Sunday, 7 August 2022

कोरोजीवी कविता का सांस्कृतिक सन्दर्भ

1. 

कोरोना के आगमन से जीवन ही अस्त-व्यस्त नहीं हुआ, जीवन-शैली भी प्रभावित हुई| बोलने-बतियाने से लेकर रहने-ठहरने तक की प्रक्रिया में व्यापक बदलाव आया| खान-पान से लेकर चाल-चलन तक बदले-बदले दिखाई दिए| मनुष्य के आचरण से लेकर व्यवहार तक में परिवर्तन देखा गया| इन सबके साथ काव्य-विषय में भी बदलाव अपेक्षित था| संवेदना से लेकर शैली तक में जो परिवर्तन आया उसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के आचार्य एवं समकालीन हिंदी कविता के ख्यात कवि, आलोचक प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल ने ‘कोरोजीवी कविता’ नाम दिया| नाम के पीछे की क्या प्रक्रिया रही है इस पर पहले भी बहुत बातचीत हो चुकी है| कई व्याख्यान हो चुके हैं तो स्वतंत्र लेख भी प्रकाशित हुए हैं|

‘अभिनव कदम’ पत्रिका से लेकर ‘जनसन्देश टाइम्स’ तक ने गंभीरता से मेरे द्वारा किये गये कार्य को प्रकाशित किया है| ‘आजकल’ पत्रिका में श्रीप्रकाश शुक्ल का एक लेख भी आया था| कोरोजीवी कविता का एक संकलन ‘तिमिर में ज्योति ज्यों’ पुस्तक का संपादन प्रो. अरुण होता ने किया जो सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुई है| बाद में और इसके पहले भी कई व्याख्यान श्रीप्रकाश शुक्ल ने दिया जिसमें इस काव्यान्दोलन के नामकरण, उद्देश्य, तत्त्व, सैद्धांतिकी पर खुला विचार रखा| समकालीन साहित्य जगत में इस प्रवृत्ति का समर्थन भी हुआ तो विरोध भी हुआ| अभी भी यह सब जारी है| हमारा जो उद्देश्य है वह ये कि इस काव्यान्दोलन से आपका ठीक तरीके से परिचय हो और वाद-विवाद से दो-चार कदम आगे निकलकर ‘संवाद’ का मार्ग प्रशस्त हो| ‘कोरोजीवी कविता का सांस्कृतिक सन्दर्भ’ इसी जरूरत को ध्यान में रखकर यह लेख लिखा जा रहा है|   


कोरोजीवी कविता पर बात करते समय अक्सर लोगों का ध्यान उसके यथार्थ-अभिव्यक्ति तक जाकर ठहर जाता है| जबकि इस काव्यान्दोलन का सम्बन्ध विराट मनुष्य-चेतना से है| सौन्दर्य के तमाम उपागमों, उन सभी संसाधनों से है जिनका मानवीय जीवन से कोई सम्बन्ध या सरोकार है| फिर आप कहेंगे कि अन्य काव्यान्दोलनों और इसमें अंतर क्या है? कुछ बातें यहाँ स्पष्ट कर देना जरूरी है| पहली बात तो ये कि इस काव्यान्दोलन का जन्म उस समय विशेष में होता है जब दूर-दूर तक मनुष्य का साथ देने वाला कोई नहीं था| मनुष्य निपट अकेला हो गया था जबकि उसके इर्द-गिर्द सभी चीजें और संवेदनाएं उपलब्ध थीं| यदि आप यह कहना चाहते हैं कि इसका कविता से क्या सम्बन्ध था तो सही मायने में कोरोजीवी कविता ही वह माध्यम बनी जिससे उनकी दबी हुई आवाज को बल मिला और लोग अपने अधिकारों के प्रति सजग होना शुरू किये| जो निराशाओं के गर्त में जाकर बंजर हो रहे थे उनमें आशाओं का बीजारोपण कर उर्वर बनाने में इस काव्यान्दोलन का विशेष योगदान रहा|

