1.
यह दौर सही मायने में बौद्धिकों के मूक-बधिर होने का दौर है| बांग्लादेश में तख्ता पलट क्या हुआ बहुत से चेहरे बे-पर्दा हो लिए| राजनीतिक धरातल पर सक्रिय अधिकांश लोग अमानवीय अनैतिकता का चोला ओढ़ कर महज चुप्पी साध लिए तो बहुत से लोग बोले तो ऐसा बोले के मानवीयता शर्मसार हो गयी| वाम तबका तो एकदम से मौन ही साध लिया है| बांग्लादेश में निरंतर सांप्रदायिक खेल हो रहे हैं| उसके प्रतिरोध में मुस्लिम बौद्धिक तो खैर कभी बोलेंगे नहीं क्योंकि उन्हें इस्लाम ही प्यारा है और कुछ नहीं, वाम समर्थित अन्य बौद्धिकों के यहाँ भी भयंकर चुप्पी है| जो तथाकथित राष्ट्रवादी हैं उन्हें भी आप आँख-कान खोलकर देख सकते हैं| वे सक्रिय थे तो महज नौकरियां पाने तक| बाद उसके क्या हो रहा है देश-दुनिया में, कोई खोज ख़बर नहीं है उसकी|
कई दिनों से चुपचाप सेलेक्टेड विरोध के परिदृश्य को देख रहा हूँ| वर्तमान समय में सक्रिय कुछ चिन्तक-विश्लेषक विनेश फोगाट के विषेशग्य बन लिए तो कुछ फिल्मों आदि की समीक्षा करने में व्यस्त हो लिए| रहे-सहे जो कुछ थे वह कविता-वविता की दुनिया में व्यस्त हो लिए| एक चींटी भी यदि कहीं घायल हो जाए तो लोकतंत्र के खतरे में होने और मानवीयता को नष्ट करने का आरोप लगाने वाले राजनीतिक विश्लेषक ख़तरनाक तरीके से मारे जाने वाले समुदाय विशेष के प्रति कोई हमदर्दी नहीं रख रहे हैं| मैंने कुछ चिंतकों के पोस्ट को खंगाला भी| आप भी उनके फेसबुक वाल को देख सकते हैं|
ठीक है कि बोलने से बांग्लादेश के हालात नहीं सुधर जाएँगे लेकिन अन्य दंगा-फसाद होता है तो यही लोग चीख-चीख कर रोते-चिल्लाते हैं| कसाब जैसे आतंकवादियों को बचाने के लिए जो लिस्ट जारी हुई थी अब बहुत दिन की बात नहीं है| यही अभी हाल-फिलहाल की घटना हो जैसे| जो तत्परता उस समय दिखाई गयी थी उसका एक प्रतिशत भी बौद्धिक जगत बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के कत्लेआम पर नहीं बोल रहा है| आखिर ऐसा क्यों होता है? क्यों किया जाता है इस तरह से? क्या खास तरह की समझदारी मनुष्यता महज लांक्षित करने के लिए बरती जाती है या फिर उसकी कोई और वजह है?
2.
कथाकार मधु कांकरिया को मैं हर समय सम्मान की दृष्टि से देखता रहा हूँ| इधर उनका लेखन संदेहास्पद-सा दीखता है| यह मधु कांकरिया ही नहीं कोई भी हो सकता है| ऐसा व्यक्ति या रचनाकार जिसे अपने समकाल की थोड़ी भी समझ नहीं है , वह कुछ भी हो सकता है लेखक नहीं| समझ नहीं आता है कि वे पढ़ते-लिखते क्या हैं? क्या देखते हैं? यदि एक त्रासदी जैसी स्थिति आपको दिखाई नहीं देती, उस पर भी महज सुनकर अपनी प्रतिक्रिया दे देते हैं तो मुझे लगता है कि साहित्यकार होने का कोई मतलब नहीं है|
साहित्य सच के साथ होता है| निरपेक्ष और निरीह लोक के साथ होता है| सत्ता से हर समय उसका दो हाथ होना असहज नहीं है| लेकिन मधु कांकरिया ने कल जिस तरह का पोस्ट करके मीडिया को कठघरे में खड़ा करना चाहा वह खुद किस स्थिति से मुँह दिखाएंगी, आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं| सवाल महज झूठ बोलने भर का नहीं है, षड्यंत्र और अमानवीयता का साथ देने का भी है|
बांग्लादेश में साम्प्रदायिकता अपने चरम पर खेल खेल रही है| वहां के नव-नियुक्त गृह मंत्री से लेकर अन्य ज़िम्मेदार अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचार पर माफ़ी-माफ़ी मांग रहे हैं| मंदिर तोड़े जा रहे हैं, घर जलाए जा रहे हैं और यह कह रही हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं है| बहुत शांति है| भारतीय मीडिया अफवाह न फैलाए....
