"साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल
है" जब लोग इस उक्ति को दोहराते हैं तो विश्वास मानिए मैं बहुत देर तक हँसता
हूँ और हँसता रहता हूँ| यदि इस पैमाने पर आज के साहित्यकारों को तौला जाए तो लगभग की
संख्या ऐसी होगी जिसे साहित्यकार मानने से इनकार करना पड़ेगा| लेकिन करता कौन है? कोई नहीं क्योंकि
ऐसा करते हुए हाशिए पर जाने का डर तो बना ही रहता है| जो करता है उसे होना भी पड़ता
है|
मेरी नजर में राजनीति
एक ऐसा गेम है जिसमें शामिल हर चेहरा एक खिलाड़ी है| खिलाड़ी के लिए हार और जीत तो
मायने रखती है, वेदना-सम्वेदना विल्कुल नहीं| जब कोई साहित्यकार इस गेम में शामिल
होता दिखाई देता है, निश्चित ही जुवाड़ी की टीम में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा
होता है| इधर एक अलग रवायत चली है| हर साहित्यकार का अपना दल है| हर दल का अपना
साहित्यकार है| घूम-फिरकर जब भी अधिकारों की बात की जाती है जनता का पक्ष कम ‘दल’
का पक्ष अधिक रखा जाता है| जबकि पक्ष रखने वाला हर समय स्वयं के निरपेक्ष होने का ‘ढोंग’
पाले रखता है|
जिस तरह कोई
जुवाड़ी स्वयं को कभी भी जुवा खेलने वाला नहीं मानता ठीक इसी तरह कोई भी साहित्यकार
स्वयं को राजनीतिक दलों का प्रचारक नहीं स्वीकार करता| प्रकारांतर से होता वह वही
है| आप नजर उठाकर देखिये सब स्पष्ट होगा और होता चला जाएगा| हर किसी के हाथ में
किसी न किसी दल का झंडा और एजेण्डा जरूर होगा|
अधिकांश
साहित्यकार पर तब और हंसी छूटती है जब वे सूर, तुलसी और कबीर को अपना आदर्श बताते
हैं| यह कहते हुए नहीं थकते कि उन्होंने अपने समय के बादशाहों का नहीं सुना| यह सच
है कि उन्होंने नहीं सुना लेकिन क्या यह सच नहीं है कि इधर के साहित्यकार ‘सुनने’
के चक्कर में स्वयं की आवाज और ज़मीर को राजनीतिक दलों के यहाँ गिरवी रख दिया?
जो जनता का पक्ष
लेने वाला है उसे हर दल में शामिल ‘भीड़’ साहित्यकार मानने के पक्ष में नहीं है| आप
देखिये गोरखपुर बच्चे मारे गये या मरे लोग बीजेपी के खिलाफ सड़कों पर उतरे| बीजेपी
के पक्ष में शामिल साहित्यकारों ने चूं तक न की| कोटा में बच्चे मरे लोग कांग्रेस
के खिलाफ सड़कों पर उतरे| कांग्रेस के समर्थक चूं तक नहीं किये| जनता चुपचाप मरी और
मरती रही| न तो इधर वाले उधर की तरफ से बोला और न ही तो उधर वालों ने इधर की तरफ
से|
निश्चित ही जनता
का पक्ष यहीं कहीं से निकलेगा| लेकिन जिस तरह से दल-पूजा की संस्कृति का विकास इधर
के साहित्यकारों में दिखाई दिया है उससे यह साफ़ जाहिर होता है कि जनता अकेली है|
सत्ता सिर्फ और सिर्फ सत्ता होती है जिसे कुर्सी से मतलब होता है| ऊपर एक उदहारण
भर दिया गया है मैं किसी के ऊपर आरोप कतई नहीं लगा रहा हूँ| जो साहित्यकार
सत्तासीन दल के खिलाफ होकर सड़क पर शोर कर रहा होता है अचानक विपक्ष के सत्तासीन
होते ही अपना पद पाकर पुरस्कार और सम्मान के लालच में मशगूल हो जाता है| खैर...
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