दा है| जब उसकी रगों में खून दौड़ता है और दिमाग घोड़े की तरह रेस पकड़ता
है तो वह मज़हब और जात-पात की बातें करता है| अस्तबल में पड़ा घायल घोड़ा उसी का होता
है जो उसकी सेवा करता है| अब इसका खतना देखो या न देखो, अपना फर्ज तो निभाना ही
पड़ेगा|” बशीर की बात भी कम अपील नहीं करती कि “मज़हब की दीवारों को कौन मिटाएगा
अम्मा? अगर सब तुम्हारी तरह सोचने लगें तो मुल्क अमन-ओ-चैन की नींद सो सकेगा| काश!
अम्मा ऐसा हो जाए|”
सब बुरे नहीं
होते तो सब भले भी नहीं होते| होते तो वे मुट्ठी भर लोग ही हैं जो दहशत फैलाते
हैं| सलमा कहती भी है “दंगों में मुट्ठी भर लोगों ने दहशत फैलाई, पर बदनाम तो पूरा
मज़हब ही हुआ न? एक की गलती की सज़ा पूरे मजहब को भुगतनी पड़ती है|” धर्म अचानक उन
कुछ लोगों का खतरे में पड़ता है और हाशिए पर पूरा समाज चला जाता है| परिवेश में एक
भीड़ इकठ्ठा होती है और देखते ही देखते सब कुछ तहस-नहस करती जाती है| दंगाई फिर भी
बच जाते हैं और अक्सर बचते जाते हैं| “असल में वे लोग भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं
करते| शरारती तत्त्वों का तो कोई धर्म होता ही नहीं| ऐसे ही कुछ लोग हैं जो एक
दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं|” इनकी प्यास है कि बुझती नहीं और भविष्य है
कि अँधेरे में घिरता चला जाता है|
इन दंगों की
एक नीयति यह भी है कि यहाँ मरता है आम आदमी ही| सांप्रदायिक तत्त्वों का सहारा
लेकर अपना धंधा चलाने वाले लोग हँसते मुस्कुराते सुरक्षित रहते हैं और गरीब का तो
घर-बार सब चौपट हो जाता है| अजनबी का यह कहना एकदम सच है कि “इन दंगों में कभी
अमीर लोग नहीं मरते| इन दंगों में आम आदमी ही मरता है| अमीर लोग तो घरों से बाहर
ही नहीं निकलते| यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी कि यह बस्ती अमीर लोगों की नहीं थी,
वर्ना मुझे तो कोई पनाह नहीं देता| ऐसे ही किसी चौखट पर दस्तक देता हुआ दम तोड़
देता|” हताशा और आश्वस्ति के बीच हृदय से निकली अजनबी का ये प्रश्न दर्शकों के
दिमाग में देर तक यथार्थ बनकर मंडराता रहता है-“वैसे भी भीड़ किसी की दोस्त नहीं
होती| भीड़ का कोई धर्म नहीं होता| उसका धर्म बस एक ही होता है, दहशत फैलाना| अब देखा
जाए तो आम आदमी ने क्या बिगाड़ा था किसी का? क्यों आम आदमी भीड़ के हत्थे चढ़ा?” इस
प्रश्न का उत्तर न तो उनके पास है जो मारते हैं और न ही तो उनके पास है जो मरते
हैं| हमारे पास भी यदि नहीं है तो ढूँढने का प्रयास तो कर ही सकते हैं|
पारिवारिक
सदस्यों में सहमति और आपसी एकता की मिशाल भी इस नाटक की एक अलग विशेषता है| यह
विशेषता आज के इस विघटित समय में हमें ठहरकर सोचने के लिए प्रेरित करती है| यहाँ
जो करना है सबको करना है| अलग मत और अलग धारणाएँ नहीं हैं यहाँ| जहाँ ऐसी भावनाएं
होती हैं वहां सुख और शुकून गहरे में वर्तमान होता है| पता सबको होता है कि अजनबी
हिन्दू सम्प्रदाय से है लेकिन अपने कर्तव्य के प्रति सचेत रहते हुए सभी मौन हैं और
ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कुछ पता ही नहीं है किसी को| नाटककार कौतुहल बनाए रखने
के लिए यह राज अंत में खोलता है इसलिए दर्शकों की जिज्ञासा मिनट-दर-मिनट अनागत
सम्भावनाओं से बढ़ती जाती है|
अजय शर्मा
पात्रों के चयन में अतिरिक्त सावधानी लेकर चलते हैं| अधिक पात्रों के होने से