कविता या साहित्य कभी भी ऊँगली पकड़ कर चलाए भले न लेकिन ऐसा सूत्र उसमें से प्राप्त होता है कि आप (खुद के साथ) दूसरों को ऊँगली पकड़ कर रास्ता जरूर दिखा सकते हैं| कोरोजीवी कविता ने निःसंदेह कोरोना के भयंकर दौर में आपको जीवन-सूत्र दिया है| वह दृष्टि दी जिसके जरिये आप न सिर्फ लम्बी दूरी चल सकते हैं अपितु सार्थकता के साथ निर्माण के स्वप्न को हकीकत में भी बदल सकते हैं| हाँ दावे और वायदे यहाँ नहीं मिलेंगे आपको| ये सब इस काव्यान्दोलन के पहले की स्थिति में जरूर पा सकते हैं| आप कहेंगे कि ऐसा कैसे? तो वह समकालीन कविता और फिर उसके बाद विमर्शगत और निहायत एजेण्डा आधारित कविताओं में देख सकते हैं| यहाँ महज स्वप्न ही स्वप्न है| यथार्थ है भी तो विद्वेष से भरा हुआ| कोरोजीवी कविता का किसी से विद्वेष नहीं है| न ही तो किसी प्रकार की कोई प्रतिस्पर्धा है| यथार्थ है लेकिन जो है वही| किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं| जो नीचे और हशियागत हुए या कर दिए गए उन्हें ऊपर उठाने के लिए है| ‘आम’ से लेकर ‘ख़ास’ तक जो भी हैं वह इस काव्यान्दोलन के विमर्श-विन्दु में शामिल हैं बशर्ते कि वह मनुष्यता के लिए तत्पर हों और मानवीयता को अबाध बनाए रखने के लिए संघर्षशील हों|  

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में ज़िम्मेदारी एक बड़ी व्यवस्था है| कोरोजीवी कविता इस व्यवस्था को सम्पुष्ट करती है और उसमें बने रहने के लिए दृष्टि भी देती है| यह मैं पहले भी कह चुका हूँ कि जिस समय लोगबाग़ (अपने-अपने क्षेत्र के ज़िम्मेदार लोग) अपना जीवन संभालने के लिए सुरक्षा-घेरा या फिर घर का कोई कोना चुन रहे थे एक कवि समुदाय ही था जो लोगों के जिजीविषा और अथक संघर्ष देखकर खुद को उन तमाम दुखों में शामिल पा रहा था| बच्चे, स्त्री, बुजुर्ग, युवा, रोजगार, बेरोजगार जितने भी थे सभी के अपने दुःख और अपनी गायब होती संभावनाएं थीं| भरे परिवार में अकेले होने की वेबसी तो थी ही उन्हें खोने का भय भी था| ‘डर’ एक ऐसी स्थिति होती है जहाँ सभी ‘दावे’ बेमानी सिद्ध हो जाते हैं| निर्भय वातावरण प्रदान करना इस काव्यान्दोलन का उद्देश्य है जहाँ बंदूक की आव़ाज से कहीं अधिक कोयल के कूक की अभिलाषा है| ‘वायरस’ के डर से कहीं अधिक ‘अपनों’ के सम्पर्क से वास्ता है तो यह इस समय की कविताओं का प्रभाव है| बात दुःख और गायब होती संवेदनाओं की हो रही थी तो उन सभी में ‘सुख’ की अनुभूति को ज़िन्दा रखने और गायब होती संवेदनाओं को ‘बचाए’ रखने का संघर्ष इस समय के कवियों द्वारा किया गया, जो किसी भी तरह से बड़ा कार्य था|

