Tuesday 26 November 2019

अवनीश के पास अपने समय को लेकर कई प्रश्न हैं




नवगीत विधा ने निश्चित तौर पर गीतों की शुष्कता को समाप्त करते हुए विषयों के चयन और कहन को विशिष्ट बनाया है| समाज का अंतिम आदमी से लेकर अंतिम स्थिति तक इस विधा के अभिव्यक्ति-दायरे में है| पाठक यहाँ आने के बाद रोता और हँसता नहीं अपितु समय की शिला पर बैठकर बदलते समाज की रंगतों पर चिंतन करने के लिए विवश होता है| यह विवशता इसलिए नहीं है कि कोई मजबूर कर रहा है उसे अपितु इसलिए है क्योंकि यथार्थ परिदृश्य यथास्थिति को त्याग कर बदलाव की मांग पर है| यह मांग मनुष्य को मनुष्यता के मार्ग पर लाने की तो है ही उसे निराशा के गहरे खोहों से बाहर निकालकर उत्सवधर्मी बनाने की भी है|

यह सच है कि समाज का अधिकांश अभावों से भरा जीवन जीने के लिए अभिशप्त है लेकिन सच यह भी है कि अधिकांश जीवन-निर्वहन के प्रति गैर-जिम्मेदार और अव्यावहारिक है| यह अव्यावहारिकता कहीं और से नहीं आई है हमारे अपने परिवेश ने दिया है| उस परिवेश ने जहाँ सूचना क्रांति का उत्सव मनाया जा रहा है| डिजिटल इण्डिया की तैयारियां की जा रही हैं| जन्म और मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की खोज की जा रही है| जीवन को किस तरीके संतुलित रखा जाए इस पर कम, किस तरीके उसे झंझावातों में उलझा कर झूलने के लिए प्रेरित किया जाए, इस पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है|
इन सभी स्थितियों पर विचार करते हुए हम इस पर भी विचार करते हैं कि आम आदमी के जीवन में छांव के कितने भी सुखद एहसास उसके हृदय को उत्सवधर्मी बनाते हों लेकिन छाओं की ईर्ष्या में “दिन कटे हैं धूप चुनते” इस सच से वह इंकार नहीं कर सकता| यह स्वीकार ही कविता का स्थापत्य है और रचनाकार का दायित्वबोध| अवनीश त्रिपाठी का रचनाकार मन इस दायित्वबोध से कितने गहरे में जुड़ा हुआ है वह अपने संघर्षों के उन लम्हों में जाकर आप देख-पढ़ सकते हैं जहाँ “दिन कटे हैं धूप चुनते|” यह संग्रह बेस्ट बुक बडीज, नई दिल्ली से प्रकाशित होकर आया है|

अवनीश के पास अपने समय को लेकर कई प्रश्न हैं| सृजन से लेकर समाज की संगति-विसंगति में हो रहे परिवर्तन उन्हें व्यथित करते हैं तो गति-दुरगति के प्रति एक जिम्मेदार भी बनाते हैं| जब उनका व्यथित कवि-हृदय जानना चाहता है कि----
“क्यों जगाकर
दर्द के अहसास को
मन अचानक मौन होना चाहता है?
तो यह प्रश्न भी सहज रूप में जन्म लेता है कि
“चन्दन घिसते
तुलसी बाबा
औ’ कबीर की बानी
राम रहीम सभी आतुर हैं
कहाँ गए सब ज्ञानी?”
इधर जिस तरह से ज्ञान का विस्फोट हुआ है हर तरफ वक्ताओं की नई फ़ौज खड़ी दिखाई दे रही है| हर कोई समय का अपनी तरह से अनुवाद कर रहा है लेकिन सार्थक मुद्दों तक न तो पहुँच पा रहा है और न ही तो किसी को पहुँचने दे रहा है| अवनीश यह मानते हैं हवा-हवाई हाथ झटकने से कुछ भी नहीं होने वाला है--
चुभन बहुत है
वर्तमान में
कुछ विमर्श की बातें हों अब
तर्क-वितर्कों से
पीड़ित हम
आओ समकालीन बनें|
जब हम समकालीन बनेंगे तो हमारे पास समय की जरूरतों पर विमर्श करने का विवेक विकसित होगा न कि विद्वता दिखाने की मूर्खता|