संदेश का प्रभाव कम पड़ता है इसलिए वे कुल पांच पात्र रखते हैं| अजनबी, अम्मा,
बशीर, आलम और सलमा| जहाँ बशीर और आलम के अन्दर तत्कालीन घटना से आक्रोश है, सांप्रदायिक
तनाव से घबड़ाए हुए हैं और बाहर नहीं निकलना चाहते हैं वहीं अम्मा विभाजन के दिनों
की सांप्रदायिक घटनाओं की प्रत्यक्ष गवाह रही हैं| ऐसे घटनाओं में होने वाली
मार-काट वे पहले ही देख चुकी हैं| उन्हें अपना अतीत बीच-बीच में याद आता रहता है
जिससे वह कितनी सम्वेदनशील हैं, स्पष्ट होता जाता है| यह भी स्पष्ट होता है कि
अनुभव के कहकहे लिए बुजुर्ग पीढ़ी यदि हमारे साथ हैं तो भौगोलिक दूरियां घर और गाँव
जैसे माहौल में परिवर्तित हो जाती है|
सलमा एक हॉस्पिटल में नर्स है| अपने वसूलों एवं कार्य के
प्रति ईमानदार है| उसकी ईमानदारी की वजह से सम्पूर्ण औरत जात की ईमानदारी को जिस
दृष्टि से व्याख्यायित करता है अजनबी वह ध्यान रखने की बात है कि “चाहे किसी भी
धर्म की बात कर लो मर्द तो दगा दे जाता है लेकिन औरत दगा देने से पहले सौ बार
सोचती है|” मनुष्यता प्रेमी इस हृदय में आदर्शता और नैतिकता के लिए पूरा सम्मान
है| साम्प्रदायिक विद्वेष की नीतियों को अपने ऊपर बिलकुल भी हावी नहीं होने देती|
सामाजिक व्यावहारिकता से पूरी तरह ओतप्रोत सलमा के हृदय में पारिवारिक संस्कार भी
खूब भरे हुए हैं| पारंपरिक रूढ़ियों के प्रतिरोध में सलमा की प्रतिबद्धता देखते
बनती है| वह मध्यवर्ग की दकियानूसी मान्यताओं से गहरे में दुखी है| धर्म और
सम्प्रदाय से कहीं अधिक आवश्यक उसके लिए मानवता के लिए जीना है| वह चाहती है कि
लोग बनावटी वसूलों से अधिक उस सच को तरजीह दें जो समाज को उन्नति और विकास के
रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करे| बॉलीवुड की बिंदास दुनिया का उदहारण रखते हुए
जब वह अजनबी से कहती है तो उसका वास्तविक चरित्र हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता
है-“शर्मीला टैगोर ने एक मुसलमान से शादी की बिना किसी की परवाह किए| सुनील दत्त
ने नर्गिस से शादी की| ऐसे और भी कई उदहारण हैं बॉलीवुड में| बहुत बातें उठीं
लेकिन इन लोगों ने बता दिया कि प्यार में कोई दीवार नहीं होती और मिडल क्लास के
लोग इसी लकीर को हमेशा पीटते रहते हैं|” ये मिडिल क्लास लोगों की यथास्थिति ही है
कि वह अजनबी को मन ही मन प्रेम करती है लेकिन पारिवारिक संकीर्णता की परिधि में
उसके शादी के प्रस्ताव को नहीं स्वीकार कर पाती|
अजनबी अपने
ऊपर किये गये अच्छे व्यवहार को लेकर (मोहन जालंधरी) परिवार के प्रति शुरू से ही
एहसानमंद है| मुम्बई की सिनेमा नगरी में जाने के लिए उत्साहित है| कला प्रेमी होने
के साथ-साथ साहसी भी है| यह उसके साहस का ही परिणाम है कि वह सलमा को अपना जीवन
साथी तक बनाने के लिए तैयार होता है| नहीं मानता वह धर्म एवं संप्रदाय की बंदिशों
को| सलमा और अजनबी इस नाटक के प्रमुख पात्र हैं| दोनों की भावनाएँ एक-तरह की हैं
और दोनों ही मानवीय सम्भावनाओं की तलाश में स्वयं को व्यस्त और मस्त रखना चाहते
हैं| ये दोनों ही पात्र पूरी तन्मयता से युवा मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते दिखाई
देते हैं| इनकी भूमिका में समाहित यह आज का युवा ही है जो जाति, धर्म और सम्प्रदाय
से ऊपर उठकर मानवता विशेष के लिए जीना चाहता है| रास्ते आने वाली अडचनों से लड़ने
