1.
अमित
कुमार मल्ल की कविता का एक अंश है-
किताबों से रोज पूछता हूं एक
सवाल
क्यों होता नहीं ,वही
जो होना चाहिए
इस
सवाल के आलोक में यदि देखता हूँ तो वर्तमान समय में कविता की कई पीढियां एक साथ
सक्रिय हैं| आप कह सकते हैं कि ऐसा हर समय रहा है| लेकिन कम से कम यहाँ एक पीढ़ी
दूसरी पीढ़ी पर आरोप नहीं लगा सकती क्योंकि जो कुछ कहा सुना जा रहा है सबके द्वारा
कहा सुना जा रहा है| साहित्य का लोकतंत्र सही अर्थों में इधर के दिन दिख रहा है| प्रस्तुति
माध्यमों का अभाव भी नहीं है और लोग सहजता के साथ संवाद भी कर ले रहे हैं| संवेदनाओं
के छीजते दौर में यह जरूरी भी है| यदि किसी परिवेश में कवि और कविता की सक्रियता न
हो तो वह परिवेश कई दृष्टि से गलत दिशा की तरफ उन्मुख हो सकता है|
हम-आप
अभी और खण्डों में विभाजित हो सकते हैं| अबोले के विरुद्ध और ढेर सारे षड्यंत्र
रचे जा सकते हैं| उर्वर होती धरा को बंजर बनाया जा सकता है| मॉल-कल्चर आपके
व्यवसाय से लेकर जीवन-शैली तक पर एकाधिकार स्थापित कर सकता है| तन्त्र निरंकुशता
की हद तक पहुँच कर आपके अधिकारों को सीमित कर सकता है तो जन विभ्रम का शिकार होकर
बाज़ार के हाथों अपनी संभावनाओं को गिरवी रख सकता है| संभावनाओं को गिरवी रखने का
अर्थ होता है मनुष्यता से त्यागपत्र दे देना| जिस मनुष्यता को बचाए रखने के लिए हम
इतना संघर्ष कर रहे हैं सोचिये कि यदि उसके राह पर चलने के लिए कवि और कविता भी न
बचेंगे तो रह क्या जाएगा आखिर?
‘रह क्या जाएगा आखिर?’ ऐसा प्रश्न है जिस पर वर्तमान का सब कुछ निर्भर करता है और भविष्य उसी ‘निर्भरता’ पर केन्द्रित है| बहुत अधिक ज़िम्मेदार लोगों द्वारा चारों तरफ एक ‘भ्रम’ फैलाया जा रहा है जिसमें जो सच है उसे देखने नहीं दिया जा रहा है और जो झूठ है उसे कान पकड़ कर सच बताया जा रहा है| ‘जन’ दूर खड़ा होकर सब कुछ देख रहा है| ‘लोक’ में अधिकार प्रदत्त तन्त्र जो कुछ भी कर रहा है ‘जन’ के नाम पर, लेकिन मजे की बात यह है कि उसकी सहभागिता के अतिरिक्त| किसी भी प्रकार की नीति-निर्धारण में ‘जन’ की भूमिका कहीं दिखाई नहीं दे रही है|
कविता
सही अर्थों में जन को इस काबिल बनाने के लिए श्रमशील है तो कवि इसलिए कि कविता
अपना दायित्व निभा सके सही से| आपके मन में यह जिज्ञासा जरूर उठ रही होगी कि कवि
और कविता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं फिर दोनों के मध्य अलगाव का यह संकेत क्यों?
कविता का पाठक होने के नाते आपको यह पता होना चाहिए कि कवि स्वयं कभी-कभी क्या हर
समय अपनी कविता के विपक्ष में खड़ा दिखाई देता है| आलोचकों की सक्रियता में वह भले
उसके बचाव के लिए लाठी भाजते दिखाई दे लेकिन सच्चाई यही है कि वह अंततः खुश तो
नहीं होता है| यही वजह है कि फिर निकल पड़ता है किसी नए सृजन की तलाश में| सृजन
प्रक्रिया में यदि ऐसा न होता तो परिवार नियोजन की तरह कविता-नियोजन का भी कोई न
कोई प्रारूप प्रचलन में आ गया होता|
2
काव्य-सृजन
के क्षेत्र में कविता की तमाम विधाओं में तीन विधाएँ मजबूती से अपना कार्य कर रही
हैं| कविता, ग़ज़ल और नवगीत| इधर के दिन विधागत दूरियां कमजोर हुई हैं और उनके स्थान
पर सरोकार ने प्रमुखता ली है| छन्द और मुक्त से कहीं ज्यादा जरूरी विमर्श इस बात
पर हो रहा है कि किस विधा में कौन-सी बात कितनी मजबूती के साथ रखी जा रही है| जो
बातें छन्दों में लिखने वाले रचनाकार कह रहे हैं जितनी गम्भीरता से उतनी ही
तत्परता से छन्दमुक्त में लिखने वाले कह रहे हैं|
पाठक
इन दोनों माध्यमों के अभ्यस्त हुए हैं| उनमें इस बात को लेकर भेद-भाव वाली
मानसिकता इधर के दिन बदली है| अकादमिक जगत में भी इस बात को लेकर विमर्श होता रहा
है और लगभग ने इस बात को स्वीकार किया है कि ‘कहन’ विशेष है शैली और फॉरमेट की बात
अलग है| हालांकि मुक्त और बद्ध में शामिल रचनाकारों में बहुत से रचनाकार आज भी
भारत-पाकिस्तान जैसी सीमाओं को बरकरार रख कर चल रहे हैं|
कविता
के समकाल में वैसे तो बहुत सारे नाम विशेष हैं लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जिनका इस लेख
में जिक्र होना जरूरी है| सृजन-पथ पर इधर के दिन सक्रिय स्वप्निल श्रीवास्तव, श्रीप्रकाश
शुक्ल, मदन कश्यप, शैलेय, जितेन्द्र धीर, नवनीत पाण्डेय, चंद्रेश्वर, योगेन्द्र
