Friday 2 October 2020

‘लौटते हुए लोग’ को कवि और कविता का विश्वास

 यह बस कविता की बात नहीं है और न ही तो कवि की ही बात है| बात है संवेदना और समझ की| जन और तन्त्र के बीच ‘मुसाफ़िर’ बन जूझते उद्देश्य और सोरोकर की| उस चेतना की जो उपेक्षा में जागरूक हो उपेक्षितों का साथ देता है| उस जागरूकता की जो नहीं मानता हार कभी भी और जन-अधिकारों के प्रति सचेष्ट रहता है| बात है दृष्टि की| सृजन और चिंतन की| उपेक्षा में खोया कवि उपेक्षितों का पथ-प्रशस्त करे बात उसी जन-प्रेम की है| कोरोजीविता ने जन-प्रेम, मन-प्रेम और तन-प्रेम वाले कवियों में साफ़ अंतर कर दिया है| आप चाहें तो आसानी से देख सकते हैं| सही अर्थों में जो जन-प्रेम वाले कवि हैं वही कोरोजीवी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं|

इस फेसबुक और व्हाट्सएप के दौर में होने को कवि हुआ जा सकता है| आदमी तो खैर हम हैं ही कविताएँ भी लिखी जा

सकती हैं| अनुभव का बहुत कुछ दिया जा सकता है जिस तरह से हम समाज से ले रहे हैं| सवाल प्रतिबद्धता और समझ का है| यह कहाँ से मिलेगा? जन के बीच रहने और आम आदमी बन इस त्रासदपूर्ण समय की विडम्बनाओं को देखने, समझने और स्वयं भोगने से ही सम्भव है| ऐसा करेगा कौन? वह जो मस्त हो व्यस्त होने का नाटक कर रहे हैं या फिर वह जो सक्षम होकर भी राशन लेने की लाइनों में प्रथम पंक्ति में अड़े मिल रहे हैं? जाहिर सी बात है कि नहीं, ये लोग नहीं हो सकते हैं| फिर? भूख का दुःख उसे होता है जो सही अर्थों में भूखा होता है| प्यास की तड़प उसे सालती है जो पानी के अभाव में दम तोड़ रहा होता है| कवि और कविता का रिश्ता बस यही है| यही है सार्थकता कवि के होने और कविता के जन्मने में|
कोरोना समय ने इधर क्या कुछ नहीं दिखाया? क्या कुछ नहीं दिखा रहा है? लोग कविता मैराथन में भाग ले रहे हैं जबकि विक्रम मुसाफिर का कवि देखे हुए यथार्थ को शब्द देकर हमें जगाने की कोशिश कर रहा है| उसकी दृष्टि में ‘लौटते हुए लोग’ हैं| वे लोग जिनको देखते हुए “हर आदमकद शहरी आइनें/ तोतले सांकल भौंकते कुत्ते सायरन/ नफ़रत हिकारत उपेक्षा का ईंधन हो जल रहे हैं|” वे लोग जो “सड़कें ठहर गईं हैं/ और फिर भी चल रहे हैं|” न उपेक्षाओं की फिक्र है और न ही तो गालियों की चिंता| बस चल रहे हैं क्योंकि इसके सिवाय कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है|
उनको यह नहीं समझा आ रहा है कि “दस्तक कहाँ दें/ किस खुदा को खडकाएं/ भूख को किस खाली कनस्तर में छिपायें” सभी तो भूखे हैं| खुदाओं को क्वारंटाइन कर दिया गया है| राजनीतिज्ञ सत्ता के खेल में मशगूल हैं| विपक्ष सो रहा है तो पक्ष ताली-थाली के साथ आपदा में अवसर तलाश रहा है| “ठेकेदार दलाल बड़े बाबू पूँजी वाले/ अपनी अपनी जादूनगरी के रखवाले/ जानें कहाँ हैं” कवि जानना चाहता है| वह भी जो नंगे पैरों सडकों पर चल रहा है| जिनके “सरों पर लदा है सर/ जो ईंट की था भट्ठी/ काँधों पर है कांधा/ जो रेल पटरी बिछा के टूटा था/ किस सुर में बंधा है बाजू/ जो कारखाने में कटा था/ पाँव के साथ फिसलता है पाँव/ जो बेआवाज आहटों का जूता था” वह सब भी जानना चाहते हैं कि कहाँ हैं लोग? कवि बताना चाहता है कि ऐसे लोग जो यथास्थिति में जी रहे हैं और कोरोना की भेंट चढ़ दर-ब-दर की ठोकरें खा रहे हैं अकेले नहीं हैं| इनके साथ इनके “अपाहिज माँ नन्हीं बेटी हामला बीबी अँधा बाप” भी हैं| उनके विषय में “मगर क्यूँ गौर करेंगे आप” जबकि यह भी सच है कि “आप जो अखबारों से पिछवाड़ा करते हैं साफ़” वह ढंग भी इन्हीं का दिया हुआ है|
