वर्तमान समय में साहित्य में यथार्थ की बातें की जा रही हैं ;
क्या हिंदी साहित्य में यथार्थ की दृष्टि से पूर्ववर्ती मध्यकाल या आदिकाल का
अध्ययन नहीं किया जा सकता?
अनिल जी आपका यह
प्रश्न अपने आपमें एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है | इसमें एक आन्दोलन की
सूत्रपात को महसूसा जा सकता है | साहित्य को निरूपित करने वाले सोपानों में
प्रमुखतया कथ्य, शिल्प एवं शैली महत्वपूर्ण हैं | आपका प्रश्न कथ्य केन्द्रित है |
वास्तव में जब हम कथ्य का शाब्दिक अर्थ देखते हैं तो वह है–यथा-अर्थ | जिसका अभिप्राय
है, जैसा देखा, जाना, समझा, महसूसा जाय वैसा अर्थ | अब यह निर्धारण साहित्य के
कर्ता पर जाकर रुकता है कि वह तथ्यों, सूचनाओं, सारणियों, सत्यों को किस तरह अनुभव
करके अपने अनुभूति को कहाँ, कैसे, कब निरूपित करता है | उसे अपने निरूपण में अब
कथ्य को किसी शिल्प व शैली में बांधना होता है | हिंदी साहित्य की प्रमुख विधाएँ,
गद्य, पद्य, एवं मिश्रित (चम्पू) मानी जा सकती है | अब इन विधाओं के विविध रूपों
पर विमर्श करने पर हमारे सामने शैलियों का प्राकट्य होता है | अनिल जी यथार्थ की
चर्चा में हम गल्प एवं कल्पना को नजर अंदाज नहीं कर सकते | पूर्ववर्ती मध्यकाल
अथवा आदिकाल में लेखन का स्वरुप हमे ध्यान से विवेचित करना होगा | उन काल खण्डों में रचनाकार हमेशा की तरह दो प्रकार
के रहे हैं, एक राज्याश्रयी रचनाकार तथा दूसरे स्वतंत्र व जन धर्मी साहित्यकार |
अब इन कोटियों में
यथार्थ चित्रण की जब हम बातें करते हैं तो दोनों ही यथार्थ का सटीक चित्रण करते
हैं ; वह यथार्थ जो उन्होंने अनुभव किया है | राज्याश्रयी रचनाकार जहां शासन सत्ता
के लिए विरुदावलियाँ तैयार करते रहे वहीँ लोक कवि आम जनता के बीच रहकर उसका यथार्थ
निरूपित करते रहे | आज के दौर में उस काल का मूल्यांकन करें तो रासो के रचनाकार
हों या जयदेव, विहारी, खुसरो अपने अपने कथ्यों के माध्यम से अपनी उपस्थिति बनाए हुए
हैं, यह जन मूल्यांकन में अहसास किया जा सकता है | इन काल खण्डों के कवियों की
कालजयिता आज भी अनुकरणीय बनी हुई है | विभिन्न विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों के
अंतर्गत उनकी स्वीकार्यता उनके सार्वभौमिकता को बताती है, जो यथार्थता का पर्याय
है | हाँ कल्पनाशीलता, अभिव्यंजना, गल्प, विवेचना, विवरण, संवेदनशीलता का अंकन/
चित्रण/ आरेखन रचनाकार द्वारा शब्द गुणों तथा शब्द शक्तियों के माध्यम से किया
जाता रहा है | आज के परिदृश्य में यह कोई नया शब्द नहीं है | हाँ कुछ नव साहित्यकारों
ने अपनी पहचान को विशेषी कृत करने हेतु जिस प्रकार से विविध विमर्शो का प्रचालन
किया है, यथार्थ का नव-उद्भव उसी का एक हिस्सा मात्र है और कुछ नहीं |
समकालीन
काव्यधारा में आप यथार्थ को किस दृष्टि से देखते हैं? विशेषकर ऐसे समय में जबकि
लोग साहित्य से ही सबकुछ पाने की अपेक्षा कर रहे हैं ?
