Sunday, 30 July 2023

कविताएँ इन दिनों

 

कुछ भी होने से पहले मनुष्य हूँ

 

कुछ भी होने से पहले मनुष्य हूँ

यह याद है

किसके लिए कितना हूँ

रोज पूछता हूँ सवाल मन से

सब अधूरा रह जाता है

न प्रश्न कोई और उठता है मन में

न ही कोई उत्तर सूझता है

 

यूं तो बहुत पहले कई हिस्सों में बंट चुका था मैं

इधर एकीकरण का प्रयास था

सो असफल ही रहा शायद

कभी धरती देखता हूँ

कभी आकाश

कभी अंतरिक्ष की तरफ निहारते हुए

खुद का अता-पता भूल जाता हूँ

 

जिन्होंने यह एहसास दिया कि मेरे हैं

रहेंगे हरदम

साथ छोड़ कर अलग हो लिए

जो यह कहते थे

हर कदम पर साथ दूंगा

कहीं दीखते हैं तो रास्ते बदल लेते हैं

 

सृजन के क्षण ये एहसास मुझे कचोटते हैं

ये शब्द ये वाक्य

संवेदनाएं ये किसके लिए हैं

मुझे नहीं पता है

यदि तुम्हें कुछ पता हो तो कहना मैं इंतज़ार करूंगा

 

मन फिर बेचैन है

 

मन फिर बेचैन है

हवा का रुख इस बार साफ़ नहीं है

रास्ता कौन-सा रुचिकर होगा

मेरे लिए

तय नहीं हो पा रहा है

 

अभी अभी

दो कदम


बढ़े ही थे

कि चार कदम पीछे होना पड़ा है

 

कोई कह रहा था

जिस राह निकल रहे हो बहुत-से लोग कुर्बान हो गये

जिनकी आशा थी कि बच जाएँगे

समाज ने उनको उपेक्षित रखा

और वह एक दिन खुद मर गए

 

मैं फिलहाल यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ

वह जो मरे खुद

हर एक में कहीं न कहीं ज़िन्दा हैं

लोग याद कर रहे हैं तो उनकी ताकत और साहस है

 

जो ज़िन्दा हैं और लोग

बात भी नहीं कर रहे हैं और न ही तो जानते हैं

सही मायने में

मरे वही हैं शेष तो बस कहानी है

 

कहानी हर किसी के पास है

जो आम है

या फिर वह भी जो ख़ास है

सिकन्दर वही हुआ है

जिनकी हार के गम और जीत के चर्चे

जनता जनार्दन में होती रही

शेष न तो अभिमन्यु हो पाए

न तो एकलव्य है

 

 

आप भी कुछ सोच रहे हैं कि नहीं


मन है कि अशांति में रमा हुआ है

न कोई सैर करने की इच्छा

न बैठे रहने की चाह

इतवार वैसे ही गुजर गया जैसे गुजरता है कोई बुरा दिन

 

कभी बारिश के मौसम में खूब सोता था

अब नींद सिरे से है गायब

बार-बार देख रहा है बाहर मन

कि मौसम कैसा है?

 


कभी गाँव की याद आती है

वहां रहने वाले उन परिवारों की जिनके घर छान-छप्पर के बने हैं

उनकी जो खेती-बारी करते हैं

परिवार का गुजर-बसर रोज की दिहाड़ी पर है निर्भर

जब कभी कोई बीमार हो जाए

कोई धनिक ही होता है सहारा

बाद में भले वह दिए गए पैसे का मोटा व्याज वसूलता है

 

उन बच्चों की उन युवाओं की

जो बारिश के मौसम में आस-पास के तालाबों नहरों में

मछरी मारने के लिए निकल पड़ते

कुछ बेचते और कुछ उसी से उस दिन का भोजन तैयार करते

अरहर की दाल बासमती का चावल मुश्किल से होता नसीब उन्हें

 

सोच रहा हूँ और देख रहा हूँ मौसम

कि वह बाहर निकले होंगे फिर एक दिन बनाने के लिए

भला वह आज कैसे होंगे जब मौसम हर क्षण बदल रहा है स्वभाव अपना

 

माँ अक्सर चिंतित रहती आँधी-पानी के मौसम में

हर सदस्य के बारे में पूछती घर के

अब जब वह घर पर है मैं यहाँ फगवाड़ा में

वह फिर कर रही होगी चिंता मेरे बारे में

 

सोच रहा हूँ और मन मसोस कर रह जा रहा हूँ

ऐसे पता नहीं कितनी माताएँ

कितने बच्चों को लेकर चिंतित हो रही होंगी

बाहर देख रहा हूँ मौसम और सोच रहा हूँ निरंतर

सोच रहा हूँ कि यदि बारिश तेज हुई तो क्या होगा

आँधी आ गयी कहीं

तो फिर कैसे रहेंगे लोग जिनके हिस्से इतना भी नहीं है

कि बाँध सकें किसी थून से अपने घर के छप्पर को

न ही बरसा कहीं मौसम तका कर निकल गया

फिर धान की खेती का क्या होगा

डीजल सस्ता तो नहीं कि खेत की भराई ठीक से की जाए

 

अब यह सब सोच रहा हूँ तो याद आ रहा है

मेरे हिस्से के काम बहुत बाकी हैं

समय से न हुए तो मेरा क्या होगा

फिर इस कविता का क्या होगा लोग पढ़ेंगे भी या नहीं

वैसे भी दुःख से उकता गए हैं लोग

रुख कर लिए हैं रोमानियत का

 

बार बार मौसम देख रहा हूँ

सोच रहा हूँ

आप भी कुछ सोच रहे हैं कि नहीं?

