Saturday 22 August 2020

संत रविदास का जन्म—जीवन : संघर्ष के पर्याय

हिन्दी साहित्य का मध्यकाल कई दृष्टियों से विचार-विमर्श के क्षेत्र में विवाद एवं संवाद का विषय बना रहा है| यह विषय जितना अधिक पहले के समय में वर्तमान था उससे कहीं अधिक अब भी है| पुराने आलोचक जहाँ अपनी स्थापनाएं देने के बाद हिन्दी साहित्य के जिज्ञासु अध्येताओं के अतीत हो गए तो नए आलोचक उन स्थापनाओं को दरकिनार करते हुए नवीनता की मांग एवं सृजन को भविष्य का वर्तमान सच बनाने में जुट गए| हालाँकि, इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसा होने से कई नए तथ्य निकल कर सामने आए और आगे भी आने की संभावना है; लेकिन विद्वानों के अंतर्विरोधों को लेकर जिस तरह से अध्येता और आम जन-मानस को इनके जन्म-जीवन-व्यक्तित्व को जानने और समझने में जिन परेशानियों का सामना करना पड़ा, मध्यकालीन कवियों में से कई एक कवियों का अब तक प्रकाश में न आ पाने का यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण साबित हुआ है|

           संत रविदास का जीवन इन विसंगतियों से अछूता नहीं है| उनके जन्म एवं जीवन से सम्बंधित अन्य घटनाओं के लिए आज भी अटकलों और कल्पनाओं का सहारा लेना पड़ता है| यह सच है कि “श्री गुरु रविदास जी के जीवन, शिक्षा और कर्म-क्षेत्र के विषय में अब तक हिन्दी, पंजाबी व अंग्रेजी आदि

विभिन्न भाषाओँ में पर्याप्त सामग्री अप्रकाशित और प्रकशित रूप में उपलब्ध हो चुकी है, मगर तो भी उनके जीवन के सम्बन्ध में कतिपय विवरणों यथा, जन्म-समय, जन्म स्थान, माता-पिता, गुरु एवं शिष्य परंपरा, यात्राओं, निधन काल, वाणी रचना, सत्संग, गोष्ठियां आदि के विषय में अभी भी प्रमाणिक रूप से कुछ कह पाना सहज साध्य नहीं है|”[1] यह साध्य इसलिए भी नहीं है क्योंकि जब हम किसी भी स्थिति की जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं तो यह आवश्यक हो जाता है कि हमारी सहायता इतिहास के रूप में सुरक्षित वह पांडुलिपियाँ या विद्वानों द्वारा लिखित कुछ विशेष दस्तावेज करें, यहाँ हमारा इतिहास प्रायः मौन दिखाई देता है और इतिहासकार सदी-विशेष की तरफ इशारा करके शांत हो जाते हैं|

      यह भी एक बड़ी विडंबना की स्थिति है कि एक तो संत रविदास सरीखे हमारे संत साहित्य के पुरोधा अधिकतर मौलिक एवं मौखिक परंपरा का निर्वहन किया करते थे, जो कुछ बोला जाता था उसे ही प्रवचन के रूप में सुना मात्र जाता था, लेखन का प्रयास लगभग कम ही होता था, दूसरे , जो कुछ होता भी था तो इनके वचनों एवं वाणियों को विद्वानों की वाणी न मानकर एक साधारण व्यक्ति की वाणी समझा जाता था| लगभग यह धारणा-सी लोगों के अन्दर घर कर गयी थी कि ‘ऐसे लोग मात्र सांप्रदायिक भावना से ग्रसित होकर ही अपनी वाणियों का प्रयोग किया करते थे|[2] साधारण व्यक्ति आज भी बोल रहे हैं, लिख रहे हैं और एक हद तक तथाकथित विद्वानों से अधिक उनको समाज के लोग पढ़ और समझ भी रहे हैं, इसके बावजूद यदि ध्यान से यथास्थिति का अवलोकन किया जाय तो उनकी तरफ कम ही ध्यान लोगों का जाता है| बहरहाल, यहाँ उद्देश्य इन विसंगतियों का लेखा-जोखा देना नहीं, संत रविदास के सन्दर्भ में और उनके साथ-साथ कई ऐसे महत्त्वपूर्ण संतों के सन्दर्भ में इतिहासकारों के अभाव और उपलब्धता को देखना था|

