Friday 1 March 2019

समय-समाज-परिस्थिति की यथार्थ परख : संघर्ष के साथ-साथ


कविता जीवन का श्रृंगार है तो समय का संस्कार भी है| मानव हृदय में कुछ ऐसा भी होता है जो अपने परिवेश को शांत और स्वतंत्र देखने का प्रयास करता रहता है| मस्तिष्क की उपस्थिति में कई बार इस प्रयास में अवरोध उत्पन्न होता है क्योंकि तर्कों की सघनता न तो पीछे घटित हुए पर ठहरने देती है न तो भविष्य में रमने देती है| निरा वर्तमान के प्रति इसकी प्रतिबद्धता अधिक होती है| हृदय के साथ यात्रा करते हुए कविता की भावभूमि पर जिस समय वह रचनारत होता है अवरोध के सभी कारक अपने प्रयासों में असफल ही रहते हैं| कारण ये कि मस्तिष्क हृदय के कहने से यात्रा करता है न कि हृदय मस्तिष्क के इशारे पर| यहाँ हृदय की रागात्मक अनुभूतियाँ समाजिकता के व्यावहारिक धरातल पर आकर मनुष्यता का पाठ पढ़ाती हैं| वह मनुष्यता, जिसे अनवरत गतिशील रखने में इसके हिमायती बनने वाले जन को कदम-दर-कदम संघर्ष करना पड़ता है| कई बार संघर्षों की स्थिति इतनी भयानक हो जाती है कि व्यक्ति स्वयं से टूट कर बिखरने की स्थिति में आ जाता है लेकिन अगले ही पल कुछ ऐसा भी घटित होता है कि वह बिखरते हुए भी एक हो जाने की छटपटाहट में कुछ विशेष करने लगता है| यही विशेष संघर्षधर्मिता उसे जीवन के व्यावहारिक धरातल पर विचरण करने के लिए विवश करती है|     

कवि-दृष्टि पर विचार करें तो जीवन के व्यावहारिक धरातल पर डॉ. विनोद कुमार अपनी संघर्षधर्मी प्रवृत्ति की वजह से जाने जाते हैं| यही वजह है कि दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा प्रकाशित उनकी ‘संघर्ष के साथ-साथ’ कविता संग्रह में संघर्षों का सच देखने को मिलता है| जब विनोद कुमार कहते हैं कि “हमने संघर्ष के साथ-साथ चलते हुए/ चिराग देखे हैं कई तूफां में जलते हुए” तो कहीं न कहीं संघर्ष की जमीन पर व्यावहारिकता की तलाश कर रहे होते हैं| इस तलाश में कवि का स्पष्ट मानना है कि समस्या कोई जग में न ऐसी/ जिसका कोई समाधान नहीं/ हथेली पर जम सकती सरसों/ हाँ लेकिन आसान नहीं” क्योंकि संघर्ष और श्रम तो करना एक अनिवार्य शर्त है| यहाँ कवि आदर्श, नैतिकता, प्रेम और सौंदर्य की उपस्थिति में यथार्थ के भयावह परिदृश्य पर चिंतन करता है और एक अलग तरह से हमें सोचने के लिए विवश करता है| विवशता की स्थिति में देश-समाज से कहने और जानने की इच्छा प्रबल होने लगती है| अब जब वे इस संग्रह के माध्यम से कलम हाथ लिए उपस्थित हुए हैं तो यह दावा करना गलत नहीं है कि “काम चल पायेगा बिन दिए न जवाब/ प्रश्न मेरे अभी शेष हैं कुछ सुलगते हुए|” यदि यह कहा जाए कि यह समय हर अर्थों में सुलगते प्रश्नों का समय है तो गलत न होगा| कारण कि जिनके पास अभाव है वे तो परेशान हैं ही, जिनके पास सबकुछ है वे भी कहीं न कहीं विभ्रम और विचलन के शिकार हैं| ऐसी स्थिति में किसी कवि-हृदय में प्रश्नों का होना समय को संतुलित और परिवेश को अनुशाशित देखना है|
