Thursday 2 November 2017

समकालीन हिंदी नवगीतों में पर्यावरण चिंतन (साक्षात्कार, सितम्बर, 2017 में प्रकाशित)


      जीवन जीने के लिए यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम अपने परिवेश से अधिक से अधिक जुड़ें हों| उनमें निहित समस्याओं से रूबरू होने की स्थिति में हों और उन प्रश्नों के  निराकरण के लिए हर समय स्वयं को व्यस्तता जैसे माहौल में घिरे हुए पाते हों| उक्त परिवेश में रहते हुए जितना आवश्यक हमारा अपनी जरूरत की चीजों की उपलब्धता को बनाए रखने की हो उससे कहीं अधिक आवश्यकता इस बात की हो कि हम निर्जन वातावरण में फैली और लगभग बिखरी हुई मानवीय संभावनाओं की तलाश के लिए यत्नशील हों| इसके लिए जनमानस के संवेदनात्मक धरातल की पहचान आवश्यक हो जाती है और इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है आरी-पास विद्यमान प्रश्नों से टकराने की इच्छा और आदत को बनाए रखना|
       काव्य साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा हिंदी नवगीत ने जनमानस के संवेदनात्मक धरातल को अधिक तवज्जो दिया है| वर्तमान समस्याओं के केन्द्र में निहित संभावनाओं की बात की जाए तो, आजादी के बाद से लेकर आज तक, यथार्थ की भयावहता को परिभाषित करते हुए समय-समाज को व्याख्यायित करने का बड़ा प्रयास नवगीत के माध्यम से फलीभूत हुआ है| आज के इस उत्तर-आधुनिक समय में जब सभी परिभाषाएँ अपनी अर्थवत्ता खोती हुई नजर आ रही हैं, नवगीत के माध्यम से रचनाकारों ने शब्दों को नयी पहचान दी है और अर्थों की सम्प्रेषणीयता को बरक़रार रखते हुए जन-जीवन के मनःस्थिति में जागरूकता की स्थिति को समृद्ध किया है|
       इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होनी चाहिए कि जीवन-प्रक्रिया को समृद्ध करने वाले जितने भी सामाजिक एवं मानवीय अवयव रहे हैं उनके सन्दर्भ में आज के नवगीतकार ने मुखर होकर अपनी अभिव्यक्ति दी है| यह सहजतः स्वीकार किया जा सकता है कि आज “नवगीतकार की आँखों में समस्त विश्व है, उसके तकाजे हैं| युगीन समस्याएँ तथा उन समस्याओं के आर-पार झाँकने वाली दृष्टि है| वह वैश्वीकरण से लेकर गांवों की चौपाल तक की सारी जानकारी रखता है| समाज, राजनीति, भूमंडलीकरण, प्रकृति, प्रेम, पारिवारिक ताप और संताप, संत्रास, कुण्ठा, भय, घुटन के साथ-साथ मानवीय जिजीविषा, संघर्षशीलता, आस्था तथा अदम्य साहस उनके नवगीतों के रोये-रेशों में प्राण तत्त्व बनकर रहता है|”[1]
      मानवीय स्वभाव की बात करें तो आज समस्याओं की अनदेखी करना जैसे हमारी नियति-सी हो गयी है| अपने समय के प्रश्नों से टकराने की जो स्वाभाविक स्थिति हममें होनी चाहिए वह जैसे विकसित ही नहीं हो पा रही है| हम जितने अधिक समृद्ध हो रहे हैं व्यवहार में उससे कहीं अधिक खोखले और निष्प्राण होते जा रहे हैं, इतने कि, आँखों के सामने से ही बहुत कुछ परिवर्तित होता और हमारे अस्तितिव को चुनौती देता बढ़ा चला जा रहा है और हम, कुछ करना तो दूर हाथ-पैर मारना भी मुनाशिब नहीं समझते| हर एक स्थिति को संकीर्ण मनोवृत्ति में परखने और व्यक्तिगत स्वार्थता के केन्द्र में उपयोग करने के अभ्यस्त जरूर हुए हैं| यही वजह है कि समय की संकीर्णता और स्वार्थता के आवरण में जीवन के बहुत से प्रश्न ऐसे होते हैं जिन्हें हम अनदेखा करते रहते हैं| पर्यावरण का प्रश्न उन सभी प्रश्नों में से एक और सबसे अधिक आवश्यक है जिसपर चिन्तन और विमर्श की आवश्यकता है| इस आवश्यकता की पूर्ति में नवगीतकारों की दृष्टि का महती योगदान है जिसे स्पष्ट करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि पर्यावरण कहते किसे हैं? 