किसी भी जीवन समाज में ‘प्रतिरोध’ की संस्कृति जब तक है तब तक मनुष्य के लिए स्पेस है अन्यथा तो दुनिया किस तरह गायब हो रही है, वह हम आप देख ही रहे हैं| एक समय के बाद यथास्थिति से निपटने के लिए जब सारे माध्यम क्षीण हो जाते हैं तो ‘कवि का प्रतिरोध’ ही मोर्चा संभालता है| यहाँ मोर्चा संभालने से अर्थ गोला-बारूद से लैस होकर लड़ाई लड़ना न होकर जागरूकता और चेतना का विस्तार करना है| कोरोजीवी कवियों ने न केवल मोर्चा संभाला अपितु जीवन-संस्कृति को एक दिशा देने का कार्य भी किया| यह कार्य इतनी तल्लीनता और शालीनता से हुआ कि रसोईं की खुशबू से लेकर चौपाल का कलरव तक लौट आया| 

बाज़ार के लकदक में मनुष्य गायब हो चुका था| पहचान के संकट से इतना आक्रांत कि स्वयं की पहचान भी उसकी नज़र में मुश्किल थी और आज भी लगभग बनी हुई है| घर-गृहस्थी का नाम सुनते ही जैसे पागल हो जाता था| नजदीकियां किसी भी प्रकार के सम्बन्धों की कोसों दूर हो चली थीं| घर से बेघर हुआ मनुष्य यदि सही मायने में ‘घर’ की जरूरत को समझ सका तो उसमें इस समय की कविताओं का योगदान देखा जा सकता है| ‘होटल’ का रौनक बढ़ाने वाले युगल ‘चूल्हे’ की सोंधी खुशबू में दिलचस्पी लेने लगे| मॉल-कल्चर में रमकर अस्त-व्यस्त-मस्त रहने वाली पीढ़ी घर-गाँव-पगडण्डी की तरफ निकल पड़ी| यह कम बड़ी बात नहीं है कि कोका-कोला से लेकर स्प्राईट तक में डूबी पीढ़ी को अचानक लस्सी, मट्ठा, दही में आनन्द दिखने लगा| कवियों ने इन सभी परिवर्तन को सहेजकर रखा ही नहीं अपने काव्य में अपितु बदलने वालों को बताया भी कि यही तुम्हारी असली पहचान है| कह सकते हैं कि ग्रामीण संस्कृति के प्रति प्रेम फिर से उमड़ा तो उसके पीछे कोरोजीवी कविता की दृष्टि और विचार रहा जो कोरोना के प्रभाव से अस्तित्व में आया| 

हमारे लोक को कभी शहर नहीं भाया| सूरदास के कृष्ण भी कहते हैं कि ‘ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं|’ कोरोजीवी कवियों ने सिरे से शहर को नकारा है| शहर निरंकुश और निर्दयी होता है यह सुना तो था लेकिन जाना कोरोनाकालीन दौर में| कवियों की दृष्टि में यहाँ एक दौड़ भर है| थके-हारे व्यक्ति के लिए कोई स्पेस शहर ने कब दिया है? ये प्रश्न कोरोजीवी कविता के हृदयस्थल से निकला प्रश्न है जिसमें उसकी बेचैनी आप स्पष्टतः देखेंगे| यथार्थतः शहर उठाता तो है लेकिन गिरा भी देता है| गाँव उठाता नहीं तो गिराता भी नहीं है| नीव और छत दोनों से जोड़ कर रखता है| शहर में छत तो है लेकिन बगैर नीव के| तो? नीव जरूरी है|

कोरोजीवी कविता गाँवों की तरफ वापसी करने वालों का बाहें खोलकर स्वागत करती है लेकिन उनकी भर्त्सना भी जो शहर जाने के बाद गाँव को उसके उसी हाल पर छोड़ दिए थे| ऐसे बहुत से लोग हैं जो नोकरी प्राप्त कर लेने के बाद गाँव को विस्मृत करने लगते हैं और वहाँ के लोगों को गंवार समझने लगते हैं| यहीं कोरोजीवी कविता अपना कार्य करती दिखाई देती है| इस काव्यान्दोलन में ऊँच-नीच के लिए कहीं कोई जगह नहीं है| सब एक बराबर हैं| किसान भी और प्रोफेसर भी| कविता सभी को अपना मानकर चलती है लेकिन जो जमीन जुड़ें हैं उनसे विशेष अनुराग है और जो हवा में उनके लिए वितृष्णा से अधिक कुछ नहीं है| इस समय की कविता में ये दोनों भाव विशेष रूप से दिखाई देते हैं|

