Sunday 23 August 2020

जब पथरा गईं उनकी आँखें पैदल चलते - चलते (अमरजीत राम की कोरोजीवी कविताएँ)

 

अमरजीत राम युवा हैं| दृश्य को देखते भर नहीं हैं उससे उपजी विसंगतियों के यथार्थ तक जाते हैं| जाना इस अर्थ में कि यह पता चल सके ऐसा क्यों हुआ? घटनाओं को कविता में ढालने के लिए निरर्थक श्रम नहीं करते, खुद-ब-खुद रूपायित होती जाती हैं| सबके यथार्थ में और उनके यथार्थ में एक फर्क है| जो अधिकांश कवि कल्पना से प्राप्त करते हैं वह अमरजीत के यहाँ स्थाई है| अनुभव और अनुभूति का जो दायरा है इनके यहाँ उसका अपना एक नजदीकी सम्बन्ध है| यह भी कि कवि में एक तड़प है| वह तड़प उसी यथार्थ से निकलकर आई तड़प है जहाँ से तमाम दुखों का जन्म होता है| मैं यदि यह कहूँ कि अभाव के जिस खालीपन से एक युवा टूटता बिखरता है वैसा एक उम्रदराज व्यक्ति के यहाँ नहीं देखा जाता, तो गलत न होगा| यह टूटन और बिखराव अमरजीत की कविताओं के केन्द्र में है| ध्यान रहे युवा का टूटना बिखरना समाज का टूटना और बिखरना है| अमरजीत जब कहते हैं “विकलांगता के इस दौर में/ संवेदनाएं शून्य हो गयी हैं/ हर मोड़ पर लूट , हत्या ,बलात्कार/ मुँह फैलाये खड़ी है और/ एक - एक कर निगलते जा रही है”, तो सामाजिक बिखराव की स्थिति को कहीं गहरे में स्पष्ट करते हैं|

          कोरोना समय में टूटन और सामाजिक बिखराव की समस्याएँ बढ़ी हैं| रिश्तों-सम्बन्धों और व्यावहारिकता को लेकर इधर नए समीकरण बने हैं| बहुत ही घनिष्ठ बेगाने हुए हैं और बेगाने अपनों की भूमिका में आए हैं| यह भी सच है कि समाज में साधारण व्यवहार की जो स्थितियां कोरोना के

पहले थीं, इधर गहरे में प्रभावित हुई हैं| लोगों के अन्दर एक नकार ने जन्म ले लिया है| इस नकार से हज़ारों-हज़ार संकट में आ गए| बेरोजगारी, बेगारी और भूख की समस्या बढ़ने लगी| कवि इस ‘संकट के समय में’ अपनी कविता के माध्यम से लोगों को सचेत करता है और पूछता भी है कि-

          “सोचो तब क्या होगा?/जब संकट के समय में/ इंसानों की तरह

सूर्य मना करेगा रोशनी देने  से/ चाँद शीतलता/

पेड़- पौधे मना करेंगे/ फल - फूल छाया देने से/

बादल पानी/ सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा?/ जब पृथ्वी मना करेगी

अपने ऊपर रहने से/ अग्नि आग देने से/ हवाएं मना करेंगी

हवा देने से/ सोचो तब क्या होगा?/ सोचो तब क्या होगा?

जब नदियां लौट जाएँगी/ जैसे आई थीं

सागर मना करेगा कुछ भी लेने से/ आकाश के तारे टिम - टिमाने से

सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा?/ जब कलियाँ मना करेंगी/ खिलने से/

भौरें गुनगुनाने से/ वसंत मना करेगा आने से

चिड़ियाँ गीत गाने से/ सोचो तब क्या होगा ?

सोचो तब क्या होगा?/ जब बीज मना करेगा

अँखुआने से/ ऋतुएं आने से/ जब पृथ्वी का एक - एक कण

असहमत होगा इंसानों से/ इंसानों की तरह/ फिर सोचो तब क्या होगा?

