Wednesday 1 January 2020

समीक्षक का कार्य है कि वह सामान्य पाठकों और साहित्य प्रेमियों, जिज्ञासुओं के मार्ग को ज्योतित करे : डॉ. इन्दीवर पाण्डेय


वैसे तो पुरस्कार मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है लेकिन जब किसी योग्य को चुना जाता है तो ख़ुशी जरूर होती है| जरूरी रचनाकार और उपेक्षित विधा में सार्थक हस्तक्षेप जिसका हो, बहुत कम लोग हैं ऐसे| यह भी सच है कि कुछ ऐसे लोगों की ही वजह से विधाओं की उर्वरता बनी हुई है| डॉ. इन्दीवर पाण्डेय ऐसा ही एक नाम है जो बगैर किसी लाग-लपेट के अपने सृजन-कार्य में सक्रिय हैं और मंच-माला की भूखी प्रवृत्ति से दूर रहते हुए सृजन की सार्थकता को बनाए रखने में संघर्षरत हैं|

यह बहुत से लोगों को आश्चर्य होता है कि मैं नवगीत विधा का इतना समर्थन करता क्यों हूँ? कई लोगों ने तो यहाँ तक कह दिया कि एक दिन जब तुम्हें समझ आ जाएगा तो खुद-ब-खुद नवगीत से मोहभंग हो जाएगा| यह अपनी तरह का सच है कि मैं जितना नवगीत की तरफ से अलग होने की कोशिश कर रहा हूँ उससे कहीं अधिक उसके आकर्षण में बंधते जा रहा हूँ| कारण ऐसे समर्थ रचनाकारों की उपस्थिति है|

यह सभी को पता है कि नवगीत विधा अकादमिक जगत में अधिक उपेक्षित रही| कविता में नई कविता के प्रति दीवानगी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से लेकर उपस्थित आलोचकों तक में हद से अधिक देखी गयी| कितने लोगों को यह कहते मैं स्वयं सुना कि नवगीत-गीत में भावुकता से अधिक कुछ नहीं है| हमारे समय का यथार्थ इसमें नहीं आ सकता| शायद ऐसे लोग जो कहते हैं वे पढ़े नहीं थे इस विधा को| दुराग्रह के कारण या पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर ऐसा बोल दिए| पढ़ते तो ऐसा कम ही कहते|

इन्दीवर पाण्डेय की खाशियत यह रही कि वे इस दुराग्रह और पूर्वाग्रह को जड़ से ख़ारिज करते हैं और एक-के-बाद एक आलोचना-पुस्तकों को देते हुए यह बताने का सार्थक प्रयास करते हैं कि नवगीत किसी विधा से किसी मायने में कमतर नहीं है| जो ऐसा सोचते हैं उनमें सृजन नहीं है राजनीति हो यह अलग बात है| कई बार हुए वार्ताओं के आधार पर यह दृष्टि मैं उनमें पाया हूँ कि कविता कहने के लिए शिल्प उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि कथ्य| इधर की परेशानी यह रही कि लोग कथ्य को तो सम्भालते रहे लेकिन शिल्प की दृष्टि से लगातार कमजोर होते रहे| वे यह भी मानते हैं कि शिल्प की सजावट ही सब कुछ नहीं है जब तक कि कथ्य की सघनता और यथार्थ की अभियक्ति-क्षमता न हो|

व्यक्तिगत बातचीत के आधार पर इन्दीवर पाण्डेय आज के समय में उग आए बहुत से रचनाकारों को नवगीतकार नहीं मानते| वे मानते हैं कि तुकबंदी करने वाले गीतनुमा तो लिख रहे हैं लेकिन नवगीतकार कहने में उन्हें संकोच करना चाहिए| वे यह भी मानते हैं कि साहित्य-चिंतन और काव्य-विमर्श को महोत्सव से दूर रखना चाहिए| साहित्य में चिंतन के लिए बहुत स्पेस है| जब कोई विमर्श करता है तो शास्त्रार्थ तो हो सकता है लेकिन मेला लगाकर उसे बाज़ार की वस्तु नहीं बनाया जा सकता|

इधर कुछ वर्षों से यह प्रवृत्ति बढ़ी है जिसकी वजह से नवगीत की गरिमा और अधिक घटी है| ऐसे लोगों के लिए इन्दीवर पाण्डेय का यह स्पष्ट कहना है कि “इधर नवगीत के क्षेत्र में अत्यंत अराजकता व्याप्त हो गयी है| तमाम अधकचरे लोग तुकबन्दियाँ कर स्वयं को नवगीतकार घोषित करने लगे हैं| इनमें से कुछ तो स्वयं को नवगीत का पुरोधा भी कहने लगे हैं| ऐसे लगो चुभती नारेबाजी, सपाटबयानी वाले हास्य-व्यंग्य और यथार्थ के नाम पर छाती कूटने वाला विलाप लिखकर नवगीत का झंडाबरदार बनने का दम भरने लगे हैं| कुछ लोग नए-नए नामकरणों द्वारा नवगीत के नए शिविर बनाने और पुराने प्रतिमानों को मिटाने में लगे हैं| ऐसे फेक लोग नवगीत के बाधक तत्व और अतिमहत्त्वाकांक्षी हैं|” (सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा) निश्चित ही शिविरों ने एक नया काव्य-संकट खड़ा कर दिया है जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत हमारे समय के रचनाकारों को है|  

