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‘कोरोजीवी कविता का सांस्कृतिक सन्दर्भ’ लेख में लिखते हुए यह कहा
था एक दिन कि “कविता या साहित्य कभी भी ऊँगली पकड़ कर चलाए भले न लेकिन ऐसा सूत्र
उसमें से प्राप्त होता है कि आप (खुद के साथ) दूसरों को ऊँगली पकड़ कर रास्ता जरूर
दिखा सकते हैं| कोरोजीवी
कविता ने निःसंदेह कोरोना के भयंकर दौर में आपको जीवन-सूत्र दिया है| वह दृष्टि दी जिसके जरिये आप न सिर्फ लम्बी दूरी चल सकते हैं अपितु
सार्थकता के साथ निर्माण के स्वप्न को हकीकत में भी बदल सकते हैं| हाँ दावे और वायदे यहाँ नहीं मिलेंगे आपको|” रोजगार
का प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं है| यह उनसे पूछा जाना चाहिए
जो बेरोजगार हैं| काम-धाम नहीं है कोई खर्चे तमाम हैं|
उनसे भी पता कर सकते हैं जो उनकी यथास्थिति से परिचित हैं| दो वक्त की रोटी के लाले पड़ जाते हैं| शौक-साधन की
तो बात ही जाने दीजिये| जेब में पैसे का न होना और घर-परिवार
की ज़रूरतों का नित-प्रतिदिन सामना करना किसी असह्य पीड़ा को आत्मसात करने से कमतर
तो नहीं है|
हिंदी कविता में बेगारी-बेरोजगारी का जिक्र
बराबर आया है| मिलों,
फैक्ट्रियों, कारख़ानों में दिहाड़ी पर कार्य करने
वाले मजदूर, गाँवों, शहरों आदि में
खटने वाले मजदूर कवियों की संवेदना के पात्र रहे हैं| छोटे
से उदहारण में निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' कविता को आप विस्मृत नहीं कर सकते हैं| ‘चल रहा
लकुटिया टेक’ निराला की ही कविता है| इसके पहले यदि तुलसीदास के यहाँ जाएँगे तो 'जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस/ कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’ जैसा
यथार्थ आँखें खोल देती हैं| ‘कहाँ जाइ का करी’ पर थोड़ी देर ठहरिये| सोचिए कि ये प्रश्न कितनी हताशा और निराशा लिए हुए
है? कितनी वेबसी और दर्द लिए हुए है? तुलसी का समय और आपका समय यहाँ आकर एकमेक हो
जाते हैं| नागार्जुन द्वारा रचित ‘प्रेत का बयान’ में प्रेत जो कुछ कहता है गलत
कहाँ कहता है? विसंगतियाँ इस कदर घेर लेती हैं कि न आप इधर के होते हैं न उधर के|
आने की पाबंदी और जाने की बंदी जहाँ हो वहां का
यथार्थ अलग हो जाता है| परिवार की रोटी का बन्दोबस्त करेंगे या फिर व्यवस्था का
विरोध करेंगे? प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा| एक बात और है कि साधारण समय की
बेरोजगारी और किसी विशेष-परिस्थिति की बेरोजगारी में भी अंतर होता है| महामारियों का इतिहास जो कुछ