अनिल जी सबसे
पहले तो समकालीनता को ही परिभाषित करने की आवश्यकता है | वस्तुतः काव्य आन्दोलन
में समकालीनता एक युगबोध को एक काल खण्ड को निरूपित/व्यंजित करता है | 1936 में
प्रगतिशील लेखक संघ की प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में हुई बैठक | सभा में
रचनाधर्मियों द्वारा स्वयं के लिए निर्धारित मानकों एवं भारतीय साहित्य को विश्व
साहित्य के साथ जोड़ने के प्रयासों को प्रमुखता से सूचीबद्ध किया गया | यहीं से
उत्तर छायावाद जो कि बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल तथा जानकी वल्लभ
शास्त्री, शिवमंगल सिंह सुमन के सहभागिता में एक नवीन आन्दोलन के रूप में आता है
और यहीं से निराला को अपना आदर्श मानते हुए काव्य की एक नवधारा का सूत्रपात होता
है जो केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह के प्रतिनिधित्व
में प्रगतिशील काव्य आन्दोलन के रूप में जानी जाती है | यह धारा अज्ञेय के द्वारा
तारसप्तक व प्रतीक के संपादन के साथ प्रयोगवादी काव्य आन्दोलन में परिवर्तित हो
गयी जहां इसमें – रामविलाश, प्रभाकर माचवे, गिरिजा प्रसाद माथुर, भवानी प्रसाद
मिश्र आदि की भूमिका प्रमुख रही | जगदीश गुप्त के नई कविता नाम देने तक यह आन्दोलन
अबाध गति से चलता रहा | इसी के सामानांतर नवगीत का आन्दोलन भी सत्वर गति से आगे
बढती रही जिसमे काशी की “नवेगीत की नौका” गोष्ठी 1951 में तथा तथा 1953 में “गीतम”
का प्रकाशन वीरेन्द्र मिश्र द्वारा तथा साहित्य सम्मलेन इलाहबाद में नए क्राफ्ट पर
सेमिनार में वीरेन्द्र वीरेन्द्र मिश्र का काव्य पाठ व आलेख पाठ प्रमुख रूप से
देखा जा सकता है | 1958 में गीतांगिनी द्वारा राजेंद्र प्रसाद सिंह तथा 1964 में
“कविता 64” द्वारा ओम प्रभावर ने इस आन्दोलन को आगे बढाया | इसी के साथ साथ नयी
कविता के उपरान्त साठोत्तरी कविता तथा उसके बाद समकालीन काव्य की स्थिति आती है |
अनिल जी आप किस समकालीनता की बात कर रहे हैं ; कालखण्ड या युगबोध को प्रदर्शित
करती काव्य रचनाएँ या आज के सन्दर्भ को व्यंजित करता काव्य लोक |
यदि सन्दर्भ आज का है,
तो आज का काव्य परिवेश यथार्थ का आग्रही है | वह यथार्थतन केवल कथ्य में वरन्
शिल्प, भाषा, भाव, प्रतीक, बिम्ब, शैली सब में यथार्थता का अनुमोदन मांगता है |
दूसरे शब्दों में इसे नवता का पर्याय भी कह सकते हैं | जो यथार्थ की विशेषताओं,
इसके प्रारूपों व इसकी विवेचनाओं को नहीं पकड़ पायेगा वह स्वयं को अधिक दूर तक जाने
की ऊर्जा नहीं दे सकता | वह पुरातन व अतीत में खो जाने की भयावहता से से भी
अनुप्राणित हो सकता है | अतः यथार्थ प्रमुख मांग है ; जो रचनाकार के लिए परम
आवश्यक है |
स्वतंत्रता पूर्व
के हिन्दी साहित्य में किस तरह की स्थितियां कथ्य में रहीं, क्या आज के साहित्य का
मूलस्वर राष्ट्रीय चेतना से आगे कुछ कहने में सक्षम हो सका है ?
स्वतंत्रता पूर्व
के हिंदी साहित्य में इसका प्रमुख स्वर, शोषण, दमन, अशिक्षा, बेकारी, गरीबी के
प्रति आक्रोश, के रूप में रहा | उस काल में साहित्यिक चेतना से अनुप्राणित रचना
धर्मियों की पुस्तकों, पत्रिकाओं, पत्रों को जब्त करने से लेकर उन्हें जेल भेजने
तक की घटनाएँ सामने आती हैं | हिन्दी साहित्य के समानांतर चलने वाली अन्य
साहित्यिक धाराओं-आन्दोलनों ने भी इस तरह के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया |
बांग्ला साहित्य, मराठी साहित्य, अवधी व व्रज जैसे आंचलिक भाषाओँ के साहित्य में इस
तरह की रचनाधर्मिता की छाप देखी जा सकती है | यह बात अलग है कि उनमे से बहुत कुछ
अब भी शोध, अनुसंधान, प्रकाशन, प्रसारण की बाट जोह रहा है |
स्वतंत्रता पूर्व के
गद्य साहित्य में नई जोश व उमंग देखने को मिलता है | काव्य में इसकी विभिन्न
धाराओं में से मंच की धारा तो विपुल रूप से राष्ट्रवादी रचनाओं की वाहक रही | वहीँ
अकादमी काव्य धारा के प्रवर्तकों ने उस समय अपनी सामर्थ्य भर लेखन किया | अज्ञेय
अपने लेखन के कारण ही जेल में ठूंस दिए गए | जैनेन्द्र ने उनकी प्रथम कहानी
प्रकाशन में प्रेमचंद को उनका उपनाम अज्ञेय अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों से बचने
के लिए ही सुझाया था |
स्थितियां आज भी
कमोवेश वैसी ही हैं | मंच व गंभीर लेखन के प्रति राष्ट्रवाद जहां काव्य में झूल
रहा है वहीँ गद्य में यह वामपंथ एवं दक्षिणपंथ की खांचों में विभक्त हो शिशक रहा
है | आज राष्ट्र या राष्ट्रधर्म की बात कहने वाला साहित्य के बंटे हुए गिरोहों के
मध्य में अस्पृश्य हो जाता है | परंपरा आज तिरोहित की जा रही है | अतीत को कोशना
फैसन बन गया है | नैतिकता का श्राद्ध करने वाले कुछ गिरोहबद्ध रचनाकारों ने नग्नता
को अपनी पहचान बना ली है | अनिल जी आज का परिदृश्य विषाक्त हो गया है |
जीवन-मूल्यों की बात करने वाला आज प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि धर्म, संस्कृति, सभ्यता
और संस्कार को गली देने वाले महिमामंडित हो रहे हैं | साहित्य के इन सरोकारों के
आधार पर व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, कवि, लेखक ही नहीं बल्कि संस्थाएं, सरकार,
सत्ता में भी अलग-अलग बंखारा हो गया है | चयन व वितरण के मानदण्ड रचनापरक नहीं वरन
व्यक्ति परक हो गया है | तब से अब तक हमने इतनी प्रगति की है अनिल जी |
शुक्ल जी,
आपकी दृष्टि में जनसामान्य की अपेक्षाओं को यथार्थ-धरातल पर रखने का प्रयास
साहित्य की किस विधा में सबसे अधिक दिखाई देता है?
