Monday, 26 August 2024

बेरोजगारी के प्रश्न और कोरोजीवी कविता

 

1

 

‘कोरोजीवी कविता का सांस्कृतिक सन्दर्भ’ लेख में लिखते हुए यह कहा था एक दिन कि “कविता या साहित्य कभी भी ऊँगली पकड़ कर चलाए भले न लेकिन ऐसा सूत्र उसमें से प्राप्त होता है कि आप (खुद के साथ) दूसरों को ऊँगली पकड़ कर रास्ता जरूर दिखा सकते हैं| कोरोजीवी कविता ने निःसंदेह कोरोना के भयंकर दौर में आपको जीवन-सूत्र दिया है| वह दृष्टि दी जिसके जरिये आप न सिर्फ लम्बी दूरी चल सकते हैं अपितु सार्थकता के साथ निर्माण के स्वप्न को हकीकत में भी बदल सकते हैं| हाँ दावे और वायदे यहाँ नहीं मिलेंगे आपको|” रोजगार का प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं है| यह उनसे पूछा जाना चाहिए जो बेरोजगार हैं| काम-धाम नहीं है कोई खर्चे तमाम हैं| उनसे भी पता कर सकते हैं जो उनकी यथास्थिति से परिचित हैं| दो वक्त की रोटी के लाले पड़ जाते हैं| शौक-साधन की तो बात ही जाने दीजिये| जेब में पैसे का न होना और घर-परिवार की ज़रूरतों का नित-प्रतिदिन सामना करना किसी असह्य पीड़ा को आत्मसात करने से कमतर तो नहीं है|

हिंदी कविता में बेगारी-बेरोजगारी का जिक्र बराबर आया है| मिलों, फैक्ट्रियों, कारख़ानों में दिहाड़ी पर कार्य करने वाले मजदूर, गाँवों, शहरों आदि में खटने वाले मजदूर कवियों की संवेदना के पात्र रहे हैं| छोटे से उदहारण में निराला की 'वह तोड़ती पत्थर' कविता को आप विस्मृत नहीं कर सकते हैं| ‘चल रहा लकुटिया टेक’ निराला की ही कविता है| इसके पहले यदि तुलसीदास के यहाँ जाएँगे तो 'जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस/ कहैं एक एकन सों, ‘कहाँ जाई, का करी?’ जैसा यथार्थ आँखें खोल देती हैं| ‘कहाँ जाइ का करी पर थोड़ी देर ठहरिये| सोचिए कि ये प्रश्न कितनी हताशा और निराशा लिए हुए है? कितनी वेबसी और दर्द लिए हुए है? तुलसी का समय और आपका समय यहाँ आकर एकमेक हो जाते हैं| नागार्जुन द्वारा रचित ‘प्रेत का बयान’ में प्रेत जो कुछ कहता है गलत कहाँ कहता है? विसंगतियाँ इस कदर घेर लेती हैं कि न आप इधर के होते हैं न उधर के|  

आने की पाबंदी और जाने की बंदी जहाँ हो वहां का यथार्थ अलग हो जाता है| परिवार की रोटी का बन्दोबस्त करेंगे या फिर व्यवस्था का विरोध करेंगे? प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा| एक बात और है कि साधारण समय की बेरोजगारी और किसी विशेष-परिस्थिति की बेरोजगारी में भी अंतर होता है| महामारियों का इतिहास जो कुछ कहता है, गलत नहीं है| अच्छे-अच्छे सड़कों पर आ जाते हैं, वे भी जो रोजगार दे रहे होते हैं, जिनके पास नहीं है कुछ तो उनका क्या हाल होता होगा, यह पूछने की ज़रूरत नहीं है| खुद का भी यथार्थ देखेंगे तो स्पष्ट होता जाएगा| ‘बेरोजगार मित्र की डायरी से’ कविता है दिनेश कुशवाहा की| कवि एक बेरोजगार की यथास्थिति को किस तरह अभिव्यक्त करता है वह आप यहाँ देख सकते हैं-

“अभी तो मैं जवान हूँ

मुझे भी आते हैं सतरंगी सपने

पर जब देखता हूँ

धीरे-धीरे बुझ रही हैं पिता की आँखें

तो मुझे अपने रंगीन सपनों से

वितृष्णा होने लगती है।

 

यूँ तो रोज़ ही जन्मती-मरती हैं

छोटी-मोटी इच्छाएँ

कि पी लूँ एक कप कॉफ़ी रेस्तराँ में बैठकर

धुला लूँ लॉन्ड्री में कभी रीठ गए कपड़े

बनवा लूँ एक नई कमीज़|”