 

मुझे भला दुःख क्यों होगा

 

दूर बैठा आदमी यदि स्वप्न देख रहा है

चाँद के पार घर बनाने की

कोई सोच रहा है

किसी के जुल्फों में क़ैद होना

कोई दसवां-बारहवाँ प्रेम पत्र भेजने के लिए

खोज रहा है कबूतर कोई ईमानदार

 

इन सब में

मुझे भला दुःख क्यों होगा?

 

आस-पास के लोग धरती को उर्वर बनाने के लिए

कर रहे हैं प्रयास

तो बहुत से लोग यदि सोच रहे हैं

दुनिया कोई नयी बन जाए

इस या उस तरह की परेशानियों की वजह से

हो चुके हैं परेशान

 

मुझे इन सब में

दुःख भला क्यों होगा?

 

दुःख होगा तब

जब चाँद पर जाने वाला धरती को बुरा-भला कहेगा

हर समय जुल्फों में क़ैद रहने वाला

युवाओं को देगा संदेश

समाज में सदाचरण के प्रसार की

दसवें-बारहवें प्रेमी या प्रेमिका की तलाश में भटकने वाले लोग

प्रेम की एकनिष्ठता पर झाडेंगे भाषण

 

दुःख होगा तब

जब नई दुनिया के निर्माण में खोया हुआ आदमी

जाति और धर्म की श्रेष्टता बताते एक पल भी

नहीं करेगा शर्म

धरती पर हर समय परोसते कूड़ा-कर्कट

थोड़ा भी नहीं सोचेगा

आदमी आदमी के बीच बिखेरते हुए विष

नहीं करेगा पश्चाताप जरा भी

 

पता नहीं इन सब से

आपको दुःख होता है या नहीं?

 

 सुनो, सारी यात्राएं स्थगित कर दो  

 

ठीक है कि समय नहीं है तुम्हारे पास

फ़ुर्सत में तो मैं भी इधर नहीं हूँ

इश्कबाजी से अच्छा है

जिनकी ज़िन्दगी तबाह हुई इस राह

उनकी ख़ोज-ख़बर ली जाए

समय का ही फेर है सब

कोई कहाँ भागता है सुख-सुविधाओं को छोड़कर

 

बहुत-सी लड़कियां घर-बार छूट जाने के बाद

आज भी भटक रही हैं

कुछ के प्रेमी साथ हैं तो मजदूरी कर रही हैं

महानगरों में बच्चे पाल रही हैं

किसी तरह जी रही हैं

जिनके प्रेमी छोड़ कर चले गये वह भी

किसी तरह स्वयं बेचकर ज़िन्दा हैं

इस तरह कि ख़ोज-ख़बर नहीं लेता कोई कभी

 

लड़के जो भागे घर से

आज तक बस भाग रहे हैं और भागे जा रहे हैं

कभी समाज के डर से

कभी घर-परिवार इत्र-मित्र के डर से

तो कभी पुलिस के डर से

न कोई जल्दी काम पर रख रहा है

न ही वह कोई काम करना चाहते हैं

समय वैसे भी इतना गँवा दिया कि अब कुछ बाकी नहीं रहा

 

सुख का तो इस राह पूछो न

जितने उलझन में मिले थे पहली दफा

उससे हजार उलझन में

मर-खप-से रहे हैं वह इन दिनों

फ़िलहाल कोई चोरी या अपराध नहीं किया उन्होंने

अच्छा भी खैर नहीं किया कुछ

किसी के आँखों का तारा जिन्हें होना था

किरकिरी बनकर

जीवन की ऐसी-तैसी कर डाले

 

हो सके तो मिलने से अच्छा तुम उधर से देखो

मैं इधर से कोशिश करता हूँ

क्या पता किसी होनहार भटकते हीरे को कोई ठाँव मिल जाए

कुछ के घर-बार बसें भले न

घर-परिवार वाले उनके उनसे एक बार ही सही मिल जाएं

 

कोई कितना भी लिखे भागे हुए लड़के या लड़कियों पर कविता

क्रांति-वान्ति कुछ काम आती नहीं है जीवन में

न ही हीरोपंथी काम आती है

जीवन का डोर चलना है समझदारी से ही

चाहे पहले आ जाए भटकाव न हो

या बाद में आए बहुत धक्के खाने के बाद ही सही

 

सुनो सारी यात्राएं कर दो स्थगित

मुझे भी रहने दो उलझन में

खुद का रास्ता भी वही बना लो

जो भूले-बिसरे और भटके-अटके हुए हैं

हो सके तो उन्हें कोई राह दो

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