गाँव-गाँव जैसा नहीं रहा यह सभी कहते हैं| कभी-कभी पछताते और रोते भी हैं| ऐसा कहने के पीछे उनका तर्क होता है कि बाग़-बगीचे, पगडंडियाँ आदि खत्म होती जा रही हैं और हम एक तरह के पत्थर केन्द्रित शहर में पहुँचते जा रहे हैं| लोग यह भी कहते हैं कि वह भाईचारा नहीं है जो पहले के गाँवों में हुआ करता था| कोरोजीवी कवि ऐसा बिलकुल नहीं कहता क्योंकि वह ऐसे लोगों को यहाँ के जन-जीवन में विन्यस्त पा रहा है जो कभी गाँव को कुछ समझते ही नहीं थे| घर छोड़कर गया व्यक्ति जब वापसी करता है तो तमाम विसंगतियों के बावजूद सबसे पहले उसके हृदय ‘घर’ दिखाई देता है| यही स्थिति गाँव की है|

इस काव्यान्दोलन में गाँव को शहर जैसे अत्याधुनिक सुविधाओं से समृद्ध होने की परिकल्पना जरूर की गयी है| हिंदी कविता के इतिहास में शायद यह पहली बार है जब गाँव के सन्दर्भ में कवि निरा भावुकता से दो कदम आगे बढ़कर तार्किक, वैज्ञानिक और समझदारी भरी मानसिकता को रख रहे हैं| दरअसल साहित्य में हम महज अतीत-स्मृति के शिकार रहे हैं, भविष्य के प्रति क्या ज़िम्मेदारी होनी चाहिए, इस तरफ मुखरता कम रही है जो इस काव्यान्दोलन द्वारा पूरी करने की कोशिश जारी है| 

साम्प्रदायिकता ने इस भावभूमि का बड़ा नुकसान किया है| तमाम प्रकार की चेतनशीलता यहाँ आकर जड़ता में यथास्थिति को प्राप्त कर लेती है| कोरोजीवी कविता में इसके लिए कोई जगह नहीं है| विशुद्ध मानवीय संस्कृति का प्रसार ही विशेष है| हिन्दू-मुस्लिम जैसे शब्द से ही नाराजगी है कोरोजीवी कविता की दुनिया में| सबके प्राण प्रिय हैं कवि को और सभी की सम्भावनाएं अपेक्षित हैं कविता के लिए| सब सुरक्षित रहें और एक साथ बने रहें ये भाव इस समय की कविता का रहा है| इस समय का कवि सही मायने में न तो मुस्लिम है और न ही तो हिन्दू है| वह शब्द-सत्ता का अनुचर है जिसका साक्षात्कार सीधे परमात्मा से होता है| कविता स्वयं परमात्मा स्वरूप है क्योंकि इस चराचर संसार में ‘शब्द’ ही सत्य है| जीवन और जगत का अस्तित्व इतना भर है कि हम-आप संवाद कर रहे हैं और उस पर भी शब्द के माध्यम से|

निरा दार्शनिकता जैसा कुछ नहीं है इस काव्यान्दोलन में कि आप चलते-फिरते जीवन को तहस-नहस करके ‘ईश्वर-साधना’ में स्वयं को लीन कर लें| वितृष्णा नमाजियों से भी है जो बगैर किसी कारण के चीख-चिल्ला रहे हैं और उनसे भी जो जीवन को बचने-बचाने का रास्ता न खोजकर शंख और आरती में व्यस्त हैं| इस समय की कविता के लिए समाज में जितनी जरूरत रोटी की है, किसी अन्य चीज की नहीं है| रास्ते में बिलखते परिवार को यदि कोई रोककर कुछ खिला-पिला दिया तो वही ईश्वर का फरिश्ता और दूत है उसके लिए|