        ‘मानक हिंदी कोश’ के अनुसार “पर्यावरण (सं० पारि + आवरण) किसी व्यक्ति या विषय की परिस्थिति”[2] को कहा जाता है अर्थात जिन विशेष परिस्थितियों में रहते हुए व्यक्ति अपना जीवन-निर्वहन करता है उसे पर्यावरण कहा जाता है| “पर्यावरण दो शब्दों परि+आवरण से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है परि—चारों तरफ, आवरण—घेरा, यानी प्रकृति में जो भी हमारे चारों ओर परिलक्षित होता है—वायु, जल, मृदा, पेड़-पौधे, प्राणी आदि—सभी प्रकार के अंग हैं और इन्हीं से पर्यावरण की रचना होती है|”[3] इस दृष्टि से देखने का प्रयत्न करें तो सम्पूर्ण भौगोलिक संरचना पर्यावरण के दायरे में आ जाती है| भौगोलिक संरचना दो प्रकार की होती है—1. (जीवभूगोल) भौतिक, रासायनिक तथा जैविक दशाओं का योग जसकी अनुभूति किसी प्राणी या प्राणियों को होती है। इसके अंतरग्त जलवायु, मिट्टी, जल, प्रकाश वनस्पति, स्वप्रजाति एवं अन्य प्राणि जगत सम्मिलित होते हैं। पर्यावरणी दशाओं में देश, काल, दिन के समय, मौसम (ऋतु) तथा कारकों के अनुसार भिन्नता पायी जाती है। 2. (मानव भूगोल) भौतिक तथा सांस्कृतिक दशाओं का सम्पूर्ण योग जो मानव के चारों ओर व्याप्त होता है और उसे प्रभावित करता है। भौतिक पर्यावरण में उच्चावच, संरचना, जलवायु, मिट्टी, वनस्पति तथा जीव-जंतु सम्मलित होते हैं। सांस्कृतिक या मानवीय पर्यावरण में समस्त मानवीय क्रियाओं, दशाओं तथा सांस्कृतिक भूदृश्यों को सम्मिलित किया जाता है|”[4] इस तरह जैविक तथा मानवीय परिधि में आने वाले सभी प्रकार के जीव, परिवेश एवं वातावरण को पर्यावरण के नाम से जाना जाता है|
        “पर्यावरण शब्द अंग्रेजी के इनवारनमेंट (Environment) शब्द का हिंदी रूपांतरण है| इनवारनमेंट  के लिए कभी-कभी परिस्थिति या वातावरण शब्द का प्रयोग भी किया जाता है|”[5]मानविकी पारिभाषिक कोश (मनोविज्ञान खण्ड)’ में environment को परिवेश के अर्थ में लेते हुए उसकी परिभाषा इस तरह दी गयी है—“भौतिक, रासायनिक, जैव तथा सामाजिक तत्त्वों की वह समग्रता जिसमें व्यक्ति सन्निहित है और जिसका जीवन पर विशाल प्रभाव पड़ता है| परिवेश के दो भाग हैं—जन्म के पूर्व का परिवेश और जन्म के बाद का वातावरण| जन्म के पूर्व के परिवेश के भी दो पक्ष हैं—1- बीजकोशांतरगत, जब कि व्यक्ति एक बीजकोष के रूप में ही अपनी माँ के गर्भ में रहता है और उस कोष में ही वर्तमान रासायनिक तरल का उस पर प्रभाव पड़ता है| 2- अन्तर्कोषीय परिवेश : जब एक एक बीजकोष अनेकानेक कोषों में विभक्त हो जीव का निश्चित आकार धारण करने के क्रम में होता है| इनमें से प्रत्येक कोष दूसरे कोषों  से प्रभावित होता है| जन्म के उपरांत बालक नितांत भिन्न भौतिक भौतिक तथा सामाजिक परिवेश में आता है| इस परिवेश की शक्तियां भिन्न-भिन्न रूपों में उस पर अपना प्रभाव डाल उसे अपने प्रति अभियोजित करती रहती हैं| व्यक्ति बराबर इनसे संघर्ष-रत रहता है|”[6] पर्यावरण परिवेश में व्यक्ति का आगमन उसके जन्म लेने से पूर्व हो जाता है और जीवन के अंतिम दिनों तक वह उसका एक अभिन्न हिस्सा होता है| इस