लेकिन फिलहाल यह सब महज स्वप्न ही रह जाते हैं| नौकरी नहीं है तो करेगा क्या कोई कुछ? इधर की कविता को लेकर यहाँ एक अलग तरीके का यथार्थ भी है| कवि के लिए ‘दुःख’ स्थाई विकल्प है कविता में| वह तमाम मुद्दों पर दुखी होता रहा है, होता है| बेरोजगारी जैसे प्रश्न पर उसके यहाँ मौन दिखेगा आपको| जैसे यह सरकार की ज़िम्मेदारी मात्र हो| राजनीतिक व्यवस्था के प्रतिरोध में तमतमाए कवियों के पास विरोध का यह विकल्प सीधे क्यों नहीं आता, आप इस पर विचार कर सकते हैं| यह सीधे शायद उनको न झकझोरती हो? उनके दिमाग पर बल न पड़ता हो? यहाँ युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की एक कविता ‘रीढ़-राग’को देखना ज़रूरी हो जाता है –

जो भूमि में जीवन बोते हैं

उनके गीतों में श्रम के राग होते हैं

वे मेड और मचान पर सोते हैं

वे खेतों में अक्सर रोते हैं

 

करुणा की क्यारी में कवि बहुत हैं

किन्तु, कविता किसी के पास नहीं है

क्योंकि, कर्ज के बोझ से टूटी हुई रीढ़ कह रही है

कि भाषा की आँख है भूख

और उसकी आत्मा है दुःख|” (गोलेन्द्र पटेल)

सही कहूँ जितनी ज़िम्मेदारी से रोजगार और भूख को केंद्र में रखकर कविताएँ लिखी जानी थीं, इधर दो तीन वर्षों में बेरोज़गारी और पेपरलीक जैसे विषयों पर कवियों की संवेदनाएँ कम ही जगी हैं| समाज के बड़े हिस्से के पास कोई साधन नहीं है| किस तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो, यह नहीं पता है| युवा दिन-रात श्रम करके भी परिवार का खर्च नहीं पूरा कर पा रहे हैं| कवि बावजूद इन सबके ऐसे विषयों से अनभिज्ञ रह जा रहे हैं? क्या यह सच है कि उनके समय में अब रोजगार कोई समस्या नहीं है? भुखमरी, भाड़े की मजदूरी, बँधुआ मजदूरी, बेगारी आदि के दायरे में जीवन यापन करने वाले लोग क्या हमारे परिवेश से गायब हैं?

कोरोजीवी कविता में इस बात पर विचार हुआ है| कविता जिस समय एक फैशन की तरह विकसित हो रही हो वहीँ कोरोजीवी कविता के दायरे में कवि सुरक्षित जोन से बाहर निकल कर जोख़िम लेता है और पाता है कि -

 

इधर, अभी

पेट की आग व अन्न का

समीकरण है अनसुलझा हुआ|

 

कलमुँही महामारी की आड़ में

कामवाली की पगार और

सूरते राजगीर की दिहाड़ी को

अड़ंगी लगी है ज़बर्जस्त|” (बल्वेन्द्र सिंह)

इधर महज कवि की वेबसी नहीं है| एक सम्पूर्ण लोक की वेबसी है| एक रोजगार संपन्न होते हुए जब कवि की यथास्थिति ऐसी है तो सोचो कि कवि जब कामवाली और सूरते राजगीर की दिहाड़ी देने में असफल हो रहा है तो जो दिहाड़ी पर है और जो कामवाली है उसकी क्या स्थिति होगी? कहाँ से घर का खर्च निकल रहा होगा उसके, कहाँ रोजमर्रा की ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरी करते होंगे ऐसे लोग? प्रश्नों की संख्या बढ़ती जाती है और कवि की पक्षधरता और कविता का वास्तविक संघर्ष यहाँ से परिभाषित होता जाता है| यह भी समझ सकते हैं कि जिनके पास यह साधारण सी नौकरी भी नहीं है उनका क्या होता होगा? किस तरह से होंगे उनके बाल-बच्चे और किस तरह से पूरी होती होंगी उनकी ज़रूरतें-‘बेरोजगार पिता के बेटे’ कविता में आलोक मिश्र लिखते हैं कि-

“बेरोजगार पिता का बेटा

देखता है रोज़ एक सपना

कि उसके पिता जा रहे हैं काम पर

और लौट रहे हैं वहाँ से

कंधे पर लटकाये एक भरा हुआ झोला

 

बेरोजगार पिता का बेटा

लहककर लपकता है उस तक

पर वह झोला है या कोई झोल

कि लपकते ही वह और सपना

दोनों हो जाते हैं गोल|”

दरअसल ऐसे बच्चों का कोई संसार इतना सुखद नहीं होता| कुशल है कि वह बच्चे हैं और कुछ समय के बाद भूल जाते हैं लेकिन पिता की यथास्थिति कैसी होगी? विचार इस पर किया जाना चाहिए| कोरोजीवी कविता में यथार्थ शिद्दत से अभिव्यक्त होता है| बगैर किसी घुमाव के और बगैर किसी लाग-लपेट के| जितना यथार्थ आपको इस कविता में मिलेगा, कहीं और नहीं देखेंगे|

2

 