कहता है, गलत नहीं है| अच्छे-अच्छे सड़कों
पर आ जाते हैं, वे भी जो रोजगार दे रहे होते हैं, जिनके पास नहीं है कुछ तो उनका क्या हाल होता होगा, यह
पूछने की ज़रूरत नहीं है| खुद का भी यथार्थ देखेंगे तो स्पष्ट
होता जाएगा| ‘बेरोजगार मित्र की डायरी से’ कविता है दिनेश
कुशवाहा की| कवि एक बेरोजगार की यथास्थिति को किस तरह अभिव्यक्त करता है वह आप
यहाँ देख सकते हैं-
“अभी तो मैं जवान हूँ
मुझे भी आते हैं सतरंगी सपने
पर जब देखता हूँ
धीरे-धीरे बुझ रही हैं पिता की आँखें
तो मुझे अपने रंगीन सपनों से
वितृष्णा होने लगती है।
यूँ तो रोज़ ही जन्मती-मरती हैं
छोटी-मोटी इच्छाएँ
कि पी लूँ एक कप कॉफ़ी रेस्तराँ में बैठकर
धुला लूँ लॉन्ड्री में कभी रीठ गए कपड़े
बनवा लूँ एक नई कमीज़|”
लेकिन फिलहाल यह सब महज स्वप्न ही रह जाते हैं|
नौकरी नहीं है तो करेगा क्या कोई कुछ? इधर की कविता को लेकर यहाँ एक अलग तरीके का
यथार्थ भी है| कवि के लिए ‘दुःख’ स्थाई विकल्प है कविता में| वह तमाम मुद्दों पर
दुखी होता रहा है, होता है| बेरोजगारी जैसे प्रश्न पर उसके यहाँ मौन दिखेगा आपको|
जैसे यह सरकार की ज़िम्मेदारी मात्र हो| राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिरोध में तमतमाए
कवियों के पास विरोध का यह विकल्प सीधे क्यों नहीं आता, आप इस पर विचार कर सकते
हैं| यह सीधे शायद उनको न झकझोरती हो? उनके दिमाग पर बल न पड़ता हो?
जो भूमि में जीवन बोते हैं
उनके गीतों में श्रम के राग होते हैं
वे मेड और मचान पर सोते हैं
वे खेतों में अक्सर रोते हैं
करुणा की क्यारी में कवि बहुत हैं
किन्तु, कविता किसी के पास नहीं है
क्योंकि, कर्ज के बोझ से टूटी हुई रीढ़ कह रही है
कि भाषा की आँख है भूख
और उसकी आत्मा है दुःख|” (गोलेन्द्र पटेल)
सही कहूँ जितनी ज़िम्मेदारी से रोजगार और भूख को
केंद्र में रखकर कविताएँ लिखी जानी थीं, इधर दो तीन वर्षों में बेरोज़गारी और
पेपरलीक जैसे विषयों पर कवियों की संवेदनाएँ कम ही जगी हैं| समाज के बड़े हिस्से के पास कोई
साधन नहीं है| किस तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो,
यह नहीं पता है| युवा दिन-रात श्रम करके भी
परिवार का खर्च नहीं पूरा कर पा रहे हैं| कवि बावजूद इन सबके
ऐसे विषयों से अनभिज्ञ रह जा रहे हैं? क्या यह सच है कि उनके
समय में अब रोजगार कोई समस्या नहीं है? भुखमरी, भाड़े की मजदूरी, बँधुआ मजदूरी, बेगारी आदि के दायरे में जीवन यापन करने वाले लोग क्या हमारे परिवेश से
गायब हैं?