अनिल जी विधा का
चयन न केवल रचनाकार का विशेषाधिकार है वरंन् यह कथ्य केन्द्रित भी होता है |
कहानी, लघुकथा, उपन्यास तीनों का शिल्प अलग अलग होते हुए भी मूल में सूक्ष्म से
विराट की ओर एक यात्रा है | इसी तरह से हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं और रूपों के
लिए कहा जा सकता है | कविता, कहानी, लघुकथा, लेख, साक्षात्कार, जीवनी, डायरी,
आत्मकथा, यात्रावृत्त, संस्मरण, रिपोर्ताज, निबंध पत्र, समीक्षा आदि सभी विधाएँ
अपने आप में पूर्ण भी हैं, सम्बंधित भी हैं तथा अवलम्बित भी हैं | यथार्थ के धरातल
पर विधा की कसौटी रचनाकार की दक्षता पर निर्भर करता है | एक लोक गायक जन जन का
नायक होता है | प्रेमचन्द जैसा कालजयी रचनाकार हो तो कहानियाँ युग प्रवर्तक ही
होंगी | निराला का स्पर्श पाकर शब्द आन्दोलन बन जाएंगें | आचार्य रामचंद्र शुक्ल
की लेखनी हो तो आलोचना, निबंध व इतिहास वार्तालाप करते नजर आएगें | प्रसाद की कलम
ऐतिहासिक पात्रों को नाटकों से न केवल जीवित करती हैं वरन कामायनी जैसी कृति
द्वारा युग प्रवर्तक महाकाव्य का सृजन करती है |
ये सभी रचनाएँ
यथार्थ के धरातल पर संदर्भित हैं | अनिल जी विधा नहीं कथ्य, शिल्प व शैली के साथ
साथ रचनाकार की योग्यता, क्षमता, दक्षता, प्रयोगकारिता सभी कुछ मिल कर प्रभावी व
श्रेष्ठ बनते हैं | यदि आप मेरी दृष्टि से इसका उत्तर चाहते हैं तो यह कविता में
ज्यादा सहज रूप से सम्भव है |
आज का साहित्य
विभिन्न अर्थों में बंटा हुआ है ; इस स्थिति में आलोचना विधा के भविष्य को लेकर आप
क्या कहना चाहेंगे ?