संत रविदास वाणी के सन्दर्भ में आलोचकों के विचारों एवं प्रकाशित सामग्रियों का अध्ययन करने से उनके जन्म तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतान्तर होने के बावजूद कुछ हद तक एकमतता दिखलाई देती हैं| आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद के अनुसार “संत रविदास जी का जन्म विक्रमी संवत

1433 (सन् 1376 ई०) में माघ शुक्ल पूर्णिमा तिथि रविवार को हुआ था| रविदासी भाई प्रतिवर्ष इसी दिन संत रविदासजी की पुण्य जन्म-तिथि मनाते आए हैं| इस सन्दर्भ में सिक्खों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह के समकालीन संत करमसिंह का मत समझना जरूरी है, जो रविदासी संप्रदाय में प्रचलित है :

चौदह सौ तैंतीस की, माघ सुदी पंदरास |

दुखियों के कल्याण हित, प्रगटे श्री रविदास ||”[3]

       उपर्युक्त दोहे और आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद के मत का समर्थन करते हुए डॉ० एन० सिंह ने लिखा है “संत रविदास के इसी जन्म संवत को डॉ० पद्म गुरुचरण सिंह ने भी मान्यता दी है| हमारे विचार से जब तक कोई प्रमाणिक जन्म वर्ष नहीं मिलता तब तक आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद के दिए हुए सम्वत् 1433 को ही उपयुक्त समझना चाहिए| यही मत डॉ० शरणदास भनोत का भी है| यदि आजाद साहब द्वारा दिए गए इसी जन्म सम्वत् को मान लिया जाए तो संत रविदास की आयु 151 वर्ष बैठती है| जिस पर सहज संदेह किया जा सकता है |”[4]

डॉ० एन सिंह के इस ‘सहज संदेह’ की बात को लगभग समर्थन देते हुए धर्मपाल मैनी ने लिखा है कि “सं० 1433 की माघ पूर्णिमा मान लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन इनकी मृत्यु की तिथि सं० 1584 पर्याप्त विश्वसनीय प्रतीत होती है| इस प्रकार उनकी आयु 151 वर्ष बैठती, जो बहुत संभाव्य नहीं| दूसरा रैदास के कबीर से कुछ छोटा होने की बात में भी कुछ बल लगता है, अतः यदि जन्म समय सम्वत 1456 के आस पास मान लिया जाए तो रामानंद के शिष्य होने में, कबीर से कुछ छोटे और समकालीन होने में तथा लगभग 128 वर्ष की आयु पाने में विशेष आपत्तियों को स्थान नहीं रहता|”[5] यहाँ यदि कबीर के जन्म काल के साथ संत रविदास के जन्मकाल को मानने का मोह-संवरण होता है तो यह गलत है| कबीर के सम्बन्ध में माना जाता है कि उनका जन्म “चौदह सौ पचपन साल गए” पर होता है यानि संवत 1456 इनके जन्म का वर्तमान वर्ष माना जाता है| इस दृष्टि से संत रविदास का भी जन्म वर्ष इसे स्वीकार करना उचित नहीं होता|

दूसरे, रविदास कबीर से बड़े भी हो सकते हैं| छोटा होने के प्रति यह तर्क दिया जाता है कि रविदास कबीर के विचारों से प्रभावित थे; प्रभावित व्यक्ति अपने से छोटों के भी व्यक्तित्व से हो सकता है| अतः धर्मपाल मैनी के आपत्ति का निराकरण यदि आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद के ही शब्दों में सुझाते हुए कहा जाए कि “रविदास जैसे परमयोगी, आचारवान, सात्विक वृत्ति वाले वीतराग, इन्द्रिय निग्रही सद्गृहस्थ के लिए इतनी लम्बी आयु भोगना कोई असंभव तथा विस्मयजनक बात नहीं है”[6] तो गलत नहीं होगा|