ढोंग-ढकोसले में फँसे लोग निश्चित रूप से पशुवत हैं कोरोजीवी कविता के लिए, जिन्हें जीवन-संस्कार देने का कार्य इस काव्यान्दोलन में खूब किया गया है| जिस समय कोरोनामाई, कोरोनादेव आदि कहकर लोक प्रसाद और कडाही चढ़ा रहा था कवि उनकी अज्ञानता को खत्म करने के लिए ‘शब्द-मन्त्र’ का संधान कर रहा था| यदि आप उस दौर की कविताओं को पढ़ेंगे ज्ञान देने की परंपरा से पूरी तरह भिज्ञ होंगे|    

सब बातें हों और सत्ता-संस्कृति की न हो तो बात अधूरी रह जाती है| कोरोजीवी कविता सभी प्रकार की सत्ताओं का निषेध करती है, यह इस काव्यान्दोलन के प्रणेता कवि एवं आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल अपने कई वक्तव्यों में कह चुके हैं| मेरा भी यही मानना रहा है| परम्परा से यह काव्यान्दोलन ‘शब्द-सत्ता’ का पक्षधर है| वह शब्द-सत्ता जो संत साहित्य की नींव है और जिस पर सम्पूर्ण भक्तिकाव्य का सौंदर्य टिका हुआ है| सब कुछ जैसे क्षण-भंगुर है| यह हम आप और सभी देख चुके हैं|

एक अदृश्य शक्ति आती है और हमारे अस्तित्व को चुनौती देकर झकझोर देती है| कौन टिका उसके सम्मुख? राजा, प्रधानमन्त्री, तानशाह, मुख्यमंत्री से लेकर राष्ट्रपति आदि सभी गायब हो गए| जिस जनता ने उन्हें अपनी रक्षा-सुरक्षा के लिए चुना उसी जनता को बीच भंवर में छोड़कर सब अदृश्य| साथ किसने दिया? शब्द ने| कविता ने और उसके सेवक कवि ने| तन्त्र का सारा वितंडा उखड़ने के बाद लोक शेष रह जाता है जिसकी पूँजी ‘शब्द’ है न कि किसी प्रकार का ऐश्वर्या या राजमहल|  

नेतृत्वहीन जनता को यह आभाष दिलाना कि जो रास्ता चुन रहे हो तुम वह सही है या गलत इस समय के कवियों की सक्रियता का सार्थक परिणाम रहा| आप यदि नोकरी कर रहे हैं तो किसकी? किसी के यहाँ आस और विश्वास लेकर बैठे हैं तो क्यों? जिनको अपना समझ रहे हैं वह है भी अपना या नहीं? सब के लिए तुम मर रहे हो सब तुम्हारे लिए कितना मर रहे हैं? घर, परिवार, देश, प्रदेश, राष्ट्र इन सबके प्रति जो निष्ठा तुम्हारी है क्या तुममें उन सभी की निष्ठा है भी? ये सारे प्रश्न शंकाओं को केंद्र में लेकर इस समय के कवि द्वारा उछाले गए| लोगों द्वारा इन्हीं प्रश्नों के दायरे में आचरण किये गये| यह लगभग ने पाया कि कोई नहीं है जो संग-साथ आफत-विपत में रह सके| फिर? यहाँ कोरोजीवी कविता गौतम बुद्ध का ‘अप्प दीपो भव’ लेकर आती है जनता के कण्ठ में प्रवेश देकर आगे बढ़ जाती है| कोई सरकार नहीं है और न ही तो कोई राजा है| तुम हो तुम्हारा संघर्ष है तो जन है और जहान है|