मैं आपके प्रश्न
की भाषा से सहमत नहीं हूँ मित्र | साहित्य ज्ञान का अखण्ड स्वरुप है | और ज्ञान
विभाजित नहीं किया जा सकता | हाँ, अपनी सुविधा और अवसरवादिता के कारण कुछ
साहित्यकारों ने अपने अपने गिरोह बना लिए हैं | विभिन्न पंथों, वादों, ध्रुवों,
खण्डों, क्षेत्रों, अंचलों, जातियों, सम्प्रदायों, समूहों, प्रान्तों के नाम, स्थान
व स्वरुप में बंटे रचनाकारों ने आज अपने कृत्यों से साहित्य को न केवल मर्माहत
किया है अपितु शर्मिंदा कर आहत भी किया है | आज पत्र-पत्रिकाओं के निर्धारण कर्ता
में गिरोह बंद रचनाकार/ संपादक/ प्रकाशक/ आलोचक/ प्राध्यापक हो गए हैं | देश के
विश्वविद्यालयों का उत्तर या दक्षिण खेमों में बँटना किस कोण से सही कहा जाएगा |
लेखन से लेकर संपादन, समीक्षण, प्रकाशन तक में साहित्य के ये एजेंट सक्रिय हैं |
विभागीय नियुक्तियों से लेकर प्रोन्नति तक में इनकी दादागिरी चलती है | अब इस
स्थिति में भयावहता का अंदाजा आप बखूबी लगा सकते हैं, अनिल जी |
आपके प्रश्न के दूसरे
भाग आलोचना पर विचार करने पर वह अपने परिवेश से प्रभावित/ संक्रमित है | आज आलोचना
प्रायोजित हो गयी है | बनारस हिन्दी विश्वविद्यालय के ख्यातिलब्ध महान साहित्यकार
व रचना, शोध, आलोचना के शिखर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अपने रचनाधर्मिता के लिए
समर्पित रहे | आलोचना में पारदर्शिता के पक्षधर द्विवेदी जी ने नये प्रतिमानों का
सृजन किया | बाद के कालखण्डों में उन्हीं के प्रिय शिष्य नामवर सिंह ने सारे
परिदृश्य का वितान ही बदल के रख दिया | क्या कविता, क्या कहानी सभी कुछ नव्यता के
पक्षधरों में अपने ढंग से व्यंजित करने में पूरे मानकों को प्रतिष्ठापित कर दिया |
काव्यशास्त्र को निकाल कर समाज शास्त्र का प्रयोग, नैतिक मूल्यों की जगंह पर
यथार्थ के गोपन पलों का वीभत्स चित्रण बन गयी है | और तो और लेखक, कवि अपनी शर्तों
पर समीक्षा लिखने लिखवाने लगे तथा प्रकाशक उसे अपने मानकों पर छापने लगे |
पत्र-पत्रिकाओं ने खुले तौर पर साहित्यकारों व विधाओं का बहिस्कार कर रखा है | ये
सभी कुछ क्या गौरव के विषय हो सकते हैं |
नहीं कदापि नहीं | तो
आलोचना को नए उपकरणों व मानकों पर आधारित कर इसे इसके समग्र स्वरूप में स्वीकार
यदि नहीं किया जाता तो यह विधा मृत हो जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं |
कहीं ऐसा तो
नहीं कि आलोचना का ही अंत होने वाला हो ?
भाई कभी भी बीज
का नाश नहीं होता | जिस प्रकार बादलों के ढहने पर सूर्य देदीप्यमान हो उठता है,
जिस प्रकार राख हटने पर दहकता हुआ कोयला अंगारे के समान उद्भाषित हो उठता है या
जेर से आच्छादित गर्म जेर के हटने पर अपना स्वरुप संसार के समक्ष जाता है ठीक उसी
प्रकार से जब प्रायोजन का तिलस्म टूट जाएगा, जब गिरोह बंदी की जंजीरें छूट जाएगी तथा
जब पारदर्शी व तटस्थ आलोचना की आवश्यकता होगी तब वह अपने मूल को लेकर उपस्थित हो
उठेगी |
अनिल जी आज भी सच्चे,
खेमा रहित आलोचक हैं पर वे सामने नहीं आ पा रहे हैं | एक बात और आलोचना की विधा
में कलम चलाकर श्रेय एवं प्रेय प्राप्त करने वाले रचनाकार जब स्वयं विधा और
साहित्य से ऊंचे हो जाते हैं तब यह समस्या ज्यादा विकराल होने लगती है |
मान-सम्मान-पद-प्रतिष्ठा जिस विधा ने लोगों को प्रदान किया बाद में उन्होंने अपने
आपको स्वयं भू-साहित्य चिन्तक, निर्माता, विचारक, विद्वान घोषित कर दिया | ऐसे
छद्म विद्वानों ने आज स्थिति लाने के दोषी हैं | विभिन्न तरह की संस्थाओं,
विश्वविद्यालयों, अकादमियों, पुरस्कार समितियों आदि में इनकी सक्रियता साहित्य व
साहित्यकारों के लिए प्रेरक न बनकर अभिशाप बनता जा रहा है |
एक बात और सर्वमान्य
मानकों तथा तथा आलोचना के उपकरणों का अभाव भी इसका एक प्रमुख कारण है | आज एक ही
मानक पर समान तरह के उपकरणों द्वारा कविता, कहानी, लघुकथा, निबंध, आत्मकथा, डायरी,
रिपोर्ताज उपन्यास आदि सभी की आलोचना की जा रही है, जो दुर्भाग्य पूर्ण है |
रचनाकार प्रतिकूल टिप्पणियां सुनने के लिए तैयार नहीं है तथा दूसरी तरफ आलोचक
संतुलन बिठाने में नाकाम सिद्ध हो रहा है, रिव्यू पैनल भी पत्रिकाओं के निहित
स्वार्थ सिद्धि के साधन बनते जा रहे हैं | आज पंथों व खेमों में बैठे साहित्यालोचक
किसी भी रचनाकार को उसकी एक पंक्ति के सन्दर्भ हीन आधार पर उसे किसी एक खेमे का सिद्ध
करने को प्रतिबद्ध है | आज नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों को लांक्षित करना,
महापुरुषों को अशोभनीय शब्दों से तिरस्कृत करना, अतीत को नकार कर गैर देशों की
मान्यताओं का गुणगान करना एक प्रचलन बनता जा रहा है |
इसके बाद भी आलोचना
का भविष्य उज्जवल है, ऐसा मेरा प्रबल मत है |
वर्तमान में साहित्य
के सन्दर्भ में यदि विमर्शों की बात की जाय तो क्या साहित्य को विभाजित करना उचित
है?
