Wednesday 14 October 2020

मानव कितना दुर्बल है असहाय बहुत है (माधव कौशिक के नवगीत और कोरोजीवी कविता)

माधव कौशिक अपने समय के जरूरी रचनाकार हैं| ग़ज़ल कविता और नवगीत में समान रूप से सक्रिय एक ऐसे रचनाकार जो कल्पनाजीवी न होकर यथार्थ भावभूमि पर चलना पसंद करते हैं| यूं तो ग़ज़ल विधा के बड़े हस्ताक्षरों में से एक हैं लेकिन नवगीत की ज़मीन को उर्वर बनाने में इनका अपना योगदान है, जिसे किसी भी रूप में इंकार नहीं किया जा सकता है| ऐसा कहते हुए यह कहना चाहूँगा कि जहाँ अधिकांश नवगीतकारों को अभी तक गीत और नवगीत के विभेदक तत्त्वों की जानकारी नहीं हो पायी वहीं अपने के यथार्थ और समाज की जरूरतों पर लगातार लेखनी करते हुए माधव कौशिक नवगीत विधा को निरंतर समृद्ध करने में लगे हुए हैं| कोरोना समय की विसंगतियों में कवि जिस जिम्मेदारी का परिचय देता है जन के प्रति उसका संज्ञान लेना जरूरी है| 

ऐसा समय, जिसकी न तो किसी ने परिकल्पना की थी और न ही तो स्वप्न देखा था, हम सबके बीच आया और विचलित करते चला गया| सब को चिंता हुई, दुःख हुआ और आज भी एक भयानक


सदमे के दौर से दो-चार होना पड़ रहा है परिवेश को| यह एहसास माधव कौशिक को कहीं गहरे में होता है कि बड़ी से बड़ी बाधाओं को दूर करने वाला “मानव कितना दुर्बल है/ असहाय बहुत है/ इस प्रकोप के सम्मुख/ वह निरुपाय बहुत है|” सब कुछ जैसे क्षीण हो गया है उसका| हर कोई जैसे दुश्मन हो गया है| आपदा में अवसर की तलाश करता मानव पहली बार इतना निरुपाय हुआ कि सब कुछ होते हुए भी दो रोटी के लिए तरसने लगा|

यह निरापद नहीं है कि मनुष्य जीवन की इस यथार्थ स्थिति के प्रति साहित्य में सबसे अधिक कविता ने अपनी भूमिका का निर्वहन किया और भागते विस्मृत होते जन के पक्ष को लेकर भूखे, नंगे और हताश-परेशान जीवन को केन्द्र में बनाए रखा| नवगीतकार माधव कौशिक का कवि हृदय देखता है कि आँखों में सजने वाले “चारदीवारी में सपने/ बन्द हैं|” कवि यह भी देखता है कि भटका हुआ इंसान कहीं खो गया है| समृद्धि और वैभव की दुनिया में “भागती पीढ़ी अचानक/ रुक गई है/ ऊंची-ऊंची गरदनें/ सब झुक गई हैं|” किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा है कि वह करे तो क्या करे? अच्छे दिनों की तरह निमंत्रण न देकर “दबे पाँव आते हैं दुर्दिन/ बिन बुलाये/ किसके आगे दर्द कहें हम/ किस को व्यथा सुनाएं?” खासकर ऐसी स्थिति में जब सभी जले-भुने, हताश-निराश-परेशान और हैरान हैं|