समकालीन होने की स्थिति में अवनीश युवा हैं इसलिए संघर्ष की अधिकांश चिंता अभी-अभी समाज में आए विसंगतियों को लेकर है| यह विसंगतियाँ मीठे में पड़े उस जहर के समान हैं जिन्हें हम खाए जा रहे हैं और यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारा अंत हो रहा है--
"इंटेरनेट, /सोशल साईट से /रिश्ता-अपनापन" बढ़ाकर “टी.वी. चेहरे/मुस्कानों के/मँहगे विज्ञापन” में हम मशगूल होते जा रहे हैं| यही दुनिया है और यही संसार है|
प्यार-तकरार से लेकर मान-मनुहार तक की स्थितियां यहीं घटित हो रहीं हैं और यहीं पर समाप्त हो जा रही हैं| समाज और समुदाय की खोज-खबर तो दूर घर-परिवार में क्या कुछ चल रहा है यह भी देखने-समझने का समय हमारे पास नहीं है| परिणाम यह है कि हमारे सामने “धूप-रेत/ काँटों के जंगल/ ढेरों नागफनी” उग आईं हैं और “एक बूँद/ बंजर जमीन पर/ गाँड़र, कुश, बभनी” फ़ैल चुकी हैं|

भारत देश में ‘जमीन की उर्वरता’ वैसे भी एक समस्या थी इन समस्याओं ने सामाजिकों को और अधिक उलझा दिया है| जो कुछ ‘खाद, पानी, बिसार’ पूर्वजों के हिस्से से मिल रहे थे उसे इन नव्य माध्यमों ने मृतप्राय कर दिया है| यहाँ आकर जब अवनीश कहते हैं कि “भोजपत्रों के गये दिन” तो यह समझते देर नहीं लगती-
“खुरदरी
होने लगीं जब से
समय की सीढ़ियाँ
स्याह
होती रात की
बढ़ने लगीं खामोशियाँ
और
चिंतन का चितेरा
बन गया जब से अँधेरा
फुनगियों
पर शाम को बस
रौशनी आती है पलछिन
एक बूढ़ी-सी उदासी
काटती है जब घरों में
सिलवटें,आहट, उबासी
सुगबुगाहट बिस्तरों में|”

रातें खामोश होती गयीं और सुबहें निराशा में तब्दील| ‘एक बूढ़ी-सी उदासी’ घरों में जो फैली उसके लिए सम्वादहीनता कारण बनी| घर का हर आदमी अपरिचित लगने लगा| कवि यह चिंता उसे अपने समय के यथार्थ से गहरे में जोडती है|
सामाजिक संरचना वर्तमान की कुछ ऐसी ही है| परिवेश और परिवार की बदहाली में जातीय विभेदता भी अपना महत्त्वपूर्ण रोल निभा रही है| यहाँ मनुष्य मनुष्य को नहीं देखना चाहता| इस अर्थ में कवि अपने समय की राजनीतिक दुरभिसंधियों से गहरे में पीड़ित रहा| जनता जिस तरीके से वोट का हेतु बनाई जाती है उससे यह तो प्रमाणित हो ही जाता है कि--
‘जीत हार के
पाटों में हम
घुन जैसे पिसते हैं
भींच मुट्ठियाँ
कान छेदतीं
दुत्कारें सहते हैं|”
इस दुत्कार में स्वाभिमान तो जाता ही है अस्तित्व के समाप्त होने का भय भी बना रहता है| भय से बचाव के रास्ते में भारतीय ‘लोक’ ‘तंत्र’ से बेदखल तो पहले से था इधर गायब होता जा रहा है| ‘टूटी खटिया पर नेता जी/ बैठ रहे हैं जान-बूझकर/ खेत और खलिहान झूमते/ बोतल, वादे हरी नोट पर/ टुन्न पड़ा है रामखिलावन|” अब यहाँ ऐसा नहीं है कि रामखिलावन पागल या नादान है; दरअसल वह राजनीतिक षड्यंत्रों का शिकार है| देने वाले नेता दारु की बोतल पकड़ा सकते हैं लेकिन उनके जीवन-यापन के साधन उपलब्ध नहीं करवा सकेंगे| इन्हीं विसंगतियों में पड़कर आम आदमी गायब हो जाता है|