कोरोना समय का यथार्थ विचलित करता है| डराता है| जब मैं कोरोजीवी कविता का अध्ययन करता हूँ तो इस समस्या ने कवियों को अंदर तक झकझोरा है| वे युवाओं की बदहाली और परिवार के बिखराव देखकर विलख पड़े| भूख, प्यास, असीम पीड़ा, वेदना आह! बहुत कुछ| श्रीप्रकाश शुक्ल सरीखे कवि लिए हर क्षण दुखद है| ‘इंतज़ार’ कविता में एक जगह वह लिखते हैं-

“हाय कैसे कहूँ कि हर क्षण एक  बीतता हुआ क्षण है

और जो बीत  रहा है

वह किसी अनबीते का महज़  इंतज़ार लगता  है

जिसमें सीझती हुई करुणा

गुजरते समय की उदासी बन

कंठ में अटक सी गई है!” (श्रीप्रकाश शुक्ल)

हलक तो हर किसी के सूखे ही रहे| यह सच है कि सरकारें जहाँ विज्ञापन में ‘सब अच्छा है’ का स्वप्न दिखा रही थीं, कविगण अच्छा होने, दिखने और करने के बीच के फासले को महसूस कर रहे थे| उन्हें किसी भी हालत में ख़तम करने में तल्लीन थे| उनके सामने एक ऐसी लाचार-वेबस-लुटी-पिटी युवा पीढ़ी थी जिनके पास हज़ारों-हज़ार योग्यता होने के बावजूद रोज़गार के अभाव में या तो दम तोड़ रहे थे या फिर मरते-घिसटते आत्मीय लोगों को यथावत देखने पर विवश थे| ‘कोरोना फ़ैल रहा है’ कविता में विनोद पदरज लिखते हैं कि-

“कोरोना फैल रहा है

लोग मर रहे हैं

डॉक्टर, नर्सें, पुलिसकर्मी संक्रमित हो रहे हैं

रोज़गार बंद हैं

मजूर सड़कों पर हैं

सबको गाँव जाना है

कई भूख से मर गए हैं

कई ट्रेन से कुचल गए हैं

उधर गैस रिसी है

कई दम तोड़ चुके हैं

कई भर्ती हैं

इधर फिर से घाटी में

जवान हताहत हो रहे हैं... (विनोद पदरज)

यह चित्र एक साथ कई तरह की विसंगतियों का यथार्थ है| दिमाग-बंद यथास्थिति का चित्रण मात्र नहीं है यह| भूख, बेबसी, बेरोजगारी आदि तो है ही वह आत्मपीड़ा भी है जिसके दायरे में कोरोना विकसित होता है और लगभग मानवीयता को संकट में डालता है| फिलहाल देश में यह संकट कोई नया नहीं है| भूख यहाँ की स्थायी विशेषता रही है| हम इससे निजात पाए भी नहीं थे कि ‘आत्मनिर्भर’ देश की परिकल्पना का स्वप्न दे दिया गया| कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की एक कविता है ‘रोटी’ इस कविता में वह ‘आत्म निर्भर होता देश अब/ रोटियों से आगे निकल चुका है!” का यथार्थ रखते हैं-

“रोटी का बिखरना

नहीं है कोई घटना

 

जनता अभी भी सड़क पर है

और उसके पलट प्रवाह के बीच

देश आत्म निर्भर हो रहा है|” (श्रीप्रकाश शुक्ल)

रोटी जिस तरह से बिखरी हुई है वह बिखरी हुई मनुष्यता का हवाला दे रही है| आत्मनिर्भर की संकल्पना पर हँस रही है| यथार्थ को दरअसल झुठलाया नहीं जा सकता है लेकिन उसके उलट प्रवाह में स्वप्न को उछाला जा सकता है| सत्ता महज स्वप्न उछालती है| जनता उस स्वप्न के दायरे में स्वयं को देखने के लिए विवश होती है| यह विवशता कहीं और से नहीं आई थी| कवि जानता है| कविताओं में दर्ज है| कोरोजीवी कविता इसी अर्थ में ज़िम्मेदार है| एक समझ से परिपूर्ण ईमानदार नागरिक की तरह| कौन घर से बेघर हुआ, किसकी नोकरी छूटी, किसको बैंक ने ईएमआई एक्सटेंड करने के एवज में ठगा, किसकी ईएमआई नहीं गयी और वह डिफाल्टर हो गया या कर दिया गया, खाने-पीने की असुविधा में ईएमआई की चिंता में युवा वर्ग कितना अधिक तबाह हो होता रहा, यह सब कवि को पता है| संजय कुंदन के यहाँ एक कविता है ‘अमरता’| इस कविता में एक ही कामगार है जो वास्तविकतः पूरे परिवार का खर्च चलाती है| गुंडों के हाथ लगने पर स्वयं को बलात्कृत होने के लिए यह कहते हुए तैयार करती है कि-