सुलगते सवाल वहीं वजूद में होते हैं जहाँ ईमानदारी होती है| विनोद की रचनात्मक ईमानदारी इसलिए भी देखने और समझने लायक है क्योंकि वे देश की यथार्थ स्थिति से गहरे में दुखी हैं| यहाँ विविधिता में एकता की जो भावना कभी थी वह सम्वादहीनता में परिवर्तित हो चुकी है| कहाँ तो बाहर के लोग अपरिचित जैसे होते थे कहाँ घर और परिवार के लोग भी अपरिचितों की कोटि में आ गये हैं| विनोद का यह कहना कि “बहुत से लोग हैं चारों तरफ/ एक दूसरे से हो चुके अपरिचित/ भीड़ ने कब दुःख बाँटें हैं/ झोलियों से भरे काँटे हैं| काँटों के साथ जीवन यापन करने की प्रक्रिया खतरनाक तो होती है कई बार लेकिन संघर्षों की विसात पर व्यावहारिकता का संदेश भी पहुँचता है|     
व्यावहारिक धरातल पर कवि जानता है कि प्यार के दो बोल/ होते हैं बड़े अनमोललेकिन लोग एक-दूसरे से नफ़रत करने की जिद ठाने बैठे रहते हैं| छोटी-छोटी बातों पर सम्वाद को खत्म कर देने वाली जैसी कमजोर प्रक्रिया पर कवि हैरान है| ‘अनमोल बोलकी लालसा लिए कवि को यह प्रश्न जमीनी स्थिति पर सालता है कि क्या मिलेंगे यहाँ/ आजकल जो हो रहा है/ उसमें उम्मीद है कहाँ|” समय उम्मीदों का भी होता है लेकिन वहां जहाँ जन-जन के बीच व्यावहारिक रिश्ते होते हैं| इधर व्यावहारिकता का स्थान सिद्धांतों ने ले लिया है| सबके अपने गढ़े हुए सिद्धांत हैं जिन पर चलना जरूरी तो नहीं मजबूरी जरूर है| आपसी सम्वाद में दूरियां इतनी अधिक होंगी ऐसा पहले तो नहीं सोचा गया था| सम्वादहीनता की यथास्थिति कवि के अपने परिवेश की तो है ही सम्पूर्ण देश इसी प्रकार की अव्यावहारिक स्थिति में भटक रहा हैजीवन सम्वाद से चलता है| मौन अक्सर हृदय को अन्दर तक मथता है| जहाँ ये लगे भी कि व्यावहारिकता नहीं रह गयी है किसी के बीच तो उसे मौन के दायरे में लाकर नाशूर बनाने की नादानी नहीं करनी चाहिए| “सहना और जीना मौन/ क्या मजबूरी है/ मेरे सम्बन्धों को ढोना/ भला क्यों जरूरी है/ ऐसे ही कई प्रश्न/ कभी हमको जगाते हैं/ जीने का अभिनय कब तक/ यह प्रश्न उठाते हैं|” ‘यह प्रश्नहमारे समय के यथार्थ को बार-बार कुरेंद्ता है और उस पर चिंतन करने के लिए विवश करता है| यह विवशता भी बनावटी नहीं हकीकत है| कवि वास्तविकता की राह पर चलते हुए यह प्रार्थना करता है प्रकृति से कि तोड़ पर्वत श्रृंखलाएं एक रास्ता बनाने को/ दिलों से दिलों का पुनः वास्ता बनाने को/ बन सकूं सूत्रधार ओ प्रकृति! प्रार्थना है बारम्बार|” प्रार्थना की ऐसी सदिच्छा कवि आम जनमानस तक पहुँचने के लिए प्रेरित करती है|