            हिंदी कविता के केन्द्र में जो विषय लगभग हाशिए पर धकेल दिया गया था कोरोजीवी कविता ने पुनः केन्द्र में ला दिया| यह निरापद नहीं है कि कवियों को अचानक परिवार की सुधि आई| माता-पिता, दादा-दादी जो वृद्धाश्रम के लिए उचित मान लिए जाने लगे थे, अब ‘घर’ में उनकी उपस्थिति आकर्षण और गर्व का विषय बनने लगा| बच्चों को चाचा-चाची से लेकर अन्य सभी रिश्ते रास आने लगे| जबकि यह सच है कि इधर के दिन मम्मी-पापा को छोड़कर बहुत से बच्चे ऐसे थे जिन्हें यह नहीं पता होता था कि उनके परिवार में कोई है| कोरोजीवी कवियों ने रिश्तों में मिठास की खोज की और एक ऐसे परिवेश को दिखाया जहाँ विघटित होते पारिवारिक मूल्य पुनः पुष्पित और पल्लवित होने लगे| जिस पत्नी पर हजारों चुटकुले बने हैं वही पत्नी यदि अचानक ‘दिल का सुकून’ लगने लगी तो यह कोरोजयिता दौर का परिणाम है|

          परिवेश में यदि भरे-पूरे ‘घर’ की पहचान हो जाए तो फिर रसोईं की खुशबू दूर बाहर तक भी पहुँचने लगती है| ध्यान रहे कि आयातित संस्कृति होटल के प्रति बढ़ती दीवानगी, पिज्जा-बर्गर, कोक-पेप्सी आदि भारतीय जनमानस को खोखला बना रही थी| इन सब से दूर बाटी-चोखा, साग-पराठा, चूरमा-लस्सी आदि के दिन वापस आए| यह सब कहीं न कहीं काव्य-विषय बनकर संवेदना के आधार बने और भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा के श्रोत| ध्यान देने की बात यह भी है कि कोरोनाकाल में महिलाओं ने ही नहीं पुरुषों ने भी रसोईं आदि को अपना कर भारत की सांस्कृतिक छवि को पुनः प्रतिष्ठापित होने में अपना योगदान दिया|

प्रेमी-प्रेमिकाओं के लिए कुछ मुसीबत के दिन जरूर रहे और कई मायने में विवाद भी रहा| कोरोजीवी कविता में प्रेम के लिए बहुत स्पेस है| कोरोजीवी कविता सभी मायने में कविता जड़ताओं में नहीं अपितु विस्तार और व्यवहार में विश्वास रखती है| इस बीच पति-पत्नी के बीच हुए नोक-झोंक से लेकर झगड़े-झंझट ने आत्मीयता और प्रेम-संवाद को नया मोड़ दिया| ऐसे विषय कोरोजीवी कविता में महज हास-परिहास के लिए ही नहीं अपितु बाजारीकरण के प्रभाव से छीजते रिश्तों में जान डालने के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुए| व्यापकता में यदि आप कोरोजीवी कविता का अध्ययन करते हैं तो यह स्वीकारने में कोई परेशानी नहीं होगी कि इधर कई वर्षों के बाद परिवार और अपनों में परिभाषित होने वाले सभी प्रचुरता में काव्य-विषय के रूप में अपनाए गए|

          सबसे कठिन है कविता के रास्ते पर्यावरण और प्रकृति पर केन्द्रित होना| कोरोजीवी कविता में कवियों का प्रिय विषय या तो प्रकृति है या फिर पर्यावरण| प्रदूषण से निजात पाने में कोरोनाकाल एक तरह से सहायक रहा (यदि नकारात्मकता को थोड़ी देर के लिए दूर रख दें तो)| अपने स्थान से दूर क्षितिज तक का आलोक जिस तरह से इधर के दिन नज़र आया, पिछले पचास-सौ वर्षों की यात्रा में नहीं आया होगा| सब कुछ ठहरा हुआ था तो प्रकृति का सौंदर्य नज़र भी कैसे आता आखिर? कोयल का कूकना, पक्षियों का चहचहाना, शाखाओं पर चिड़ियों का कलरव, मुर्गे की बाग़ से लेकर कचकचिया, मोर, हंस, तोता, कबूतर आदि का दिखना और निमग्न होकर बिहँसना आम जन को तो भाया ही, कवियों के लिए भी विशेष रहा|