“मेरी ही नौकरी से चलता है घर

पिताजी दो साल पहले गुज़र गए

भाई अभी स्कूल में ही है

बहन बॉक्सर बनना चाहती है

बहुत पैसा लगता है

उसकी ट्रेनिंग में

मां के घुटनों में दर्द रहता है

जल्दी ही ऑपरेशन कराना पड़ेगा”

निहायत ही असहनीय पीड़ा है ये| ऐसा दर्द है जिसे कहा नहीं जा सकता है महज महसूस जा सकता है| संजय कुंदन जैसे कवि से यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि ये आम जीवन के बीच गंभीरता से रह रहे हैं| उनके मुद्दे उठा रहे हैं और उनके बीच रहते हुए कविता को लिख रहे हैं|

पता है कोरोजीवी कवि को कि कितने मजदूर नौकरी से निकाल दिए गये| कितने की सैलरी कम कर दी गयी| कितने की तनख्वाह रोक दी गयी और आज तक उसका कोई हिसाब-किताब नहीं किया गया| कोरोना समय की एक खोज ‘वर्क फ्रॉम होम’ एक अलग तरह की समस्या लेकर आई| इस प्रक्रिया ने लोगों से काम खूब लिया लेकिन घर के नाम पर उनकी सैलरी बड़ी मात्रा में कट कर दी| यह अमूमन सबको पता है| जिनकी सरकारी नौकरियां थीं उनकी तो खैर सब ठीक-ठाक लेकिन जो प्राइवेट नौकरी में उनका घर-बार चलना मुश्किल हो गया| अभी भी बहुत-से संस्थान ‘वर्क फ्रॉम होम’ के कॉन्सेप्ट पर ही कार्य करवा रहे हैं| वे आज भी सैलरी कुछ हिस्सा काट रहे हैं| परिवार का कौन-सा सदस्य महज पैसा न होने की वजह से गुजर गया, किसके घर का बच्चा तीन दिन से भूखा है और किसी रोजगार संपन्न परिवार का न होने की वजह से दम तोड़ गया, यह सब कविता में दर्ज़ है| एक जगह पंकज चौधरी अपनी कविता ‘कोरोना और दिहाड़ी मजदूर’ में कोरोना समय का वर्तमान और उसके बाद की भयावह स्थिति पर विचार करते हुए लिखते हैं-

“परदेस में उनके हाथों को जब कोई काम ही नहीं रहा

घरों से उनको बेघर ही कर दिया गया

राशन की दुकानें जब ख़ाक ही हो गईं

तब वे करें तो क्‍या करें      

जाएँ तो कहाँ जाएँ।

 

वे उसी वतन को लौट रहे हैं

जिनको मुक्ति की अभिलाषा में छोड़ना

उन्‍हें क़तई अनैतिक-अनुचित नहीं लगा था

यह जानते हुए भी

फिर वहीं लौट रहे हैं

कि वह उनके लिए किसी नरक के द्वार से कम नहीं है

उन्‍हें पता है कि

जिनसे मुक्ति के लिए उन्‍होंने गाँवों को छोड़ा था

वे उनसे इस बार कहीं ज़्यादा क़ीमत वसूलेंगे

उन्‍हें उनकी मजूरी के लिए

दो सेर नहीं एक सेर अनाज देंगे

उनके जिगर के टुकड़ों को

बाल और बंधुआ मज़दूर बनाएँगे

उनकी बेटियों-पत्नियों को दिनदहाड़े नोचेंगे-खसोटेंगे

शिकायत करने पर

रस्‍सा लगाकर

ट्रकों में बाँधकर गाँवों में घसीटेंगे|”

जिन विसंगतियों से ऊबकर आम आदमी शहरों की तरफ पलायन किया था उन्हीं विसंगतियों में उनकी फिर वापसी हो रही है| जो सक्षम तब थे वह अपनी तरह से सक्षम अब भी हैं| अभी न तो उनके उन्माद कम हुए हैं और न ही तो उनकी जड़ताएँ| बेचैनियाँ बढ़ी ज़रूर हैं| ऐसे में कोई वापस लौटकर खाली हाथ जाता है गाँव, उसकी यथास्थिति पर पंकज चौधरी की यह कविता पूरी तरह बेबाक है|

फिर कह रहा हूँ कि जहाँ सभी अपनी भूमिका निर्वहन करने में नाकाम रहे, कवि एवं कविता ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई| विपत्ति के दिनों में दूर से आवाज़ देने वाला भी बड़ा हमदर्द होता है यहाँ तो कविता का संग-साथ पूरी गम्भीरता से मिला| कवि संग-साथ ही नहीं रहा, व्यवस्थागत ढांचे में बदलाव के लिए प्रतिरोध का विकल्प भी सर्जित किया| यह वही सर्जना है जिसके दम पर श्मशान में तब्दील हो चुके परिवेश को पुनः ऊर्जस्वित किया| कोरोजीवी कविता की सबसे बड़ी भूमिका यह भी रही कि मुक्ति और युक्ति का संकल्प लेकर आई वह इन दिनों| यह ऐसा संकल्प है जिसमें जन की भूमिका विशेष हो उठती है और समाज अपनी ज़िम्मेदारी का सार्थक निर्वहन करना शुरू कर देता है|

 

 

Friday, 16 August 2024

सुना है कि

 सुना है कि पश्चिम बंगाल में क्रांति अधिक होती है...