कृष्ण, राज्यवर्धन, रवीन्द्र के दास, सुभाष राय, संतोष कुमार चतुर्वेदी, विवेक
निराला, राजकिशोर राजन, अरुण चन्द्र राय, संवेदना रावत, गणेश गनी, बलवेन्द्र सिंह,
भास्कर चौधरी, गायत्री प्रियदर्शनी, अजय चंद्रवंशी, प्रेमनंदन, रानी सिंह, अमित
कुमार मल्ल, बृजेश नीरज, उमाशंकर सिंह परमार ऐसे नाम हैं जिन पर जन पक्षधरता के
लिए आँख मूद कर विश्वास किया जा सकता है| इनकी कविताओं में जीवन का उत्स तो है ही
समय का संघर्ष भी गंभीरता से व्यंजित हुआ है|
ग़ज़ल
के क्षेत्र में महेश कटारे सुगम, अनिरुद्ध सिन्हा, देवेन्द्र आर्य, ज्ञान प्रकाश
विवेक, रवि खण्डेलवाल, अखिलेश श्रीवास्तव चमन, विज्ञान व्रत जैसे हस्ताक्षर इधर के
दिन निरंतर सक्रिय हैं| नवगीत के क्षेत्र में जगदीश पंकज, अवनीश त्रिपाठी, अनामिका
सिंह, योगेन्द्र मौर्य, ओम धीरज, गणेश गंभीर जैसे रचनाकारों की सक्रियता प्रभावित
करती है| और भी कई रचनाकार हैं लेकिन सबका जिक्र होना सम्भव नहीं है इस एक लेख में
तो विमर्श और चर्चा-परिचर्चा में उनकी भी उपस्थिति यहाँ मानकर चला जाए|
पाठक
के मन-मस्तिष्क पर पड़े रचनाओं के प्रभाव के रूप में देखें तो ये प्रभाव नितांत
रचनात्मक हैं| अपने समकाल में उठने वाले प्रश्नों और मुद्दों पर इनके राय मुखर
होकर आ रहे हैं और एक तरह से सच को सच की तरह कहने का साहस ये सभी रचनाकार दिखा
रहे हैं| अमूमन तो वैचारिकता के प्रभाव में स्वभाव का प्रवाह धूमिल पड़ जाता है
लेकिन इनमें सक्रियता महज सृजन आधार पर न होकर सामाजिक गतिविधियों के आधार पर भी
बनी हुई है| इनमें से कई कवि सक्रिय आन्दोलनों के हिस्सा रहे हैं तो बहुत से कवि
निरंतर जन-भावनाओं को मुखर होकर रख रहे हैं|
3
मैं
भी अपनी गठरी खोलूँ तू भी अपनी गाठें खोले,
बाद
की बातें बाद में होंगी पहले दिल की बात तो हो ले!
कितना
रिश्ता कितनी दूरी, कितनी गाढ़ी है मजबूरी,
आगा-पीछा
सोच-सोच के मौसम अपने पत्ते खोले..!!
देवेन्द्र
आर्य
किसी
भी रचनाकार की पहली पहचान है कि वह सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष की नीतियों को लेकर
कितना जागरूक है| सबल की तरफ सिर तान कर खड़े होने का साहस और निर्बल के पक्ष में
हाथ बढ़ाकर स्वागत करने की तत्परता कितनी है, यह भी एक रचनाकार के मूल्यांकन का
माध्यम हो सकता है| अमूमन तो सभी ‘जन’ के लिए समर्पित स्वयं को मानकर काव्य-सृजन
में प्रवृत्त होते हैं लेकिन कुछ के मामले में बहुधा यह देखा गया है कि ‘जन’ को
केन्द्र में रखकर ‘मन और तन’ की क्षुधा पूर्ति में लगे होते हैं| श्रृंगार आदि से
जुड़ी भावनाओं में लोगों की आलोचना करते हुए स्वयं के लिए स्पेस माँगने वाले ऐसे
लोग ही होते हैं| इन रचनाकारों में किसी क्रांति को खोजना सर्वथा गलत है| इनके
यहाँ ज़मीन से जुड़ी स्थितियां न होकर महज कल्पनाओं की दुनिया होती है| हमें ऐसी
दुनिया से परहेज करना चाहिए जहाँ वास्तविकता के लिए लेस मात्र की जगह न हो|
राजकिशोर
राजन की एक कविता है ‘बसमतिया बोली|’ इस कविता में ‘बसमतिया’ कवि को ‘धूप, धूल,
मिट्टी’ मिलाने की बात करती है इस अर्थ में कि “बहुत हुई शब्दों की खेती|” महज भाव
के स्तर पर ही नहीं शिल्प के स्तर में परिवर्तन की मांग करते हुए वह कवि महोदय से
प्रार्थना करती है कि “सुनो कवि जी/ हम भी बॉचें तुम्हारी कविता/ उसे अईसा बनाओ|”
यदि बसमतिया की बातों पर गौर किया जाए तो कविता को जन-जीवन से न सिर्फ जुड़ने की
आवश्यकता है अपितु उसके रागात्मक सम्बन्धों से आत्मीयता रखने की बात भी है| यह
कविता इस तरह है-
“बसमतिया बोली, सुनो कवि जी
कविता में तनिक धूप, धूल, मिट्टी
भी मिलाओ
बहुत हुई शब्दों की खेती
कविता हो रही ऊसर
अब अपने अंत:पुर से बाहर
हम्मर गॉव भी आओ
कवि-कर्म वैसा ही जैसे
बढ़ई, किसान, लोहार का
अब गाछ पर बैठना छोड़
भुइयॉं उतर आओ
बसमतिया बोली, सुनो कवि जी
हम भी बॉचें तुम्हारी कविता
उसे अईसा बनाओ|”
इस
कविता के आलोक में यदि कविता की नवीनता और सृजन की अनिवार्यता पर विचार करें तो सृजन
और मूल्यांकन के क्षेत्र में चर्चा उन पर होनी चाहिए जो मन क्रम वचन से परिवेश को
शांत, समृद्ध और रचनात्मक बनाने में सक्रिय हैं| उनकी होनी चाहिए जिनके यहाँ भूख,
व्यथा और विपदाएं यथार्थ हैं| उन पर होनी चाहिए जो जैसा लिखते हैं कार्य भी कुछ
उसी तरह का करते हैं| वे, जिनकी चर्चा होने की बात मैं यहाँ पर कर रहा हूँ, महज
