मनुष्य होना भाग्य है और कवि होना सौभाग्य| अभी
रात्रि के एक बज रहे हैं और मैं सोच रहा हूँ| जितना सोच रहा हूँ उतना ही पुस्तक
में प्रवेश करता जा रहा हूँ| राग रविदास| अपनी तरह की पुस्तक| लालच और ऐश्वर्य की
लालसा से काफी दूर कवि-शक्ति और कविता-सामर्थ्य को प्रकट करती हुई| एक महाकवि के
सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण कवि का उद्बोधन| आलोचना से कविता का रसास्वादन| कितना
कुछ| पढ़ रहा हूँ और महसूस कर रहा हूँ| सब सो रहे हैं| मैं जाग रहा हूँ| कविता जाग
रही है| कवि अपना कार्य कर चुके हैं| नागरिकों के हवाले परिवेश है| वह कब करेंगे
कुछ पता नहीं है| पता नहीं है कि ऐसी जरूरी पुस्तकें उन तक पहुँच भी रही हैं कि
नहीं? जिनके पास है भी वह पढ़ रहे हैं या पढ़ पाने का समय पा भी रहे हैं या नहीं? कविता
की बात है और बात है जड़ होते समाज में परिवर्तनगामी मनुष्यता की तो सोच रहा हूँ
अन्यथा तो क्या फर्क पड़ता है?
यह पुस्तक कई अर्थों में कविता प्रेमी और विशेष कर मध्यकालीन हिंदी कविता में अभिरुचि रखने वालों के लिए महत्त्व की है| रविदास के विशेष और जरूरी पदों के संकलन से समाहित इस पुस्तक की जो भूमिका है वह महत्त्वपूर्ण है| लगभग 66 पृष्ठ तक की यात्रा आपकी मानसिक स्थिति को निरंतर सक्रिय रखती है| यहाँ रविदास के आचार-विचार-व्यवहार के साथ-साथ वर्तमान स्थिति में उनकी उपयोगिता को लेकर जो बातें कही गयी हैं, उपयोगी हैं और नए विमर्श को जन्म देती हैं| ‘पुरोहिती व्यवस्था’ के ‘बौद्धिक आतंक’ से बचने की कोशिश में नितांत समकालीन विसंगतियों को संत रविदास के माध्यम से रखना और उस पर गंभीर चिंतन के लिए प्रेरित करना, इस पुस्तक की तमाम विशेषताओं में से एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है|
यह दौर महज कोसने और ख़ारिज करने के दौर में शामिल होता जा रहा है| ख़ारिज करने वालों ने जिस बौद्धिकता से मध्कालीन हिंदी कविता को ख़ारिज करने का श्रम किया था उसी मूर्खता से कविता पर भी दाँव खेला| अब जब इस पुस्तक की भूमिका को पढ़ रहा हूँ तो मन में एक प्रश्न आ रहा है कि कवि और कविता को पानी पी-पीकर कोसने वाले संत रविदास के सन्दर्भ में आचार्य श्रीप्रकाश शुक्ल के ये वाक्य देख रहे हैं या नहीं-‘आज भी उनकी स्वीकार्यता के पीछे उनके कवि की ही ताकत है जिसके सहारे वे एक वैकल्पिक दुनिया रच सके और आज की शब्दावली में एक वैकल्पिक आधुनिकता का संकेत कर सके|’ मेरी जानकारी में आलोचना के विवेक में ‘वैकल्पिक आधुनिकता’ का प्रयोग दिलचस्प घटना न होकर एक मानवीय समझ है जिसे ‘लोकवृत्त’ के दायरे में रखकर बार-बार इस पुस्तक में समझाने की कोशिश की गयी है| श्रीप्रकाश शुक्ल जब यह कहते हैं कि “वे स्वभाव से साधु थे और संस्कार से एक स्वाभिमानी कवि” तो कविता की सामर्थ्य और कवि की संघर्षधर्मिता फिर से परिभाषित हो जाती है|
श्रीप्रकाश शुक्ल संत रविदास के माध्यम से मध्यकालीन हिंदी कविता की अनिवार्यता को लक्षित करना नहीं भूलते हैं “यह व्यक्ति सत्ता की स्वीकृति का दौर था जहाँ संत कवियों की आवाज़ जातिगत प्रश्नों से टकराती हुई नये बनते सामाजिक सम्बन्धों को रेखांकित कर रही थी|” यह रेखांकन कई स्तरों पर होता है| विचार-आचार-संस्कार और फिर यहाँ तक कि व्यवहार के स्तर पर भी| यहाँ रविदास जैसे संत “ईश्वर की अवधारणा को खारिज नहीं करते बल्कि उसको बदलने की कोशिश करते हैं| वे पश्चिमी दर्शन के उस अर्थ में आधुनिक नहीं हैं जहाँ ईश्वर की मृत्यु की घोषणा से आधुनिकता का जन्म होता है बल्कि ठेठ भारतीय देशज अर्थ में आधुनिक हैं जहाँ ईश्वर की सत्ता के बावजूद आधुनिक हुआ जा सकता है|” श्रीप्रकाश शुक्ल की आलोचना दृष्टि में सबसे बड़ा सबल पक्ष यही है कि वह उधार के विचारों से न तो कविता का मूल्यांकन करते हैं और न ही तो भाड़े की दृष्टि से कवि की आलोचना| उनके पास जो एक व्यापक सांस्कृतिकबोध और समाजिकत्व का भाव भी, उसी के दायरे में कवि और कविता को देखते हैं और यह एक तरह से होना भी चाहिए|