भाई अनिल जी आपके
इस प्रश्न का उत्तर मैंने प्रकारांत से पूर्व प्रश्नों का उत्तर देते हुए काफी हद
तक देने का प्रयास किया है | विमर्श स्वयं को अलग पहचान देने की कोशिश मात्र है और
कुछ नहीं| मेरे विचार से साहित्य का यह विभाजन साहित्य का नहीं वरन् साहित्यकारों
का है | लोगों ने स्वयं के लिए केंद्र व परिधि का निर्धारण कर उसके अनुरूप दायरे
में बंधकर साहित्य लेखन का निश्चय किया है |
जब हम स्त्री-विमर्श की
बात करते हैं तो इसका दो अर्थ हो सकता है | पहला स्त्री व स्त्रीजन्य संवेदनाओं को
केंद्र में रखकर लेखन कर्ता तथा दूसरा अर्थ होता है स्त्री लेखिकाओं का समूह|
पहला अर्थ समग्र है तथा दूसरा अर्थ संकुचित | यही अभिप्राय दलित विमर्श को लेकर भी
दिया जा रहा है |
अनिल जी साहित्य का
विभाजन वह चाहे विषय, कथ्य, शिल्प, शैली, भाषा, जाति, पंथ, अंचल, संप्रदाय किसी भी
को लेकर हो स्वीकार नहीं किया जा सकता | अब तो यह पुरातन व नवीन में भी बंट रहा है
| विमर्श शब्द अपने आपमें बहुत भ्रामक है और उससे भी विचित्र है इसका साहित्य में
विभाजन हेतु प्रयोग | मैं यह विभाजन किसी भी कोण से उचित नहीं मानता |
डॉ० जयशंकर
शुक्ल जी तो फिर भी स्वानुभूति और सहानुभूति के प्रश्न पर आपका क्या विचार है ;
क्या ये साहित्य में प्रासंगिक है ?
अनिल कुमार
पाण्डेय जी आपका प्रश्न एक बड़े बहस को जन्म देता है | वास्तव में ये दोनों शब्द
अपने साथ एक विचार, एक परंपरा, तथा एक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं |
शाब्दिक अर्थ ग्रहण करें तो स्वानुभूति जहां एकांगी है, निजी है,
व्यक्तिगत/व्यहिरगत हैं वहीँ सहानुभूति सापेक्ष है, सार्वजनिक है और समष्टिगत है|
साहित्य मूलतः इन्हीं दोनों का समुच्चय है | प्रारंभ से ही साहित्य इन्हीं दोनों
शब्दों पर टिका हुआ है|
सम्पूर्ण वैदिक व
उत्तर वैदिक वांग्मय स्वानुभूति पर निर्भर करता है, लेकिन जब हम उसकी व्याख्या
करते हैं तो वह अपने विशद सन्दर्भों में हमारे सामने व्यंजित होता है | मूलतः वह
परंपरा आज भी उसी रूप में जारी है | लेखक अपने अनुभवों से ही अपने रचना संसार का
सृजन करता है | स्वानुभूति इस मायने में विशेष प्राभावी हो जाती है | सत्य को हम
अनुभव कर सकते हैं यह शब्द में नहीं वरन अर्थ में होता है | अनुभव को ही
स्वानुभूति कह सकते हैं | व्यापक फलक पर हमारा चिंतन हमारे ‘स्व’ से प्रारंभ होकर
‘पर’ पर विराम पाता है |
एक लेखक को इन दोनों
के मध्य संतुलन स्थापित करना अति आवश्यक होता है| हमें क्यों लिखना है यह जानने से
पूर्व क्या नहीं लिखना है इसे जानना ज्यादा जरूरी है | इसी तरह से विचार के धरातल
पर भी जाने हैं | भाई सहानुभूति हमारी आपके साथ हो सकती है लेकिन स्वानुभूति तो
हमारी अपने साथ ही होगी ; हाँ प्रेरक के रूप में अन्य उपादान हो सकते हैं |
डॉ० साहब क्या
साहित्य में रोजी रोटी के अतिरिक्त भी कुछ है, जिसे संदर्भित करने की आवश्यकता हो
?