कवि को यह अच्छी तरह से पता है कि मंदिरों में दान देने वाले, तथाकथित सामाजिक सह्भागिकता वाले, उद्योगों के जरिये जीवन को संरक्षित करने वाले सबके सब अपने-अपने दरबों में दुबके पड़े हैं| शारीरिक दूरी की जगह सामाजिक दूरी का संदेश देने में व्यस्त हैं “और जो हम यहाँ हैं/ हमारे हाथों में खोटे सिक्कों से पड़े हैं छाले/ आँखों के तालाब फूँक रहे हैं/ चलते गिरते पड़ते खूँन फूँक रहे हैं|” हमारे लिए “न तमाम सा सफर है ये/ न गुज़रती सी रहगुजर है ये|” यह बात और है कि अस्तित्व सबका हमसे ही है|
शहर को शहर किसने बनाया? अब यह याद दिलाना बेमानी है| असभ्यों को सभ्य होने का रुतबा किसके जरिये मिला कुछ कहना भी भला कोई ईमानदारी है? सब कुछ बर्बाद ही हुआ हमसे इन महानगरों का जबकि इनको निकृष्ट से महा का खिताब दिया किसने, अब इस पर चर्चा करना कौन-सी बुद्धिमानी है? कुछ भले न हो और भले ही कोई न माने कुछ भी लेकिन “सीमेंट लोटा कुछ लेकिन हमसे भरा हुआ है/ धूप में जलते जिस्म हरा हुआ है/ इसी भरोसे यही टूटी-फूटी उम्मीद लिए/ चल रहे हैं जहाँ से खदेड़े गए थे/ उसी गाँव की ओर” नहीं कोई कुछ समझेगा तो कम-से-कम यातना तो देगा, प्रताड़ित तो करेगा? इन यातनाओं में हम फिर झुलसेंगे, तपेंगे, मरेंगे और फिर जिन्दा रहे तो इस निकृष्ट महा को उत्कृष्ट बनाने का कार्य करेंगे|
जो भी है, परिदृश्य फिलहाल यही है कि इधर आम आदमी बेरोजगारी के भयंकर मंजर में फिसल रहा है| घर वाला बेघर हो रहा है तो बेघर वाला अंतहीन यात्रा पर निकल रहा है| “उधर सरकारें सो रही हैं/ और मध्यवर्ग रो रहा है/ और हम खो बिछुड़ रहे हैं/ भूख प्यास से झगड़ रहे हैं/ आंकड़ों के मूड बिगड़ रहे हैं|” गिरते जीडीपी पर हाय तौबा है| मरते आदमियों की लाशों पर सौदा है| आँकड़ों को बचाने का खेल जारी है| मनुष्यत्व की चिंता लोकतंत्र की बीमारी है| “माफ़ कीजिए हम मंजर से हट रहे हैं/ बड़े शर्मिंदा हैं कि रेल लाइन पर कट रहे हैं/ हमारा क्या है हम तो बस/ मर रहे हैं/ मर ही तो रहे हैं/ हमारा क्या है|” कोई आज नई बात तो है नहीं? महामारियां आती ही हैं इसीलिए| उनका क्या जो सिर्फ महामारियों के लिए हैं जिए?
विक्रम मुसाफ़िर इन्हीं प्रश्नों के साथ ‘लौटते हुए लोग’ का पक्ष लेते हैं| उनके पक्ष में हम सब शामिल हैं| हम सबके लिए न तो सरकार है और न ही तो यह देश-दुनिया का मायाजाल| लौटते हुए लोग’ महज एक त्रासदी बन कर रह गये जिसमें सभी ने अपना नाम चमकाया| क्या मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री क्या पुलिस से लेकर चौकीदार, जिसको जैसा बन पड़ा आपदा में अवसर तलाशा| सही मायनें में ऐसी कविताएँ ही हमें दृष्टि देती हैं समय और परिवेश को देखने और समझने के लिए|