श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी दृष्टि में जड़ शास्त्रीयता के खिलाफ हैं| ऐसा होने के साथ वह ‘शब्द-सत्ता’ में लोक के साहचर्य को तो देखते ही हैं लोक-भाषा को लोकवृत्त के निर्माण में विशेष रूप से सहयोगी पाते हैं| वह कहते हैं कि “लोकवृत्त के निर्माण में इस देशभाषा का बहुत महत्त्व है| इसी देशभाषा के महत्त्व के कारण संस्कृत के रामानंद की जगह हिंदी के क्रन्तिकारी रामानंद की स्वीकृति होती है जो कबीर व रविदास दोनों के गुरु होते हैं| इसी देशभाषा की गहरी समझ के कारण रविदास जैसे संत एक ऐसे लोकवृत्त का निर्माण करते हैं जहाँ एक स्वायत्त अस्तित्व और ज्ञान विस्तार की चेतना मौजूद रहती है| इसी आधार पर आत्म विस्तार भी होता है और जन्म आधारित विशेषाधिकार की आलोचना भी होती है|” यह अनावश्यक नहीं है कि इधर शुद्धतावादियों ने मिलकर न जाने कितनी देशभाषाओं के गले पर उपेक्षा की राजनीति मढ़ दिया है| सच यह भी है कि यदि देशभाषाएँ न होंगी तो लोक जागृत न होगा क्योंकि चेतना और जागरूकता के जितने भी कवितांश हैं वह सब देशभाषा में हैं| शास्त्रीयता में ढोंग का विस्तार अधिक हुआ है, यह बार-बार इस पुस्तक की भूमिका में श्रीप्रकाश शुक्ल दिखाने की कोशिश करते हैं|
कबीर को ‘ज्ञानी’ के रूप में और रविदास को ‘त्यागी’ के रूप में देखने और समझने की दृष्टि आपको यहाँ से मिलती है| ज्ञान से कहीं अधिक जरूरत लोक को व्यवहार की है| रविदास नितांत व्यावहारिक होकर कार्य करते हैं जिनका अनुसरण करते हुए उनके अनुयायी भी उसी व्यावहारिक मनोवेग से सक्रिय हैं| ऐसा श्रीप्रकाश शुक्ल यथार्थ में देखते हैं और उसी देखे के आधार पर रविदास चिंतन की मीमांसा प्रस्तुत करने की कोशिश किये हैं| सफाई-व्यवस्था से लेकर जोड़ा घर तक की प्रकिया को समझना और पारम्परिक हिन्दू धर्म से उनकी तुलना करते हुए रविदास की श्रेष्ठता को दिखाना मात्र इनका उद्देश्य नहीं है अपितु एक जागरूक और व्यावहारिक संत की शिक्षाओं को जनसामान्य में सार्थक तरीके से प्रसारित होने की यथार्थता को महसूस करवाना भी है|
भाषा और भाव में यदि ‘संवादी’ प्रवृत्ति है तो निःसंदेह लोक-जीवन उससे संस्कार ग्रहण करता है| यह समाज और देश भी व्यवहार से चलता है| सिद्धांत तो महज साधनाओं की के सहायतार्थ होते हैं जिनमें वैचारिकता जड़ होती जाती है और विचार निहायत ही मानसिक खुरापात| संत कवियों में जो हृदयगत व्यवहार देखने को मिला यह उसी का परिणाम है कि लोक अपने मानस के अनुसार उनकी छवि को धारण किया और प्रचार-प्रसार किया, फिर बाद में उनकी मान्यताओं को अपनाकर सामाजिक सहभागिता की नींव डाली| संत कवियों पर बात करते समय पता नहीं क्यों हम अति बौद्धिकता का शिकार हो जाते हैं और लोक-प्रचलित धारणाओं के विपरीत जाकर अपनी ढपली बजाने लगते हैं| श्रीप्रकाश शुक्ल जब यह कहते हैं कि “यह सांस्कृतिक स्मृति कहीं से भी इनकी समतापरक विशेषता को कमजोर नहीं कर रही थी बल्कि अपनी इसी स्मृति के करण समता के मूल्यों के प्रति जनता का ध्यान आकृष्ट कर रही थी” तो लगता है कि कवि ही कवि के भाव को शब्द दे सकता है, आलोचना के बस की बात नहीं|