तरह नवभारत टाइम्स के हवाले से कहें तो कहा जा सकता है “हमारी धरती और इसके आसपास के कुछ हिस्सों को पर्यावरण में शामिल किया जाता है। इसमें सिर्फ मानव ही नहीं, बल्कि जीव-जंतु और पेड़-पौधे भी शामिल किए गए हैं। यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं को भी पर्यावरण का हिस्सा माना गया है। कह सकते हैं, धरती पर आप जिस किसी चीज को देखते और महसूस करते हैं, वह पर्यावरण का हिस्सा है। इसमें मानव, जीव-जंतु, पहाड़, चट्टान जैसी चीजों के अलावा हवा, पानी, ऊर्जा आदि को भी शामिल किया जाता है|”[7] प्रकृति प्रदत्त जीवन जीने के जितने भी उपागम हैं और जिन स्थितियों, परिस्थितियों के अंतर्गत रहते हुए हम अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं मानवीय स्थितियों को विकसित और समृद्ध करने के विविध प्रयोग करते रहते हैं, और जिनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर हम उपभोग करते हैं वे सब पर्यावरण के दायरे में आते हैं|
        उपभोग करने की बढ़ती कुप्रवृत्ति का ही परिणाम है कि आज धरती पर अनावश्यक रूप से दबाव बढ़ा है| यह भी सहजतः स्वीकार करना पड़ता है कि मनुष्य ने अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया है| इस दोहन का जो सीधा परिणाम निकल कर आया है वह, पर्यावरण का असंतुलित होना है| सम्पूर्ण संसार में असंतुलन की यह समस्या आज सबसे अधिक विचारणीय मुद्दा है| भावात्मक रूप से प्राकृतिक संसाधनों में जहाँ असंतोष के भाव दृष्टिगत हुए हैं वहीं विद्वानों एवं चिंतकों के लिए यह बेहद भयावह स्थिति के रूप में चिह्नित किया गया है|
         विद्वानों की दृष्टि में यह जरूरत आए दिन महसूस की जाती रही है कि पर्यावरण जैसे गंभीर मुद्दे पर गहरे विमर्श की आवश्यकता है| उनकी चिंतन-प्रक्रिया में एक तरफ जहाँ धरती पर निवास करने वाले प्रत्येक जीव-जंतु को बचाए रखने की जरूरत वर्तमान है वहीं दूसरी तरफ अपनी जरूरत की चीजों को प्राप्त करने की आवश्यकता भी केन्द्र में है| अतः पर्यावरण संतुलन के लिए प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक सम्बन्धों के दरम्यान जागरूकता ही एक ऐसी स्थिति है जो जरूरत और उपलब्धता के मध्य संतुलन बना कर रख सकती है| प्रकृति के प्रति गहराते संकट और मानवीय अस्तित्व पर विद्यमान प्रश्न, दोनों स्थितियों को एक समान महत्त्व देना आज के नवगीतकारों ने अपनी रचनाधर्मिता का प्रमुख आधार बनाया है| इस स्थिति को स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि “समकालीन कवि प्रकृति के संकटपूर्ण अस्तित्व को लेकर चिंतित है|...उसकी चिंता प्रकृति को बचाने की है, मनुष्य को बचाने की है और इनके बीच शाश्वत रागात्मक सम्बन्ध को बचाने की भी|”[8]