लिखने भर के लिए नहीं होते अपितु सृजन से इतर होने वाले आन्दोलनों में भी अपनी
सहभागिता सुनिश्चित रखते हैं| कहने को आप कह सकते हैं कि ऐसे लोग होते कहाँ हैं
लेकिन देखने को देख भी सकते हैं कि प्रतिरोध की संस्कृति उन्हीं के जरिये पुष्पित
और पल्लवित हो रही है| इस अर्थ को विश्लेषित करती गणेश गनी की एक बहुत प्यारी और
सशक्त कविता है “जो बात शुरू हुई थी,” इस कविता को यहाँ इसलिए उद्धृत करना चाहूँगा
क्योंकि कवि और कविता पर लगाई जा रही तमाम अटकलों का बड़ा सुंदर और यथार्थ रेखांकन
किया है कवि ने कि अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर सातवें-आठवें पहर जनता के बीच
‘जो बात शुरू हुई थी’-
“सत्ता के गलियारों तक बात पहुँचेगी
तो कवि मारे जाएंगे
गुमशुदा घोषित किये जाएंगे
काल कोठरी में धकेल कर
जमानत वाले कानून की तालाबंदी की जाएगी
जो बात शुरू हई थी
उसका सूत्रवाक्य किसी दिन
किसी के हाथ लगेगा
उस घड़ी एक नये कवि का जन्म होगा
जनता के पक्ष में खड़ी होने का
दम भरने वाली झूठी सत्ता
फिर से भयग्रस्त होगी।
‘जनता
के पक्ष में’ कविता है या सत्ता यह तो स्पष्ट हो ही गया यहाँ, ये भी व्याख्यायित
हो गया कि बगैर किसी भय के आपके साथ खड़ी होगी कविता ही, लड़ेगा आपके लिए कवि ही| ऐसे
कवि बगैर किसी डर और भय के कविता की अनिवार्यता को लेकर चल रहे हैं और रवीन्द्र के
दास की ‘कविता लिखो’ के हवाले से कहें तो मानना भी है उनका कि-
जब तुम्हें डर का अहसास हो
कविता लिखो
तो देखोगे कि एक आवाज़ तुम्हारी ओर आ
रही है
और तुम्हें राहत मिलेगी
जब तुम्हें दर्द का अहसास हो
कविता लिखो
तो देखोगे कि एक स्पर्श तुम्हारी ओर आ
रहा है
और तुम्हें सुकून मिलेगा
जब तुम्हें अकेलापन महसूस हो
कविता लिखो
तो देखोगे कि एक बस्ती बस रही है
तुम्हारे आसपास
हो जाओगे इंसान
नितांत अकेले और नितांत भीड़ में भी साहस बनकर जो तुम्हें उत्साहित
करती है वह सही मायने में कविता ही है| कवि भी वही है| परिवेश के प्रति जो गहरी और
आत्मीय संलग्नता की बात है वह यहीं से प्रमाणित होती है| कविता पर यह विश्वास और कवि-सामर्थ्य
पर ऐसी गर्विता आपको अचंभित तो करती होगी लेकिन सच्चाई दरअसल यही है और वास्तविकता
भी| सबसे ताकतवर सत्ता के खिलाफ यदि कोई सबसे निर्भीक होकर लड़ा होगा तो वह कवि ही
होगा| सबसे कमजोर के पक्ष में सबसे अधिक तत्परता के साथ यदि कोई होगा तो वह कविता
होगी| कोरोजीवी कविताएँ इसका साक्षात प्रमाण है| विवेक निराला अपनी एक कविता में
एकदम से जमीन से जुड़े आम आदमी की यथास्थिति को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि शायद
ही कोई सहृदय उस पर विचार किये बिना स्वयं को रोक सके-
“अपने पहचान-पत्रों में वे बेहद अकेले
मनुष्य भर थे
जिनकी नागरिकता अभी प्रमाणित होनी थी
जिनकी झुलसी हुई त्वचा और छिली हुई आत्मा
में
कितनी ही तरह के डर थे
वे जब अपने घर के भीतर भी थे
तो सुखी
लोगों की गणना से बाहर थे|”
ये कविता उस समय विशेष की है जब लोगों की
दृष्टि में कमजोर, वेबस और मजदूर लोग ‘बेहद अकेले मनुष्य भर थे|’ इनका व्यवस्था
आदि के प्रतिरोध में बोलना तो दूर अपनी यथा-व्यथा बताना भी किसी गंभीर अपराध से कम
नहीं था| ऐसी कविताएँ और ऐसे कवि भी बगैर किसी स्वार्थ के जुड़े इनसे और वास्तविकता
से सबको परिचित कराया|
ऐसे बहुत से
उदाहरण समकालीन हिंदी कविता के इतिहास में दर्ज हैं जिन्हें जरूरत पड़ने पर आप
खँगाल सकते हैं| हिंदी कविता का मध्यकाल इसीलिए लोगों के दिल और दिमाग में है
क्योंकि यहाँ कवि और कविता का जो संवाद है वह सीधे आम आदमी से जुड़ा हुआ है| उनके
केंद्र में न तो कोई राजा है और न ही तो कोई अप्सरा| जहाँ अप्सराएं हैं भी सीधे
तौर पर उनका सम्बन्ध ईश्वर और उसके स्वरूप से जोड़ दिया गया है| कल्पना होते हुए भी
एक तरह का यथार्थ है, जीवन और जीवंत परिवेश है| बाद उसके एक बड़ी श्रृंखला रही है
हिंदी कविता के इतिहास में जहाँ जीवन और उसके विभिन्न उपागम गंभीरता से चित्रित
होते रहे हैं| जिस परिवेश में कविता की जितनी समृद्ध परम्परा होगी वह परिवेश उतना
ही तार्किक, बौद्धिक, गंभीर और वैज्ञानिक मूल्यों पर केन्द्रित परिवेश होगा| यह
मात्र कवियों पर ही नहीं पाठकों पर भी निर्भर करता है कि वह किस तरह का जीवन और
परिवेश चाहते हैं|
4.
