इधर 2018 में बड़ी संख्या में पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है|
फेसबुक, व्हाट्सएप जैसी त्वरित विधाओं की
सक्रियता में भी पुस्तकों के प्रति प्रेम पाठकों का बना हुआ है| अमेजन, फ्लिप्कार्ट जैसे माध्यमों की वजह से
पुस्तकों की पहुँच और भी अधिक आसान हुई है| पहले की अपेक्षा
साहित्यिक कृतियों के प्रति पाठकों की गंभीरता बढ़ी है| रचनाकारों
ने अपनी जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है| कुछ किताबें इधर
कविता और कहानी विधा की जो मैंने पढ़ी और जिन पर चर्चा होना जरूरी था, आपके सामने हैं|
किताबें
संभावनाशील दुनिया की तलाश में हमें सक्रिय होने की प्रेरणा देती हैं| किताबें बताती हैं कि किस तरह हम अपने परिवेश और समाज को देखें| रूढ़ हो चुकी परम्पराओं में बदलाव की जमीन किताबें ही तैयार करती हैं|
हमारा रहन-सहन पुस्तकों की दुनिया से होकर व्यावहारिक होता है|
जहाँ पुस्तकें नहीं होतीं वह वहां रचनात्मकता नहीं होती| जहाँ रचनात्मकता नहीं होती वहां यथास्थिति से निकलने के प्रयत्न न के
बराबर होते हैं| समय और समाज की परख के लिए सृजन की
अनिवार्यता को प्रमुखता देना गतिशील मानवीय समाज की जिम्मेदारी है जिसे हर समय के
जागरूक लेखकों ने बखूबी निभाया है| इस दृष्टि से हिंदी
साहित्य के लिए सन् 2018 का साल बड़ी रचनात्मकता का साल रहा
है| राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव के प्रति जितना आक्रोश आम जन में देखा गया है
उससे कहीं अधिक चिंता चिंतनशील बौद्धिक वर्ग में भी रही है, यह
इस वर्ष प्रकाशित पुस्तकों के आधार पर कहा जा सकता है| अन्य
प्रदेशों के साथ-साथ पंजाब की धरती हिंदी सृजनशीलता के प्रति अधिक गंभीर रही है|
यहाँ के साहित्यकारों ने भी बड़े स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है|
कविता,
गीत-नवगीत, उपन्यास, कहानी,
लघुकथा, यात्रा-संस्मरण, आलोचना, साक्षात्कार आदि विधाओं का विहंगम अवलोकन करने से पता चलता
है कि यूं तो इस वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं लेकिन
इनमें से कुछ ऐसी हैं जिनको पढ़ा और समझा गया| उन पर चर्चा
करना वाजिब लगता है| उनमें से कुछ तो पुराने और मझे हुए
रचनाकार रहे हैं जिनके संग्रहों का इंतज़ार पाठकों को हर समय रहता है लेकिन कुछ ऐसे
भी रचनाकार इस वर्ष प्रवेश किये जिनकी उपस्थिति के कारण पाठकीय संस्कृति में नया
उछाल देखने को मिला है| इस वर्ष के रचनाकारों में माधव कौशिक,
ज्ञानप्रकाश विवेक, अनिरुद्ध सिन्हा, बृजनाथ श्रीवास्तव, देवेन्द्र आर्य, मधुकर अष्ठाना, डॉ. इन्दीवर पाण्डेय, डॉ. अशोक कुमार, कौशल किशोर, चंद्रेश्वर,
तरसेम गुजराल, गणेश गनी, प्रभाकर सिंह, जयप्रकाश मानस, प्रेम
नंदन, आरती तिवारी, वंदना शुक्ल,
तनूजा तनु, रश्मि बजाज, कमलेश
भारतीय, कमलेश आहूजा, विनोद कुमार
शर्मा, अनिल कुमार पाण्डेय, खुशवीर
मोठसरा, कात्यायनी सिंह, पंखुरी सिन्हा,
पूरन मुद्गल, अशोक भाटिया आदि की रचनाओं को
विशेष रूप से देखने-पढ़ने-समझने का अवसर मिला|
कविता की जमीन पर “कैंडल मार्च” की वेबसी के साथ समय की
निरंकुशता और मनुष्य की पशुविक प्रवृत्ति की विसंगतियों को लेकर माधव कौशिक पाठकों
के सामने उपस्थित हुए हैं| यह संग्रह इसी वर्ष यश प्रकाशन,
नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसमें 86
कविताएँ शामिल हैं| इस संग्रह में केन्द्र समाज है तो परिधि
में परिवेश और प्रकृति| कविताई की सहज सम्प्रेषण के साथ यहाँ
जन, जीवन और कविता को लेकर कवि का पक्ष स्पष्ट है| स्पष्टता में एक तरलता है, प्रवाह है, रचनाधार्मिता की श्रमशील निर्वाह है| इस तरह का