इस धरती पर जीव से लेकर जंतु तक का एक-दूसरे पर सहयोगात्मक भाव रहा है| फिर नकार के भाव से व्यवहार कब चला है किसी का? ऐसा नहीं है तो फिर कोरोना काल की ‘संकट के समय में’ एक राज्य की सरकार का दूसरे राज्य के नागरिकों को सुविधा न देना, मिल मालिकों का मजदूरों को तनख्वाह न देना, मकान मालिकों का किराए के मकान में सहूलियतें न देना, बैंकों का किश्त से राहत न देना आखिर क्या है? जैसे इन सबों ने आम आदमी को ‘कुछ न देने’ से मना कर दिया वैसे ही प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों द्वारा हमें देने से मना कर दिया जाए, ‘सोचो तब क्या होगा?’ क्या जीवन-गति रुक नहीं जाएगी? क्या हम आप ऐसे ही रह पायेंगे जैसे कि अभी हैं? नहीं न? तो अभावग्रस्त और साधनहीन लोग कैसे रह पा रहे होंगे, कल्पना करके देखिये| 

इधर अभावग्रस्त और साधनहीन ऐसे लोगों के लिए मीडिया और सुविधा-सम्पन्न लोगों द्वारा नया जुमला गढ़ा गया है| भूख से बेजार और अभाव से हताश लोग गांवों की तरफ लौटने को मजबूर हुए हैं या हो रहे हैं| यह एक विसंगति है जो सुधा-सम्पन्न की नकार से उत्पन्न हुआ है| उस नकारवादी प्रवृत्ति पर चोट करने की अपेक्षा ऐसे लोग मजबूर मजदूरों की वतन ‘वापसी’ का नाम दे रहे हैं, जो गलत है| गलत इसलिए भी है कि एक तो घर में ही प्रवासी बना दिए गए बड़ी चालाकी से और दूसरे ‘घर’ बेघर होने के लिए मजबूर कर दिए गए| अमरजीत राम इस विसंगति पर करारा प्रहार करते हैं और यह मानते हैं कि जब तमाम समस्याएँ मुंह बाए खड़ी हैं ऐसे समय में उसे ‘वापसी’ की बात कहना कहाँ तक उचित है? यथा-

“चलते - चलते छिले पाँवों और

अंगूठों को छोड़ चुके नाखूनों के घाव/ अभी भरे नहीं/

लाठियों की चोट का निशान

अभी हरा है/ कपोलों से लुढकते आंसूओं की लकीरें/ अभी मिटी नहीं

 

श्मशानों पर जल चुकी हड्डियों की राख/ अभी धुली नहीं

कब्रिस्तानों पर जलते दिए/ अभी बुझे नहीं/

रास्तों में फंसे श्रमिक/ अभी घर लौटे नहीं

किसानों का अनाज/ अभी भी खेत में पड़ा है

 

विश्वव्यापी विपत्ति का बेनूर अँधेरा डटा है/ अभी भी वक़्त बैठा है

हर कन्धों पर चाबुक लिये और/ तुम हो कि वापसी की बात करते हो|”

          यह भी समझना जरूरी है कि व्यक्ति जब ‘वापसी’ करता है तो पूरी तैयारी से करता है और जब समस्याओं से घिरकर भगता है तो ‘विपत्ति’ के वशीभूत हो सब कुछ छोड़कर आता है| यहाँ वापसी न होकर छोड़कर आना है, जिसे समझने का प्रयास नहीं किया गया, नहीं किया जा रहा है| यह ‘विश्वव्यापी विपत्ति’ एक कठिन समस्या बनकर आई है जिसमें कवि अपने दुखों को भूल गया है| वह