राजनैतिक हर 'बिजूका'/ मूल्य
की तहसील में है,
अर्थकामी नागफनियाँ/ बुद्धि की हर चील में है।
आज की उम्मीद सारी/ वक्त के प्रतिरोध में है,
बेतुका पाखण्ड फिर से/ बेवजह गतिरोध में है।
अवनीश त्रिपाठी
जैसे
जीवन का अपना गणित है वैसे ही राजनीति का अपना मुहावरा है| इस मुहावरे को यदि कवि
नहीं समझ सका तो फिर उसे कुछ हद तक कवि मानने से भी इनकार किया जाए| इसलिए भी
क्योंकि राजनीति सीधे तौर पर सम्पूर्ण सामाजिकता को प्रभावित करती है| सवाल सिर्फ
सत्ता और शासन भर का नहीं है| व्यवहार और विचार का भी है| समाज की कलुषता से लेकर
व्यापकता तक राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है| आप यदि इससे बचते हैं या बचने की
मुद्रा में अभिनय कर रहे हैं तो यह मान लीजिये कि आपकी सहभागिता जीवंत समाज में
नहीं है या आप पूरी तरह से नकार दिए गए हैं|
कविता
का समकाल अपनी पूरी सक्रियता में राजनीतिक जागरूकता से परिपूर्ण है| यहाँ
पक्ष-विपक्ष का पूरा जमावड़ा है| यदि यह कहें कि कवि और कविताओं की अपनी राजनीति है
तो भी गलत न होगा| कुछ कवि प्रतिबद्धता के नाम पर राजनीतिज्ञों के झण्डे ढो रहे
हैं तो कुछ उनके मंचों की कालीनें बिछा रहे हैं| कुछ ही कवि ऐसे हैं जो सही को सही
और गलत को गलत कहने का साहस दिखा रहे हैं| ऐसे कवि सत्ता की नज़र में ‘अपराधी’ हैं|
यहाँ चाहे न्यायालय हो, राजसत्ता हो या फिर गली या चौराहा, यदि आप सच कहते हैं तो
मारे जाएंगे| झूठ की ट्रेनिंग जरूर दी जाती है और फिर उसको सही ठहराने की पूरी
दलील भी| रानी सिंह की एक कविता में इस यथार्थ सच को कुछ इस तरह दिखाया गया है-
“आज
के इस हाल-बेहाल तंत्र में
खरीद-फरोख्त
के अड्डों में तब्दील
राजदरबार
और न्यायालय में
सड़क-चौराहों, घर-बाहर कहीं भी
अपराध
है...
सत्य
की गवाही देना
अपराध
है...
हत्या
को हत्या कहना भी|”
एक
या दो बार तो चल जाता है लेकिन बार-बार अपराध करना किसी आम आदमी के बस की बात कहाँ
होगी? रोजी-रोटी कमाकर परिवार चलाने वालों के पास समय भी आखिर इतना कहाँ से आएगा?
पता तो उसे तब चलता है जब नियमों का हवाला देकर बेगार तक करवा लिया जाता है| कवि
इसीलिए सक्रिय होता है और इसीलिए सच को सच और हत्यारे को हत्यारे बोलने वाली
अपराधों पर पूरी तन्मयता से लगा होता है| उसका यह लगना ही आम आदमी के लिए
संभावनाओं के द्वार का खुला होना है|
एक
जागरूक कवि कभी भी सच कहने से स्वयं को रोक नहीं सकता| स्वप्निल श्रीवास्तव के
यहाँ “चारों
ओर हैं अत्याचारी/ मजहब के ठेकेदार
हैं/ और सियासत के व्यापारी|” सब मिल कर आम आदमी को “लूट रहे हैं बारी-बारी|” कवि के कहन का अंदाज व्यंग्यात्मक है लेकिन ठीक
कबीरी-स्वभाव में है| सियासत के व्यापारी हों या फिर मजहब के ठेकेदार
अथवा अत्याचार की सीमाओं में आने वाले लोग, इनका
एकमात्र उद्देश्य अपने स्वार्थ की पूर्ति है| न
तो जन विशेष है और न ही तो धर्म| इन
सब के नाम पर अवसर की तलाश है यह अलग बात है| सत्ता
पक्ष तो होता ही है अजगर लेकिन विपक्ष कम नहीं होता है| सरिता सैल के यहाँ
‘विरोधी’ एक ‘मदारी’ की तरह चित्रित होता है-जहाँ वह कहती हैं-
“राजनीति
में विरोधी/ वह मदारी हैं/ जो कांच के दरवाजे/ के अंदर बैठकर
उस
पार का दृश्य देखता है/ और जब जनता/ सूखे पत्तों की तरह
धूप
में कड़क(तिलमिला) हो जाती हैं/ तब उनकी हड्डियों को/ चुल्हे में सरकाकर
उस
पर बिना बर्तन रखे/ तमाशा देखता है|”
कोरोनाकाल
में आम आदमी की सरकार और कांग्रेस ने जिस तरह से जनता को सडकों पर दौड़ाकर आनंद
लिया...कोई बहुत दिन की बात नहीं है| यह सब को पता है| सत्ता पक्ष की नीतियों की
वजह से जनसंख्या की एक बड़ी आबाद अचानक रोड पर आ जाती है जब उनसे उनका नागरिकता
प्रमाणपत्र माँगा जाता है| युवा कवि प्रेमनंदन ने इस प्रक्रिया को वैश्विक घटना के
रूप में लिया और जब कविता का शक्ल दिया तो ये सच्चाई निकलकर सामने आई-
“सरहदों
में बँटी हुई इस दुनिया में
बिना
नागरिकता प्रमाणपत्र के”
क्या
वे इस धरती पर/ रहने के योग्य नहीं?”