सुना है कि यहाँ बौद्धिक अधिक रहते हैं
सुना है कि यहाँ कवि और साहित्यकार रहते हैं
सुना है कि यहाँ निरपेक्ष और लोकतांत्रित रहते हैं
सुना है कि
सुना है कि
सुना है कि पता नहीं क्या क्या सुना है.....

Thursday, 15 August 2024

सैद्धांतिक (Theoretical) पाठ्यक्रमों की अपेक्षा व्यवहारिक (Practical) पाठ्यक्रमों पर केन्द्रिकता बढ़े

 

1. 

यह लगभग दूसरा अवसर है जब भाषा एवं साहित्य से जुड़े मुद्दे पर मैं हतप्रभ हूँ| एक बार और लिख चुका हूँ और आज जब लिखने की कोशिश में हूँ तो कहीं न कहीं उन्हीं मुद्दों पर खुद को केन्द्रित कर रहा हूँ| सही कहूं तो भाषा एवं साहित्य की तरफ उन्मुख होने वाले युवाओं को पिछले तीन वर्षों से (वैसे तो इसे आप छः वर्ष भी कह सकते हैं) एकदम करीब से देख रहा हूँ| इसलिए भी कि विभाग में एम.ए. हिन्दी की तरफ उन्हें आकर्षित करने में लगा हुआ हूँ| अन्य स्ट्रीम में जहाँ भीड़ लगी हुई है (महँगी फीस होने के बावजूद) भाषा एवं साहित्य का कोना खाली जा रहा है| दिया लेकर खोजने पर भी विद्यार्थी इधर का रुख नहीं कर रहे हैं| फीस आदि तो महज कहने भर की बातें हैं| अंग्रेजी को छोड़ दिया जाए तो भारतीय भाषाओं की लगभग वही स्थिति है| पंजाब प्रदेश में पंजाबी के लिए भी उपयुक्त विद्यार्थी मुश्किल से मिल पा रहे हैं तो हिन्दी का आखिर क्या कहें...?              

क्या वजह है कि ये संकट इधर के दिन गहराता जा रहा है? हर कोई या तो प्रोफेशनल कोर्सेज करवाना चाहता है या फिर तकनीकी| टीचर या प्रोफेसर होने का जो क्रेज था वह न जाने कहाँ गुम होता जा रहा है? भाषा वैज्ञानिक आदि होने की बात तो जैसे किसी गुजरे जमाने की बात लगने लगी है| एडमिशन कॉर्नर खुले तो हैं लेकिन कोई उधर पूछताछ करने के लिए भी नहीं दीखता| पढ़ने या एडमिशन लेने की बात तो खैर जाने ही दीजिये|


कुछ कारणों पर हम चर्चा कर सकते हैं| इसे महज चर्चा ही समझें कोई दावा नहीं| स्कूली स्तर पर जिस तरह से भाषाओं को सीमित किया जा रहा है उस पर ज्यादा दिन तक हम चुप रहे तो परिणाम और अधिक भयावह होगा| पंजाब जैसे प्रदेश में पंजाबी को सुरक्षित रखने के लिए हिंदी को हाशिए पर धकेला जा रहा है| अन्य किसी भाषा को सीखने की बात जैसे स्वप्न है यहाँ| किसी का पारंपरिक लगाव हो तो वह जाने दीजिये| हिंदी के क्रेज और विस्तार को लेकर यदि आप गम्भीर नहीं हैं तो सही अर्थों में पंजाबी को क्षति पहुंचा रहे हैं|

एक बहुत ही करीबी मित्र से मेरी चर्चा हो रही थी पिछले दिनों एम.ए. हिंदी में एडमिशन को लेकर, जो पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड के किसी स्कूल में हिंदी के अध्यापक हैं, उनका कहना था कि हिंदी जैसी भाषा को पढाने के लिए स्कूलों में कोई अध्यापक नहीं हैं| जो हैं उनका प्रमोशन नहीं हो रहा है| नयी रिक्तियां नहीं निकाली जा रही हैं| हर कोई चाहता है कि आने वाला हर बच्चा महज पंजाबी में शिक्षा ग्रहण करे जिसकी वजह से लोग प्राइवेट स्कूलों में भागना ज्यादे उचित समझ रहे हैं| वह चिंतित हो रहे थे और कारण पर कारण बता रहे थे| मैं सुन रहा था तो भाषा एवं साहित्य की गति-दुर्गति पर कभी खीझ रहा था तो कभी खुद पर पश्चाताप कर रहा था|