इसी पुस्तक में कुछ दूर चलने पर श्रीप्रकाश शुक्ल को माइक पर बजते आरती के पद को सुनते हुए विश्वास होता है कि “सामाजिक विषमता दूर करने से पहले, ऐसा लगता है, रविदास जी सांस्कृतिक विषमता को सम्बोधित करना चाहते हैं और एक अपरिवर्तनीय जड़ समाज की संस्कृति चेतना को झकझोरना चाहते हैं|” रविदास की सांस्कृतिक समझ की परख लेते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल जिस तरह से उनसे जुड़ी छोटी-छोटी बातों, किम्वदंतियों के माध्यम से उनकी वैचारिक सामर्थ्य पर अपनी बात रखते हैं वह दिलचस्प है| ऐतिहासिक प्रसंगों के साथ अतीत और वर्तमान रचनाकारों की विचार-प्रक्रिया को उनसे जोड़ कर दिखाना निश्चित ही प्रभावित करता है और आलोचना में उनकी समझ और मध्यकालीन साहित्य-संस्कृति के प्रति जागृत विवेक’ की गवाही देता है| यह समझने की बात है कि समकालीन आलोचक जिस मध्यकाल से डर कर उसे पाठ्यक्रमों से निकालने की नसीहत देने लगता है उसी को इतनी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने का यह विशेष उपक्रम आपको प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ता|
श्रीप्रकाश शुक्ल की दृष्टि में ‘समानता’ को आधार मानकर ‘सहभागिता’ में परिणति खोजने वाली दृष्टि ‘आवाहन’ और ‘आमन्त्रण’ की राजनीति से दूर हटकर ‘स्वतःस्फूर्त’ के भाव में विकसित होती है| यह स्वतःस्फूर्ति ही कविता का सबसे सबल पक्ष है और संत साहित्य का भी| रविदासिया धर्म की प्रतिष्ठापना से लेकर उसके लिए चलाए जा रहे अभियान तक इसी स्वतःस्फूर्ति प्रक्रिया में शामिल है| देखना यह होगा कि जिस धर्म की वकालत यहाँ और अन्यत्र की जा रही है, वह अपने मूल स्वभाव में क्या बनी रहेगी या फिर जड़ता की तरफ उन्मुख होते हुए अन्य जड़ताओं की पोषक होगी| वैसे तो धर्म की परिणति क्या होती है, शायद ही किसी से छिपी हो|
हिन्दू धर्म के पारंपरिक त्यौहारों और रविदास के भण्डारे के समय की सफाई व्यवस्था पर बात रखते हुए श्रीप्रकाश शुक्ल नितांत व्यावहारिक पक्ष रखते हैं जिस पर असहमत या सहमत हुआ जा सकता है| ऐसा लिखते हुए संभव है कि हिन्दू धर्म के अन्य सम्प्रदायों की यथास्थिति ओझल हो गयी हो उनसे जहाँ मैं अभी भी रविदासिया धर्म को एक संप्रदाय के रूप में ही देख रहा हूँ| जन्म स्थान आदि की सहमति अथवा असहमति में दिए गए तर्क विशेष अध्ययन और खोज पर आधारित हैं जिन पर उलझते हुए उतना ही श्रम करने की जरूरत है| फिलहाल अब मैं ‘राग’ में ‘रविदास’ को पढ़ रहा हूँ और आपको भी पढ़ने की सलाह देता हूँ| लम्बी भूमिका से गुजरते हुए चयनित पदों को पढ़ना एक अलग तरह के सुख और सुकून को प्राप्त करना है| आप निरंतर अच्छा कर रहे हैं जिसे कह कर पूरा नहीं किया जा सकता है| पढ़ कर कहने की कोशिश में हूँ तो अब उसी पर चल रहा हूँ|
इन दिनों मैं फगवाड़ा में बन रहे विशाल रविदास
मंदिर के ठीक आस-पास रह रहा हूँ| कभी-कभी प्रांगण में जाना भी होता है| दिव्य
अनुभूति होती है| जिस पुस्तक को पढ़ रहा हूँ उसकी कुछ प्रतियाँ वहाँ पहुंचानी है|
इस पुस्तक हाथ में लिए हुए ऐसा आभास हो रहा है कि जैसे फगवाड़ा और काशी के बीच का
कोई भेद नहीं रह गया है| श्रीप्रकाश शुक्ल सर वहाँ से लिख रहे हैं और मैं यहाँ
बैठकर पढ़ रहा हूँ| पुस्तक पर आधिकारिक तौर पर सर का नाम है, होना भी चाहिए, लेकिन
व्यावहारिक तौर मुझे समर्पित, यह मेरा सौभाग्य है| हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ
सर|
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