अब वे इसलिए भी रहने के योग्य नहीं हैं क्योंकि सत्ता के रखवाले या उनकी मंशाओं को
ढोने वाले वह नहीं हो सके| यदि हो सकते तो माननीय बनकर लूटते-खसूटते| नागरिकता
प्रमाण पत्र वैसे भी ऐसे लोगों से कहाँ माँगा जाता है? इन्हें तो अपराधों के लिए
दण्ड देना भी लोकतंत्र के समाप्त करने के बराबर है| मजा तो तब आता है जब लोकतंत्र
की दुहाई देने वाले ही आपराधिक तत्त्वों के ईमानदार होने के बात करते हैं और यह
दावा भी कि ऐसा तो ‘अमुक’ व्यक्ति कर ही नहीं सकता है| वैसे भी लोकतंत्र का
अधिकांश प्रयोग महज अपराधों को संरक्षण देने के लिए किया जाता है|
राजनीति
के दौर में सबसे अधिक न्हास हुआ समानता का| जो जैसा है वह वैसा ही बनकर रहना चाहता
है| दीखना भी उसी तरह चाहता है| इधर के दिन तो समानता जैसे शब्द पर ही संशय है| इस शब्द को सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं लोगों ने
पहुंचाया है| समाज की सारी बुराइयां यदि यथावत बनी हुई हैं
तो फिर इन्हीं लोगों की वजह से| नवनीत
पाण्डेय की दृष्टि में “कहने को भले खतम हो गए हैं/ राज सामंतो, राजाओं के/ सामंत, राजे, राजा, आज भी हैं/ अपनी उसी आन, बान, शान
के साथ/ बस नाम बदल गया है/ राजतंत्र की जगह लोकतंत्र हो गया है|” इसी तरह जमीदारी प्रथा से लेकर वह सारी प्रथाएं
ज़िन्दा हैं जिनसे मुक्त होने का स्वप्न हर भारतीय कभी देखा करता था और आज भी देख
रहा है|जब यह सब है तो फिर दासप्रथा भी अपने उसी रूप
में वर्तमान है| अमीर और अधिक अमीर हो रहे हैं और गरीब निरंतर गरीब| विडम्बना ये
है कि यह सब उसी लोकतंत्र में हो रहा है जिसका कि ‘लोग’ राजा हैं|
साम्प्रदायिकता
विशुद्ध राजनीतिक मामला है जिसमें ‘लोक’ को बड़े सलीके से शोषित किया जाता है| पक्ष
हो कि विपक्ष दोनों इसमें अपना फायदा-नुकसान देखते हैं| एक पूरी बस्ती जल जाती है
और फिर शुरू होता है शांति-संदेश पहुँचाने का दौर| सांप्रदायिक दंगे कम क्यों
होंगे जब सभी एक ही खपड़ी के नहलाए हुए हैं| क्या
हिन्दू, क्या मुस्लिम, क्या ईसाई, क्या सिख सभी एक ख़ास तरह के पागलपन में शामिल
हैं जिनको देखते हुए जितेन्द्र धीर कहते हैं कि “धर्म की कट्टरता से आहत है/ इस पृथ्वी का हर कोना|” सवाल यह है कि मनुष्य रहे तो कहाँ रहे और अपने
लिए किस तरह का स्पेस निकाले कि सुख और शांति उसे नसीब हो सके|
तालिबान
का अफगानिस्तान पर कब्जे को लेकर संदेश विश्व में हर जगह गया जरूर लेकिन जिस तरीके
से ताल्बानियों द्वारा अफगानियों को अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन बनाया गया, लूटा गया कोई बोला नहीं| रूस और यूक्रेन के युद्ध को लेकर आम आदमी का
पक्ष किसने लिया? यहाँ यदि जितेन्द्र धीर की मानें तो “पूंजी के खेल में शामिल है/ हर बडा़ खिलाडी़/
उसे मतलब है/ धरती के इस खास हिस्से में/ जमीन के अंदर छिपी/ उस अकूत दौलत से/ कोई
मतलब नहीं है आदमी से|” आदमी तो महज कीड़ा हो गया है व्यापारियों की
निगाह में या फिर एक ऐसा वस्तु जो बर्बाद हो या बिके, उसी में उन्हें संतोष है|
युद्ध
आखिर कौन चाहता है? राजनीति को चमकाने और जन को संकट में डालने का सबसे कुशल साधन
है ‘युद्ध|’ यह सनकी राजाओं के द्वारा ही लड़ा जाता है जिसमें आम आदमी की कोई राय न
तो ली जाती है और न ही तो उन्हें सहभागी बनाया जाता है| लेकिन मारे वही जाते हैं|
जिन्हें युद्ध आदि में राष्ट्रीयता और राष्ट्र का विकास दिखाई देता है उन्हें अरुण
चन्द्र रॉय की इस कवितांश को देख लेना चाहिए| उनके शब्दों में “हम बेचते हैं युद्ध