यह बात संत रविदास स्वयं कई जगह स्वीकार करते हैं कि वे बनारस के आस-पास के इलाके में वर्तमान थे—“मेरी जाति कूट बाढ़ला ढोर ढोवंता| नितहि बनारसी आसपास|”[7] बनारस के आस-पास होने का ख़ास बनारास का तो होना विल्कुल नहीं हो सकता| नव्य प्राप्त विवरणों एवं शोध में प्राप्त परिणामों के आधार पर अब इनका जन्म-स्थान ‘मांडूर’ को माना गया है| यह स्थान अब ‘मांडूर’ से ‘मडुवाडीह’ में परिवर्तित हो गया है जो मुगलशराय स्टेशन से डेढ़-दो मील की दूरी पर ग्रांट ट्रंक रोड पर स्थित है| जिसका उल्लेख ‘रैदास रामायण’ में इस प्रकार किया गया है—यथा,

कासी ढिंग मांडूर सथाना, शुद वरण करत गुजराना|

मांडूर नगर लीन औतारा, रैदास सुभ नाम हमारा|”[8]

इस तरह से विद्वानों द्वारा संत रविदास जी का जन्म स्थान ‘मंडुवाडीह’ को माना गया है| आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, बेणीप्रसाद शर्मा, तथा आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद आदि ने ‘मांडूर’ अथवा ‘मंडुवाडीह’ को ही उनका जन्म-स्थान माना है|

        मंडुवाडीह में पिता श्री संतोख दास’ तथा माता कलसीदेवी के घर जन्मे संत रविदास का जन्म-जीवन कई प्रकार की विसंगतियों एवं विरोधाभासों का परिणाम था| विसंगतियाँ इसलिए कि एक तो संत रैदास शूद्र-कुल में जन्म लिए थे[9] जिसे समाज में कमीनी एवं नीच जाति के रूप में लिया जाता है| जो उस समय के समाज में हँसी एवं उपेक्षा के पात्र समझे जाते थे|[10] इस जाति के लोगों को कौंचफली के छूना तक अहितकर और गुनाह समझा जाता था और ऐसा माना जाता था कि जो इन्हें छुएगा उसके पूरे शरीर में मिर्चों जैसी चरमराहट हो जाएगी;[11] व्यवसाय भी इनका कोई आदर्श व्यवसाय न था; मरे हुए जीवों की खाल उतारकर उसे व्यावसायिक आकार देना इनके कर्तव्य एवं इनकी आजीविका का साधन था|[12]

         दूसरे किसी भी व्यक्तित्व का वास्तविक एवं व्यावहारिक धरातल पर विकास कर पाना तभी संभव है जब उसका संरक्षण किसी सुयोग्य व्यक्तित्व की छाया में हो या होना सुनिश्चित हो; यह व्यक्तित्व भारतीय परिवेश में गुरु कहलाता है| गुरु की महिमा का वर्णन संत साहित्य में बड़ी

तल्लीनता से हुआ है| संत रविदास भी गुरु की संगति एवं उनकी छाया को शुभ तथा व्यक्तित्व-विकास के लिए आवश्यक बताया है|[13] गुरु के चरण-शरण को प्राप्त कर पाना आम जन के बस की बात उस समय नहीं थी| इसके लिए संघर्ष की एक व्यापक प्रक्रिया से होकर गुजरना होता था| यह व्यापक प्रक्रिया तब और भी दुरूह तथा कठिन होती होगी जब साधक अथवा शिष्य उस समय-परिवेश के ‘निम्न वर्ग’ में जन्मा होगा|

         रविदास के समय के समाज में भी उच्च वर्ण के गुरु की संगति इतनी सहजता से हो पाना लगभग असंभव ही था| यह इनकी चारुता एवं कर्मठता ही कही जाएगी कि इन्होने गुरु के आदर्श रूप को सामने रखकर गुरु महिमा का यशगान और शिष्य परंपरा का निर्वहन किया| कहीं न कहीं शिष्य परंपरा का यह निर्वहन ही उन्हें आज एक युग-प्रेरणा के रूप में प्रतिष्ठापित कर पाया है| ‘आदि गुरुग्रन्थ साहिब’ में इनके पदों को स्थान मिल पाना शायद इसी गुरु-परंपरा के निर्वहन का प्रसाद है अन्यथा जिसे छूना भी लोग मुनासिब न समझते हों उसके पदों का गुणगान भला क्योंकर करते? संत रविदास के लिए मीरा के गुरु के रूप में प्रतिष्ठित होना भी कहीं न कहीं उसी गुरु-भक्ति का ही परिणाम था|