मित्र आपका
प्रश्न समीचीन तो है पर इसकी भाषा अधूरी है | “रोजी रोटी का साहित्य में सन्दर्भ”
इस वाक्यांश का स्वयं सन्दर्भ निश्चित करना होगा | भाई साहित्य में स्वप्रेरित रोजी
रोटी, विषय के रूप में रोजी रोटी, अथवा साहित्य से रोजी रोटी, लेखन, संपादन,
प्रकाशन, विपणन द्वारा रोजी रोटी यह स्पष्ट नहीं किया आपने | खैर, मैं दोनों ही
दृष्टियों से इसका उत्तर देना चाहूँगा | प्रथम में दोनों विधाओं में रचनाकार विषय
चयन में रोजी-रोटी को केंद्र में रखकर लेखन करें-अर्थात् औद्योगीकरण, शहरीकरण, आधुनिकीकरण
आदि पर केन्द्रित विषय-वस्तु का चयन, विवेचन तथा लेखन | इसी के साथ इन प्रतिवादी
सोपानों के कारण गांवों का क्षरण, समाज का टूटन, नए समाज का निर्माण, परिणाम
स्वरुप संस्कृतियों का टकराव, सेक्स व हिंसा का नवीन आगाज, परिवार नामक संस्था का
टूटन, तलाक, सह-वास सम्बन्ध (live in), अनाचार, अत्याचार, व्यभिचार को नए आयाम देती व्यवस्था उक्त सभी रोजी
रोटी से ही जुड़ती नजर आती है | ऐसे में हम यदि युग, देश, काल, परिस्थितियो के
अनुसार लेखन करते हैं तो उस साहित्य रुपी दर्पण में समाज अपना स्वयं का चेहरा देख
सकता है | यदि लेखन व लेखक की सफलता का राज भी है | भाषा, शिल्प, विचार सभी कुछ आज
के हिसाब से होना चाहिए |
पुरातन का मिथ्या दम्भ
व जयगान अप्रासंगिक व त्याज्य है ; अतीत पर गर्व करें, पूजें पर लेखन में सोच
समझकर प्रयोग करें | रोजी रोटी जैसे शब्द के द्वारा आपने विषय वस्तु सम्बन्धी बात
करने को मुझे विवश किया आभार ! दूसरे फलक पर साहित्य के द्वारा कमाई यह लेखन,
संपादन, प्रकाशन, पुरस्कारादि के द्वारा देखा जा सकता है | मित्र साहित्य को
प्रासंगिक रहना है, लेखन व लेखक को फुल टाइम साहित्य सेवा करके परिवार का भरण-पोषण
करना है ; यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है | जापान, जर्मनी, फ़्रांस जैसे देशों
में एक शोध-आलेख छप जाने पर लेखक को इतना कुछ मिलता है, जिसके प्रभाव से वह वर्ष
भर अपना जीवन यापन आर्थिक रूप से कर सकता है | अंग्रेजी भाषा के लेखक व लेखन आज
समाज में ‘आइकान’ बने हुए हैं इसी स्थिति को हिंदी साहित्य में स्थापित करने की
आवश्यकता है | रोजी रोटी के अतिरिक्त बहुत कुछ है पर वह इसी से समर्पित व
संदर्भित्त है| कहा भी गया है, “भूखे भजन न होय कृपाला |”
डॉ० साहब आज बहुत
से रचनाकार गुमनामी में खो रहे हैं, गुमनाम हो रहे हैं ; यदि ऐसा है तो इसकी वजह
क्या है ?
: अनिल कुमार
पाण्डेय जी आपके प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं एक शोध-निष्कर्ष की चर्चा करना
चाहूँगा | लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान वि वि के पूर्व कुलपति
प्रो० डॉ० राधावल्लभ त्रिपाठी ने एक शोध किया जिसके द्वारा उन्होंने कालिदास के
समकालीन लगभग 452 कवियों, उनकी रचनाओं, उनकी प्रवृत्तियों को ढूंढ निकाला | अब
उक्त शोध के आलोक में आप सोच सकते हैं कि ये गुमनामी अब या आज हो ऐसा नहीं है | अब
रही बात आज के कालखण्ड में सक्रिय/निष्क्रिय रचनाकारों के गुमनामीं का तो आपके
प्रश्नों का उत्तर विविध परिप्रेक्ष्यों में देना चाहूँगा-
भाई रचनाकार या रचनाएँ
कालजयी तभी होती हैं, जब वे युग की आवाज को स्वर दे, यदि तत्कालीन परिस्थितियों,
युगानुरूप विचार श्रृंखलाओं, देशकाल वातावरण केन्द्रित कथ्यों, विविधता पूर्ण