निर्वाह समकालीन हिंदी कविता में कम दिखाई देता है| जो है वह
निश्चित ही भीड़ से अलग है और अलग होने में पूरे समय के वैभवशाली होने की सम्भावना
बढ़ गई है| ऐसा इसलिए क्योंकि “भीड़ में
से जब भी/ कोई इक्का-दुक्का आदमी/ सभी कतारें तोड़कर/ अलग से चलने लगता है/ तो
निरीह पगडण्डी भी/ राजमार्ग लगने लगती है|” पगडंडियों पर
चलते हुए राजमार्ग बना जाने की चाह इधर की कविताओं का मूल उद्देश्य है| माधव कौशिक की यह कविता संग्रह इस उद्देश्य की सार्थक अभिव्यक्ति है|
वरिष्ठ कवि कौशल किशोर की
कविता संग्रह 'नयी शुरुआत' बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित है|
108 पृष्ठों की इस पुस्तक में 1969 से लेकर 1976 तक की कुल 48 कविताएँ शामिल हैं| कौशल किशोर वाम चेतना के प्रगतिशील विचारधारा से गहरे में जुड़े रहे हैं
जिसका प्रकाभाव इस संग्रह में दिखाई देता है| यह इनके अनुभव
की सघनता ही है कि अतीत की विसंगतियों में भी वर्तमान का अक्स नजर आता है| इस संग्रह को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि कौशल किशोर ए.सी. रूमों में बैठकर
कविताई करने वाले कवियों में नहीं हैं अपितु लोक-जीवन के अंतस्तल में विचरण करने
वाले उन कुछ कवियों में से हैं जो सम्वेदनाओं की अभिव्यक्ति जीवंत दस्तावेजों के
माध्यम से करते हैं|
युवा मन के उच्छ्वास में 'मैं बनूँगा गुलमोहर' की
इच्छा लिये सुशोभित सक्तावत की कविता संग्रह लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई है| 136 पृष्ठों की इस कविता
संग्रह में इस कविता संग्रह को पढ़ते हुए आप अपने युवावस्था में पहुंचकर प्रेम के
स्वप्न संजोने के लिए बाध्य हो सकते हैं| रंगीन कल्पनाओं में
खोकर भविष्य को सुखद अनुभूतियों से भर देने के लिए लालायित हो सकते हैं| कविताई के साथ-साथ चित्रात्मक अभिव्यक्ति की जो छटा इस कविता संग्रह में
देखने को मिलती है, वह समकालीन हिंदी कविता में विरल है|
सहज और स्वाभाविकता विशेष रूप से दिखाई देती है इस संग्रह में|
हलांकि अतिशय भाउकता में कवि कई बार कल्पना की ऊँची उड़ान भरते हुए
भटकन के नजदीक पाया जाता है लेकिन कहन की नवीनता सहर्ष बंध जाने के लिए विवश भी
करती है|
बोधि प्रकाशन, जयपुर से 'कुछ लापता
ख्वाबों की वापसी' लेकर आई हैं
डॉ. ऋतु त्यागी| 132 पृष्ठों की इस कविता संग्रह में कुल 115 कविताएँ हैं| कविताएँ छोटी-छोटी हैं लेकिन दिमाग को
बेधते हुए सीधे हृदय को स्पर्श करती हैं| अभाव, प्रेम, संघर्ष और जीवन-जिजीविषा को समर्पित कविताएँ
सहज ही प्रेरित करती हैं अंतिम पृष्ठ तक विचरण करने के लिए| ऋतु
त्यागी को पढ़ते हुए हम अपने लोक के अंतस्तल में प्रवेश कर रहे होते हैं| यहाँ बनावटी जैसा कुछ नहीं है जो है यथावत है स्पष्ट है| प्रेम है तो उसकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक है| बेमतलब
की कलाबाजी नहीं है| शब्दों में उलझाव न होकर कहन की सघनता
है|
शहंशाह आलम समकालीन हिंदी कविता के परिचित स्वर हैं| यूं तो इनकी कविताओं में परस्पर विरोधाभास के स्वर वर्तमान रहते हैं लेकिन
अनवरत रचनारत रहने से इनका अपना पाठक संसार है| 'थिरक रहा
देह का पानी' बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित होकर आया है|
148 पृष्ठों के इस संग्रह में समकालीन समय और समाज की यथास्थिति को
(यदि उनकी गुणा-गणित से परिचित हैं तो) गहराई के साथ परखा जा सकता है| शहंशाह आलम की कहन में एक प्रवाह है जो पाठक को सहजता के साथ कविताई का
आनंद लेने के लिए विवश करती है तो विरोधाभासी अभिव्यक्तियों की वजह से उलझा कर भी
रखती है| दरअसल यह उलझाव वैचारिकता का उलझाव भी है जो उन्हें
अंततः स्पष्ट नहीं रहने देती|
कवि चंद्रेश्वर द्वारा रचित "सामने से मेरे"