भूल गया है अपनी सुख-सुविधाओं को| उसे कुछ दिखाई दे रहा है तो यही कि समस्याएँ बढती जा रही हैं| आम आदमी, दलित, मजदूर ठगे जा रहे हैं| कवि आक्रोशित है और उसी आक्रोश में आवाज लगाता है-“ओ मेरे गूंगे , बहरे , भूखे , नंगे दलित देश/ मेरे अनाम पुरखों के हड्डियों को कंपा देने वाले शोषकों/ कहाँ मर गए तुम ?/ किस कुत्ते , सूअर के शारीर में/ प्रवेश  कर गयी तुम्हारी आत्मा/ अब क्यों नहीं सुनते/ मेरी आत्मा की आवाज़?” लोग निकाले जा रहे हैं, मारे जा रहे हैं, भगाए जा रहे हैं और तुम हो कि अपने दरबे में घुसे क्वारंटाइन हुए पड़े हो? निकलो और देखो किस तरह लोग असहाय हुए पड़े हैं|

कवि तमाम विसंगतियों से इतना दुखी है कि कोरोना काल में कहीं भी व्यक्तिगत दुखों को जाहिर नहीं होने देता| ऐसा भी नहीं है कि वह दुखी नहीं है लेकिन सामाजिक दयनीयता के वास्तविक चित्र उसे अधिक परेशान करते हैं| वह देखता है कि “कुछ तो मरे विषाणु से/ कुछ मर गए भूखे – प्यासे/ कुछ फांसी पर झूले और/ कुछ कट गए पटरी नीचे/ रोटी के खातिर निकले थे/ छूट गया रोटी का साथ|’ रोटी की खातिर आए लोगों से रोटी का साथ छूटना तो हुआ ही यह भी हुआ कि यहाँ बहुत से लोग घर से बेघर हुए| दर-ब-दर हुए| दीनता और दयनीयता की नई तस्वीरें सामने आईं| कवि वेदना के आधिक्य से हतप्रभ और मायूस हुआ| जब सामाजिक परिवेश का जायजा लेने लगा तो यह सच्चाई निकल कर आई-“इस आतंक से/ छिन गए कितनो के प्रेम/ लाखों - करोङों की रोजी – रोटी/ हुए कितने विधुर – विधवा/ कितने मातृविहीन/ ओह ! और ओ बेहद मासूम बच्चें/  जिनके होठों से माँ के स्तन का दूध भी नहीं धुला था|” भला इन बच्चों ने, जिन्हें अभी देश-दुनिया को देखना था, क्या बिगाड़ा था किसी का? ‘विधवा-विधुर’ होते लोगों ने ऐसा कब सोचा था?

कवि यह भी देखता है कि कैसे उसके लोक का सौन्दर्य इस कोरोना ने छीन लिया? लोक-सौन्दर्य कवि की दृष्टि में नायक-नायिका का प्रेम-प्रलाप न होकर ‘बुनकरों के करघे’ और ‘राजगीर के करनी-बसुली’ हैं| हकीकत यही है कि स्व-कौशल के लिए विख्यात लोक में “अब तो न बुनकरों के करघे की आवाज सुनाई पड़ती/न राजगीर के करनी - बसुली की संगीत/ इस कठिन वक़्त में” हर तरफ एक मरघट शांति छाई हुई है| इस मरघट-शांति में बहुत से लोगों का टाइम नहीं पास हुआ तो कितने ही लोग अपने घरों से ऊबे, थके और हारे रहे| कवि अकर्मण्य होने की अपेक्षा अपनी सामाजिक-सक्रियता बढ़ाता है और भूख-प्यास से लिपटे जनों के पास जाने का साहस करता है| साहस इसलिए क्योंकि जिन बस्तियों की तरफ उसकी निगाह है उधर लोग जाना उचित नहीं समझते| दो पल खड़े होना अपनी तौहीनी समझते हैं| क्यों? क्योंकि उनके पास भूख और प्यास छोड़कर कुछ और है ही नहीं|