कोरोजीवी कविता में इस बात पर विचार हुआ है| कविता जिस समय एक फैशन की तरह
विकसित हो रही हो वहीँ कोरोजीवी कविता के दायरे में कवि सुरक्षित जोन से बाहर निकल
कर जोख़िम लेता है और पाता है कि -
“इधर,
अभी
पेट की आग व अन्न का
समीकरण है अनसुलझा हुआ|
कलमुँही महामारी की आड़
में
कामवाली की पगार और
सूरते राजगीर की दिहाड़ी
को
अड़ंगी लगी है ज़बर्जस्त|” (बल्वेन्द्र सिंह)
इधर महज कवि की वेबसी नहीं है| एक सम्पूर्ण लोक
की वेबसी है| एक रोजगार संपन्न होते हुए जब कवि की यथास्थिति ऐसी है तो सोचो कि
कवि जब कामवाली और सूरते राजगीर की दिहाड़ी देने में असफल हो रहा है तो जो दिहाड़ी
पर है और जो कामवाली है उसकी क्या स्थिति होगी? कहाँ से घर का खर्च निकल रहा होगा
उसके, कहाँ रोजमर्रा की ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरी करते होंगे ऐसे लोग? प्रश्नों
की संख्या बढ़ती जाती है और कवि की पक्षधरता और कविता का वास्तविक संघर्ष यहाँ से
परिभाषित होता जाता है| यह भी समझ सकते हैं कि जिनके पास यह साधारण सी नौकरी भी
नहीं है उनका क्या होता होगा? किस तरह से होंगे उनके बाल-बच्चे और किस तरह से पूरी
होती होंगी उनकी ज़रूरतें-‘बेरोजगार पिता के बेटे’ कविता में आलोक मिश्र लिखते हैं
कि-
“बेरोजगार पिता का बेटा
देखता है रोज़ एक सपना
कि उसके पिता जा रहे हैं काम पर
और लौट रहे हैं वहाँ से
कंधे पर लटकाये एक भरा हुआ झोला
बेरोजगार पिता का बेटा
लहककर लपकता है उस तक
पर वह झोला है या कोई झोल
कि लपकते ही वह और सपना
दोनों हो जाते हैं गोल|”
दरअसल ऐसे बच्चों का कोई संसार इतना सुखद नहीं
होता| कुशल है कि वह बच्चे हैं और कुछ समय के बाद भूल जाते हैं लेकिन पिता की
यथास्थिति कैसी होगी? विचार इस पर किया जाना चाहिए| कोरोजीवी कविता में यथार्थ
शिद्दत से अभिव्यक्त होता है| बगैर किसी घुमाव के और बगैर किसी लाग-लपेट के| जितना
यथार्थ आपको इस कविता में मिलेगा, कहीं और नहीं देखेंगे|
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कोरोना समय का यथार्थ विचलित करता है| डराता है|
जब मैं कोरोजीवी कविता का अध्ययन करता हूँ तो इस समस्या ने कवियों को अंदर तक
झकझोरा है| वे
युवाओं की बदहाली और परिवार के बिखराव देखकर विलख पड़े| भूख,
प्यास, असीम पीड़ा, वेदना
आह! बहुत कुछ| श्रीप्रकाश शुक्ल सरीखे कवि लिए हर क्षण दुखद
है| ‘इंतज़ार’ कविता में एक जगह वह लिखते हैं-
“हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण एक बीतता हुआ क्षण है
और जो बीत
रहा है
वह किसी अनबीते का महज़ इंतज़ार लगता
है
जिसमें सीझती हुई करुणा
गुजरते समय की उदासी बन
कंठ में अटक सी गई है!” (श्रीप्रकाश शुक्ल)
हलक तो हर किसी के सूखे ही रहे| यह सच है कि सरकारें
जहाँ विज्ञापन में ‘सब अच्छा है’ का स्वप्न दिखा रही थीं, कविगण अच्छा होने, दिखने और करने के बीच के फासले को महसूस कर रहे थे| उन्हें
किसी भी हालत में ख़तम करने में तल्लीन थे| उनके सामने एक ऐसी
लाचार-वेबस-लुटी-पिटी युवा पीढ़ी थी जिनके पास हज़ारों-हज़ार योग्यता होने के बावजूद