कविता संग्रह रश्मि प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित होकर आई है| समकालीन संघर्षधर्मिता को जिस तरीके से इस संग्रह में उठाया गया है वह देख
कर आश्चर्य होता है| जन और जीवन के बीच बढ़ते भूख और अस्मिता
के सवाल पर ऐसी निष्पक्षता बहुत कम ही देखने को मिलती है| कविताओं
को पढ़ते हुए यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि, इस संग्रह में
यथार्थ परिदृश्य का चित्रण करते हुए कवि द्वारा बगैर बड़बोलेपन के कविताई का ठोस
निर्वहन किया गया है| जिस संग्रह के सहारे रश्मि बजाज ने"जुर्रत ख्वाब
देखने की” की है वह अयन
प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है|
यह संग्रह कुल तीन भागों में विभाजित है| पहले भाग
में कवि और कविता के स्वभाव पर सम्वाद है जहाँ यह आशंका साफ़ दिखाई देती है कि यदि
अंधरे से लड़ने के लिए न 'कोई उन्मादी लिखता कविता', तो जिस
प्रकार के पारिवेशिक सुधार के साथ हमें ख्वाब देखने के अवसर मिल सके हैं वे लगभग
असम्भव होते| अब यदि ख्वाब देखा गया है तो जरूरी है उसे साकार
करना| समस्याओं और विसंगतियों से जूझते हुए भी उजाले की
तलाश करना कर्तव्य तो बन ही जाता है| संग्रह के दूसरे
खण्ड में कवयित्री सचेत करना चाहती है कि चलते रहने में ही समय-समाज
की भलाई है 'ये वक्त न तेरे थमने का'| 'मैं हूँ
स्त्री' संग्रह का तीसरा खण्ड है| इस कविता संग्रह में भारतीय महापुरुषों की स्मृति में कुछ कविताएँ तो हैं
ही समकालीन भारतीय परिवेश में वर्तमान विसंगतियों के प्रति भी गंभीरता से चिंतन
किया गया है|
बोधि प्रकाशन, जयपुर से
प्रकाशित आरती तिवारी की कविता संग्रह "तब तुम कहाँ थे
ईश्वर" अपनी तरह का विशेष संग्रह है जिसे पढ़ते हुए आप अपने समय के साथ
चलते रहने का आभास कर सकते हैं| अपने होने और न होने की प्रक्रिया में उलझे जनमानस
की यथार्थ वेदना को पूरी तन्मयता के साथ महसूस कर सकते हैं| 136 पृष्ठ के इस संग्रह में कुल 58 कविताएँ शामिल हैं|
आरती तिवारी के कविता-संसार में स्त्रियों की यथार्थ मनोभाव को यहाँ
बखूबी प्रस्तुत किया गया है| आम आदमी की जीवनगत विडम्बनाओं
का जो चित्र खींचा गया है...हमें अपने होने को लेकर प्रश्न खड़ा करता है| आरती तिवारी को पढ़ते हुए आप पायेंगे कि संग्रह की लगभग कविताओं में प्रश्न
और उत्तर के साथ-साथ सामंजस्य और सहमति के स्वर बड़ी सघनता से मजूद हैं| और बहुत कुछ मानते हुए इन कविताओं के रास्ते यह भी मान सकते हैं कि तमाम
संघर्षों में घिरे होने के बावजूद व्यक्ति जीवन-यापन के रास्ते खोज ही लेता है|
दिल्ली पुस्तक सदन, नई
दिल्ली द्वारा प्रकाशित डॉ. विनोद
कुमार की कविता संग्रह 'संघर्ष के साथ-साथ'
नयी सम्भावनाओं की तलाश के लिए प्रेरित करती है| 96 पृष्ठों की इस संग्रह में कुल 26 कविताएँ हैं जो
कहन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं| विनोद कुमार की यह
खाशियत है कि वे छान्द्सिकता से स्वयं को दूर नहीं रख पाते हैं और मुक्त छंद की
कविताओं में भी एक लय बरक़रार रहती है| पाठक कहीं बोर नहीं
होता| जन एवं जमीन से जुड़ी सम्वेदनाओं के साथ काव्यात्मक
प्रतिमानों का कुशल निर्वहन इस संग्रह में दिखाई देता है|
लोकोदय प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह
'यही तो चाहते हैं वे' के
माध्यम से प्रेम नंदन कविता जगत में पदार्पण करते हैं| 108 पृष्ठों की इस संग्रह में कुल 58 कविताएँ हैं|
ग्रामीण जीवन की वेबसी और राजनीतिक षड्यंत्रों की दकियानूसी का
दिग्दर्शन इस संग्रह में ठीक से होता है| प्रेम नंदन अपने
समय के लोक की यथास्थिति से अच्छी तरह परिचित हैं| राजनीतिक