कवि की नज़रों में ईमानदारी आज भी आम जनमानस में है| गरीब, मजदूर, मिलों और फैक्टरियों में दिन-रात खटने वाले साधारण जन-मानस ईमानदार ही तो है| किसानों की ईमानदारी पर क्या शक किया जा सकता है? यह उनकी ईमानदारी का ही परिणाम है कि कवि-हृदय में ये प्रश्न स्थाई बन कर विचरण करता है—“उत्तम खेती माध्यम बान/ निषिद्ध चाकरी भीख समान/ क्या होगा सच कभी ये गान/ लहलहाएंगे खेत और खलिहान” क्योंकि जैसे-जैसे समय बढ़ रहा है इनके अधिकार मल्टीनेशनल कम्पनियों के हाथों सौंप दिए जा रहे हैं| कृषि पर निर्भरता ख़तम हो रही है| उधर की तरफ शायद ही कोई रुख करना उचित समझ रहा हो| रोजगार की घटती संख्या इन्हें गलत दिशा की तरफ ले जा रही है| 
कहने को हम अपने बनाए तंत्र में हैं लेकिन यथार्थ में हमारे आवाज को कुंद करने का शाजिस रचा जा रहा है| हमें न बोलने के लिए विवश किया जा रहा है| कवि इस विवशता को स्वीकार नहीं करता| कवि के पास कलम है इसलिए वह प्रतिरोध की संस्कृति पर विश्वास रखता है| वह स्पष्ट कहता है कि “भारत के इस प्रजातंत्र में/ जन-गण का यह कहना है/ बहुत हो चुका दमन चक्र/ अब हमको नहीं सहना है/ नई पटकथा लिख देंगे हम/ दीवारों पर खून से/ मुक्त करो मानव को अब तो/ पशुओं सी इस जून से/ शंखमुखी शिखरों पर चढ़/ मिट्टी का चेहरा चमकेगा/ बची हुई पृथ्वी पर/ अपने खेत में सोना चमकेगा|” श्रम ही वह कुंजी है जो हमारे परिवेश को समृद्धि का खजाना दे सकती है| कलम वह ताकत है जो उस कुंजी और खजाने की आवश्यकता को समझने का अवसर दे सकती है| कवि इसीलिए अपनी एक कविता में कहता है कि “आदर्श परंपरा उजड़े न/ मिलकर ये अहसास करें/ है कलम हमारे हाथ में/ हम भी कुछ प्रयास करें|” यह अक्सर कुछ लोगों द्वारा कहा जाता है कि एकमात्र हमारे प्रयासों से दुनिया कैसे सुधर जायेगी? लेकिन कवि का विश्वास है समस्याओं के धुंध साहस को शक्ति के साथ रखने से ही छटेंगे|
इन तमाम सुलगते सवालों में से एक सवाल ये भी है कि “अमन की बात पर इतने/ हैं सवालात क्यों आखिर/ शान्ति वार्ता के बावजूद/ ये हालात क्यों आखिर” ये सवाल आज के यथार्थ परिदृश्य में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल इसलिए है क्योंकि शांति के नाम पर दिन-ब-दिन बैठकें करने वाले लोग अशांति के सबसे बड़े कारण बन रहे हैं| आतंक के साए में जीने वाले लोगों की रखवाली करने वाले सैनिक मौत के घाट उतारे जा रहे हैं और हमारे नीति-नियंता हैं कि उन्हें वोट की राजनीति से ही फुर्सत नहीं मिल रही है| ऐसे ग़ैरजिम्मेदार लोगों से विनोद का यह पूछना भी जरूरी है कि “देख हद सब्र की होती/ नहीं आश्चर्यानुभूति क्या/ उमड़ती दिल में कोई भी/ नहीं प्रश्नानुभूति क्या”