और/ खरीदते हैं शांति,/ इसे आप तब तक नहीं समझेंगे जब तक आप/ दो दिन
गुजार न लें किसी सैन्य छावनी में|” राजनीतिज्ञ तो सिर्फ युद्ध का खेल खेलना जानते
हैं| खिलाड़ी कौन है और कौन है जो चोटिल हो रहा है और मारा जा रहा है, इससे किसी को
क्या लेना-देना|
मनुष्य
का स्वभाव है मनुष्यता की ज़मीन को उर्वर बनाना| हम फिर भी बेहतर जीवन की तलाश में
मनुष्यता के लिए संघर्ष कर रहे हैं| हम मध्यकालीन परिवेश से निकलकर बड़ी मुश्किल से
आधुनिक और वैज्ञानिक युग में प्रवेश कर रहे हैं| व्यवस्थाएं जड़ भले हों लेकिन
उन्हें जन के माफ़िक ही चलना होता है| इस अर्थ में ‘हताश मत होना’ और ‘सच’ के लिए
संघर्ष और बेहतरी के लिए प्रयास करते रहना है| संतोष चतुर्वेदी कहते हैं कि “सब
दिन, सारी रातें/ एक जैसी नहीं होतीं/ हताश मत होना
कभी” यदि कुछ मायने में समस्याएँ हैं तो दिन अच्छे भी आएँगे|
5.
पतझरों का मौसम है पत्तियाँ
नहीं मिलतीं
गुल नज़र नहीं आते तितलियाँ नहीं मिलती
बस्तियों में दहशत है
लोग हैं डरे
सहमे
अब खुली हुईं घर की खिड़कियाँ नहीं मिलतीं
अनिरुद्ध सिन्हा
पर्यावरण-प्रदूषण
हमारे समकाल की बड़ी समस्याओं में से एक है| परिवेश किस तरह दूषित है इसका अंदाजा
लगाने की जरूरत नहीं है, आँख खोल कर देख लीजिये यही बहुत है| आप यदि दो कदम चलने की कोशिश करेंगे तो चार
कदम पीछे की तरफ होते हैं और आगे बढ़ने की संभावना कम होती जाती है| यह इधर के
दिनों में और अधिक विकराल समस्या के रूप में महसूस की जा रही है| जीवन के
उतार-चढ़ाव में संतुलन बना रहे और आपके बढ़े हुए कदम आपके गंतव्य-स्थल तक पहुँच जाएँ
इसके निमित्त पर्यावरण को स्वस्थ और सुरक्षित रखने के लिए जो चीजें जरूरी होती हैं
उनमें, हवा, पानी, वनस्पति आदि की निर्मलता और स्वच्छता शामिल हैं| सभ्यताओं के
विकास में जैसे स्वच्छता का पैमाना तिरोहित हुआ है और उसका स्थान असभ्य और जड़
मानसिकता ने लेना शुरू कर दिया है|
प्रदूषण
का नित नवीन होना और मनुष्य-परिवेश को संकटग्रस्त स्थिति में लाकर छोड़ना इधर के
दिन और अधिक बढ़ा है| प्रकृति से लेकर कृति तक में जो परिवर्तन लक्षित हुआ है वह
व्यावहारिक तौर पर हानिकारक है| मूल्यों में तो जितनी अधिक गिरावट इधर के दिन
महसूस की जा रही है, शायद ही कभी रही हो? विवेक निराला सरीखे कवि जब यह कहते हैं-
तुम्हारे
सफेद धुएँ ने ढक दिया है/ हमारे साँवले आसमान को
आदिम
काले पहाड़/ सफेद बर्फ की चादर ओढ़े खड़े हैं|”
तो
सोचने की अनिवार्यता और अधिक बढ़ जाती है| एक सच तो इधर का यह है कि साधनों का दोहन
और संसाधनों का अभाव ये दोनों चीजें एक साथ जारी हैं| भूख और प्यास यथार्थ हैं तो
हवा, पानी, आग की उपलब्धता जरूरत| पेड़ की अनिवार्यता इतनी है कि वह इन सभी
माध्यमों संतुलन बिठाने का कार्य करता है| राज्यवर्धन की एक कविता है ‘पेड़’, इस
कविता में पेड़ की आवश्यकता और जरूरत पर बल देते हुए वह लिखते हैं कि-“जब हम/ अपनी
हवस में/ विकास के प्रतिमान हासिल करने के
लिए/ हवा में घोल रहे होते है -/ ज़हर/ तब वह दिन में/ नीलकंठ की तरह/ चूस
रहा होता है-/ विष/ ताकि हम बचे रह सकें-/ जहरीली हवाओं से/ इतना ही नही/ सूरज के
सहयोग से/ पृथ्वी के सभी प्राणियों के लिए/ वह उत्साह से बना रहा होता है-/ भोजन”
लेकिन साथ ही वह यह भी कहते हैं कविता के अंत में कि “रात को वह/ थककर चूर सो जाता
है-/...तब सिर्फ/ लूटेरे और षड्यंत्रकारी/ पृथ्वी के विरूद्ध/
साजिश कर रहे होते हैं-/ पेड़ काटने की|” ये षड्यंत्रकारी आखिर कौन हैं?