       प्रकृति के स्वस्थ परिवेश में जीवन यापन करने के लिए स्वच्छ हवा और स्वच्छ जल की बड़ी आवश्यकता है| हवा के योग से ही जल की विद्यमानता सुनिश्चित होती है| विडंबना की स्थिति यह है कि जो स्रोत वायु को उपलब्ध करवाने के हैं, हम उनको अनवरत समाप्त करने पर तुले हैं| गांवों में यह प्रायः देखा जाता रहा है कि वहां के लोग सामाजिक जीवन का  सफलता पूर्वक निर्वहन के लिए “आधी खेती और आधी बारी” पर बल दिया करते थे अर्थात आजीविका का साधन कृषि होने की वजह से उनका स्पष्ट मानना था कि आधे क्षेत्र में वे खेती करेंगे और आधे क्षेत्र में बागवानी| खेती की प्रवृत्ति में किसानों की आर्थिक बदहाली और पारिवेशिक दुर्दशा केन्द में रही लेकिन बागवानी की प्रवृत्ति दिनोंदिन लोगों में घटती गयी| नवगीतकार की यह चिंता नितांत प्रासंगिक और सोचने विवश करती है कि—
आज आँधियों के युग में वे
कितने पेड़ बचे
जिनके मीठे
फल से रहती
लदी झुकी डाली
जेठ दुपहरी
छाया की जो
परसे थे थाली
आज मालियों को बाजारी
बौने पेड़ जंचे|”[9]
        यहाँ “आज मालियों को” बड़े छायेदार घने पेड़-पौधों की जगह “बाजारी बौने पेड़” जंचने की स्थिति का पड़ताल किया जाना आवश्यक है| बौने पेड़ के रूप में देशी पौधों के बजाय कलमी पौधों का परिचलन इन दिनों अधिक बढ़ा है जिसका उद्देश्य, छाया और स्वास्थ्यवर्धक फलों की प्राप्ति न होकर महज धन-अर्जित करना रह गया है| बड़े पेड़ों को लगाने, सीचने और पालने में लगने वाले अधिक समय की जगह छोटे पौधों को उगाकर व्यापार करना लोग अधिक श्रेयस्कर समझ रहे हैं| यही नहीं जो वृक्ष शौक और सौंदर्य के लिए घर के सामने लगाए जाते थे उनके स्थान पर आज नागफनी आदि वृक्षों को गमले में सजाने का फैशन बढ़ा है—बड़े घरों के ताम्र कलश में/ हंसती नागफनी/ हर मौसम में शूल चुभोती/ रहती तनी-तनी/ और काटने शेष छाँव को/ दंगे बहुत मचे|”[10] मंजर यह है कि आए दिन हर कोई अपने परिवेश में घने वृक्षों को अपनी जरूरत के अनुसार काटने पर लगा हुआ है| परिणामतः चिलचिलाती धुप में गंतव्य स्थल तक पहुंचना असंभव सा लगने लगा है| डॉ० धनंजय सिंह के अनुसार “धूप चिलचिलाती है/ सड़क बहुत लम्बी है/ नहीं दूर तक कोई छाँव/ और हमें नंगे ही पांव/ जाना है सपनों के गाँव|[11] यह कल्पना की जा सकती है कि जब सपनों के गाँव में जाने की यह नौबत है तो यथार्थ में चलने की क्या स्थिति होगी? 
           वृक्ष काटने की स्थिति ने रिहायसी इलाके से निकलकर जंगलों में उगने वाले पेड़ों को भी अपनी लालच का माध्यम बनाया है| कभी सडकों के नाम पर तो कभी औद्योगिक विकास की जरूरत पर बड़े-से-बड़े वन-क्षेत्र को ऊसर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है|
 “एक समय था जब भारत के विस्तृत क्षेत्रों में वनों का पर्याप्त विकास था किन्तु क्रमशः वनस्पति की कटाई में वृद्धि होती रही और आज वननाशन या वनोंन्मूलन भारत की एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या बन गयी है| वनस्पति विनाश न केवल पादप परिस्थितिक क्रम को प्रभावित करती है अपितु इसके प्रभाव से सम्पूर्ण  पारिस्थितिकीय-तन्त्र असंतुलित होता जा रहा है|”[12] नवगीतकार अजय पाठक की मानें तो-
“जंगल पर संकट है भारी
इन हालातों में लगता है
मिट जायेगी धरा हमारी
क्षण भर के स्वारथ के चलते
खेल रहे जीवन से
भूल गये कि हमने सब कुछ
पाया केवल वन से
वृक्ष नहीं अपनी छाती पर
चला रहे हम आरी...
हरे-भरे थे पेड़ जहाँ पर
घना-घना था जंग
उजड़ी गुल्म-लतायें सारी
अब लगता है मरुथल
मंहगी साबित होने को है
यह सब गहरी भूल हमारी|”[13]
           कवि यदि इस भूल को गहरी भूल कहता है तो इसके “मंहगी साबित होने को” लेकर संभावनाएं इसलिए भी बढ़ जाती हैं क्योंकि आज औद्योगिकीकरण की बढ़ती मांग को वृक्षों की कटाई से पूरी की जा रही है| प्रतिदिन होने वाली वैज्ञानिक अविष्कारों के लिए भी बलि के केंद्र में यही वृक्ष होते हैं| इसके भयानक परिणाम हम सबके सामने है| धरती पर जल का संकट वृक्षों के अभाव से ही गहराया है| नवगीतकार इक्कीसवीं सदी के आज के मनुष्य को जैसे याद दिलाना चाहता है—“तुम्हें रहीम का दोहा/ शायद/ याद अभी तक होगा/ बिन पानी/ संसार अधूरा/ सूना-सूना होगा”[14] कवि रहीम के इस सूत्र-वाक्य का प्रभाव[15] मानवीय समाज में आज स्पष्ट दिखाई दे रहा है| सम्पूर्ण संसार जल के अभाव से जूझ रहा है| समय पर बारिस होना जैसे गुजरे जमाने की बात हो चली है| मानसून अनियमित हो चला है| यदि हमारी नियति पर्यावरण के प्रति और प्रकृति प्रदत्त उपहारों के प्रति ऐसे ही बनी रही तो कहाँ जल गीत गायेंगे/ यदि न चेते तो/ हर दिन बीत जायेंगे/ नहीं घन मीत आयेंगे/ हो रहे हैं छेद/ नभ ओजोन पर्तों में/ छिप रहे नाराज/ बादल श्याम गर्तों में/ ये पपीहे/ फिर कहाँ जल-गीत गायेंगे/ आज जड़ जंगम/ मरे प्यासे बिना जल के/ हो रहे कंकाल/ तरुवर भी बिना फल के/ फिर नदी तक/ छाँव के बन याद आयेंगे|”[16] दिन याद करने के लिए भी यदि किसी की उपलब्धता संभव हो सके तो यह भी बड़ी बात होगी|
         जल के लिए अभी हम एकदम से जागरूक होने की स्थिति अपनाने लगे हैं| यह स्थिति एकाएक जागे भूखे शेर के मानिंद है जो युद्ध जैसी स्थिति पर लाकर हमें खड़ा कर दिया है| हम एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्र-जाल बिछाने लगे हैं| पानी की खातिर मरने और मारने तक की स्थिति में आ गए हैं| माधव कौशिक की मानें तो “किसे पता था/ अपना यह युग/ इतना शातिर होगा/ अगला विश्व-युद्ध/ कहते हैं/ जल की खातिर होगा/ रोटी देना बात दूर की/ दे न सके हम पानी|”[17] पानी की आवश्यकता सबको है| नहरों और बांधों को आजाद न छोड़कर अपने दायरे में सीमित करने के प्रयत्न प्रारंभ हो चुके हैं| जो स्थाई विकल्प कभी हमारे यहाँ हुआ करते थे आज हम विभिन्न जरूरतों के दरम्यान उन्हें गन्दा करने पर तुले हुए हैं| नदियों की जो स्थिति आज है उसकी परिकल्पना भी कभी किसी ने नहीं की होगी| डॉ० जयशंकर शुक्ल की दृष्टि में “कुंद हुई धारा के कारण/ नदी सिसकती है/ अपशिष्टों की मलधारा से/ पीड़ित सड़ती है/ शीतलता को भूल, छार से/ तिल-तिल जलती है|”[18]  
        समस्त परिवेश को धन-धान्य से परिपूर्ण करने वाली गंगा आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है| दुनिया भर के अपशिष्टों के कब्रगाह के रूप में उसका प्रयोग देश के लोग खूब कर रहे हैं| इस एक सच्चाई से बिलकुल इनकार नहीं किया जा सकता कि हम झूठी आस्थाओं के आवरण में “डाल रहे/ अपना गंदापन/ उसकी उजली चादर पर/ बांध रहे हैं लोग/ धार को/ क्या बीतेगी सागर पर/ बिना तुम्हारे/ भक्ति कहाँ/ विश्राम करेगी गंगा जी|”[19] यदि आस्था के आवरण में भी नदियों को पूजने की स्थिति प्रारंभ हो जाए तो यह भी पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत बड़ी बात होगी|
         ज्ञातव्य है कि “यह पर्यावरण स्थल, जल और वायु से बना है| धरती की ऊपरी सतह जहाँ मिट्टी है वह स्थलमण्डल, जहाँ जल है वह जलमण्डल तथा जहाँ वायु है वह वायुमण्डल कहलाता है| स्थलमण्डल पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, पहाड़ इत्यादि हैं| जलमंडल में भी जीव-जन्तु पेड़-पौधे होते हैं| वायुमंडल में कई गैसों का सम्मिश्रण है| इतना ही नहीं वायुमण्डल तथा स्थलमण्डल की बहुत नीचे तक गहराई में भी जीव पाया जाता है| तीनों मण्डल में जब तक साम्य स्थापित रहता है तब तक पर्यावरण में संतुलन रहता है| लेकिन जैसे ही तीनों के बीच असंतुलन होता है तभी पर्यावरण अस्त-व्यस्त होता है| ऐसा प्रदूषण के कारण होता है|”[20]    कहना अनावश्यक नहीं है कि “नित नये उद्योगों की स्थापना, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और आधुनिकता की दौड़ में नित नए वाहनों का निर्माण जहाँ एक तरफ वायुमंडलीय वातावरण को क्षति पहुंचा रही है वहीं सम्पूर्ण भूमण्डल को भी क्षतिग्रस्त कर रही है| ग्लोबल वार्मिंग, अम्लीय वर्षा और ओजोन-परतों में क्षिद्र तथा पारिस्थितिकीय असंतुलन इन्हीं प्राकृतिक दोहनों की उपज है|”[21] इस उपज से पैदा हुए विसंगतियों को झेलने में धरती पर निवास करने वाले जीवों व मनुष्य को किस तरह भुगतना और झेलना पड़ रहा है वह नवगीतकार शैलेन्द्र शर्मा के इस गीत से समझा जा सकता है— तपी धरा से उठे बगूले
दिशाहीन होकर मरुथल में/ कोई हिरन राह ज्यों भूले/ सन्नाटे ढोते गलियारे/ ऐसी प्रखर धूप की बाती/ जिसकी ज्वाला सहते-सहते/ दरक उठी ताल की छाती/ धरती लहू-लुहान हुई है 
कुछ कहते पलाश हैं फूले|/ कोई पंख ना फड़के/ सूखा पत्ता ही बस खड़के/ इधर-उधर पेड़ों के नीचे/ दुबकी हैं छायाएँ डर के/ वज्रपात हुआ कलरव पर/ कैसा गुंजन, कैसे झूले|/ क्षीण-कलेवर हुई नदी भी/ हारी-थकी रेत पर लेटी/ लगता जैसे सहमी-सकुची/ हो निर्धन विधवा की बेटी/ कौवे का क्रंदन ज्यों कोई/ भूले से अंगारा छू ले|/ श्वास-श्वास भीषण गर्मी में/ माचिस की सी जलती तीली/ त्राहि-त्राहि मच रहा भुवन में/ फिर भी उनकी आँख न गीली/ इन्द्रप्रस्थ में इन्द्र व्यस्त हैं/ शेष जगत को लगता भूले|”[22] 
        जल और वन की हो रही अनुपलब्धता के पीछे एक बड़ी वजह मनुष्य की अनवरत बढ़ती जनसंख्या भी है| जनसँख्या का दबाव परिवेश पर जितना बढ़ा है संसाधन उतने ही घटे हैं| रोजी-रोटी और रोजगार के अवसर की तलाश में नयी कंपनियों का स्थापन हुआ है| वैज्ञानिक आविष्कार के तरीके ढूंढें गए हैं| वैज्ञानिकता ने जितनी सुविधाएँ हमारे लिए उपलब्ध करवाया है उससे कहीं अधिक समस्याएँ भी दिया है| यहीं से “वैज्ञानिक शांति और औद्योगिकीकरण के साथ मनुष्य और प्रकृति के संबंधों का एक नया माध्यम शरू होता है| औद्योगिकीकरण के दौरान लम्बे समय तक इस बात की ओर ध्यान ही नहीं गया कि प्रकृति के रूपांतरण की भी एक सीमा है| पर्यावरण के नाश से मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है| बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की चिंता एक गंभीर मुद्दों के रूप में उभर कर सामने आती है|[23]
         वैज्ञानिक विकास के परिणाम स्वरुप धरती को छोड़कर स्वर्ग पर पहुँचने की लालसा बहुत हद तक कामयाब तो हुई है लेकिन इस कीमत पर कि अब धरती पर रहना दूभर होता जा रहा है| शैलेन्द्र शर्मा की यह चिंता गहरे में सोचने के लिए विवश करती है कि “स्वर्ग मिले अच्छा है लेकिन/ धरणि नहीं खिसके/ स्वार्थ छोड़कर कभी देवता/ कहो हुए किसके/ हुई त्रिशंकु आधुनिक पीढ़ी/ रह-रह चुभता शूल|”[24] ‘त्रिसंकू’ की स्थिति में वर्तमान आधुनिक पीढ़ी नवीनता की इतनी आग्रही है कि सब कुछ विज्ञान से ही पाना चाहती है| वैज्ञानिकता के विकास का ही नतीजा है कि आज हम परमाणु युग में प्रवेश कर जीवन की अंतिम साँसे लेने के लिए अभिशप्त हुए हैं| कब और किस समय कहाँ से विस्फोट हो, यह कल्पना भर की जा सकती है| “गरज रही हैं/ तोपें सर पर/ बरस रहे हैं बम-गोले/ सांसत में परिवेश आज है/ फिर बसंत कैसे बोले|”[25] तोप, बम और अन्य विस्फोटक युद्ध-सामग्रियों की वजह से विभिन्न प्रकार के संकट उत्पन्न हुए हैं|
       युद्ध के उन्माद और वसंत के पराभव से पर्यावरण समस्या और भी अधिक गहरा गयी है| जन-जीवन-जमीन सभी की दुर्गति युद्ध की वर्तमानता में निश्चित होती है| “मुख्य रूप से युद्ध की परिस्थितियों में दो प्रकार की अपरिहार्य क्षतिपूर्णता निर्मित होती है| प्रथम प्राकृतिक आवास विनष्ट होते हैं| द्वितीय समुदायों की सामाजिक व्यवस्थाएँ पूर्णतः शिथिल हो जाती हैं| अविकसित अथवा विकासशील देशों में युद्ध की स्थिति और अधिक भयानक हो जाती है, क्योंकि यहाँ की मुख्य समस्याएँ जैसे पर्यावरण की शिथिलता, कुपोषण, रोग-बाधा, बेरोजगारी, आर्थिक अस्वस्थता....सभी कुछ में वृद्धि होती है| भौतिक एवं सामाजिक परिवेश युद्ध के आघातों को झेल नहीं पाते|”[26] अतः पर्यावरण-सुरक्षा के लिए युद्ध जैसी परिस्थिति पर भी बहुत कुछ सोचने और समझने की जरूरत है| यदि हम इस विकसित हो रही परिस्थिति से निजात पाने में सफल हो सके तो कई प्रकार की समस्याएँ स्वयमेव समाप्ति के कगार पर पहुँच जायेंगी| नवगीतकारों के हृदय में उठने वाली असली चिंता का विषय यह भी  है कि क्या मानव-हृदय में विद्यमान मानवीयता को सुरक्षित रखा जा सकेगा? सुरक्षा के लिए हमने सैनिकों का निर्माण किया| सुरक्षा के लिए ही हमने राज्यों की सीमाओं का संधान किया| सुरक्षा के लिए ही अनेकों प्रकार के अत्याधुनिक हथियारों के अस्तित्व की परिकल्पना किया और एक हद तक उसे साकार रूप भी दिया| सवाल ये है कि क्या हम सुरक्षित हैं? यदि हैं तो देश में नित-प्रतिदिन बढ़ रहे नक्सलवाद/मावोवाद की क्या वजह है? सम्पूर्ण संसार में आतंकवादी समूहों के उदित होने के क्या कारण हैं? क्या कारण हैं कि रोज ही हजारों-लाखों की जाने जा रही हैं हिंसा, आगजनी और विस्फ़ोट में? बढ़ रही हिंसा, आगजनी, आतंकवाद आदि अमानवीय समस्याओं से नवगीतकारों का हृदय व्यथित है|”[27] यायावर के शब्दों में कहें तो यह आशा भविष्य के लिए की जा सकती है कि “धूर्तता, पाशविकता/ नई सभ्यता/ आदमी से रहे दूर/ कटु क्रूरता/ द्वेष का ये कलुष/ दूर हो/ मन बने/ निर्मलम् निर्मलम्|”[28] समय और परिवेश को निर्मलता से परिपूर्ण करने में नवगीतकारों का बड़ा योगदान रहा है जिसे किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता है| लेकिन जब बात पर्यावरण संरक्षण की अपने यथार्थ रूप में की जाए तो इसे भी स्वीकार करने में कोई संदेह नहीं होनी चाहिए कि “अब हर व्यक्ति को अपनी भूमिका तय करने का समय आ गया है| प्रतिरोध और सृजन का काम| हमें एंटीबायोटिक्स की जगह अपनी प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाकर काम को अंजाम देना ही अपरिहार्य कदम है| यह कदम हम मिलकर उठाएं तो परिणाम जल्दी सामने होंगे और अलग अलग कदम हमें विलम्ब के अँधेरे में ढकेल देंगे| यह सांझा संकट है तो प्रयत्न भी मिलकर करने होंगे| अन्यथा प्रकृति को गुलाम बनाने के कुत्सित प्रयास जारी रहेंगे और हमारी कर्महीनता को लेकर आने वाली पीढ़ियाँ पानी पी-पीकर नहीं, बिन पानी के कोसेंगी|[29]







[1] कौशिक, माधव, नवगीत की विकास यात्रा, पंचकूला : हरियाणा साहित्य अकादमी, 2007, पृष्ठ-113
[2] सम्पा०-गोपालचन्द, मानक हिंदी कोश (खण्ड-3), पृष्ठ-431
[3] शर्मा, दामोदर, व्यास हरिश्चन्द्र, आधुनिक जीवन और पर्यावरण, दिल्ली : प्रभात प्रकाशन, 2007, पृष्ठ-11 
[4] http://hindi.indiawaterportal.org/water_words/पर्यावरण-की-परिभाषाएं-और-अर्थ-definitions-and-meaning-environment
[5] पाण्डेय, मदन मोहन, समाजशास्त्र की विवेचना, कानपुर : किताबघर प्रकाशन, 1956, पृष्ठ-144 
[6] (सं०) अग्रवाल, डॉ० पद्मा, मानविकी पारिभाषिक कोश (मनोविज्ञान खण्ड), नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 1998, पृष्ठ-104
[7] http://hindi.indiawaterportal.org/water_words/पर्यावरण-की-परिभाषाएं-और-अर्थ-definitions-and-meaning-environment
[8] झा, मनीषा, प्रकृति, पर्यावरण और समकालीन कविता, कोलकाता : आनंद प्रकाशन, पृष्ठ-54
[9] श्रीवास्तव, बृजनाथ, रथ इधर मोड़िये, कानपुर : मानसरोवर, 2013, पृष्ठ-75-76
[10] श्रीवास्तव, बृजनाथ, रथ इधर मोड़िये, कानपुर : मानसरोवर, 2013, पृष्ठ-75-76
[11]सिंह, डॉ० धनञ्जय, दिन क्यों बीत गये, गाज़ियाबाद : अनुभव प्रकाशन, 2017, पृष्ठ-57
[12] साहनी, कविता, पर्यावरण वन और वन्य जीव संरक्षण, पृष्ठ-55   
[13] पाठक, अजय, गीत मेरे निर्गुणियाँ, दुर्ग : श्री प्रकाशन, 2010, पृष्ठ73-74 
[14] कौशिक, माधव, जोखिम भरा समय है, नई दिल्ली : सामयिक बुक्स, 2016, पृष्ठ-22-23  
[15] रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरे, मोती, मानुष, चून || (http://bharatdiscovery.org/india/रहीम_के_दोहे)
[16] श्रीवास्तव, बृजनाथ, रथ इधर मोड़िये, कानपुर : मानसरोवर, 2013, पृष्ठ-31
[17] कौशिक, माधव, जोखिम भरा समय है, नई दिल्ली : सामयिक बुक्स, 2016, पृष्ठ-23 
[18] शुक्ल, डॉ० जयशंकर, तम भाने लगा, दिल्ली : पूनम प्रकाशन, 2014-15,  पृष्ठ-52
[19] सिंह, डॉ० ओमप्रकाश, यायावर नवगीत हमारे, लखनऊ, उत्तरायण प्रकाशन, 2012, पृष्ठ-80
[20] कुमारी, डॉ० प्रभा, पर्यावरण प्रदूषण और विश्व खाद्यान्न समस्या—भयावह भविष्य, दिल्ली : फौजी प्रकाशन, पृष्ठ-137
[21] पाण्डेय, अनिल कुमार, समकालीन हिंदी कविता का यथार्थ, कानपुर : सुभांजलि प्रकाशन, 2016, पृष्ठ-115-116 
[22] शर्मा, शैलेन्द्र, सन्नाटे ढोते गलियारे, कानपुर : मानसरोवर, 2009, पृष्ठ-41-42
[23] डॉ० राजकुमार, हिंदी का साहित्यिक संस्कृति और भारतीय आधुनिकता, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-17
[24] शर्मा, शैलेन्द्र, सन्नाटे ढोते गलियारे, कानपुर : मानसरोवर, 2009, पृष्ठ-76
[25] सिंह, डॉ० ओमप्रकाश, बंजारे गीतों के गाँव, लखनऊ : उत्तरायण प्रकाशन, 2012, पृष्ठ-89
[26] द्विवेदी, प्रो० प्रियरंजन, सिंह, प्रो० उत्तमकुमार, युद्ध पर्यावरण एवं आपदा प्रबंधन, नई दिल्ली : ज्ञानदा प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-6-7
[27] पाण्डेय, अनिल कुमार, नवगीत साहित्य का यथार्थ, गाजियाबाद : के. एल. पचौरी प्रकाशन, 2017, पृष्ठ-27
[28] यायावर, डॉ० रामसनेहीलाल शर्मा, झील अनबुझी प्यास की, लखनऊ : उत्तरायण प्रकाशन, 2016, पृष्ठ-29 
[29] नया ज्ञानोदय (आपदा और पर्यावरण एकाग्र) सम्पादकीय-इस कांपने में एक सन्देश है, सम०, लीलाधर मंडलोई, नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ-7 

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