शिल्प तथा भाषा का प्रयोग रचनाकार करने में समर्थ है, तो वह अपनी जगह बना लेगा
इसमें कोई दो राय नहीं है | गोस्वामी तुलसीदास जी सार्वकालिक महान व विश्व के
सर्वश्रेष्ठ कवि हैं | उनकी उक्त उक्ति को सन्दर्भ रूप में व्यक्त करने वाले
रचनाकारों को बार बार सोचने की जरूरत है कि क्या वे दीमकों के लिख रहे हैं |
स्वान्तः सुखाय का उद्घोष करने वाले ज्यादातर लोग अपनी गुमनामी के लिए स्वतः
जिम्मेदार हैं ऐसा मेरा मत है |
लेखन के लिए विषय व
विधा का चयन अत्यन्त आवश्यक है, जो श्रमसाध्य है | हम आज शार्टकट ढूंढ़ते हैं |
सफलता हेतु किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं ; यहीं से हमारी दुर्गति शुरू हो जाती
है | रचनाकारों का यश उनकी रचनाओं से होता है ; कई प्रकाशक व संपादक या पाठक व
आलोचक लेखक को उनके लेखन से ही जानते व पहचानते हैं | रचनाधर्मिता ही हमे व हमारे यश
को दिग दिगन्त तक फैलाती है, बढ़ाती है | अर्थात, हम यदि अपनी रचनाओं के माध्यम से
जाने जाएँ तो हम गुम नहीं होंगे परन्तु आज का परिवेश कुछ बदल सा गया है ; अब लोग
तिकड़म, खेमेबाजी, पद, प्रतिष्ठा व पहुँच के द्वारा अपनी प्रसिद्धि चाहते हैं, यह
मिल तो जाती है शीघ्र ही पर उतनी ही शीघ्रता से समाप्त भी हो जाती है | हमारा
तटस्थ मूल्यांकन हमारी रचनाओं और कृतियों से ही होता है |
इसके पक्ष में तर्क
के रूप में कबीर को लिया जा सकता है | कई शताब्दियों तक गुमनामी में खोए रहने
वाला, युग सुधारक, युग प्रवर्तक रचनाकार अँधेरे में, गुमनामी में ही खोया रहा |
उनको समाज में लाने का श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को जाता है जिन्होनें उनके शबदों,
साखियों, रमैनियों का संकलन करके उनपर आलोचनात्मक दृष्टि से एक पुस्तक लिखी | हम
शुरुवात नहीं करना चाहते बल्कि हम भारतीयों की अनुकरण की आदत है | कुछ विशेष
परिस्थितियों में हम किसी सत्य को तब मानते हैं, जब पश्चिम में बैठा कोई व्यक्ति
उसे अनुमोदित कर दे | यह स्थिति हमारे लिए व हमारे साहित्य के लिए घातक है | बाद
में महामना मदन मोहन मालवीय के आह्वान पर शांति निकेतन छोड़कर आए हिंदी के उद्भट
विद्वान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी कबीर नामक पुस्तक उनपर केन्द्रित लिखी और फिर
लाइन लग गयी उनके वन्दन, अभ्यर्चन को | निराला को हम समग्र रूप से जान पाए इसके
लिए हमे जानकी वल्लभ शास्त्री और रामविलास शर्मा का धन्यवाद् करना चाहिए | बच्चन
को हम अजीत कुमार की दृष्टि से देखते हैं |
अनिल यह विशद् विषय है
जिस पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है | हाँ शोध व अनुसंधान में लगे लोगों की जिम्मेदारी
भी बनती है, जिससे वे बच नहीं सकते | रचनाकार अपना लेखन करने के साथ साथ उसके
प्रकाशन के प्रति सजग रहे और शोधार्थी मूल्यांकन हेतु तत्पर | मेरी अपनी मान्यता
है कि शोध विकास कमेटियों में विषयों का सूची बद्ध करने में विषय विशेषज्ञों की
मदद ली जानी चाहिए | जैसा कि अन्य विषयों विभागों में है तभी हम भाषा, विचार व
रचनाकार को गुमनामी से बचा पाएंगे |
शुक्ल जी
आपके रचना फलक को देखते हुए यह पता चलता है कि आपने नवगीत, कहानी, उपन्यास,
लघुकथा, साक्षात्कार, समीक्षा, संस्मरण, यात्रा वृत्त जैसे विविध विषयों पर प्रचुर
लेखन किया है | पर मूलतः आप कवि हैं और यह प्रश्न समीचीन है कि कविता धीरे धीरे
अपना अर्थ खोती जा रही है, आपका क्या मत है ?