दोस्तों, यह कविता आज ही मिली मुझे वरिष्ठ कथाकार राजकुमार राकेश सर द्वारा| उन्होंने बोलकर इसे लिखने में मदद की और जब कविता टाइप हुई तो इस पर अपना विचार प्रकट करने से मैं स्वयं को न रोक सका| वायदा किया था शाम तक कविता को छोड़ने के लिए लेकिन उत्सुकता इतनी है कि अभी छोड़ रहा हूँ|

आप देखें कविता को-

**लौटते हुए लोग**
ये जो गर्द गर्द कतारें हैं
कभी न्योन चाँद उभार हैं
हमीं रेंगते हांड-मांस लोगों ने
हमारे बहते खून पसीने ने
मुँह मोड़ लिया
हर आदमकद शहरी आइनें
तोतले सांकल भौंकते कुत्ते सायरन
नफ़रत हिकारत उपेक्षा का ईंधन हो जल रहे हैं
सड़कें ठहर गईं हैं
और फिर भी चल रहे हैं
सरों पर लदा है सर
जो ईंट की था भट्ठी
काँधों पर है कांधा
जो रेल पटरी बिछा के टूटा था
किस सुर में बंधा है बाजू
जो कारखाने में कटा था
पाँव के साथ फिसलता है पाँव
जो बेआवाज आहटों का जूता था
दर-दरवाजे फाटक दरीचे
खड़े अड़े हैं आँखें नींचे
दस्तक कहाँ दें
किस खुदा को खडकाएं
भूख को किस खाली कनस्तर में छिपायें
ठेकेदार दलाल बड़े बाबू पूँजी वाले
अपनी अपनी जादूनगरी के रखवाले
जानें कहाँ हैं और जो हम यहाँ हैं
हमारे हाथों में खोटे सिक्कों से पड़े हैं छाले
आँखों के तालाब फूँक रहे हैं
चलते गिरते पड़ते खून फूँक रहे हैं
न तमाम सा सफर है ये
न गुज़रती सी रहगुजर है ये
अपाहिज माँ नन्हीं बेटी हामला बीबी अँधा बाप
मगर क्यूँ गौर करेंगे आप
आप जो अखबारों से पिछवाड़ा करते हैं साफ़
खबरें आपकी दिलवायी थी सीनकाफ़
सीमेंट लोटा कुछ लेकिन हमसे भरा हुआ है
धूप में जलते जिस्म हरा हुआ है
इसी भरोसे यही टूटीफूटी उम्मीद लिए
चल रहे हैं जहाँ से खदेड़े गए थे
उसी गाँव की ओर
उधर सरकारें सो रही हैं
और मध्यवर्ग रो रहा है
और हम खो बिछुड़ रहे हैं
भूख प्यास से झगड़ रहे हैं
आंकड़ों के मूड बिगड़ रहे हैं
माफ़ कीजिए हम मंजर से हट रहे हैं
बड़े शर्मिंदा हैं कि रेल लाइन पर कट रहे हैं
हमारा क्या है हम तो बस
मर रहे हैं
मर ही तो रहे हैं
हमारा क्या है

1 comment:

Yash Chopra said...

हुम्म ! अंधी बहरी सरकारें। जो समझती हैं कि वह हमेशा के लिए सरकार हो गई हैं। जबकि जाना तो उन्हें भी पडेगा। काल के गर्त में समाना होगा।