लोक के गायब होने में ‘अर्थ’ की भूमिका केन्द्र में रही जहाँ ‘क्रूर ग्रहों के कालचक्र में/ फूले-पिचके तन हैं मन हैं|’ ग्रह न रूठते तो कोई गरीब क्योंकर बनता? आम आदमी के पास शक्ति ही क्या है आखिर? वह अभी उठ ही रहा था कि“मीट्रिक टन-क्विंटल ने आखिर/ कुचल दिया माशा-रत्ती को|” ये रत्ती कोई और नहीं इस अर्थतन्त्र का सबसे अहम् अंग है-आम आदमी| वह खटता रहा और उसे वास्तविक स्थिति से दूर ही रखा गया| जिन्होंने कुछ किया नहीं उसे सब कुछ सौंप कर मुक्त हो जाने का आश्वासन दिया गया| जब अवनीश कहते हैं कि “हम रहे अनजान/ हरदम ही यहाँ/ हाथ के तोते/ अचानक उड़ गये” तो ठगा हुआ चेहरा अपना वर्तमान हो उठता है| विकसित हो रहे समय में यहाँ सामाजिकता नहीं अर्थ महत्त्वपूर्ण है|

इधर जब से ‘अंधियारों ने उजियारों के बिस्तर बाँध दिये’ तभी से पर्यावरण की समस्याएँ अपने मूल रूप में वर्तमान है| पूरा ‘सावन रीत’ जाता है बूंद तक का अता-पता नहीं होता| किसानों से लेकर परयावरण पारिस्थितिकी तक के संकट को शब्दों में कह जाना सहज नहीं है क्योंकि इधर ‘चीख, तल्खियों वाले मौसम हैं, बरसात नहीं|” जिस दिन बरसात होगी उस दिन“नदी-ताल-पोखर की भाषा/ रेत नहीं, पानी समझेगा|” यहीं उम्मीदें हरी होंगी और यहीं समय अपने हरेपन में होने का एहसास कर सकेगा| यह एहसास ही उम्मीदों को पंख देने के लिए पर्याप्त हैं|

ऐसी बहुत-सी चिंताएं हैं अवनीश त्रिपाठी की जिनके आसपास हम और आप मंडरा रहे हैं| ऐसी बहुत-सी स्थापनाएं हैं इस संग्रह की जो आपको सोचने के लिए विवश करती हैं| बहुत-बातें हैं जिनके माध्यम से आप अपने समय और समाज को दो कदम पीछे हटकर देखने का प्रयास करते हैं तो दो चार कदम आगे बढ़कर उनमें आ रही परिवर्तनों को मानव-जगत के अनुकूल बनाने का साहस करते हैं| यह साहस जितनी सिद्दत से वर्तमान है इस संग्रह में उसका स्वागत किया जाना चाहिए| गीत की भावुकता से दूर तर्कशील प्रश्नों को लाने की वजह से भाषा थोड़ी दुरूह जरूर हुई है लेकिन सम्प्रेषण बहुत सुन्दर बन पड़ा है| यहाँ पाठन के समय शब्दों की खनखन आराम सुनी जा सकती है|

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