दांवपेंच को पहचानते हैं| आम आदमी जिस तरह सत्ता की कुनीतियों
का शिकार हुआ है प्रेम नंदन का कवि हृदय परत-दर-परत उसे शब्द देता है| कहन में निर्भीकता है तो प्रस्तुति में लालित्य| यही
चीजें इस संग्रह को भीड़ से अलग रखती हैं|
अरविन्द भट्ट की 'अनकही अनुभूतियों का सच
(अंजुमन प्रकाशन, इलाहबाद)' तनुजा तनु
की 'मुझमें कोई और (आस्था प्रकाशन, जालंधर)'
रीमन नैन की 'मन की बात पन्नों पर (आस्था
प्रकाशन जालंधर)', पूरन मुद्गल की 'मेरे
घर आई नदी (बोधि प्रकाशन, जयपुर) पंखुरी सिन्हा की 'बहस पार की लम्बी धूप (बोधि प्रकाशन, जयपुर)'
कमलेश आहूजा की 'अगले कदम से पहले (आस्था
प्रकाशन, जालंधर)', कात्यायनी सिंह की 'मैं अपनी कविताओं में जीना चाहती हूँ (रीड पब्लिकेशन, मुम्बई) अनिल कुमार पाण्डेय की 'अब लोग नहीं रोयेंगे
(यश प्रकाशन, नई दिल्ली)' कविता संग्रह
विशेष रूप से पाठकों का ध्यान अपनी कविताओं की तरफ खींचती हैं|
इस
वर्ष के कुछ साँझा कविता संकलन भी प्रकाशित हुए हैं| रेडग्रैब
बुक्स द्वारा प्रकाशित एवं हमारे समय के प्रमुख युवा कवि आलोचक राहुल देव द्वारा
संपादित सांझा काव्य संकलन “कविता प्रसंग” अंजुमन प्रकाशन, इलाहबाद से प्रकाशित हुई है|
इस संकलन में हमारे समय के लगभग महत्त्वपूर्ण कवियों की रचनाओं को
पढ़ा जा सकता है| कुल 48 कवियों को
स्थान मिला है| सभी वर्णक्रमानुसार देखे जा सकते हैं| गणेश गनी, कौशल
किशोर, राजकिशोर राजन, शहंशाह आलम,
राकेश रोशन, संध्या सिंह, सोनी पाण्डेय, नीरज नीर, प्रेम
नंदन, अनिल कुमार पाण्डेय आदि कवियों की रचनाएँ पाठकों उसके अपने
समकालीन समय पर चिंतन करने के लिए विवश करती हैं| संपादक के
तौर पर युवा कवि एवं आलोचक राहुल देव का श्रम और अंजुमन प्रकाशन का उपक्रम निश्चित
ही सफल हुआ है| अनिल कुमार पाण्डेय के सम्पादकत्व में के.
एल. पचौरी प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित होकर आई सांझा कविता
संग्रह "कवि का कहना है" में कुल 9 रचनाकार हैं|
इन रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ इन पर संपादक की टिप्पणी संकलन
के महत्त्व को बढ़ा देती है|
आलोचना विधा के लिए भी यह साल
अच्छा रहा है| कई ऐसी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसके लिए इस
वर्ष की उपलब्धी देर तक याद की जाएगी|"किस्से
चलते हैं बिल्ली के पाँव पर" रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से
प्रकाशित युवा कवि गणेश गनी
की समालोचना की पुस्तक है जिसमें सृजनरत कुल 50
कवियों पर गंभीर चर्चा की गयी है| ये पुस्तक अकादमिक आलोचना
के प्रतिमानों को ध्वस्त करती हुई सम्वाद-आलोचना की नींव रखती है| इस पुस्तक की यह खासियत है कि पाठक आलोचना के साथ प्रकृति, परिवेश, जन-जीवन तक की यात्रा करते चलता है| इस पुस्तक को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे
व्यक्ति सामने बैठकर पड़ोस का हाल-चाल सुना रहा हो| जब आप
पड़ोस का हालचाल सुनते हैं...विश्वास मानिए बोर नहीं होते और और भी आगे सुनने/
सुनते रहने की जिज्ञासा बनी रहती है| यही सहजता गनी की
आलोचना-दृष्टि में है| भाव एवं भाषा से समादृत इनका कहन दिल
और दिमाग को वश में करके रखता है|
वाणी
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित "दस कालजयी
उपन्यास : जमीन की तलाश" आलोचना पुस्तक तरसेम गुजराल
द्वारा लिखी गयी है| इस उपन्यास में
गोदान, बूँद और समुद्र, शेखर एक जीवनी,
बाणभट्ट की आत्मकथा, झूठा सच, मैला आँचल, तमस, आधा गाँव,
राग दरबारी, धरती धन न अपना को आधार मानकर
विमर्श की गयी है| यह पुस्तक एक गंभीर आलोचना पुस्तक बन सकती
