Friday, 2 June 2023

'आह प्रेमचंद' और फिर वाह 'प्रेमचंद'

परिवेश की समझ जिनको नहीं होती है वही अनाप-शनाप बकते हैं| 'कथा' में स्वाभाविकता की जगह 'एजेण्डा' सेट करना प्रेमचंद के बस की बात नहीं थी...वह सच देखते थे लेकिन छिपाते नहीं थे| गोदान में मातादीन के मुह में हड्डी डलवाने की यथास्थिति को कौन नहीं जानता है? इसी तरह से घीसू और माधव के चारित्रिक बुनावट के पीछे का यथार्थ भी शायद ही किसी से छिपा हुआ हो...अब यदि वह एजेण्डा लेकर चलते हैं तो इन दोनों स्थितियों पर उन्हें घेरा जाना चाहिए...लेकिन नहीं...जो ऐसा कर रहे हैं खुद कसी एजेंडे से ग्रसित है और प्रदूषित हैं...कथालोचना की बारीक-सी समझ रखने वालों को भी पता है कि चरित्र की बनावट कितने संजीदगी से की जाती है...कभी शेखर जोशी जी ने इलाहबाद में बोला था 'कहानी के कथ्य और शिल्प को बनाकर चलना तलवार के धार पर चलने के बराबर है|" इधर के एजेंडेबाज कथाकारों ने तलवार ही गायब कर दी तो भला 'धार' कैसे संभलेगी...

जो ठीक से खा-पी-जी रहे हैं उन्हें गरीबों के विषय में लिखने का कोई अधिकार नहीं है...| यह जुमला भी इधर के समय पास लेखकों ने उछाला है| गज़ब की तर्कबुद्धि है जिस पर महज सोचा जा सकता है| हतबुद्धि यह कि 'संपन्न' होना ही विलासी होना है...विपन्न होना उच्च आदर्शवान और प्रतिभावान...
प्रेमचंद के मूल्यांकन सबसे पसीना बहाने वालों ने हर तरह से स्तेमाल अपना ही चश्मा किया...थोड़ा-बहुत परिवेश और समय की समझ विकसित करते तो शायद हंसी के पात्र तो न ही बनते...नागार्जुन की कविताओं और व्यक्तित्व के साथ भी ऐसे खेल खेले जाते रहे हैं...तो आगे-आगे देखिये होता है क्या...

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