       फिर भी संत रविदास को न तो गुरू की गुरुता से कोई शिकायत थी और न ही तो अपनी नीच-जाति में जन्म लेने का पछतावा| गुरु-शरण और नीच-महिमा का ही परिणाम था कि संत रविदास को ईश्वर की साक्षात् संगति प्राप्त हो सकी जिन्हें उन्होंने अपने पदों में कई जगह गर्व से स्वीकार भी किया है| वे जहाँ गुरु को दीपक-प्रकाश की मानिंद पथ-प्रदर्शक स्वीकार करते हुए कहते हैं—“गुरु ज्ञान दीपक दिया, बाती दई जलाय| रविदास हरि भगत कारनै, जनम मरन विलमाय|” वहीं तथाकथित नीच मानी जाने वाली चमार कुल में जन्म लेने और ईश्वर से सीधे साक्षात्कार और मिलन से प्रभावित होकर पुनः उसी चमार कुल में जन्म लेने की परिकल्पना भी करते दिखाई देते हैं—कहि रैदास सुनि केसवे, अन्तह करन विचार| तुम्हरी भगति कै कारनै, फिरि ह्वै हौं चमार|” सच भी है यदि नीच कुल में होने से ईश्वर का साथ और विश्वास प्राप्त हो तो फिर ऐसा कौन नहीं होगा जो फिर-फिर वही न होना चाहे|

          संत रविदास का जन्म-जीवन संघर्ष का पर्याय रहा है| इन सबमें यह समझने की बात है कि जितना अँधेरा जन्म-जीवन से सम्बन्धित साक्ष्यों में है उससे कहीं अधिक रोशनी रविदास के व्यक्तित्व में है| सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में ऐसा व्यक्तित्व अभी तक नहीं हुआ जिसने शालीनता पक्ष को न छोड़ते हुए भी वर्चस्ववादी शक्तियों को चुनौती दी हो| संत रविदास का सम्बन्ध ज्ञान की उस उर्वर-भूमि से है जहाँ संवेदनशीलता है, विनयता है और है श्रमसाध्यता का होना| संवेदनशील हो और साथ ही श्रमशील हो, यह दुर्लभ होता है|  संत रविदास में ऐसा वर्तमान था, इसमें कोई दो राय नहीं है|    



[1]सिंहल, डॉ० धर्मपाल, गुरु रविदास : जीवन एवं दर्शन, चण्डीगढ़ : पब्लिकेशन व्यूरो, पंजाब यूनिवर्सिटी, 1993, पृष्ठ-1

[2]आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में सिद्धों और योगियों के सन्दर्भ में लिखते हुए यह कहा था   कि “उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई सम्बन्ध नहीं | वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं | (शुक्ल, रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, काशी : नागरीप्रचारिणी सभा, सम्वत-2014, पृष्ठ-20)

[3]द्रष्टव्य-शर्मा, डॉ० बी० पी०, संत गुरु रविदास-वाणी, नई दिल्ली, सूर्य प्रकाशन, संवत-2035, पृष्ठ-10

[4](सं०) सिंह, डॉ० एन०, रैदास ग्रंथावली, पृष्ठ-41 

[5]मैनी, धर्मपाल, रैदास, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, पृष्ठ-15

[6]आजाद, आचार्य पृथ्वीसिंह, रविदास दर्शन, चण्डीगढ़ : अनुसन्धान विभाग, श्री गुरु रविदास संस्थान, 1973, पृष्ठ-72

[7]द्रष्टव्य-शर्मा, डॉ० बी.पी., संत गुरु रविदास वाणी, दिल्ली : सूर्य-प्रकाशन, संवत्-2035, पृष्ठ-22

[8]द्रष्टव्य-शर्मा, डॉ० बी.पी., संत गुरु रविदास वाणी, दिल्ली : सूर्य-प्रकाशन, संवत्-2035, पृष्ठ-22  

[9]कह रविदास खलास चमारा|

  मेरी जाति विख्यात चमारं |

[10]हम अपराधी नीच घर जनमै, कुटुम्ब लोग करे हाँसी रे |

[11]रैदास तूं कांवचि फली, तुझे न छीवे कोय

[12]जाति भी ओच्छी जनम भी ओच्छा, ओच्छा कसब हमारा |

[13]आइआ दीपकु पेषि करि, नर पतंग अंधियाय |

रविदास गुरु रा ज्ञान बिनु, बिरला कोउ बचि जाय || 


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