कवि अपनी आँखों से देखता है कि जिस कोरोना काल में लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं, सोशल और फिजिकल दूरी पर बहस किए हुए हैं, मिनट-मिनट पर सेनिटाइज हो रहे हैं, पग-पग पर हाथ धो रहे हैं उसी कोरोना समय में ‘वे दुखी हैं’, निराशा और हताशा में डूबे परेशान हैं| ये सच तो विल्कुल कल्पना नहीं है कि “हम हथेलियों पर साबुन मल रहे हैं/ वे दुःखी हैं/ झोपड़ियों में आँसू मल रहे हैं/ हम ख़ुशी के दीप जला रहे हैं/ वे अपने सपने/ हम हथेलियों को रगड़ - रगड़  चमका रहे हैं/ वे अपने खुरदरे भाग्य पर तरस खा रहे हैं/ हम बैठे घरों में रस - मलाई काट रहे हैं/ वे सड़कों पर सरेआम धूल फांक रहे हैं|”  हो सकता है ये सच्चाई आपके गले न उतरे लेकिन महसूस करिए कि ‘अपने सपने’ को जलते देखना कितना कठिन होता है? कितना कठिन होता है ‘अपने खुरदरे भाग्य पर तरस’ खाना यह उनसे पूछिए जो ‘सडकों पर सरेआम धूल फांक रहे हैं|’ कुछ लोग इन पर हँस रहे हैं तो कुछ लोग असभ्य और जंगली करार दे रहे हैं| कोई मूर्ख तो कोई जानवर करार दे रहा है| कवि लोगों की इस प्रवृत्ति से दुखी है| इस कोरोना आपदा के समय जिन्हें लोग असभ्य, जंगली और जानवर समझ रहे हैं कवि-दृष्टि में “वे जानते हैं/ प्रेम का अर्थ और/ प्रेम की परिभाषा/ पैदा हुए हैं/ इंसानियत की कोख से/ विपदाएं उन्हें विरासत में मिली हैं/ वे उदास जरूर हैं/ लेकिन हारे नहीं|”

एक वाक्य कितना परेशान करता है हमें-“विपदाएँ उन्हें विरासत में मिली हैं” धन, ऐश्वर्य, रुतबा उनके हिस्से कब रहा? बावजूद इसके वे संघर्ष कर रहे हैं| अभाव की खाईं में पैदा हुए और उसी को भर रहे हैं फिर भी हारना उन्होंने सीखा ही कब? यह बात और है कि उनके संघर्ष को देखते हुए

लोगों ने उन्हें ‘इंसान’ समझना छोड़ दिया| इस ‘समझने’ में हालांकि ‘भूख का शास्त्र’ काम करता है और वह लौह पुरुष, इस्पाती, पत्थर पता नहीं क्या-से-क्या बना दिया जाता है लेकिन ऐसा कहने वालों को कवि बड़ी शालीनता से जवाब देता है; पढ़िए इस कविता को –“लोग कहते हैं/ वे इस्पाती हैं/ लोहे के बने हैं/ जानते हैं ढ़लना  समय से/ लोहे की तरह/ वे पत्थर से पानी निकालते हैं/ वे/ नाप देंगे/ समुद्र/ आकाश/ पृथ्वी/ एक ही बार में/ मैं कहता हूँ/ ओ इंसान हैं|” उन्हें भी दुःख होता है| चोट लगती है| वे भी रोते हैं| लोग नहीं समझते क्योंकि सम्पन्नता का ज्वर उनके सिर पर सवार होता है|

महानगरों ने मनुष्य के संघर्ष को कभी महत्त्व नहीं दिया| इसीलिए महानगरों में इंसान नहीं रहते यह इसी कोरोना काल में स्पष्ट हुआ| ‘दिल्ली दूर है’ जैसे मुहावरे ऐसे नहीं बने हैं| इनके बनने में इंसानियत के संकीर्ण होने और मनुष्य के अमानवीय होने की कहानी छिपी हुई है| बचपन में मुहावरे की समझ होती ही कितनी है लेकिन इधर कवि इस कहानी के भाव को कहीं गहरे में समझता है और अभिव्यक्त करता है| 

लोग कहते हैं/ दिल्ली दूर है/ माँ भी कहती थी

साफ़ साफ़/ मुहावरे की भाषा में

मैं समझा/ लेकिन देर से ।

 

जब पथरा गईं उनकी आँखें/ पैदल चलते - चलते

जब सूख गए/ उनके कप कपाते होंठ बिन पानी के

जब ऐंठ गईं/ उनकी आँतें भूख की आग से

जब सो गए/ दूध मुँहें बच्चें कन्धों से चिपक कर

 