नासमझी की एक सीमा होती है| इसे वैचारिक विवशता भी आप नहीं कह सकते हैं| यह निहायत ही जड़ मूढ़ता है जो महज नाम-इनाम कमाने के लिए परवान चढ़ी है| एक ज़िम्मेदार लेखन क्या यही है? क्या यही आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता है? अगर ऐसा है तो निश्चित ही घृणा हमें इस प्रवृत्ति से| घृणा है हमें ऐसे विचार और साहित्य के पैराकारों से|
वाम विचारधारा के अन्य प्रतिबद्ध लेखक और साहित्यकार भी हैं| इतने प्रतिबद्ध कि वहां तक ये
पहुंच भी नहीं सकतीं हैं| वरिष्ठ आलोचकों में सुख्यात
कर्मेंदु शिशिर जी का लेख पढ़ लीजिये आप...पढ़ना ही तो आप वरिष्ठ आलोचक अजय तिवारी
जी का लेख पढ़ लीजिये| ये लोग अनाप-शनाप बकने की जगह
ज़िम्मेदारी से बात कर रहे हैं और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर ज़िम्मेदारी
से खड़े होने के लिए अपील कर रहे हैं| इनकी नज़र में इनकी
वैचारिकता कमजोर के साथ खड़े होने की है वह कहीं के भी हों किसी भी धर्म, संप्रदाय के हों| हमें निश्चित ही इस विचार का
स्वागत करना चाहिए|
मधु कांकरिया का हिन्दू धर्म मात्र से इतनी घृणा की बात समझ नहीं आ रही है| वह आखिर चाहती क्या हैं? कहीं बाग्लादेश से कोई पुरस्कार का जुगाड़ तो नहीं चल रहा है? या फिर किसी फ़ौंडेशन का विश्वासपात्र होने की कोई विवशता है? यह तो खैर अब मधु कांकरिया जी ही बताएंगी कि आख़िर वह चाहती क्या हैं?
बेशर्मी की हद तो तब है जब इतनी बातें सुनने के बाद भी वह पोस्ट नहीं हटाईं| भाजपा और मीडिया को कोसते-कोसते खुद का स्तर इतना गिरा लेंगी कभी सोचा भी नहीं गया था| साहित्य के रास्ते यदि आप मनुष्य नहीं रह पा रही हैं तो सौ बार सोचना चाहिए| घृणा के बाज़ार में जनपक्षधरता सुरक्षित नहीं रहती है| मूर्खताओं में संवेदनाओं स्तर कहाँ जाएगा कभी समय मिले तो उन्हें सोचना चाहिए| उन्हें चिंतन करना चाहिए कि निरीह और असहाय लोगों के मारे जाने से इनकी आत्मा कभी संतुष्ट नहीं रहेगी|
मुझे
तो फिलहाल कुछ लिखना ही नहीं था लेकिन दरअसल मनुष्य हैं हम, गलत बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं|
हमारे अन्दर जड़ मूर्खता नहीं है इतनी कि लोक उजड़ता रहे और हम अपनी
चमक-दमक बनाए रखने के लिए झूठ राग अलापें| खैर....स म य सब
जानता है....
No comments:
Post a Comment