थी लेकिन आलोचक का ध्यान महज सन्दर्भों को इकठ्ठा करने में रहा| विभागीय शोध में सन्दर्भों को इकठ्ठा करने की दृष्टि से यह पुस्तक उपयोगी
हो तो हो व्यावहारिक ज्ञान प्राप्ति में कुछ हद तक निराश होना पड़ता है|
"समकालीन
हिंदी कविता : सृजन और चिंतन " डॉ. अशोक कुमार की
आलोचना पुस्तक है जो यश प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर
आई है| इस पुस्तक में समकालीन हिंदी कविता की विशेष
प्रवृत्ति के साथ सृजनरत महत्त्वपूर्ण कवियों की चर्चा की गयी है| प्रमोद बेरिया, मोहन सपरा, श्रीप्रकाश
शुक्ल, गणेश गनी, विजय कपूर, अशोक कुमार, जयप्रकाश मानस सरीखे कवियों की
रचनाधर्मिता पर प्रकाश डाला गया है| यश प्रकाशन से ही अनिल कुमार पाण्डेय की आलोचना पुस्तक समकालीन
कवि और कविता प्रकाशित होकर आई है| 168 पृष्ठ की
इस पुस्तक में कुल 19 लेख हैं| समकालीन
कवि और कविता, लोक विरोधी कविता का लोक' शीर्षक लेखों में कविता की राजनीति को अच्छी तरह विश्लेषित करने का प्रयास
किया गया है| समकालीन कवियों की रचना-दृष्टि को समझने में यह
पुस्तक सहायक सिद्ध हो सकती है|
प्रभाकर सिंह की आलोचना पुस्तक 'आधुनिक हिन्दी साहित्य : विकाश और विमर्श' प्रतिश्रुति प्रकाशन, कोलकाता
द्वारा प्रकाशित है| 160 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 10 लेख शामिल हैं जिनके माध्यम से आधुनिक हिंदी साहित्य की यथास्थिति को
विश्लेषित करने का श्रमपूर्ण कार्य किया गया है| इतिहास लेखन
का कार्य जितनी जिम्मेदारी का कार्य है, नीरस भी उतना ही है|
विषय-चयन जहाँ एक बड़ी चुनौती है वहीं यदि भाषा का प्रवाह सुन्दर न
हो तो बहुत कुछ बचते-बचाते हुए भी सम्प्रेषणीयता की समस्या आ जाती है| साहित्येतिहास लेखन में भाषाई साफगोई का होना बहुत जरूरी है| प्रभाकर सिंह सर्वथा इस जरूरत पर खरा उतरते दिखाई देते हैं| “आधुनिक हिन्दी साहित्य : विकास और विमर्श” में मात्र
भाषाई साफगोई के ही दर्शन नहीं होते अपितु अभिव्यक्ति-कला का जो सुन्दर और
सकारात्मक प्रयोग किया गया है, उसमें भी एक विशेष आकर्षण है|
भाषाई उलझाव डाले बिना दो टूक कहन की प्रवृत्ति तो आलोचक की है ही,
सटीक उदाहरणों द्वारा समझाने की प्रवृत्ति में किये गये प्रयोग भी
उसके अपने द्वारा विकसित मुहावरे का व्यवहार प्रतीत होते हैं|
ज्ञान
प्रकाश विवेक की आलोचना पुस्तक 'हिन्दी ग़ज़ल की नयी
चेतना' प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आई है|
248 पृष्ठों की यह आलोचना पुस्तक कुल दो खण्डों में विभाजित है|
पहला खण्ड 'हिंदी ग़ज़ल चेतना' शीर्षक से है जिसमें अतीत से वर्तमान तक का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है|
जबकि दूसरे खण्ड में भारतेन्दु की ग़ज़ल से शुरू होकर वर्तमान में
सृजनरत रचनाकारों की रचनाधर्मिता की परख की गयी है| शोध-सन्दर्भ
की दृष्टि से यह पुस्तक उपयोगी तो है ही समकालीन ग़ज़ल विधा की व्यावहारिक स्थिति को
समझने में भी यह बहुत सहायक सिद्ध होगी| मधुकर अष्ठाना की
नवगीत विधा की एक आलोचना पुस्तक 'नवगीत के विविध
आयाम' लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित होकर आई है| समकलीन नवगीत विधा की दशा और दिशा को समझने में यह आलोचना पुस्तक विशेष
रूप से सहायक है| नवगीत विधा पर ही के. एल. पचौरी प्रकाशन,
गाजियाबाद से कवि एवं आलोचक डॉ. इन्दीवर पाण्डेय की आलोचना पुस्तक
'अपनी सदी के स्थविर (अज्ञेय और डॉ. शम्भुनाथ सिंह)' एवं आकृति प्रकाशन, दिल्ली से 'सार्थक कविता की तलाश और नवगीत नामा'
प्रकाशित हुई हैं| इन पुस्तकों में नवगीत के
अतीत, वर्तमान और भविष्य के प्रति आलोचक की सकारात्मक
चिंतन-दृष्टि को देखा जा सकता है| समकालीन हिन्दी कविता की
गद्य कविता से किस तरह नवगीत विधा भिन्न और मजबूत स्थिति में है डॉ. इन्दीवर