विनोद कुमार एकाकीपन से कहीं अधिक कारगर सामूहिक स्वर को मानते हैं| यह सच है कि वर्तमान समय की एक बड़ी समस्या सांप्रदायिक विद्वेष की भावना है, जो हमें सामूहिकता और सामाजिकता निर्वहन से दूर रख रही है| हिन्दू-मुस्लिम के बीच जो वैमनस्यता कभी मध्यकाल में थी उससे कम विकराल रूप में आज नहीं है| हम एक-दूसरे को अपराधी मान बैठे हैं निस्बत इसके कि अपराध के कारणों की खोज करें| कारणों की खोज सम्वाद को जारी रखने से होगा| एक स्थान पर बैठने और साथ-साथ चलने से होगा| जो पीछे हैं उन्हें आगे और जो आगे हैं उन्हें साथ लेने से होगा| कवि के अनुसार कहें तो “आगे आना होगा स्वयं/ पहले हाथ बढ़ाना होगा/ जिनको पराया मान के बैठे/ उनको गले लगाना होगा/ ईद बराबर मिलकर बोलें/ साथ मनाएँ दीवाली/ शांति व्याप्त हो जाए विश्व में/ और बढ़ेगी खुशहाली|” कवि स्पष्टतः यह मानता है कि पारस्परिक परम्पराओं, रीतियों की अनुपालना करने से हम समृद्ध होंगे न कि उनका विरोध करने से| यह स्वाभाविक है कि कवि अपने वैयक्तिक जीवन में इसी प्रकार के प्रयास करता रहता है जैसा इस रचना में अभिव्यक्त किया है—“एक उम्र से है मुझको/ यही एक इंतज़ार/ जाने कब जागेंगे स्वयंभू/ देश के पहरेदार/ हंसी ख़ुशी और प्यार रहे बस/ मिटेगी जिस दिन आह!/ अधिकार मिले मानव को उस दिन/ पूरी होगी मेरी चाह|”
रोज मर्रा की जिंदगी से बची-बचाई सम्वेदना को शब्द-रूप में ढालने का जो हुनर आप इस कविता संग्रह में पायेंगे वह स्वयं में विरल है| जन और जीवन के बीच खाली पड़े स्पेस को भरने में यह संग्रह जिस गहराई के साथ सक्रियता बनाने में कामयाब है...देखते बनता है| इस संग्रह को पढ़ते हुए यह भी देखने को मिलता है कि कविता-सृजन के लिए कवि हाथ-पैर चलाते परेशान नहीं दिखाई देता अपितु परिवेशगत विशिष्टताओं के दायरे में कविताएँ स्वयं साकार रूप लेने लगती हैं| पाठक जब इन कविताओं को पढ़ रहा होता है, न तो अर्थ प्राप्ति के लिए कल्पना के विरल लोक में जाने की आवश्यकता होती है और न ही तो यथार्थ के सड़ांध में नाक डुबोने की जरूरत...यह जरूर आभास होता है कि इसमें शामिल विषय ही हमारे जीवन और समय का सच है| साहित्य के सच के साथ ठहरना ही पाठकीय ईमानदारी है और यही कवि एवं कविता के प्रयासों की सार्थकता है|विनोद की कविताएँ “न ईश्वर की भक्ति है और न थोथी अभिव्याक्ति है/ समकालीन व्यवस्था में अवमूल्य विभंजक शक्ति है|” इसी शक्ति को साकार करने के लिए कवि अनथक सृजनरत रहता है |
कवि को भारतीय संस्कृति और भारतीय भावभूमि से अधिक लगाव है| प्रेम, अहिंसा, बन्धुत्व, समन्वय की धारणा पर उसे विश्वास है| वह मानता है कि “भारतीय संस्कृति अनुपम है विश्व को उपहार है ये/ वसुधैव कुटुम्बकम अति पावन भावों का आगार है ये|” यह भी सच है कि जन-जीवन की समृद्धि का एक मात्र उदाहरण भारत की पावनता पर जैसे इन दिनों ग्रहण-सा लग गया है| इधर के भारतीय परिवेश में समय परिवर्तन ने मूल्य विघटन की प्रक्रिया को सहज बनाया है| परम्पराओं से लोगों का मोहभंग हुआ है| रीतियों और नीतियों से कन्नी से काटने लगे हैं लोग| कवि कलम की भूमिका को लेकर आह्वान करता है और उसकी मानें तो-“आदर्श परम्परा उजड़े न/ मिलकर ये अहसास करें/ है कलम हमारे हाथों में/ हम भी कुछ प्रयास करें” ताकि भारत का गौरवशाली इतिहास अपने समृद्ध अतीत को पुनः प्राप्त कर सके|