इस कोरोना काल में हर कोई विशेषगज्ञ बनता दिखाई दिया| विषेशज्ञता की आड़ में षड्यंत्रों के जो खेल खेले गये उसके निशान लम्बे वर्षों तक नहीं जाने वाले हैं| इस कोरोना समय में षड्यंत्र की बिसातें इतनी बिछाई गयी हैं कि स्वतंत्र रहने वाला मानव तमाम पिंजरों में कैद कर के रख दिया गया है| एक पिंजरे से मुक्त होता है तो दूसरे पिंजरे के सांकल उसे जकड ले रहे हैं| यहाँ वह यह समझने में असमर्थ हो रहा है कि इस भयानक त्रासदी के दौर में “कौन अब विश्वास को/ आवाज़ देगा/ परकटे पंछी को कब/ परवाज़ देगा?” उसकी अपनी आँखों के सामने “ज़हर घुलता जा रहा/ वातावरण में/ फर्क कुछ पड़ता नहीं/ जीवन-मरण में|” कलरव और गुंजार से परिपूर्ण परिवेश किसी श्मशानघाट से कम नहीं लग रहा है| ज़िन्दा आदमी भी मृतकों की तरह आचरण करने के लिए वेबस है| कवि देखता है कि उसके सामने ही “हँसते-गाते शहर बन गए/ शमशानों से निर्जन/ चारों ओर सुनाई देता/ जनमानस का क्रंदन” ऐसा क्रंदन जहाँ चीखना हर कोई चाहता है लेकिन मौन है कि टूटने का नाम नहीं ले रहा है| आवाज़ हलक से बाहर आने के लिए तैयार नहीं है| शहरों तक होता तो भी कुछ गनीमत थी| समस्या तब अधिक और बढ़ गयी जब “महानगरों से चलकर गाँवों तक/ यह कहर गया|” उन गाँवों तक जहाँ अभी तक खडंजे और नल पर राजनीति हो रही है| न हॉस्पिटल हैं और न ही तो कोई अन्य चिकत्सकीय सुविधाएँ|

सही मायने में कहें तो यह ऐसा दौर है जहाँ मनुष्य से मनुष्य की दूरी बढती जा रही है| कोई किसी से संवाद की स्थिति में तो बिलकुल नहीं दिखाई दे रहा है| चारों तरफ “तीव्र आँधी है, बुरा माहौल है/ मानवी-मूल्यों का मौसम मंद है|” किसी के बीमार होने भर से जहाँ पड़ोसी पूरी बस्ती को एक कर देते थे वहीँ किसी के मरण पर देखने की भी हिमाकत नहीं कर पा रहे हैं| माधव कौशिक का कवि हृदय ऐसी स्थिति को देखकर द्रवित है| उनकी दृष्टि में “पहले ही अलगाव बहुत था/ अब सामाजिक दूरी/ कैसे कोई कर पायेगा/ समरसता को पूरी/ जंगल के दावानल जैसा/ संकट पसर गया” जिस संकट में बस भागम-भाग शेष है| ज़िन्दा बस्ती का बसेरा होता तो कोई सहायता के लिए भी आता अब क्योंकि सब सूनसान है तो ऐसा लग रहा है जैसे जंगल में आग लगी हो और सब कुछ तहस-नहस हो रहा है| यही इस समय का यथार्थ है| कहाँ तो संकट के समय कंधे से कंधा मिलकर चलने की रवायतें थीं कहाँ अब लोग भागने-पराने लगे हैं| समस्या तो यहाँ तक आ पहुंची है कि “कितना भी कोई प्यारा हो/ छू नहीं सकते/ मरणासन्न हैं, लेकिन आँसू/ चू नहीं सकते|”

शहरों से गांवों की तरफ आने वाले मजदूरों की स्थिति ने सब को चिंतित किया| हर कोई इस यंत्रणा को देखकर हैरान और हताश रह गया| इन्होंने सबके समय को सुनहरा किया लेकिन इनके लिए “मास्क लगाकर घूम रहा है/ समय अभी तक|” जिनके जिम्मे इनकी रक्षा-सुरक्षा की जिम्मेदारी थी वह इनके सौदागर बन बैठे| सपनों से लेकर आशाओं और आकांक्षाओं तक की परवाह नहीं की| कवि यहाँ देखता है कि “बाग़ के हत्यारे/ माली हो चुके हैं|” चुन-चुन कर फूलों और वृक्षों को उजाड़ रहे हैं| यह उजाड़ना नहीं तो आखिर क्या है कि शहरों की शान-ओ-शौकत बढाने वाले “महानगरों से करें पलायन/ फटे हाल मजदूर|’’ जिस समय सम्पन्न लोग घरों में ताली-थाली के उत्सव में व्यस्त थे उसी समय कवि “भूखे-प्यासे खड़े सड़क पर/ बुरे हाल मजदूर” को असहाय और बेबसी के मंजर में फंसे देखता है| यह मंजर इतना भयानक और त्रासदपूर्ण होता है कि “छलनी तलुवे चले निरंतर/ पहुँचे सौ-सौ कोस/ लेकिन कभी व्यवस्था को भी/ नहीं देते हैं दोष” क्योंकि उनकी बचपन से लेकर अब तक की स्थिति में यह कोई नई घटना नहीं होती है|