पाण्डेय तर्क के साथ इसे प्रस्तुत किये हैं| इन्होने इस वर्ष
के. एल. पचौरी प्रकाशन से 'डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र'
को सात खण्डों में सम्पादित करके नवगीत विधा का एक तरह से पुख्ता
दस्तावेज पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है|
साक्षत्कार
विधा में भी कुछ विशेष प्रयोग हुए हैं इस वर्ष|
युवा कवि और आलोचक राहुल देव के साथ ज्ञान चतुर्वेदी की
लम्बी बातचीत को "साक्षी है सम्वाद (ज्ञान चतुर्वेदी से लम्बी
बातचीत)" के माध्यम से प्रस्तुत किया है रश्मि प्रकाशन, लखनऊ ने| ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य विधा के सशक्त
हस्ताक्षर रहे हैं| राहुल देव का भी व्यंग्य आलोचना में
अच्छा कार्य रहा है| इन दोनों की जुगलबंदी में साहित्यिक
सरोकारों पर गहन परिचर्चा देखने को मिलती है| लम्बी
साक्षात्कार की इस पुस्तक में समकालीन साहित्यिक राजनीति को बखूबी समझाया गया है|
श्लीलता-अश्लीलता, लेखन-समय, विषय-चयन, व्यंग्य-कहन आदि विषयों को गंभीर दृष्टि
के साथ प्रस्तुत किया गया है| कमलेश भारतीय की साक्षात्कार
की पुस्तक "यादों की धरोहर"
आस्था प्रकाशन जालंधर द्वारा प्रकाशित है| 127 पृष्ठों की इस
पुस्तक में विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, देवी शंकर प्रभाकर, राकेश वत्स, रामदरश मिश्र, निर्मल वर्मा, नरेन्द्र
कोहली, गिरिराज किशोर, राजेन्द्र यादव
सहित कुल 24 रचनाकारों के साथ बातचीत शामिल है| कमलेश भारतीय का जुडाव लम्बे समय तक पत्रकारिता से रहा है इसलिए समकालीन
साहित्यिक मुद्दों के साथ-साथ सामयिक विमर्शों की गहन जानकरी इस साक्षात्कार
पुस्तक द्वारा प्राप्त की जा सकती है| जयप्रकाश मानस द्वारा लिखित विजया बुक्स, दिल्ली द्वारा
प्रकाशित डायरी विधा की पुस्तक 'पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते'
रोचक जानकारियों से परिपूर्ण है| 211 पृष्ठों
की इस पुस्तक में देशकाल समय में घटित होने वाली महत्त्वपूर्ण घटनाओं को देखा-परखा
जा सकता है|
हिंदी गजल परंपरा में कई
महत्त्वपूर्ण किताबें इस वर्ष जुड़ गयी हैं जो न सिर्फ ग़ज़ल विधा की लोकप्रियता को
जाहिर करती हैं अपितु यह भी दर्शाती हैं कि यथार्थ को अभिव्यक्त करने में यह विधा
अन्य किसी काव्य-विधा से कमजोर नहीं है| वरिष्ठ गज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़ल संग्रह 'ताकि हम बचे रहें' किताबगंज प्रकाशन, सवाई माधोपुर (राज.) से प्रकाशित हुई है| 127
पृष्ठों की इस संग्रह में समय, समाज और परिवेश की यथार्थ
विसंगतियों को निर्भीकता के साथ आवाज दी गयी है| इस संग्रह
को पढ़ते हुए आप पायेंगे कि साहित्य यदि अनुभव के रास्ते अनुभूति की ईमानदार
अभिव्यक्ति है तो अनिरुद्ध सिन्हा की काव्य-दृष्टि उस अभिव्यक्ति की कसौटी है जहाँ
से मान और ईमान के बीच संघर्ष शुरू होता है| राजनीतिक
विसंगतियों, सांप्रदायिक वैमनस्यता, प्रेम
के प्रति परिवेश की घृणात्मक दृष्टि आदि विषयों को गंभीरता के साथ अभिव्यक्ति का
माध्यम बनाया गया है|
देवेन्द्र आर्य की गज़ल
संग्रह "जो पीवे नीर
नैना का" बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित हुई है| 108 पृष्ठ के इस
संग्रह में कुल 88 ग़ज़ल हैं| इस संग्रह
को पढ़ते हुए आप पायेंगे कि निरंकुश शासन व्यवस्था के प्रतिरोध में जनता की आवाज को
मुखरता के साथ प्रस्तुत किया गया है| कबीर की भांति कवि ऐसे
समय में खड़ा है जहाँ के अधिकांश रचनाकार अपनी भूमिका को विस्मृत कर चुके हैं|
देवेन्द्र आर्य देश की दशा-दिशा के प्रति गंभीर हैं और अंतिम पायदान
पर खड़े आम जनमानस की पीड़ा को बखूबी पहचानते हैं|