इन दिनों देश दो ध्रुवों पर बंटा दिखाई दिया| राजनीतिक पैंतरेबाजी ने आम जनमानस को व्यथित करके रखा| वाम और दक्षिण में बंटी विचारधारा ने युवा मानसिकता को गलत दिशा की तरफ उन्मुख कर दिया| भुखमरी, गरीबी, लाचारी से नजरें चुराकर बुद्धिमान और बुद्धिजीवियों ने सत्ता प्राप्ति में अपना पूरा ध्यान लगाकर रख दिया है| जन-समाज-देश के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ने वाले यही लोग स्वार्थसिद्धि के लिए देश को गिरवी रखने जैसी नियति को अपना लिए हैं| विनोद कुमार ऐसा नहीं करते| वे समस्याओं की तह तक जाने की कोशिश करते हैं| विपदग्रस्त जन-जीवन को देखते हुए उनके “मन में ये आता है/ क्या यही इंसानियत का नाता है/ आधुनिकता के नाम पर विखंडन/ देश सेवा के नाम पर/ शक्ति का मंडन/ सिंहासन पर बैठ कभी/ स्वयं को ईश्वर कहते/ दृष्टिभ्रम फैलाते हैं/ मायाजाल बनाते हैं/ अपनी हवस मिटाते हैं|” यह सब जनता को धोखे में रखते हुए किया जाता है| विनोद कुमार देश की यथास्थिति पर जब भी सोचते हैं, हृदय से आहत हो उठते हैं; जो कविता की इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई देता है-“दुर्दशा देश की देख/ नित्य मेरा आहत मन है/ कैसे स्वीकार करूँ मैं जबकि/ विपदग्रस्त जन-जन है/ इनके भी चेहरे पर देखूँ/ कभी एक मुस्कान/ इनकी भी तो सुधि कभी ले/ इनके भी भगवान| यह भी एक समस्या है कि भगवान् पर तमाम वर्गों का कब्ज़ा है| श्रमिक और मजदूर वर्ग के लिए मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरिजाघर तो हैं लेकिन उनमें निवास करने वाला भगवान् ही उनका नहीं है|
संग्रह में शामिल कविताओं को पढ़ने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि विनोद कुमार आशाओं के कवि हैं| भावुकता की अतिशयता जितना व्यावहारिक जीवन में है रचनात्मक परिधि में भी उसे देखा जा सकता है| शिल्प पक्ष की दृष्टि से विचार करें तो बहुत सी कविताओं में छान्दसिक विधा को साधने की स्थिति में ‘कहन’ कमजोर हुआ है इसीलिए रचनात्मक परिधि में अधिकांशतः ऐसी स्थिति से बचते हुए कवि निकल जाना चाहता है और शिल्प को महत्त्वपूर्ण न मानते हुए भावात्मक सुदृढ़ता को प्रश्रय देता है| गीतात्मकता इस संग्रह को विशिष्टता की तरफ ले कर जाती है लेकिन छन्द मुक्त कविताओं में भी कवित्व को सुरक्षित रखने का इनका अपना प्रयास है, जो पाठकों को पूरा संग्रह पढने के लिए विवश करता है| 


No comments: