आधुनिकता
के इस दौर ने अपनी श्रेष्ठता का पैमाना खरीद और परोख्त को बना लिया है| यहाँ
मनुष्य उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना सीसे की चाहरदीवारी में कैद वस्तुएं हैं|
जन-नीतियों को हाशिए पर लाकर वस्तु-नीति को केन्द्र में रख दिया गया है| यही वजह
है कि लोक-रीति और लोक-नीति की सभी सम्भावनाएं बाजार-नीति से परिभाषित हो रही हैं|
बाज़ार जिस रूप में चाह रहा है उसी रूप में मनुष्य स्वयं को परिवर्तित कर रहा है|
यह कहें तो शायद और भी उचित हो कि मनुष्य बाज़ार को नहीं बाज़ार मनुष्य को संचालित
कर रहा है| यहाँ राधेश्याम शुक्ल के नवगीत की कुछ पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं-
सुनों/ तुम्हारा मूल्य, तुम नहीं,/ आंकेगा ‘बाज़ार’/ तुम्हें तो बस, बिकना है/ तुम
केवल मशीन हो,/ जिसको वक्त चलाएगा/ तुम्हें हृदय की नहीं/ पेट की भाषा पढनी है/
खुद्दारी, अस्मिता/ हुई कल की बातें, तुमको/ ‘बाजारू डिमांड’ पर/ अपनी मूरत गढ़नी
है/ बनना होगा/ रेसकोर्स के घोड़े की रफ़्तार/ तुम्हें तो बस बिकना है|”[1]
बाज़ारू डिमांड पर अपनी मूरत गढ़ने की वेबसी और हृदय के भावों को अनसुना कर के
पेट की भाषा को पढ़ने की मजबूरी इधर के दिनों नियति बनती जा रही है|
इधर
के परिवेश में बिकने की नीयति इतनी बलवती हुई है कि शेयर बाज़ार के
उतार-चढ़ाव पर ज़िंदगी का उतार-चढ़ाव निर्भर होता जा रहा है| यहाँ की सत्तासीन
सरकारों ने तो जैसे शेयर-दलालों को लुभाने के लिए लोक-मुद्दों को दाँव पर ही लगा
दिया है| सुरेश सेठ जैसे कवि की चिंता बाज़ार को सकारात्मक बनाने के चक्कर में
जन-मुद्दों को भुला देने में है| वे एक कविता में लिखते हैं-“सरकारी विधाता
परेशान हैं,/ शेयर मर्कीटों ने हाराकिरी कर ली/ धनाढ्य निवेशक कैसे भारत आएँगे?/
इधर जमीनें बंजर हुईं/ होने दो/ नौजवान फालिजग्रस्त हो गिरे/ गिरने दो/ आजादी पर
टूटती उम्मीदों की कराह/ हावी हो गई, होने दो/ लेकिन देखो/ उनकी अट्टालिकाओं पर
ध्वस्त होते बाज़ार/ कोई पैबंद न लगा दें?/ जागते रहो (सुरेश सेठ)|” राधेश्याम
शुक्ल जहाँ मनुष्य के मात्र बिकने भर की गुंजाईस शेष रहने की स्थिति को पहचानते
हैं वहीं सुरेश सेठ बाज़ार के सामने किसी अन्य मुद्दों/ समस्याओं को प्रमुखता नहीं
दी जाएगी, इस सच्चाई की पड़ताल करते हैं|
इस
बाज़ार समय में भागता हुआ जीवन उत्कर्ष को प्राप्त करने के लिए इतना लालायित है कि
स्वयं को दलालों के समीकरण पर गिरवी रख दिया है| अपनी तरह का यह ऐसा समय है जहाँ
मशीनों के शोर में मनुष्य के शोर की कोई सुनवाई नहीं है| कोई पुर्जा किसी भी
प्रकार के मशीन का खराब हो जाए उसके लिए हर दो किलोमीटर पर एक ठीक करने वाला
डाक्टर बैठा है लेकिन यदि मनुष्य बीमार हो जाए तो उसे देखने वाला डाक्टर बमुश्किलन
दिखाई देता है| बाज़ार की इच्छाओं में मनुष्य की इच्छाओं की परख की जा रही है, इतनी
मजबूर स्थिति तो कभी नहीं रही मनुष्य की| ऐसे परिदृश्य को तो देखकर ऐसा लगता है
जैसे बाज़ार में वस्तुएं नहीं मनुष्य खड़ा है बिकने के लिए| एक जगह माधव कौशिक ने
कहा है-
“जिंदगी
बेकार है अब क्या करे कोई बता
हर जगह
बाज़ार है अब क्या करे कोई बता|
चंद लम्हों
में, मशीनों ने बना डाला मशीन
आदमी लाचार
है, अब क्या करे कोई बता|”[2]
बाज़ार
का प्रभावी होना और आदमी का लाचार होना इस इक्कीसवीं सदी की गंभीर सच्चाई है|
बाज़ार को सामाजिक स्वीकृति में लाने वाला मनुष्य था भले लेकिन आज उसकी अस्मिता और
अस्तित्व बाज़ार के हाथों में है| जो सक्षम हैं, समर्थ हैं वे बाज़ार को भले एक
वरदान मानकर चल रहे हों लेकिन जो ग़रीब है, मजदूर है, लाचार है उसके लिए बाज़ार किसी
बड़ी त्रासदी से कम नहीं है| नूर मुहम्मद नूर की इस वेबसी को अपने लोक की वेबसी यदि
समझने का प्रयास करें तो बाज़ार से उपजने वाली विसंगतियों का परिदृश्य और स्पष्ट हो
जाता है-“मैं चीजों के लिए ख़ुद बिक न जाऊँ/ नए बाज़ार से डर लग रहा है/ पैसे
नहीं है ज़ेब में झोला उदास है/ बाज़ार हर तरह का, मगर आस-पास है|”[3]
नए बाज़ार से डर तब लग रहा है जब गज़लकार बाज़ार में चीजों को खरीदने के लिए
प्रस्तुत हुआ है जबकि एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि बाज़ार बड़े चुपके से आपके चूल्हे
तक प्रवेश कर चुका है, और अभी तक एहसास तक नहीं होने दिया| खान-पीन से लेकर
रहन-सहन, रिश्ते-नाते तक का समीकरण यदि किसी द्वारा निर्धारित किया जा रहा है तो
वह बाज़ार ही है| यहाँ बुद्धि का इस्तेमाल इतने सजगता से किया जा रहा है कि हृदय की
भावुकता कहीं नज़र ही नहीं आती| राधेश्याम शुक्ल अपने एक नवगीत में ‘अम्मा’ को सचेत
करने के बहाने बाज़ार के घर में प्रवेश कर जाने की स्थिति की बड़ी सजग व्याख्या
प्रस्तुत करते हैं-
“चूल्हे तक
बाज़ार आ गया/ अम्माँ, घर सँभाल कर रखना
कल भी था
बाज़ार यहाँ पर,/ किन्तु नहीं था निर्मम इतना;
खड़े बीच
बाज़ार/ कबीरों का न डिगा था संयम इतना
सबकी खैर
माँगते सब थे/ बैर-दोस्ती के उसूल थे/ जेब नहीं काटी जाती थी
कारोबारी
भी ‘रसूल’ थे/ अब तो विचलन भरी हर डगर,
हर पग,
देख-भाल कर रखना/...सदियों तिनके जोड़-जोड़ कर
नीड़ रचा था
एक बया ने/ बंधन कितने थे जुड़ाव के/ सिरजा जिनको ‘मोह-मया’ ने
खाली
पिंजरे ‘हीरामन’ की/ मैदा भरी कटोरी रोये;/कितनी अंसुवाई मनौतियाँ
बाज़ार
सिर्फ मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर ही कार्य नहीं कर रहा है, वह बहुत आगे जाकर
आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का भी निर्धारण कर रहा है| हम जिन सम्बन्धों के
निर्धारण में पड़ोसियों की नहीं सुना करते थे उन्हीं सम्बन्धों के निर्धारण में
बाज़ार की मनमानी को बर्दास्त करने के लिए विवश हैं| “एक तरफ ‘ग्लोबल विलेज’ है/ एक
तरफ ‘कुनबा’ बिखरा है/ पूरी दुनिया से नजदीकी/ पर, अपनी छत से बेगाने/ अंधी दौड़
शरीक सभी/ मजिल का पता न कोई जाने/ दौड़ रहा घोड़ा विज्ञानी/ ‘टेक्नोलॉजी’ का पहरा
है|”[5]
विज्ञानी घोड़े की दौड़ में टेक्नॉलोजी के पहरे की जो अनचाही बंदिशें हम पर लगा दी
गयी हैं उनका परिणाम नित-प्रतिदीन के व्यवहार में झलकने लगी है| हमारे बोल-भाषा,
बात-व्यवहार दायरों और बंदिशों को लांघ चुके हैं क्योंकि हम यहाँ पर अपने से बड़ों
द्वारा सिखाए गये आचरण का व्यवहार न करके बाज़ारी विज्ञापनों द्वारा निर्देशित
स्वभावों के अनुसार आचरण करते हैं| जिन्हें ये आचरण अच्छे नहीं लगे वे अलग हो गये|
जुड़े हुए इतने लोग अलग हुए कि हमारे पास सिवाय चुप्पी के कुछ और बचा भी नहीं| यह
चुप्पी खामोशी बनकर उभरी है जिसके गिरफ्त में हमारा समाज आ चुका है| हरेराम समीप
की ये चन्द लाइनें इस स्थिति को और भी स्पष्ट रूप से बयान करती हैं –
“हमने
सारे रिश्ते-नाते भाव-ताव को बेच दिए
बाज़ारों
से ले आए फिर आधी-पौनी खामोशी
अब
समझ में आ रहा क्यों हरता हूँ खेल में
चाल
वो चलता है अक्सर मेरे पत्ते देखकर|”[6]
पत्ते
की स्थिति पर बाज़ार की चाल मामूली नहीं है| कम से कम बाज़ार के अत्याधुनिक संसाधन
तो इसी चाल के परिणाम हैं जिनके जाल में फंसना हमारा शौक तो नहीं वेबसी जरूर बन
गयी है| जिधर भी देखो “कमाल ही कमाल/ इस
बाज़ार समय में/ सब लाजवाब/ चकाचक,
झकाझक”[7]
मॉल-संस्कृति इस चकाचक, झकाझक का ही एक प्रबल
उदहारण है| यहाँ पहुँचने के बाद चीजें आपको ललचाती हैं| इन चीजों में चमक-दमक इतनी
होती हैं कि आपकी आँखें चुधियाँ जाती हैं| बाज़ार के सौन्दर्य आपको ऐसा होने के लिए
विवश करते हैं| यह एक सच्चाई है कि बाज़ार की वस्तुओं में एक चमक होती है लेकिन वह
वस्तुएं अक्सर हमारे काम की नहीं होती हैं| हम बाज़ारू आकर्षण में उन्हें खरीद तो
लेते हैं, आगे चलकर हाथ मलते भी रहते हैं| बाज़ार के इस मायावी दुनिया का सच मधुकर
अष्ठाना अपने नवगीत में कुछ इस तरह प्रस्तुत करते हैं| “जिसमें जितनी चमक-दमक है
\वह उतना/ नकली सोना है/ आकर्षण के चक्रव्यूह में/ केवल खोना ही/ खोना है/ अक्सर
लोग/ बहल जाते हैं/ रंग-रूप के इन्द्रजाल में/ पर बाकी साँसें/ भरते हम आजीवन/
गहरे मलाल में/ समय निकल जाने पर/ लगता हमको/ रोना ही रोना है|”[8] बाज़ार
के अपने कुछ सिद्धांत होते हैं| इन सिद्धांतों में ‘बिके हुए माल वापिस नहीं
होंगे’, ‘फैशन के दौर में शुद्धता की अपेक्षा न करें’ ‘गारंटी की अपेक्षा न करें|’
ऐसी स्थिति में जो एक बार बाज़ार के हत्थे चढ़ा तो जिन्दगी भर हाथ मलना ही शेष रह
जाता है उसके लिए|
बाज़ार
के अन्दर एक आकर्षण है जो आपसे अपनी जरूरत से कहीं अधिक ढलने के लिए जिरह करती है|
इस स्थिति में एक पल के लिए आप कह सकते हैं कि आपके पास पैसे नहीं हैं| पैसे यदि
जेब में नहीं हैं तो बाज़ार अपने स्वभावानुकूल क्रेडिट कार्ड पर लेने के लिए विवश
करता है| यदि क्रेडिट कार्ड से भी सामानों को ले जाने में असमर्थ हैं तो कम्पनियाँ
होम डिलीवरी का ऑप्शन देती हैं| यहाँ तक आकर इस तरह आप मजबूर होते हैं कि
दिल-दिमाग सबकुछ बाज़ार के हाथों में सौंप कर निश्चिन्त हो जाना चाहते हैं| जबकि
बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती है| इसके बाद जरूरत की छोटी-सी-छोटी चीजों के लिए भी
आप बाज़ार की तरफ सिर उठा कर देखना शुरू कर देते हैं| जब छोटी से लेकर बड़ी चीजों तक
हम बाज़ार पर निर्भर हो गये तो इसका मतलब न चाहते हुए भी स्वयं को बाज़ार तक सीमित
कर दिए| हालांकि यह विश्वास हमें फिर भी नहीं हो रहा है कि हम बाज़ार के हाथों
गिरवी रखे जा चुके हैं| ऐसी स्थिति में यहाँ माधव कौशिक के ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ
बरबस ध्यान आकर्षित करती हैं-“जाने कब महसूस करोगे गहराई बाज़ारों की/ घर-आँगन
को लील गई है परछाई बाज़ारों की/ चहल-पहल की चकाचौंध में जाने कितने दर्द छुपे/
सिर्फ मातमी धुन पर गाती शहनाई बाज़ारों की|”[9]
बाज़ार शहनाई की धुन टेर रहा है और हम मातम मना रहे हैं| इस पर भी हमारी आँखें
नहीं खुल रहीं हैं और न ही तो हमारे नीति-नियंता इन गंभीर मशलों पर कुछ सार्थक
सोच-विचार रहे हैं| यदि यही सब रहा तो ‘वह दिन जल्दी ही आएगा’ जब हमारी नीयति से
लेकर धड़कन तक को बाज़ार निर्धारित करेगा| समकालीन हिन्दी कविता के प्रसिद्ध
हस्ताक्षर भगवत रावत की यह चिंता ही हमारी चिंताओं की अभिव्यक्ति है-
ऐसा
ही चलता रहा सब कुछ ठीक-ठीक तो/ हमारे लोकतंत्र में वह दिन जल्दी ही आयेगा/ जब
आसमान छूता सेंसेक्स ही/ हमारे देश की धड़कनों का/ एकमात्र सम्वादी सूचकांक रह
जाएगा
वह
दिन जल्दी ही आयेगा/ जब ग़रीबी, अन्याय, शोषण और असमानता जैसे/ पिछड़े हुए विषयों पर
बहस करने वालों को/ विकास की तेज रफ़्तार वाली ट्रेन की खिड़की से/ बाहर फेंक दिया
जाएगा
वह
दिन जल्दी ही आयेगा/ जब न्याय के सर्वोच्च दरबार में भी/ सिर्फ़ आँकड़ों की भाषा
बोली और समझी जायेगी/ और आँकड़ों को ही जीवित साक्ष्य मानकर/ दूध का पानी/ और पानी
का दूध किया जायेगा
वह
दिन जल्द ही आएगा/ जब रिश्ते सारे के सारे बदल दिए जायेंगे/ सम्बन्धों का नए सिरे
से नामकरण किया जायेगा/ हर अहसास की दरें पहले से तय होंगी/ मित्रता और प्यार के
लिए तो विशेष रूप से/ उचित व्याज पर ऋणों का उपहार दिया जायेगा
प्रिय
नागरिकों/ एक बार/ बस एक बार/ इन विश्व हितकारी विश्वव्यापी कंपनियों को/ पूरी तरह
सत्ता में आ जाने दो/ थोड़ी उदारता से काम लो/ फिर धर्म और अधर्म में/ फ़र्क नहीं रह
जाएगा/ न कहीं कोई वंचित होगा न उपेक्षित/ फिर कहीं कोई/ विस्थापित नहीं कहलायेगा|[10]
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