सूर्य की लालिमायुक्त किरणों से अनुराग तो बढ़ा ही चाँद की शीतलता में प्रेम की आशाएं भी प्रदीप्त हुईं| यह सब इतना आह्लादकारी रहा कि उस समय से लेकर आज तक की कविताओं में उनका प्रभाव ही नहीं पड़ा अपितु जीवन-शैली सकारात्मक हस्तक्षेप भी देखने को मिला और मिल रहा है| सूरदास लेकर तुलसी, जायसी, घनानंद सरीखे कवियों की काव्य-दृष्टि और फिर उसके बाद छायावाद से लेकर आगे के कवियों की जो रस दृष्टि रही, इधर के दिन पाठकों ने गहराई से महसूस किया|

इधर के कवियों ने भी सौंदर्य और उसके घनीभूत विधायक तत्त्वों का भरपूर प्रयोग किया अपनी कविताओं में| पहले की रसवादी कविताओं में और कोरोजीवी कविता में इतना अंतर है कि अन्य जगह जहाँ रहस्यवाद, वासना और एक तरह का ठहराव जैसा महसूस होता है वहीं कोरोजीवी कविता में अनुराग, प्रेम, समर्पण, सहभाव, सहचर, और ममत्व-अपनत्व का भाव संचरित होता है| कोरोजीवी कवि के यहाँ आकुलता-व्याकुलता न होकर एक तरह से संग-साथ की अपेक्षा है| ‘उत्तेजक दोपहर की खोज’ न होकर लालिमायुक्त सांझ की यथार्थता है जहाँ दो-पल बोलने-बतियाने की तत्परता दिखाई देती है न कि देह आकर्षण में उलझकर परिवेश को बंजर बनाने की ‘आकुलता|’ कोरोजीवी कविता के दायरे में संयोग में शालीनता है तो वियोग में ‘चिंता|’ यह चिंता प्रेमी या पति के किसी अन्य नायिका के जाल में फंसने का नहीं अपितु कोरोना जैसे वायरस से बचाव और आर्थिक विडम्बनाओं से उपजी दयनीयता से रक्षा-सुरक्षा की है|

प्रो. श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी व्याख्याओं में कोरोजीवी कविता को ‘अन्तरंग सहचरता’ के रूप में देखते हैं| यानि इसके पहले के जीवन में हमारी अंतरंगता थी नहीं कहीं| जो एक सहज जुड़ाव दीखता है या होना चाहिए जीवन में ‘असहजता’ का पर्याय हो गया था| अब इसके कारण कुछ भी रहे हों, चाहे आर्थिक दबाव कह लीजिये या फिर वैश्वीकरण का प्रभाव, एक संकोच और मनमुटाव जैसा भाव तो विकसित हुआ ही था परिवेश में| लोगों ने बात करना तो दूर हालचाल लेना भी छोड़ दिया था या कम कर दिया था|

सिद्धांत से लेकर व्यवहार तक, वैयक्तिकता से लेकर सामाजिकता तक, भक्ति से लेकर नैतिकता तक जो कुछ भी था दिखावा था| ओढ़ा हुआ था| सिद्धांतों का बनना मुश्किल नहीं था, था तो उस पर अडिग रहना| व्यवहारकुशलता को तो जैसे तिलांजलि दी जा रही थी| ईश्वर के प्रति प्रेम या ईर्ष्या दोनों एक-दूसरे में गड्डमगड्ड थे| ऐसा लगता था जैसे वास्तविक जीवन से कहीं अधिक बनावटी जीवन जीने लगे हैं लोग| कोरोजीवी कविता के दायरे में सांस्कृतिक विस्तार यहाँ यह हुआ कि हर स्थिति में साहचर्य-भाव का विकास हुआ|

यह साहचर्यता हर जगह देखी गयी| पिता-पुत्र का संवाद जितनी आत्मीयता में इधर के दिन देखे गए पहले क्षीण हो रहे थे| भाई-भाई के बीच प्रेम-व्यवहार को भी आप देख सकते हैं| परिवार के अन्य सदस्यों में जो एक हास-परिहास का माहौल होता है वह उभर कर जीवंत होने लगा और बहुत दिन बाद ऐसा लगा कि ‘सम्बन्धों के मिठास’ की परिकल्पना साकार होने लगी है| लोगों के बाग़-बगीचों में जाने का अवसर मिला| पेड़ की अनिवार्यता और वनस्पतियों की आवश्यकता पर गंभीर विचार-विमर्श इधर के दिन हुए|