बार-बार व्यवस्था के हाथों छले जाते हैं लेकिन उतनी ही बार फिर उठ खड़े होते हैं, ठीक उनको चिढ़ाते हुए| वे सच्चे अर्थों में कर्मपथ पर चलने वाले राही हैं जिनके हिस्से महज श्रम लिखा है| कवि इनकी स्थिति को देखते हुए जो शब्द कहता है दरअसल हम सबके हृदय में उनके प्रति वही उदगार हैं| “सर पर गठरी लिए दुखों की/ और कंधे पर बच्चे/ झूठ फरेबी इस दुनिया में/ निकले ये ही सच्चे|” इस अर्थ में भी कि माटी की उर्वरता को अपने अंदर समाहित करके चलने वाले लोग हैं न कि बंजर जमीन की नीरस और उदास साँझ को ढोने वाले व्यापारी| विसंगति इनके साथ यही हुई कि “गाँव पहुँच कर मुई भूख ने/ ऐसा फिर से घेरा/ महानगर में लौट के आये/ उठा के टांडा-डेरा/ रगड़-रगड़ कर एड़ी मर गये/ इसी साल मज़दूर” लेकिन व्यवस्था के नुमाइंदे न तो स्वयं को बदल सके और न ही तो भूख और पीड़ा की यथास्थिति को बदलने में इनकी कोई सहायता की|  

हम “कैद हैं घर में/ घुटन बढ़ने लगी है” जिसका इलाज हमें तलाशना होगा| कुल मिलाकर हम सभी “इस अराजक वक्त में/ ऐसे फंसे/ दुर्दिनों के पाश में/ सपने कसे/ किस तरह पीछा छुडायें दर्द से/ सबके सीने की कुढ़न बढ़ने लगी है|” इस बढ़ते कुढ़न के बीच यह तय है कि हर प्रकार की समस्याओं का भी एक समय होता है| सुबह के बाद रात होती है तो रात के बाद सुबह भी होता है| अब सब कुछ अधिक हो गया है| कवि हैरान इस बात से है कि बातचीत, संवाद और प्रेम-प्रक्रिया में प्रवाहित होने वाला “कम्प्यूटर पर घूम रहा है/ समय अभी तक|” आगे भी “हाल क्या होगा समय का/ राम जाने/ अब तो फूलों में/ चुभन बढ़ने लगी है” यह चुभन अधिक न बढ़े इसके लिए प्रयास मनुष्य को ही करना पड़ेगा| यह तो सबको पता है और कवि भी मानता है कि “कुछ दिन अपनी किस्मत पर/ दुनिया रोती है” बाद में कर्म-पथ पर अडिग रहते हुए दुनिया-निर्माण का स्वप्न फिर संजोने लगती है| सृजन का कारवाँ कभी रुकता नहीं है तमाम विसंगतियों और अवरोधों के बावजूद भी| तमाम समस्याओं के आने के बाद भी यह कवि का साहस है कि वह समय के सुन्दर होने के प्रति आशान्वित है, क्योंकि “कुदरत के गुस्से-प्रकोप की/ हद होती है|” यह प्रकोप भी हद की सीमा को पार कर गया है| अब नए सवेरे का आगमन होना सुनिश्चित है|

कोरोजीवी कविता में जन के प्रति जो लगाव है, ऐसा नहीं है कि वह मात्र कविता में है| गीतों, नवगीतों और ग़ज़लों में भी इसकी दमदार उपस्थिति है| यूँ तो इन विधाओं में अक्सर लोग सत्ता-पक्ष में रहते हुए जन के यथार्थ को ठीक तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाए; जबकि उन्हें यह पता है कि पक्ष-विपक्ष में होना एक बात है और जन-संवेदना की बात करना एकदम दूसरी बात, बावजूद इसके समस्या वहां खड़ी हो गयी जहाँ लोग भटकते मानव को विस्मृत कर नेतृत्व-गान में व्यस्त हो गये| बतौर नवगीतकार माधव कौशिक स्वयं कहते हैं “चन्द रचनाकार ही ऐसे बचे हैं/ जिनके बाग़ी गीत-ग़ज़लें-छंद हैं” बाकी सब एक विशेष प्रकार की भीड़ में शामिल होते हुए विधा की धार को कमजोर करने में तल्लीन रहे| माधव कौशिक की इन रचनाओं से गुजरते हुए यह आभास हुआ कि जब तक ऐसे खुले मानसिकता वाले रचनाकार हैं तब तक विधाओं के संकट की बात करना बेमानी है|  


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