जब दिखने लगा/ उनके चेहरों पर

महामारी का दहशत/ और हो गए

किसी कार दुर्घटना का शिकार/ चलते - चलते

मैं समझा/ लेकिन देर से।

इस देर से समझने में कवि का भोलापन नहीं आम आदमी की नादानी और सबको अपना समझ लेने की भूल दृष्टिगत होती है| यह वही भूल है जिसमें पड़कर इधर लगातार पलायन जारी था| कितने तो

विवशता बस इधर आए थे लेकिन बहुतों को शौक भी था| इस शौक में अपनों को त्यागकर दूसरों को अपनाने की वृत्ति स्पष्ट थी, जो इधर टूटी है| इधर यह समझ में आया है कि ‘शहर’ कभी हमारा नहीं हो सकता जितना ‘गाँव’ अपना बनकर रहता है| कितने ही साधनहीन और अभावग्रस्त लोग क्यों न हों, शहरों की अपेक्षा गाँव आत्मीयता से स्वागत करता है| कवि गाँव कविता में स्वयं इस बात को स्वीकार करता है-

“जब कभी लौटता हूँ/ शहर से गाँव

अपनों के सुख - दुःख से

होठों पर जगती है मुस्कान

फिर आँखें भीग जाती हैं ।

रोमांचित हो उठती हैं बाहें

मिलते ही गाहे - बगाहे

जब ओ पूछते हैं अपना हाल

मिट जाता है सारा मलाल

फिर आँखें भीग जाती हैं|”

इधर तो आँखें भीगी ही नहीं रोई भी हैं| कोरोना में में लॉकडाउन संकट से दुःख तो है पर अपनों से अपनों के बीच होने की ख़ुशी भी है| यह ख़ुशी न होती तो बस्ती की बस्तियां अब तक स्वयं को समाप्त कर चुकी होतीं|

अमरजीत राम इधर लगातार सक्रिय रहे और कोरोना समय की संगति-विसंगति पर अपनी कवि-दृष्टि जमाए रखे| इससे एक तो उनके कवि-हृदय को एक दिशा मिली दूसरे ‘गूंगे, बहरे, भूखे, नंगे दलित देश’ की सच्चाई निकलकर सामने आई और लोगों को यथार्थ परिवेश की विसंगतियों पर सोचने के लिए विवश होना पड़ा| निश्चित ही एक कवि इस संकट के समय में जो कर सकता है अपनी तरफ से अमरजीत ने वह किया| युवा कविता के जिस स्वर से इधर उम्मीदें बढ़ी हैं उनमें अमरजीत एक नाम तो हैं और इधर इन्होंने अपनी जगह को बहुत जिम्मेदारी से कब्जाया भी है| यह समकालीन कविता के लिए विशेष है| 

1 comment:

Unknown said...

करोना काल ने हमें जिस विपत्ति में डाला है उसमें सबसे ज्यादा निम्न वर्ग प्रभावित हुआ है। दिन भर मेहनत करके अपने परिवार के लिए उसी दिन की रोटी कमाने वाला यह मजदूर प्रवासी वर्ग किन यातनाओं का सामना करता हुआ अपने घर को लौटने के लिए मजबूर हुआ। हममें से बहुत से लोग हैं उन्हें देख कर भी अनदेखा कर देते हैं हम संवेदनाशून्य चाहे ना हो पर हम किसी मुसीबत में पड़ना नहीं चाहते। सरकार के द्वारा लॉकडाउन का निर्णय लेने से पहले अगर उस पर गंभीरता पूर्ण विचार किया होता तो शायद निम्न वर्ग के लोगों को ऐसी मुसीबतों का सामना ना करना पड़ता। ऐसे में कवि अमरजीत राम के द्वारा जिस तरह से यथार्थ मार्मिक स्थितियों का वर्णन कर उनके लिए जिस संवेदना को प्रकट किया गया है प्रशंसनीय है। अमरजीत राम की कविताओं सूक्ष्म विश्लेषण। शुभकामनाएं