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यह लगभग दूसरा अवसर है जब भाषा एवं
साहित्य से जुड़े मुद्दे पर मैं हतप्रभ हूँ| एक बार और लिख चुका हूँ और आज जब लिखने
की कोशिश में हूँ तो कहीं न कहीं उन्हीं मुद्दों पर खुद को केन्द्रित कर रहा हूँ|
सही कहूं तो भाषा एवं साहित्य की तरफ उन्मुख होने वाले युवाओं को पिछले तीन वर्षों
से (वैसे तो इसे आप छः वर्ष भी कह सकते हैं) एकदम करीब से देख रहा हूँ| इसलिए भी कि
विभाग में एम.ए. हिन्दी की तरफ उन्हें आकर्षित करने में लगा हुआ हूँ| अन्य स्ट्रीम
में जहाँ भीड़ लगी हुई है (महँगी फीस होने के बावजूद) भाषा एवं साहित्य का कोना
खाली जा रहा है| दिया लेकर खोजने पर भी विद्यार्थी इधर का रुख नहीं कर रहे हैं| फीस
आदि तो महज कहने भर की बातें हैं| अंग्रेजी को छोड़ दिया जाए तो भारतीय भाषाओं की
लगभग वही स्थिति है| पंजाब प्रदेश में पंजाबी के लिए भी उपयुक्त विद्यार्थी
मुश्किल से मिल पा रहे हैं तो हिन्दी का आखिर क्या कहें...?
क्या वजह है कि ये संकट इधर के दिन
गहराता जा रहा है? हर कोई या तो प्रोफेशनल कोर्सेज करवाना चाहता है या फिर तकनीकी|
टीचर या प्रोफेसर होने का जो क्रेज था वह न जाने कहाँ गुम होता जा रहा है? भाषा
वैज्ञानिक आदि होने की बात तो जैसे किसी गुजरे जमाने की बात लगने लगी है| एडमिशन
कॉर्नर खुले तो हैं लेकिन कोई उधर पूछताछ करने के लिए भी नहीं दीखता| पढ़ने या
एडमिशन लेने की बात तो खैर जाने ही दीजिये|
कुछ कारणों पर हम चर्चा कर सकते हैं| इसे महज चर्चा ही समझें कोई दावा नहीं| स्कूली स्तर पर जिस तरह से भाषाओं को सीमित किया जा रहा है उस पर ज्यादा दिन तक हम चुप रहे तो परिणाम और अधिक भयावह होगा| पंजाब जैसे प्रदेश में पंजाबी को सुरक्षित रखने के लिए हिंदी को हाशिए पर धकेला जा रहा है| अन्य किसी भाषा को सीखने की बात जैसे स्वप्न है यहाँ| किसी का पारंपरिक लगाव हो तो वह जाने दीजिये| हिंदी के क्रेज और विस्तार को लेकर यदि आप गम्भीर नहीं हैं तो सही अर्थों में पंजाबी को क्षति पहुंचा रहे हैं|
एक बहुत ही करीबी मित्र से मेरी चर्चा हो
रही थी पिछले दिनों एम.ए. हिंदी में एडमिशन को लेकर, जो पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के
किसी स्कूल में हिंदी के अध्यापक हैं, उनका कहना था कि हिंदी जैसी भाषा को पढाने
के लिए स्कूलों में कोई अध्यापक नहीं हैं| जो हैं उनका प्रमोशन नहीं हो रहा है|
नयी रिक्तियां नहीं निकाली जा रही हैं| हर कोई चाहता है कि आने वाला हर बच्चा महज
पंजाबी में शिक्षा ग्रहण करे जिसकी वजह से लोग प्राइवेट स्कूलों में भागना ज्यादे
उचित समझ रहे हैं| वह चिंतित हो रहे थे और कारण पर कारण बता रहे थे| मैं सुन रहा
था तो भाषा एवं साहित्य की गति-दुर्गति पर कभी खीझ रहा था तो कभी खुद पर पश्चाताप
कर रहा था|
इधर आया भी तो भाषा एवं साहित्य की दुनिया में क्यों आया? क्यों हिंदी जैसी निहायत ही दीन-हीन भाषा का साथ पकड़ा? राजनीतिशास्त्र इतना तो अच्छा था उधर ही रुख करना था| अंग्रेजी में भी तो हाथ-पैर मारा जा सकता था? इससे अच्छा तो होता कि कम से कम समाजशास्त्र या अन्य किसी विषय में उलझा होता तो शायद इस दयनीयता से तो वंचित होता न? ये प्रश्न और ये पश्चाताप निहायत ही मेरे नहीं अपितु लगभग उन सभी के हैं जो किसी न किसी रूप में हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अब पदार्पण कर रहे हैं|
दयनीय स्थिति तो हिंदी भाषी प्रदेशों में
भी शुरू हो चुकी है| मैं तो फिर भी अहिन्दी भाषी क्षेत्र में रह रहा हूँ| जहाँ रह रहा हूँ वहां के विषय में यदि विचार
करूँ तो यहाँ का परिदृश्य धीरे-धीरे बहुत संकीर्ण होता जा रहा है| ‘विज्ञापन और