माधव कौशिक की ग़ज़ल संग्रह है "उड़ने
को आकाश मिले" किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आई है| 152 पृष्ठों की इस संग्रह में कुल 140 गज़लें समाहित हैं|
ग्रामीण और शहरी जीवन की विसंगतियों को इस संग्रह में अच्छी तरह से
अभिव्यक्त किया गया है| महानगरीय परिवेश की विसंगतियों को
परत-दर-परत उघारा गया है| रिश्तों की गरिमा को महत्त्व दिया
गया है| पीढ़ियों के अंतराल को ख़तम कर सम्वाद के महत्त्व पर
जोर दिया गया है| इस संग्रह में यदि आप वासना को प्रदीप्त
करती गज़लें खोजने का प्रयास करते हैं तो निराशा हाथ लगेगी| कवि
प्रेम की पींगे भरने की अपेक्षा जन-जीवन की समृद्धि के लिए प्रतिबद्ध है और यही
समकालीन हिंदी ग़ज़ल की शक्ति है|
गीत-नवगीत विधा की नवता विशेष रूप
से ध्यान आकृष्ट करती है| वैयक्तिक सम्वेदनाओं की जगह जन सम्वेदनाओं को
अभिव्यक्ति करने की दिशा में नवगीतकारों ने ठोस कदम उठाया है| वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना की नवगीत संग्रह 'पहने
हुए धूप के चेहरे' गुंजन प्रकाशन, मुराबाद
से प्रकाशित होकर आई है| 160 पृष्ठों की इस संग्रह में कुल 61 नवगीत हैं जिसमें नवगीत की नवता को देखा परखा जा सकता है| लोकतंत्र की काला बाजारी, वैश्वीकरण के दौर में
ग्रामीण व्यवस्था की लाचारी, सांस्कृतिक परिवर्तन से उपजे
विसंगतिबोध, जनधर्मी परम्परा को बचाए रखने का संघर्ष इस
संग्रह में प्रमुखता से वर्तमान हैं| अंगिका भाषा में नवगीत
विधा की एक महत्त्वपूर्ण संग्रह "भर भर हाथ सरंग" आई है राहुल शिवाय
की, जो हिंदी भाषा साहित्य परिषद्, बिहार द्वारा प्रकाशित है| इस संग्रह में समकालीन
राजनीतिक एवं सामाजिक विमर्श तथा ग्रामीण चेतना से उपजी सम्वेदनाओं का अंकन है|
यह पुस्तक इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए क्योंकि लोक भाषा में नवगीत विधा
पर एक विशेष कार्य है जो अवधी के बाद अंगिका में अपनी तरह का नया प्रयास है|
राहुल शिवाय की यह खाशियत है कि काव्यात्मक अभिव्यक्ति में
लोकोक्तियों को बिम्ब रूप में प्रयोग करते हैं और भाषाई अभिव्यक्ति के लिए बोझिल
शब्दों का चयन न कर सहज, सरल और व्यावहारिक भाषा का प्रयोग
करते हैं|
साहित्यिक दुनिया में कहानी विधा
ने विचार और विमर्श के नये आयाम प्रस्तुत किये हैं| कविता की
लोकप्रियता घटी है| पाठक से लेकर आलोचक तक का रुझान इधर मुखर
हुआ है| इसके पीछे का जो एक बड़ा कारण है, वह है यथार्थ जीवन की विसंगतियों का सूक्ष्म अवलोकन| अभी हाल ही में शलभ प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित गीता पंडित की कहानी संग्रह ‘विदआउट मैन’ ने इस विश्वास
को और भी अधिक मजबूती प्रदान की है| संग्रह में कुल आठ,
विदाउट मैन, फेसबुकिया मॉम , मसीहा, आदम और ईव, एक और दीपा,
अजनबी गंध, मुड़ी-तुड़ी काग़ज़ की पर्ची, ऐसे नहीं, कहानियाँ शामिल हैं| समकालीन परिवेश के यथार्थ परिदृश्य को दृष्टिगत कर के लिखी गई ये कहानियाँ
स्त्री जीवन में घटित होने वाली तमाम विडम्बनाओं के बावजूद स्त्रियों के जीवन जीने
की जिजीविषा, संघर्ष, यातना और छटपटाहट
का यथार्थ चित्र उकेरती हैं|
वन्दना शुक्ल समकालीन हिंदी
कहानी में अब एक बड़ा नाम बन चुका है| यह भी एक सच है कि वन्दना शुक्ल महज नाम से नहीं
अपितु अपनी दृष्टि और कार्य से जानी जाती हैं| इनकी दो कहानी
संग्रह 'बाँदी और अन्य कहानियां' तथा 'का घर का परदेश' बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित होकर आई हैं| बांदी और अन्य
कहानियां कुल 131 पृष्ठ का संग्रह है| इस
कहानी संग्रह में कुल 10, पंछी ऐसे जाते हैं, शहर होगी किसी स्याह रात के बाद, एक धीमी सी याद,