कहाँ से आए हैं? आखिर हम और आप ही तो हैं न इनमें शामिल? अरुण चन्द्र रॉय की एक
कविता है ‘वृक्ष’ इस कविता में कवि ने वृक्ष को माँ, पिता और मित्र की अनुपस्थिति
में ‘वृक्ष’ को महसूसने की बात की है और गायब होते पेड़ों की यथास्थिति पर अपना भाव
प्रकट करते हुए सबके मन की भावना को रख दिया है कि-
“कटकर
किसी चूल्हे का इंधन हो जाना
वृक्ष
का दधीचि हो जाना होता है
कहाँ
कोई है वृक्ष सा कोई संत!”
माता,
पिता और संत जैसा भाव किसी वृक्ष के लिए होने पर भी यहाँ जितनी तीव्रता से पेड़ों
को काटने और खत्म करने की प्रक्रिया पर कार्य किया गया उतनी तीव्रता किसी अन्य
क्षेत्र में नहीं दिखाई दी| कितने ही कवियों की स्मृति में पेड़ों के विभिन्न रूप
महज स्मृति बनकर कौंध रहे हैं, उन्हें उनके पुराने दिन याद दिला रहे हैं| स्वप्निल
श्रीवास्तव को आम के गाछ रसीले’ और ‘मंद मंद पुरवाई’ ‘याद आ रही है|’
कवि की स्मृतियों में पेड़-पौधों से भरेपूरे
परिवेश में ऐसे ‘भूले बिसरे कितने मंजर ’ हैं ‘सोच
सोच के आँख भर आई” उनकी| यदि
वही इन दिनों होते तो एक तरह का उल्लास होता|
स्मृति
में पेड़ तो हैं ही कवि-हृदय के ‘पानी’ का अभाव और ‘व्याकुल मन’ की तड़प भी है इधर
की कविताओं का मुख्य विषय| इधर के दिनों का परिवेश इस तरह दोहित हुआ कि शैलेय जैसे
कवि के यहाँ पानी का अभाव है| शैलेय द्वारा लिखित पानी की यथास्थिति पर केन्द्रित
इस कविता को पढ़ते हुए आप भयावह स्थिति की परिकल्पना कर सकते हैं-
और
कितनी दूर होगा पानी
मेरे
कहने में जैसे थकान भी शामिल थी
बस
आता ही होगा
उसके
कहने में जैसे प्याऊ भी शामिल था
गर्मियों
की यात्रा में
अपना
पानी साथ लेकर चलना चाहिए
यह
हम दोनों की ही
प्यास
बोल रही थी
सच
भी था
रास्ते
को हम कहाँ
प्यास
ही तो नाप रही थी|”
‘प्यास’
रास्ता नाप रही है इधर के दिन| यात्री
महज बेहाल हैं| प्याऊ आदि बंद पड़े हैं| नदी आदि सूख रही हैं| छोटे-छोटे तालाब कागज़ों की शोभा बढ़ा रहे हैं| व्यवसाय इतना जरूरी हो गया है कि नदियों,
तालाबों और जल के अन्य संसाधनों को लीज पर दे दिया जा रहा है| तो कवि ही क्या
करेगा कविता लिख कर? कविता ही क्या करेगी आपके हृदय में करुणा जगाकर? जाहिर-सी बात
है कि कविता इतना तो प्रतिरोध-भाव जगा ही देगी कि आप सामने जाकर आतताइयों के खड़े
हो जाएं और पूरे उत्साह में यह पूछ सकें कि यह हक़ किसने दिया आपको? यदि दुनिया एक
ईमानदार प्रश्न से डरती है तो कविता स्वयं में प्रश्नों की खेती है|
6.
लिए तख्तियाँ हाथों में लहराने वालों के
कहाँ गए दिन तीखे नारों और सवालों के
सुविधाओं की गोद जा गिरे वे जो कहते थे
फ़िक्र करेंगे हाथ के घट्ठों, पाँव के छालों के||
अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’
हिंदी
काव्य-साहित्य में इधर कुछ नए मुद्दों का जन्म हुआ है| यहाँ कोरोजीवी कविता
आन्दोलन ने विमर्श का नया द्वार खोला है तो अस्मितावादी विमर्श अपने रास्ते से भटक
गए हैं| आदिवासी और दलित विमर्श अधिकांश स्थानों पर महज
जातिवादी मानसिकता से ग्रसित हैं तो स्त्री-विमर्श सौंदर्यवादी मानसिकता से
संचालित| इन्हें स्वाभाविकतः अस्मितावादी विमर्श कहा
जाता है| ये जब अपने प्रारंभिक दिनों में थे तो आम आदमी की आशाओं-आकांक्षाओं को
पंख देने और उनके अधिकारों आदि के संरक्षण के लिए संघर्ष करते दिखाई देते थे| इनके यहाँ मुद्दे ‘सुविधा’ और ‘अवसर’ देखकर
नहीं अपितु वास्तविक यथार्थता के धरातल पर निर्धारित होते थे| परिवर्तन के दौर में
विमर्श-मूल्य बुरी तरह बदले हैं| यहाँ जो भाव चेतना और जागरूकता से सम्बन्धित होते
थे, उधर जैसे कोई बात नहीं करना चाहता है| चमक-दमक और लोभ-भाव इतना विस्तृत हुआ है कि
‘लोक’ तो जैसे गायब ही हो गया|
अपनी
जड़ों से कटते और जड़ता में सीमित होते स्त्री-विमर्श के सम्बन्ध में स्वप्निल
श्रीवास्तव ने अपनी एक कविता में यथास्थिति को कुछ इस तरह रखने का प्रयास किया है
कि “स्त्री विमर्श की छिड़ी रागिनी/ अंग – अंग पर रस शृंगार।/ अंत:पुर तो परम लोक है/ रास