रील’ के इस युग में ज्ञान और विद्वता की
बात न तो कोई कर रहा है और न ही तो सुनना चाहता है| हर किसी को एक अदद-सी नौकरी
चाहिए| चरित्र-वरित्र की बातें करके अब युवाओं का मन बहलाने का समय भी लगभग लद
चुका है| ‘रुपये’ की चमक ने ‘चरित्र’ की दमक को क्षीण कर दिया है| वेबस माता-पिता
जमीन आदि बेचकर बच्चे को विदेश भेज रहे हैं| जो थोड़ी भी समझ रख रहे हैं किसी न
किसी छोटी-मोटी नौकरी का दामन पकड़ लिए हैं| वह नहीं भी कुछ कर रहे हैं तो घर की
ज़रूरत भर चीजों की ईएमआई तो भर ही रहे हैं|
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मुद्दे और भी बहुत सारे हैं लेकिन ज़रूरी
है कि समाधान भी तलाशा जाए| ठीक है कि बच्चे प्रोफेशनल कोर्सेज की तरफ उन्मुख हो
रहे हैं, यह भी ठीक है कि अधिकांश युवा विदेशों का रुख कर रहे हैं| कुछ व्यापार की
तरफ भाग रहे हैं नौकरी का लालच छोड़कर| इन सब का अर्थ यह तो नहीं है कि हम हाथ पर
हाथ धरे बैठे रहें और दुनिया भाषा और साहित्य से विमुख होकर अन्य माध्यमों की तरफ
आकृष्ट होती जाए? नहीं| हमें कुछ विचार करना होगा कि स्थिति को सुधार की तरफ कैसे
लाया जाए? जो है वह तो है ही होना क्या चाहिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है|
एक बात तो तय है कि यह दौर सप्रसंग
व्याख्याओं का दौर नहीं है| पहले भी कई बार बोला और लिखा जा चुका है| आलोचनात्मक
मूल्यांकन का दौर भी लगभग जाता रहा है| सही मायनों में यह विकल्पों का दौर है|
आपको भी वही करना पड़ेगा जो लोग चाहते हैं| हम-आप भी यदि गम्भीरता से विचार करें तो
पायेंगे कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों से मोह-भंग हुआ है लोगों का| हिंदी पढ़ते और पढ़ाते
समय आपको महज सप्रसंग व्याख्या या आलोचनात्मक मूल्यांकन में सिमिटकर भी नहीं रहना
चाहिए| युवाओं को धीरे-धीरे उद्यम की तरफ लेकर आइये|
आप कहेंगे कि करना क्या होगा तो उसके लिए
कुछ उपाय हमारे पास हैं जिन्हें देखा और सुना जा सकता है-
हर सम्भव कोशिश करिए कि स्किल बेस्ड होकर
पाठ्यक्रम का निर्माण कीजिये| कबीर, सूर, नानक के दोहे या काव्य गलत नहीं हैं
लेकिन उनकी सप्रसंग व्याख्या करने की जगह उन पर रील या वीडियो बनाकर कैसे बाज़ार में
लाया जा सकता है, यह सिखाइए और इस दृष्टि से अपने पाठ्यक्रम का निर्माण भी कीजिये|
आधुनिक हिंदी कवियों पर भी आप यह प्रयोग कर सकते हैं| ऐसा करते समय बच्चों को
ब्लॉग लेखन और यूट्यूब क्रिएशन की दुनिया में लेकर जाइए|
निःसंदेह आपको अपने छवि के बाहर जाकर
झांकना होगा और लोगों के मन-मस्तिष्क में जो छवि बन चुकी है उससे उबरना होगा|
साहित्य और भाषा के क्षेत्र में कार्य करते हुए विज्ञापन की दुनिया में ताक-झाँक
कीजिये| किस तरह से विज्ञापन बनाया जा सकता है और कैसे उन्हें अपनी दुनिया में
लागू करते हुए बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित किया जा सकता है, ऐसी स्ट्रेटजी पर
कार्य करिए ताकि अधिक से अधिक झुकाव इधर हो लोगों का| चार-छः बच्चों का हर वर्ष
चयन करवाइए कहीं न कहीं से ताकि वे आपके कौशल का प्रचार करें| इसके लिए राजनीतिक
दलों का सहारा ले सकते हैं तो लीजिये| आपके सोशल मीडया से लेकर स्थाई तौर भी लोगों
को लेखक आदि की आवश्यकता पड़ती है| इधर आसानी से उपलब्धता सुनिश्चित करवाई जा सकती
है|
प्रयोजनमूलक हिंदी आप पढ़ा रहे हैं अच्छा
कर रहे हैं| उस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है| शब्दावली आदि पर ठीक तरीके से
कार्य करने की ज़रूरत है| प्रयोजनमूलक हिंदी को थोड़ा-सा और विस्तार देने की ज़रूरत
है| संभव है तो डिजिटल मार्केटिंग और ए.आई. आदि को भी जोड़िये उसमें| बच्चों