रोज़गार के अभाव में या तो दम तोड़ रहे थे या फिर मरते-घिसटते आत्मीय लोगों को यथावत
देखने पर विवश थे| ‘कोरोना फ़ैल रहा है’ कविता में विनोद पदरज लिखते हैं कि-
“कोरोना फैल रहा है
लोग मर रहे हैं
डॉक्टर, नर्सें, पुलिसकर्मी
संक्रमित हो रहे हैं
रोज़गार बंद हैं
मजूर सड़कों पर हैं
सबको गाँव जाना है
कई भूख से मर गए हैं
कई ट्रेन से कुचल गए
हैं
उधर गैस रिसी है
कई दम तोड़ चुके हैं
कई भर्ती हैं
इधर फिर से घाटी में
जवान हताहत हो रहे
हैं... (विनोद पदरज)
यह चित्र एक साथ कई तरह की विसंगतियों का यथार्थ
है| दिमाग-बंद यथास्थिति का चित्रण मात्र नहीं है यह| भूख, बेबसी, बेरोजगारी आदि
तो है ही वह आत्मपीड़ा भी है जिसके दायरे में कोरोना विकसित होता है और लगभग
मानवीयता को संकट में डालता है| फिलहाल देश में यह संकट कोई नया नहीं है| भूख यहाँ
की स्थायी विशेषता रही है| हम इससे निजात पाए भी नहीं थे कि ‘आत्मनिर्भर’ देश की
परिकल्पना का स्वप्न दे दिया गया| कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की एक कविता है ‘रोटी’ इस
कविता में वह ‘आत्म निर्भर होता देश अब/ रोटियों से आगे निकल चुका है!” का यथार्थ
रखते हैं-
“रोटी का बिखरना
नहीं है कोई घटना
जनता अभी भी सड़क पर है
और उसके पलट प्रवाह के बीच
देश आत्म निर्भर हो रहा है|” (श्रीप्रकाश शुक्ल)
रोटी जिस तरह से बिखरी हुई है वह बिखरी हुई
मनुष्यता का हवाला दे रही है| आत्मनिर्भर की संकल्पना पर हँस रही है| यथार्थ को
दरअसल झुठलाया नहीं जा सकता है लेकिन उसके उलट प्रवाह में स्वप्न को उछाला जा सकता
है| सत्ता महज स्वप्न उछालती है| जनता उस स्वप्न के दायरे में स्वयं को देखने के
लिए विवश होती है| यह विवशता कहीं और से नहीं आई थी| कवि जानता है| कविताओं में दर्ज है| कोरोजीवी
कविता इसी अर्थ में ज़िम्मेदार है| एक समझ से परिपूर्ण ईमानदार नागरिक की तरह| कौन
घर से बेघर हुआ, किसकी नोकरी छूटी, किसको बैंक ने ईएमआई एक्सटेंड करने के एवज में
ठगा, किसकी ईएमआई नहीं गयी और वह डिफाल्टर हो गया या कर दिया गया, खाने-पीने की
असुविधा में ईएमआई की चिंता में युवा वर्ग कितना अधिक तबाह हो होता रहा, यह सब कवि
को पता है| संजय कुंदन के यहाँ एक कविता है ‘अमरता’| इस कविता में एक ही कामगार है
जो वास्तविकतः पूरे परिवार का खर्च चलाती है| गुंडों के हाथ लगने पर स्वयं को
बलात्कृत होने के लिए यह कहते हुए तैयार करती है कि-
“मेरी ही नौकरी से चलता है घर
पिताजी दो साल पहले गुज़र गए
भाई अभी स्कूल में ही है
बहन बॉक्सर बनना चाहती है
बहुत पैसा लगता है
उसकी ट्रेनिंग में
मां के घुटनों में दर्द रहता है
जल्दी ही ऑपरेशन कराना पड़ेगा”
निहायत ही असहनीय पीड़ा है ये| ऐसा दर्द है जिसे
कहा नहीं जा सकता है महज महसूस जा सकता है| संजय कुंदन जैसे कवि से यह इसलिए संभव
हुआ क्योंकि ये आम जीवन के बीच गंभीरता से रह रहे हैं| उनके मुद्दे उठा रहे हैं और
उनके बीच रहते हुए कविता को लिख रहे हैं|
पता है कोरोजीवी कवि को कि कितने मजदूर नौकरी से निकाल दिए गये|