– रंग की
चले बयार ।/ नाभि- नाभि ढ़ूंढ़े
कस्तूरी/ प्रभु जी कामदेव अवतार|” पुरुष तो इधर रास-रंग में डूबे ही थे स्त्रियाँ
उनसे आगे निकली हैं| साहित्य की दुनिया में जैसे आम स्त्रियों के दुःख-सुख से किसी
का कोई लेना देना ही नहीं है| अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर नंग्नता का
पूरा बाज़ार सजा दिया गया है|
साहित्य में बुद्धिमानों की सक्रियता से कहीं
अधिक उनकी उपस्थिति दिखने लगी है जिन्हें सामाजिक दशा-दुर्दशा से कुछ भी लेना-देना
नहीं है| ऐसा बहुत हद तक सोशल मीडिया के जरिये सम्भव हुआ है| मैं सोशल मीडिया को
किसी भी रूप में सामाजिक जागरूकता में कमतर नहीं मान रहा हूँ| हाँ, साहित्यिक समझ
को गंभीरता से लेने में इस माध्यम का दुरूपयोग जरूर हुआ है| जन के लिए आरक्षित ऐसे
कितने ही नाम हैं जो महज साहित्य-राजनीति के जरिये उठे हैं| उनमें स्वयं को सँभालने की शक्ति तो है नहीं
प्रतिरोध की आव़ाज को हवा कैसे देंगे आखिर? नवनीत
पाण्डेय की दृष्टि में इधर के दिन तो जैसे जनवादी, जनप्रिय और संवेदनशील, संभावनाशील
रचनाकारों की बाढ़ आ गयी है क्योंकि “मित्र
आलोचक- सम्पादक/ पुरस्कार निर्णायक/ कौए को भी कोयल बना देते है|” पाठक एक हद तक मान भी लेते हैं “यह बात अलग है/ जैसे ही खुलता है कौए का मुंह/
सबको पता चल जाता है/ बगलें झांकते हैं, मुंह
की खाते हैं” लेकिन भद किसकी पिटती है? संदेहास्पद कौन होता है? साहित्य होता है| उसमें निहित विश्वसनीयता होती है| और
फिर जब घुसपैठिये को ही प्रसिद्धि देना है तो क्यों कोई विश्वास करे साहित्य और
साहित्यकार पर? कोई क्यों लौटे किताबों की दुनिया में?
साहित्य
का विमर्शों के मार्ग से भटकने के पीछे यदि जितेन्द्र धीर की मानें तो “साहित्य-संस्कृति की दुनिया में/ नृत्य कर रहे
विदूषक/ मूर्खता के उल्लास में/ तर्क और बुद्धि हतप्रभ|” यह हतप्रभता इसलिए भी है कि जिस स्थिति को जहाँ
होना चाहिए था वहाँ न होकर भीड़ की भेड़चाल में सब शामिल हैं” जिन बातों को मजबूत श्रमशीलता से कहने की जरूरत
है वहाँ महज शब्दों की भीड़ है| जितेन्द्र
धीर को यह नहीं समझ आ रहा है कि “यह
कैसा घटाटोप है/ जहाँ विचार हैं बहिष्कृत/ शब्दों की भीड़ है|” जिनमें कुछ कार्य करने की क्षमता थी भी वह
जितेन्द्र के शब्दों में “विज्ञापनी संस्कृति” को समृद्ध करने में लगे हैं जो है “सब कुछ समेट रही/ अपने अंतहीन प्रसार में|” विज्ञापनी संस्कृति का विकसित हो जाना कोई
आश्चर्य नहीं है| इधर जिस तरीके से प्रसिद्ध होने की लालसा ने केन्द्रीय रूप धारण
किया है कविता में उसी तरीके से ईमानदार रचनाधर्मिता के पंख कुछ शिथिल हुए
हैं|
इन
सभी बातों के अतिरिक्त कुछ चीजें कविता में शास्वत उपस्थिति बनाई हुई हैं| जैसे प्रेम,
जैसे अनुराग, जैसे श्रद्धा, समर्पण और त्याग| बात कविता की हो और ‘प्रेम’ चर्चा
में न हो तो कुछ असहज-सा लगता है| हमारे समय का समकाल सही मायने में प्रेम के लिए
‘शक’ और ‘दावे’ का काल है| कवि हो या कवयित्री या तो शक कर रहे हैं अथवा दावे| ये
दावे प्राप्ति के भी हैं और गायब होने के भी| ‘शक’ का दायरा इस अर्थ में है कि वह
चाहते हैं उन्हें या फिर किसी और को? विवेक निराला का कवि हृदय जब यह कहता है कि “तुम्हारी
कल्पना में/ मेरी मूकता है और/ मेरी इच्छाओं में/ तुम्हारी मुक्ति” तो समर्पण-भाव
प्रेम में प्रदीप्त हो उठता है|
अभी और भी तमाम मुद्दे हैं जिन पर कविता के समकाल की परख
होना शेष है| यह कहने में कोई संकोच फिलहाल नहीं है कि मानवीय अस्मिता के लिए
कविता के रास्ते इधर की जमीन उर्वर है| रचनाकार सक्रिय हैं| जन और जीवन से जुड़े
मुद्दों को गंभीरता से लाकर ध्यान आकर्षित तो करवा ही रहे हैं, भविष्य के प्रति
चिंतनशील बनाने में भी अपनी विशेष भूमिका का निर्वहन गंभीरता से कर रहे हैं| हिंदी
कविता के लिए निश्चित ही यह दौर किसी स्वर्णिम दौर से कमतर नहीं है|
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