मशीन, बांदी, संस्कार,
आंधा की माखी राम उडावे, नींद से बाहर के सपने,
लाफिंग क्लब, मोहभंग कहानियां समाहित हैं| इन
कहानियों में अपने जीवन और समय की विसंगतियों को गहरे में देखा जा सकता है|
जमीनी भावभूमि से सम्वेदनाओं को उठाना वन्दना शुक्ल की रचनादृष्टि
की विशेषता है|
सत्यनारायण पटेल की कहानी संग्रह 'तीतर फाँद' आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुई है| सत्यनारायण पटेल
सही अर्थों में लोक-भूमि के कथाकार हैं| इनके श्रम-संस्कृति
केन्द्र में रहती है| श्रम-संस्कृति जहाँ होगी वहां हसीन
और बड़ी पार्टियों में नाचने वाली नायिकाओं तथा दारू के नशे में चूर नंगा शरीर न
उपस्थित होकर खेत-खलिहान में खटने वाले मजदूर तथा कल-कारखानों में पिसते शरीर से
अनवरत प्रवाहित होते श्रम-स्वेद की प्रधानता होगी|
लोक जीवन को नरक के हद तक धकेलने वाली राजनीतिक गुटबंदियों का अंध
समर्थन न होकर प्रतिरोध के स्वर को मुखरित करने वाली जन-जीवन की संघर्षधर्मिता
होगी| सत्यनारायण पटेल कथा के इसी परिदृश्य के
अभिव्यक्तसिद्ध कहानीकार हैं| इनके द्वारा लिखित कहानी
संग्रह ‘तीतर फांद’ कुछ इसी तरह के
यथार्थ परिदृश्य का जीवंत दस्तावेज है|
समकालीन समय की कुछ ऐसी विसंगतियां हैं जो किसी भी
सम्वेदनशील व्यक्तित्व को सोचने के लिए विवश करती हैं| सोच का पैमाना जब जड़ताओं में उलझे आम आदमी
के अस्तित्व का हो चिन्तन की अवस्था में रचनाकार की चिंता स्वाभाविक हो उठती है|
इस दृष्टि से आलोच्य संग्रह में कुल सात कहानियां हैं (‘ढम्म...ढम्म...ढम्म...’, ‘न्याव’, ‘मैं यहीं खड़ा हूँ’, ‘नन्हा खिलाड़ी’, ‘गोल टोपी’, ‘मिन्नी, मछली और
साँड’, ‘तीतर फाँद’) जिसमें
जन-जीवन-जमीन की फ़िक्र में चिंतित जनमानस की मूक वेदना का चीत्कार तो है ही,
षड्यंत्र एवं धोखे की परिवरिश करती अमानवीय चेष्टाएँ भी गहरे में
विद्यमान हैं|
कथा साहित्य में ही साक्षी
प्रकाशन संस्थान, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश से
डॉ. रामप्यारे प्रजापति की 'मुक्तिकामी शिलाएं' (कहानी संग्रह) गुरुप्रसाद सिंह की 'कैसे टूटीं
गुलामी की जंजीरें' (उपन्यास) और शैलेन्द्र तिवारी की 'विसर्जन (उपन्यास)' प्रकाशित होकर आई हैं जो विषय
एवं विमर्श की दृष्टि से स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि और समकालीन सामयिक विसंगतियों पर
प्रकाश डालती हैं| आस्था प्रकाशन, जालंधर
से सुखवीर मोठसरा की लघुकथा संग्रह 'तमाचा' प्रकाशित हुई है जो आम जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का जीवंत दस्तावेज
हैं| 79 पृष्ठों की इस पुस्तक में कुल 57 लघुकथाएँ हैं| इस संग्रह को पढ़ते हुए समकालीन समय
की जटिलता का बोध गहरे में होता है|
सन् 2018 तो जा रहा है लेकिन रचनात्मक स्मृतियों में लम्बे समय तक जीवित रहेगा यह
वर्ष| यह वर्ष जहाँ नए प्रकाशनों के उत्कर्ष का वर्ष रहा है
वहीं पुराने प्रकाशकों के दकियानूसी स्वभाव के बेपर्दा होने का भी वर्ष रहा है|
आज का लेखक प्रकाशकों के यहाँ चक्कर नहीं लगा रहा है और न ही बड़ी
पत्रिकाओं में छपने की लालसा लिए भटक रहा है, यह भी इस वर्ष
की एक विशेष उपलब्धि है| प्रकाशित होने वाली पुस्तकों पर
लगातार आलोचकों ने अपनी दृष्टि बनाए रखी जिसकी वजह से रचनाकारों को रचनात्मक
प्रोत्साहन मिला| नये पाठकों की खामोश वृद्धि पर सवाल अधिक
उठे लेकिन अच्छी पुस्तकें हाथों हाथ बिकीं| पाठकों द्वारा
भरपूर प्रेम रचनाकारों को मिला| सम्भव है और अपेक्षा भी कि
इस वर्ष से प्रेरणा लेते हुए आने वाला वर्ष और भी अधिक रचनात्मक और सृजनशील वर्ष
होगा|
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