इधर आया भी तो भाषा एवं साहित्य की दुनिया में क्यों आया? क्यों हिंदी जैसी निहायत ही दीन-हीन भाषा का साथ पकड़ा? राजनीतिशास्त्र इतना तो अच्छा था उधर ही रुख करना था| अंग्रेजी में भी तो हाथ-पैर मारा जा सकता था? इससे अच्छा तो होता कि कम से कम समाजशास्त्र या अन्य किसी विषय में उलझा होता तो शायद इस दयनीयता से तो वंचित होता न? ये प्रश्न और ये पश्चाताप निहायत ही मेरे नहीं अपितु लगभग उन सभी के हैं जो किसी न किसी रूप में हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अब पदार्पण कर रहे हैं|  

दयनीय स्थिति तो हिंदी भाषी प्रदेशों में भी शुरू हो चुकी है| मैं तो फिर भी अहिन्दी भाषी क्षेत्र में रह रहा हूँ|  जहाँ रह रहा हूँ वहां के विषय में यदि विचार करूँ तो यहाँ का परिदृश्य धीरे-धीरे बहुत संकीर्ण होता जा रहा है| ‘विज्ञापन और रील’ के  इस युग में ज्ञान और विद्वता की बात न तो कोई कर रहा है और न ही तो सुनना चाहता है| हर किसी को एक अदद-सी नौकरी चाहिए| चरित्र-वरित्र की बातें करके अब युवाओं का मन बहलाने का समय भी लगभग लद चुका है| ‘रुपये’ की चमक ने ‘चरित्र’ की दमक को क्षीण कर दिया है| वेबस माता-पिता जमीन आदि बेचकर बच्चे को विदेश भेज रहे हैं| जो थोड़ी भी समझ रख रहे हैं किसी न किसी छोटी-मोटी नौकरी का दामन पकड़ लिए हैं| वह नहीं भी कुछ कर रहे हैं तो घर की ज़रूरत भर चीजों की ईएमआई तो भर ही रहे हैं|

 

 

2

मुद्दे और भी बहुत सारे हैं लेकिन ज़रूरी है कि समाधान भी तलाशा जाए| ठीक है कि बच्चे प्रोफेशनल कोर्सेज की तरफ उन्मुख हो रहे हैं, यह भी ठीक है कि अधिकांश युवा विदेशों का रुख कर रहे हैं| कुछ व्यापार की तरफ भाग रहे हैं नौकरी का लालच छोड़कर| इन सब का अर्थ यह तो नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और दुनिया भाषा और साहित्य से विमुख होकर अन्य माध्यमों की तरफ आकृष्ट होती जाए? नहीं| हमें कुछ विचार करना होगा कि स्थिति को सुधार की तरफ कैसे लाया जाए? जो है वह तो है ही होना क्या चाहिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण है|

एक बात तो तय है कि यह दौर सप्रसंग व्याख्याओं का दौर नहीं है| पहले भी कई बार बोला और लिखा जा चुका है| आलोचनात्मक मूल्यांकन का दौर भी लगभग जाता रहा है| सही मायनों में यह विकल्पों का दौर है| आपको भी वही करना पड़ेगा जो लोग चाहते हैं| हम-आप भी यदि गम्भीरता से विचार करें तो पायेंगे कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों से मोह-भंग हुआ है लोगों का| हिंदी पढ़ते और पढ़ाते समय आपको महज सप्रसंग व्याख्या या आलोचनात्मक मूल्यांकन में सिमिटकर भी नहीं रहना चाहिए| युवाओं को धीरे-धीरे उद्यम की तरफ लेकर आइये|

 

आप कहेंगे कि करना क्या होगा तो उसके लिए कुछ उपाय हमारे पास हैं जिन्हें देखा और सुना जा सकता है-

 

हर सम्भव कोशिश करिए कि स्किल बेस्ड होकर पाठ्यक्रम का निर्माण कीजिये| कबीर, सूर, नानक के दोहे या काव्य गलत नहीं हैं लेकिन उनकी सप्रसंग व्याख्या करने की जगह उन पर रील या वीडियो बनाकर कैसे बाज़ार में लाया जा सकता है, यह सिखाइए और इस दृष्टि से अपने पाठ्यक्रम का निर्माण भी कीजिये| आधुनिक हिंदी कवियों पर भी आप यह प्रयोग कर सकते हैं| ऐसा करते समय बच्चों को ब्लॉग लेखन और यूट्यूब क्रिएशन की दुनिया में लेकर जाइए|

निःसंदेह आपको अपने छवि के बाहर जाकर झांकना होगा और लोगों के मन-मस्तिष्क में जो छवि बन चुकी है उससे उबरना होगा| साहित्य और भाषा के क्षेत्र में कार्य करते हुए विज्ञापन की दुनिया में ताक-झाँक कीजिये| किस तरह से विज्ञापन बनाया जा सकता है और कैसे उन्हें अपनी दुनिया में लागू करते हुए बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित किया जा सकता है, ऐसी स्ट्रेटजी पर कार्य करिए ताकि अधिक से अधिक झुकाव इधर हो लोगों का| चार-छः बच्चों का हर वर्ष चयन करवाइए कहीं न कहीं से ताकि वे आपके कौशल का प्रचार करें| इसके लिए राजनीतिक दलों का सहारा ले सकते हैं तो लीजिये| आपके सोशल मीडया से लेकर स्थाई तौर भी लोगों को लेखक आदि की आवश्यकता पड़ती है| इधर आसानी से उपलब्धता सुनिश्चित करवाई जा सकती है|