पक्षियों और मनुष्य के बीच का व्यवहार सबसे अधिक सघन इधर के दिन देखे गए| इधर के दिन अधिकाँश बच्चों ने जाना कि मुर्गे का बाग़ देना क्या होता है| गाय के दूध देने से लेकर बकरियों का मिमियाना तक परिवेश में आश्चर्य का विषय रहा| बहुत दिन बाद औरतों के समूह-गान गाँव की आबोहवा में गुंजरित हुए| यह सब कहीं न कहीं अन्तरंग साहचर्यता के रूप में विकसित हुए जीवन-मूल्य हैं जो कोरोजीवी दौर से पहले के दिनों में दूर हो रहे थे|

काव्य-संस्कृति के प्रवाह में कोरोजीवी कविता का व्यवहार ऐतिहासिक रहा है इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए| काव्य-सृजन के लोग विषयों की खोज में लम्बे दिन तक भटका करते थे| एक वयोवृद्ध कवि का तो यहाँ तक कहना था कि ‘अंदर से विस्फोट’ होता है तो निकलती है कविता| कवि कान में कलम दबाए घंटों तो कल्पना में खोए रहते थे| कितने तो छंदों की मात्राएँ रटते-रटते जीवन खपा दिया और आज तक भाव-विस्तार के भाव को प्रकट न कर पाए| मुक्त-बद्ध की सीमा-रेखा को तोड़कर कोरोजीवी कविता ने ‘कवि’ को आंतरिक अनुभूति से जोड़ा| परिवेश की यथास्थिति से साक्षात्कार करवाया|

तमाम अपेक्षाओं के बियाबान में कविता को आदर्शों की पोटली में बांधकर देखे जाने की प्रथा भी हमारे हिंदी समाज में बहुत रही| कल्पना की दुनिया से लाकर यथार्थ की जमीन पर रखने तक की प्रक्रिया में तथाकथित कवि-समाज ने अपनी सारी आशाएं-अपेक्षाएं थोप रखी थी इस पर| कविता में इतनी मात्राएँ होनी चाहिए, इतने वर्ण होने चाहिए, इतनी छोटी होनी चाहिए, इतनी बड़ी होनी चाहिए, ऐसी नहीं होनी चाहिए, वैसी नहीं होनी चाहिए| इन तमाम अर्थहीन चाहना से कविता ने पहली बार स्वयं को मुक्त कराया और यह सन्देश दिया कि कविता का होना जरूरी है, न कि ‘चाहिए’ जैसी निरर्थक अपेक्षाओं में ‘घिरकर’ घुटन या कुण्ठा का पर्याय होना|

इस काव्यान्दोलन ने यह बताने का प्रयास किया कि कविता दिल या दिमाग पर जोर डालकर कोशिश करने वाली स्थिति नहीं है बल्कि स्वतःस्फूर्ति से साकार होने वाली प्रक्रिया है| यहाँ जरूरी शब्द आदि के समीकरण को फिट करना नहीं है अपितु बिखर रही संवेदनाओं को एकत्रित कर पुनः परिवेश में लाकर रख देना है| कहाँ तो दुःख को देखकर भाव प्रकट करने की विवशता थी कहाँ दुःख में होकर भाव-अभिव्यक्ति का प्रयास है| ‘दुःख को देखने और दुःख में होने’ दोनों में एक सूक्ष्म अंतर है| यही अंतर अन्य कविताओं और कोरोजीवी कविता में है| कोरोजीवी कविता ‘देखने’ में नहीं ‘होने’ में है| इसी तरह इसका सम्बन्ध ‘बनाने’ से नहीं ‘होने’ से है| यही कोरोजीवी कविता का ‘अन्तरंग साहचर्यता’ है जहाँ जो कुछ भी है, आपसे सम्बन्धित है, जुड़ा हुआ है| 

         

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