को टाइपिंग, एक्सेल आदि का प्रशिक्षण भी दीजिये और इसे भी प्रयोजनमूलक हिंदी का
माध्यम बनाइए| ऐसा करने से नयी आ रही कम्पनियों में आपके बच्चे जॉब हाशिल करेंगे| अमेज़न,
फ्लिप्कार्ट, इजीडे, मोर, बेस्टप्राइस जैसी ऑनलाइन/ऑफ़लाइन कंपनियों में बच्चों को
नौकरी मिलेगी यदि आपके पाठ्यक्रम से तो एडमिशन के समय रोने वाली स्थिति से आप
मुक्त होंगे|
व्यक्तित्व निर्माण के लिए अलग से
पाठ्यक्रम निर्धारित करने की ज़रूरत है| राजनीतिक क्षेत्रों में साहित्य का प्रयोग
किस तरह से किया जा सकता है हो सके तो इस पर सिर खापाइए| खपा सकते हैं तो इस पर भी
सिर मारिये कि भाषण-कला में कैसे सक्षम हुआ जा सकता है? भाषा का उपयोग
नीति-निर्माण और प्रचार-प्रसार की दुनिया में करते हुए किस तरह की दुनिया बनाई जा
सकती है, इस तरह के पाठ्यक्रम भी आपको संचालित करने होंगे| ऐसा करने से उन युवाओं
का आकर्षण आपकी तरफ बढ़ेगा जो आपको छोड़कर मॉस कम्यूनिकेशन आदि की दुनिया में भागे
जा रहे हैं| बोलने, लिखने और प्रस्तुत करने के तौर-तरीकों पर यदि कोई पाठ्यक्रम
लाएंगे तो लोग निःसंदेह आकर्षित होंगे|
आप अकादमिक दुनिया में रहते हुए इंडस्ट्री
को नकारने का दुःस्वप्न न पालिए| प्रकाशन और मुद्रण का क्षेत्र पूरी तरह से सिर्फ
और सिर्फ आपका है| भारतीय विश्वविद्यालयों में कितने ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहाँ
इस तरह के पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं? अभी पिछले दिनों ही प्रकाशन इंडस्ट्री में
सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया गया है| क्या आप बताएँगे कि ऐसा कहाँ शुरू हुआ है?
नहीं पता होगा? पता करिए| नैशनल बुक ट्रस्ट ने शुरू किया| आपको किसने रोका था? आप
डिप्लोमा और डिग्री के क्षेत्र में कदम बढ़ा सकते हैं| ऐसा फिलहाल नहीं करेंगे
क्योंकि फिर एक्सपर्ट कहाँ पायेंगे? आपके जो प्रोफेसर पैसा देकर किताबें प्रकाशित
करवा रहे हैं वह भला प्रकाशन की दुनिया की तकनीकी सीखने का उद्यम क्यों करेंगे?
नहीं करेंगे तो मारे जाएँगे|
इस तरीके का पाठ्यक्रम निर्मित करके बड़े
रोजगार के क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाया जा सकता है| आप यह कह रहे हैं कि इस दुनिया में
अब नौकरी नहीं है जबकि अन्य विभाग के बच्चे इस दुनिया के न होते हुए भी विशेष कर
रहे हैं| वजह तो साफ ही है कि आप मेहनत से बचना चाहते हैं कि कहीं यदि पाठ्यक्रम
में बदलाव किया गया तो उसी स्तर का मेहनत भी करना पड़ेगा तो बैठकर करोड़पति बनने का ख्वाब
देखना इस युग की विशेषता नहीं है, निर्लज्जता है| आप भले ख़ुशहाल जीवन बिता ले
जाएँगे लेकिन आपका भविष्य आपके सामने गाली देगा, सुनने के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा
न होगा पास में| यह ख्याल रखने की ज़रूरत है|
सैद्धांतिक (Theoretical)
पाठ्यक्रमों की अपेक्षा व्यवहारिक पाठ्यक्रमों पर जोर देंगे तो
विद्यार्थी घर बैठने के स्थान पर आपके पास आएँगे| घेरकर अटेंडेंस लगाने की मूर्खता
से निजात तो पायेंगे ही नॉन अटेंडिंग जैसे वायरस से भी मुक्त होंगे| नॉन अटेंडिंग
का जो ट्रेंड इधर के दिनों विकसित हुआ है उसने और अधिक नुक्सान पहुँचाया है
पारंपरिक शिक्षण पद्धति को| विद्यार्थी की
पहली कोशिश होती है कि वह कैम्पस में न जाए और उसे किसी भी तरह से डिग्री मिल जाए|
कुछ कॉलेज अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ऐसा कर भी रहे हैं लेकिन उन्हें नहीं
पता कि वे आने वाले दिनों में खुद को समाप्त करने के लिए कब्र तैयार कर रहे हैं|
@चित्र सभी गूगल से लिए गये हैं
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