प्रयोजनमूलक हिंदी आप पढ़ा रहे हैं अच्छा कर रहे हैं| उस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है| शब्दावली आदि पर ठीक तरीके से कार्य करने की ज़रूरत है| प्रयोजनमूलक हिंदी को थोड़ा-सा और विस्तार देने की ज़रूरत है| संभव है तो डिजिटल मार्केटिंग और ए.आई. आदि को भी जोड़िये उसमें| बच्चों को टाइपिंग, एक्सेल आदि का प्रशिक्षण भी दीजिये और इसे भी प्रयोजनमूलक हिंदी का माध्यम बनाइए| ऐसा करने से नयी आ रही कम्पनियों में आपके बच्चे जॉब हाशिल करेंगे| अमेज़न, फ्लिप्कार्ट, इजीडे, मोर, बेस्टप्राइस जैसी ऑनलाइन/ऑफ़लाइन कंपनियों में बच्चों को नौकरी मिलेगी यदि आपके पाठ्यक्रम से तो एडमिशन के समय रोने वाली स्थिति से आप मुक्त होंगे|

व्यक्तित्व निर्माण के लिए अलग से पाठ्यक्रम निर्धारित करने की ज़रूरत है| राजनीतिक क्षेत्रों में साहित्य का प्रयोग किस तरह से किया जा सकता है हो सके तो इस पर सिर खापाइए| खपा सकते हैं तो इस पर भी सिर मारिये कि भाषण-कला में कैसे सक्षम हुआ जा सकता है? भाषा का उपयोग नीति-निर्माण और प्रचार-प्रसार की दुनिया में करते हुए किस तरह की दुनिया बनाई जा सकती है, इस तरह के पाठ्यक्रम भी आपको संचालित करने होंगे| ऐसा करने से उन युवाओं का आकर्षण आपकी तरफ बढ़ेगा जो आपको छोड़कर मॉस कम्यूनिकेशन आदि की दुनिया में भागे जा रहे हैं| बोलने, लिखने और प्रस्तुत करने के तौर-तरीकों पर यदि कोई पाठ्यक्रम लाएंगे तो लोग निःसंदेह आकर्षित होंगे|

आप अकादमिक दुनिया में रहते हुए इंडस्ट्री को नकारने का दुःस्वप्न न पालिए| प्रकाशन और मुद्रण का क्षेत्र पूरी तरह से सिर्फ और सिर्फ आपका है| भारतीय विश्वविद्यालयों में कितने ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहाँ इस तरह के पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं? अभी पिछले दिनों ही प्रकाशन इंडस्ट्री में सर्टिफिकेट कोर्स शुरू किया गया है| क्या आप बताएँगे कि ऐसा कहाँ शुरू हुआ है? नहीं पता होगा? पता करिए| नैशनल बुक ट्रस्ट ने शुरू किया| आपको किसने रोका था? आप डिप्लोमा और डिग्री के क्षेत्र में कदम बढ़ा सकते हैं| ऐसा फिलहाल नहीं करेंगे क्योंकि फिर एक्सपर्ट कहाँ पायेंगे? आपके जो प्रोफेसर पैसा देकर किताबें प्रकाशित करवा रहे हैं वह भला प्रकाशन की दुनिया की तकनीकी सीखने का उद्यम क्यों करेंगे? नहीं करेंगे तो मारे जाएँगे|

इस तरीके का पाठ्यक्रम निर्मित करके बड़े रोजगार के क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाया जा सकता है| आप यह कह रहे हैं कि इस दुनिया में अब नौकरी नहीं है जबकि अन्य विभाग के बच्चे इस दुनिया के न होते हुए भी विशेष कर रहे हैं| वजह तो साफ ही है कि आप मेहनत से बचना चाहते हैं कि कहीं यदि पाठ्यक्रम में बदलाव किया गया तो उसी स्तर का मेहनत भी करना पड़ेगा तो बैठकर करोड़पति बनने का ख्वाब देखना इस युग की विशेषता नहीं है, निर्लज्जता है| आप भले ख़ुशहाल जीवन बिता ले जाएँगे लेकिन आपका भविष्य आपके सामने गाली देगा, सुनने के अतिरिक्त कोई दूसरा चारा न होगा पास में| यह ख्याल रखने की ज़रूरत है|