के लिए तैयार है तो इसलिए कि दुनिया सुन्दर बन सके| आज के युवा यह अच्छी तरह से
जानते हैं कि “लोगों ने अपने इर्द-गिर्द इतने दायरे बना लिए हैं, जिनसे वे कभी
बाहर नहीं आ पाते| अगर वे आना भी चाहें तो समाज रुकावट बनकर उनके बीच खड़ा हो जाता
है और सारी ज़िन्दगी उसी लकीर को पीटता रहता है|” इसलिए ऐसी लकीरों का सख्ती के साथ
विरोध करते हुए आज के युवा आगे बढ़ रहे हैं जिनका प्रतिनिधित्व सलमा और अजनबी करते
हैं|
देशकाल
वातावरण की दृष्टि से भी यह नाटक विशेष बन पड़ा है| मुम्बई जैसे महानगर का चित्र
खीचने में नाटककार पूर्णतः सफल हो पाया है| दंगों के समय की मुम्बई कुछ होती भले
है लेकिन अपने स्वभाव में यह सदाबहार रहती है| लोकल ट्रेनें यहाँ की लाइफ-लाइन हैं
जो इसकी धडकनों को कभी मौन नहीं होने देती| मुम्बई को जीना सही अर्थों में इस
मायावी संसार को समझने के बराबर है| सलमा की मानें तो “यह एक तिलस्मी दुनिया है|
यह मायानगरी है, जिसकी माया कोई नहीं जान पाया| यह जिसे अपना ले, उसका सुख चैन छीन
लेती है और जिसे न अपनाए उसका सुख-चैन छिन जाता है| जो भी इस मायानगरी में आता है,
यह उसके पैर में पहिए लगा देती है| इसके चलते वह इंसान सारी जिन्दगी भागता रहता
है| जब होश आता है, सुकून के पल ढूंढता है, तब तक सबकुछ हाथ से रेत की तरह फिसल
चुका होता है|” मंचीय विशेषताओं को बड़ी सरलता से यह कृति धारण करती है|
रंग-निर्देश स्पष्ट रूप से हर अंक में दिया गया है| अंत तक आते-आते पात्रों की
जिज्ञासा बनी रहती है नाटक के प्रति और घटनाओं की अन्विति बार-बार आगे की घटनाओं
को जानने के लिए प्रेरित करती है| सम्पूर्ण नाटक में ऐसे कई अवसर आते हैं जब दर्शक
अपना कुछ अलग प्रकार की अनहोनी घटित होने के भय से विश्वास खोता नजर आता है लेकिन
यह नाटककार की अपनी विशेषता है कि वह सम्पूर्ण घटनाक्रम पर दृष्टि गड़ाकर देखने के
लिए मजबूर कर देता है|
इस नाटक की
सम्वाद-योजना विशेष प्रकार से हमें प्रभावित करती है| सहज और सरल भाषा-शैली में
प्रयुक्त सम्वाद हमारे मन-मस्तिष्क को गहरे में आकर्षित करते हैं| कई जगह बड़े
सम्वाद होने की वजह से यह जरूर महसूस होता है कि नाटककार स्वयं हावी हो रहा है
लेकिन जब आप उसे गंभीरता से पढ़ते हैं तो वही सम्वाद घटनानुकूल स्वाभाविक लगते हैं|
भाषा बिलकुल भी दुरूह नहीं है| महानगरीय परिवेश होते हुए भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे
लोक-परिवेश सिद्दत से वर्तमान है| लोक-परिवेश की यह वर्तमानता सम्वादों की
निरंतरता में एक बार निखरती है तो अंत तक बनी रहती है|
मानवीयता
की तलाश में अजय शर्मा लगातार सृजनरत हैं| इनके उपन्यासों के पात्र गंभीर विमर्श
के लिए हमें मानसिक रूप से तैयार करने में सक्षम हैं तो यह नाट्य कृति सांप्रदायिक
उन्माद से लड़ने में सहायक| एक रचनाकार बन्दूक तो नहीं थमा सकता लेकिन विचारों का
अस्त्र जरूर सौंप सकता है| ध्यान रहे इसके पहले एक उपन्यास अजय शर्मा ने लिखा था 'भगवा' जिसके जरिये लोगों ने इन्हें संघी मानसिकता का पोषक तक कह
दिया था|
अब इन्होने 'मुहम्मद जलालुद्दीन' लिखा है तो लोग वामपंथी भी कह सकते हैं/ कहेंगे|
एक ईमानदार लेखक अथवा साहित्यकार इस प्रकार की संकीर्णता को
लेकर नहीं चल सकता, यह अजय के रचनाकर्म को देखकर कहा जा सकता है|
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