इन्दीवर पाण्डेय शुरुआत तो कविता से करते हैं लेकिन वर्तमान में आलोचना की जरूरत को समझते हुए इसी तरफ सक्रिय हैं| बहुत तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि के आलोचक हैं इन्दीवर पाण्डेय| नवगीत का विश्लेषण करते समय वे कविता की शक्ति-सामर्थ्य को भी परखते हैं| तार्किक विषयों के विश्लेषण में दिल से नहीं दिमाग से काम लेते हैं| इधर आलोचना में दिल वालों की अधिकता हो गयी है|

दिमाग से शून्य लोग समीक्षा का कारोबार जब से शुरू किये हैं तब से नवगीत के क्षेत्र में ही नहीं सम्पूर्ण काव्य-विधाओं में अराजकता का नया दौर शुरू हो गया है| उनका स्पष्ट मानना है कि “समीक्षक का कार्य है कि वह सामान्य पाठकों और साहित्य प्रेमियों, जिज्ञासुओं के मार्ग को ज्योतित करे| सही राह दिखाएँ| अन्यथा पाठक सम्भ्रमित और दिशाहीन हो जाएगा| फिर वह कविता का रसास्वादन करने और सार्थक कविता की हृदय में पैठ बनाने से वंचित रह जाएगा|” (सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा) जबकि हो यही रहा है| ऐसा होना नहीं चाहिए यह सोचना हमारे समय के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों का काम है|

इन्दीवर पाण्डेय समकालीन हिंदी कविता के सामने नवगीत खड़ा ही नहीं करते अपितु सार्थक कविता की तलाश में निकलने के बाद कविता की सार्थकता नवगीत में ही देखते हैं| इसके पहले के कार्यों में शम्भुनाथ सिंह पर आधिकारिक कार्य चुके हैं इन्दीवर पाण्डेय ‘गीत-नवगीत और शम्भुनाथ सिंह’ आलोचना पुस्तक इस बात का उदहारण तो है ही साथ खण्डों में शम्भुनाथ सिंह साहित्य-समग्र का सम्पादन कार्य कम महत्त्वपूर्ण नहीं है|

नवगीत दशक की कारवाँ को आगे बढ़ाने का कार्य भी शुरू कर दिया है इन्दीवर पाण्डेय ने| इधर रचनाओं का चयन लगभग पूरा हो गया है| लगातार कार्य चल रहा है| सम्भव है कि 2020 में यह महत्त्वपूर्ण कार्य पाठकों के सामने आ जाए| बहुत-सी महत्त्वपूर्ण अकादमिक एवं राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित इन्दीवर पाण्डेय का उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘साहित्य भूषण’ सम्मान दिया जाना निश्चित रूप से आश्वस्त करता है|

‘साहित्य भूषण’ डॉ. इन्दीवर पाण्डेय : एक दृष्टि उनके रचनाकर्म पर  

आलोचना

प्रसाद और स्कंदगुप्त, नवगीत में लोकचेतना, गीत-नवगीत और शम्भुनाथ सिंह, नवगीत का दस्तावेज, तुलसी का क्रान्तिदर्शी कवि और जीवन खोज, सार्थक कविता की तलाश और नवगीतनामा

वैचारिक निबन्ध 

अपनी सदी के स्थविर (अज्ञेय और शम्भुनाथ सिंह) आतंकवाद का सन्दर्भ और लोकनायक राम, कामदेव आपकी अदालत में

निबन्ध संग्रह

चुनरी लवंगिया की डार,  लिखि आखर थोरे

उपन्यास

आखिरी रास्ता, जहाँ अंधड़ रेतीला है  

कविता संग्रह

धूप खत लिखती है

सम्पादन

डॉ. शम्भुनाथ सिंह साहित्य समग्र (सात खण्ड), हृदयनारायण दीक्षित रचनावली (सात खण्ड), गीत समय की शिला के (काव्यगीत)

सेवाएँ:

प्राचार्य (अवकाश प्राप्त), साकेत पी.जी. कॉलेज, कल्याण (पूर्व), ठाणे, मुम्बई
सम्पादक : ‘जन’ साप्ताहिक, नई दिल्ली (1977-1980)
संयुक्त सम्पादक : दैनिक रूपलेखा, कलकत्ता (1974-77)
संयुक्त सचिव : रामायण मेला, चित्रकूट (1979-80)
सदस्य : हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज (वर्तमान)

सम्प्रति : सम्पादक – शब्दबीज (साहित्य और समय की पत्रिका)
सम्पर्क : सा.4/36-पी-३-आर, बजरंग नगर कॉलोनी दौलतपुर रोड, पाण्डेयपुर, वाराणसी-2

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