सैद्धांतिक (Theoretical) पाठ्यक्रमों की अपेक्षा व्यवहारिक पाठ्यक्रमों पर जोर देंगे तो विद्यार्थी घर बैठने के स्थान पर आपके पास आएँगे| घेरकर अटेंडेंस लगाने की मूर्खता से निजात तो पायेंगे ही नॉन अटेंडिंग जैसे वायरस से भी मुक्त होंगे| नॉन अटेंडिंग का जो ट्रेंड इधर के दिनों विकसित हुआ है उसने और अधिक नुक्सान पहुँचाया है पारंपरिक शिक्षण पद्धति को|  विद्यार्थी की पहली कोशिश होती है कि वह कैम्पस में न जाए और उसे किसी भी तरह से डिग्री मिल जाए| कुछ कॉलेज अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ऐसा कर भी रहे हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि वे आने वाले दिनों में खुद को समाप्त करने के लिए कब्र तैयार कर रहे हैं|  


@चित्र सभी गूगल से लिए गये हैं 

Wednesday, 14 August 2024

कविता के रंग स्वतंत्रता के संग


लवली प्रोफेशनल विश्वविद्यालय के प्रांगण में चाय पर चर्चा का यह दूसरा आयोजन था इस सत्र में| यह कार्यक्रम विद्यार्थियों और शोधार्थियों की उपस्थिति में विशेष रहा| अच्छा लगा कि स्वतंत्रता से सम्बन्धित मुद्दों पर विमर्श किया गया| कविताएँ सुनाई गईं और समय और समाज की परख में दिमाग को लगाया गया| यह एक तरह से जरूरी भी था| वैचारिक विमर्शों के केंद्र में विद्यार्थी और शोधार्थी सीधे हस्तक्षेप करें इससे सुखद और भला क्या हो सकता है?


कार्यक्रम की शुरुआत आकांक्षा द्वारा प्रस्तुत की गयी कविता से हुई| शोधार्थी तान्या ने अपनी अभिव्यक्ति में आज़ादी के गायब होने और सामाजिक असमानता के साथ-साथ स्त्री से जुड़े मुद्दे को शामिल किया| उनकी दृष्टि में कि जब तक हर किसी को सुरक्षा और संरक्षा न प्राप्त हो तब तक हम कैसे भला स्वतंत्र रह सकते हैं?

शोधार्थी बरबरीक ने स्वतंत्रता के मॉडल पर अपनी चिंता व्यक्त की| उनकी दृष्टि में जहाँ सरकारी कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर कोई श्रम नहीं करते, महज चिंतन में ही समय जाया करते हैं वहीं प्राइवेट संस्थानों में किसी प्रकार के संगठन-निर्माण पर रोक होती है| वह मानते हैं कि हमें विचार-चर्चा के लिए यदि उपयुक्त माहौल दिया जाए तो स्वतंत्रता का दायरा विकसित कर सकते हैं|


शोधार्थी रुपिंदर कौर का कहना था कि हर कोई अपनी तरह की स्वतंत्रता चाहता है| कोई कुछ होना चाहता है तो कोई कुछ होना चाहता है| सुविधाएँ सभी चाहते हैं लेकिन जोख़िम उठाना कोई नहीं चाहता है| रुपिंदर का यह भी कहना था कि यदि आप खुद को स्वतंत्र रखना चाहते हैं तो दूसरों की स्वतंत्रता का ख्याल आपको रखना होगा|

चरणजीत कौर के विचार भी कुछ इसी तरह के थे| शोधार्थी सपना ने हरियाणवी में अपनी कविता सुनाई| इसके पहले बरबरीक ने भी मनमोहन की कविता का वचन किया| सभी शोधार्थी एवं विद्यार्थियों ने अपने विचार व्यक्त किये|

कार्यक्रम के उपरान्त हिन्दी-विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय ने भी अपने विचार को सांझा करते हुए सलाह के रूप में कहा कि आप सभी अपने दरवाजे और खिड़कियाँ पूरी तरह से खुला रखें| स्वच्छ हवा और स्वस्थ विचार कहीं से भी आएं उन्हें आने दिया जाए| निःसंदेह स्वस्थ परिवेश  का निर्माण होगा यहाँ| जीवन-शैली में परिवर्तन भी यहीं से होगा| यहीं से हमारे स्वप्न और ख्वाब यथार्थ होंगे और यहीं से सबको लगेगा कि वह स्वतंत्र हैं|


कार्यक्रम इस तरह सकारात्मक रहा कि चर्चा-परिचर्चा में कब समय बीत गया, पता नहीं चला| भविष्य में चाय पर चर्चा के और अधिक अवसर सुलभ हों इस हेतु सभी ने एकमत से अपना-अपना सुझाव भी दिया| यह सुनिश्चित किया गया कि इस कार्यक्रम में किसी तरह की कोई औपचारिकता नहीं निभाई जाएगी| सभी बोलें और सभी सर्जना कार्य में संलग्न हों यही उद्देश्य रहेगा| निःसंदेह स्वतंत्रता दिवस के पूर्व यह अपनी तरह का एक विशेष आयोजन था| सभी के प्रति सादर आभार|