कितने की सैलरी कम कर दी गयी| कितने की तनख्वाह रोक दी गयी और आज तक उसका कोई
हिसाब-किताब नहीं किया गया| कोरोना समय की एक खोज ‘वर्क फ्रॉम होम’ एक अलग तरह की
समस्या लेकर आई| इस प्रक्रिया ने लोगों से काम खूब लिया लेकिन घर के नाम पर उनकी
सैलरी बड़ी मात्रा में कट कर दी| यह अमूमन सबको पता है| जिनकी सरकारी नौकरियां थीं
उनकी तो खैर सब ठीक-ठाक लेकिन जो प्राइवेट नौकरी में उनका घर-बार चलना मुश्किल हो
गया| अभी भी बहुत-से संस्थान ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कॉन्सेप्ट पर ही कार्य करवा रहे
हैं| वे आज भी सैलरी कुछ हिस्सा काट रहे हैं| परिवार का कौन-सा सदस्य महज पैसा न
होने की वजह से गुजर गया, किसके घर का बच्चा तीन दिन से भूखा है और किसी रोजगार
संपन्न परिवार का न होने की वजह से दम तोड़ गया, यह सब कविता में दर्ज़ है| एक जगह
पंकज चौधरी अपनी कविता ‘कोरोना और दिहाड़ी मजदूर’ में कोरोना समय का वर्तमान और
उसके बाद की भयावह स्थिति पर विचार करते हुए लिखते हैं-
“परदेस में उनके हाथों
को जब कोई काम ही नहीं रहा
घरों से उनको बेघर ही
कर दिया गया
राशन की दुकानें जब
ख़ाक ही हो गईं
तब वे करें तो क्या करें
जाएँ तो कहाँ जाएँ।
वे उसी वतन को लौट रहे
हैं
जिनको मुक्ति की
अभिलाषा में छोड़ना
उन्हें क़तई
अनैतिक-अनुचित नहीं लगा था
यह जानते हुए भी
फिर वहीं लौट रहे हैं
कि वह उनके लिए किसी
नरक के द्वार से कम नहीं है
उन्हें पता है कि
जिनसे मुक्ति के लिए
उन्होंने गाँवों को छोड़ा था
वे उनसे इस बार कहीं
ज़्यादा क़ीमत वसूलेंगे
उन्हें उनकी मजूरी के
लिए
दो सेर नहीं एक सेर अनाज
देंगे
उनके जिगर के टुकड़ों
को
बाल और बंधुआ मज़दूर
बनाएँगे
उनकी बेटियों-पत्नियों
को दिनदहाड़े नोचेंगे-खसोटेंगे
शिकायत करने पर
रस्सा लगाकर
ट्रकों में बाँधकर
गाँवों में घसीटेंगे|”
जिन विसंगतियों से ऊबकर आम आदमी शहरों की तरफ
पलायन किया था उन्हीं विसंगतियों में उनकी फिर वापसी हो रही है| जो सक्षम तब थे वह
अपनी तरह से सक्षम अब भी हैं| अभी न तो उनके उन्माद कम हुए हैं और न ही तो उनकी
जड़ताएँ| बेचैनियाँ बढ़ी ज़रूर हैं| ऐसे में कोई वापस लौटकर खाली हाथ जाता है गाँव,
उसकी यथास्थिति पर पंकज चौधरी की यह कविता पूरी तरह बेबाक है|
फिर कह रहा हूँ कि जहाँ सभी अपनी भूमिका निर्वहन
करने में नाकाम रहे, कवि एवं कविता ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई| विपत्ति के दिनों
में दूर से आवाज़ देने वाला भी बड़ा हमदर्द होता है यहाँ तो कविता का संग-साथ पूरी
गम्भीरता से मिला| कवि संग-साथ ही नहीं रहा, व्यवस्थागत ढांचे में बदलाव के लिए
प्रतिरोध का विकल्प भी सर्जित किया| यह वही सर्जना है जिसके दम पर श्मशान में
तब्दील हो चुके परिवेश को पुनः ऊर्जस्वित किया| कोरोजीवी कविता की सबसे बड़ी भूमिका
यह भी रही कि मुक्ति और युक्ति का संकल्प लेकर आई वह इन दिनों| यह ऐसा संकल्प है
जिसमें जन की भूमिका विशेष हो उठती है और समाज अपनी ज़िम्मेदारी का सार्थक निर्वहन
करना शुरू कर देता है|