भाई साहब पूरी
विनम्रता एवं आदर के साथ मैं आपकी बात स्वीकार करता हूँ और यह भी स्वीकार करता हूँ
कि इस लेखन संसार को विकसित करने में आप जैसे लोगों का विशेष योगदान है | जिनके
प्रति मैं कृतज्ञ हूँ तथा ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ | मेरा लेखन वह है जो करवा
लिया गया है | कुछ परिस्थितियों तथा कुछ मांग ने मुझे सदैव लेखन हेतु प्रेरित किया
| पत्र-पत्रिकाओं ने सम्पादकों-प्रकाशकों ने, पाठकों व रचनाकारों ने अलग-अलग ढंग
से सरोकारों पर आधारित मेरे लेखन को सदैव गतिमान रखने में सहयोग किया | आज आपके
माध्यम से मैं उन सभी का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद् ज्ञापित करता हूँ |
मेरा अपना मानना है कि
उक्त वर्णित विविध समूहों, संस्थाओं, व्यक्तियों का ऋण है मुझ पर जिसको कुछ हद तक
नई प्रतिभाओं का सहयोग करके उतारा जा सकता है और मैं इसके लिए पूरी तरह कटिबद्ध भी
हूँ | यथा संभव इस तरह के प्रेरणा, परामर्श, संशोधन आदि के द्वारा मैं अपने
रचनाकार को निरंतर नवता से जुड़े रहने का संयोग उपलब्ध कराता रहता हूँ | इस तरह की
शाश्वत परंपरा साहित्य को मजबूती प्रदान करता है |
यह तथ्य सूर्या की
रश्मियों जैसा अकाट्य है कि मैं मूलतः कवि हूँ, गीतकार हूँ | अनिल जी हमारे देश
में कवि के लिए कई तरह के समूह, धड़े, खांचे बने हुए हैं | मंच व अकादमी स्तर पर
रचनाकारों का बंटवारा यदि चिरंतन है तो छन्दस व अछांदस रचनाकारों का वर्गीकरण भी
पिछले 60-62 वर्षो से शाश्वत है | ऐसी स्थितियों में जब कवियों के मध्य
विरोधाभाषों की विषमताएं मुखर हों, ऐसे में कविता का भविष्य क्या होगा आप स्वयं
समझ सकते हैं | कविता के क्षेत्र में बड़ा अखाडा है, जिसका परिणाम निश्चित रूप से
विधा को ही भुगतना पड़ता है |
जैसे कविता विधा के कई
समूह, खेमें, स्वरुप, शिल्प हैं उसी तरह से कवि भी तीन तरह के होते हैं | यह विषय
बड़ा गहन है | मित्र पहली श्रेणी के कवि शीर्ष पदस्थ अधिकारी / कर्मचारी तथा
अकादमियों के जुड़े लोग होते हैं ये प्रतिदान में समर्थ होते हैं | अतः अधिकतर इनाम
/ पुरस्कार यही ले जाते हैं ; काव्य की छंद विहीन पद्धति इनके लेखनी को चमत्कृत
करती है | दूसरे कोटि में शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों से जुड़े प्राध्यापक होते
हैं | यह भी शोध, अनुसंधान, पुरस्कार, सम्मान, सेमीनार, संगोष्ठी, के माहिर उसके
करता-धर्ता होते हैं ; ये भी रचनात्मक रूप से सुस्त होते हैं, जो भी लिखते हैं ये
वह सभी छपता है | तीसरे स्थान पर विचारा – दीन हीन मौलिक कवि होता है जो ऊपर के
दोनों कोटियों के लोगों की दया पर निर्भर करता है | ऐसी स्थितियों में कविता के
भविष्य का निर्धारण आप बखूबी कर सकते हैं |
आज के साहित्यिक
परिधि में रचनाकार, प्रकाशक व आलोचक के आपस में बढ़ते विरोधाभाषों को आप किस दृष्टि
से देखते हैं ?
अनिल जी विरोधाभाष
यदि वैयक्तिक नहीं वैचारिक है तो वह स्वागत योग्य है | समर्थन हमेशा प्रगति का
वाहक नहीं होता बल्कि वह पीछे भी धकेलता है| हमारी चेतना को जाग्रत करने वाला
वैचारिक विरोध हमें प्रगति. नए प्रतिमान गढ़ने में हमारी मदद करता है | इस
प्रवृत्ति को पुष्पित व पल्लवित होने हेतु हमे प्रेरित करना चाहिए | यदि विरोधाभाष
वैयक्तिक स्वार्थों के लिए है तो वह निंदनीय है | आज के आलोचक चारण व भांट हो गए
हैं | वे प्रायोजित आलोचना लिखकर आलोचना विधा को कलंकित कर रहे हैं तथा स्वयं के
साथ भी छल कर रहे हैं |
आलोचना के क्षेत्र में
एक नया शब्द इन दिनों आकार ले रहा है वह है सकारात्मक आलोचना | शिल्प, कथ्य ,
भाषा, भाष, विचार कहाँ के स्तर पर दिया गया विवेचनात्मक लेखन खटकने लगा है | एक
घटना मेरे साथ हुई | मुरादाबाद के एक साहित्यकार मित्र की पुस्तक पर साढ़े छः (61/2)
पेज के आलोचना में छः पेज सकारात्मक या प्रशस्ति वाचक रही और 1/2
पेज में कमियों को लिखने के कारण वह नाराज हुए और सालों बात चीत बंद रही | अब आप
देखें समय, श्रम, धन, खर्च करके दुश्मनी कौन मोल लेना चाहेगा | विधाओं व खेमों में
गिरोह बंद आलोचक कहाँ किस पर क्या लिखेंगें यह पूर्वनियोजित है, निश्चित है| इसी
प्रकार आज प्रकाशकों ने अपने क्षेत्र, विधा, लेखक, संपादक तय कर चुके हैं | कई
नामचीन प्रकाशकों ने कविता न छापने की घोषणा कर रखी है | पर फिर भी पद देखकर वह भी
समझौता कर लेते हैं | आज का दौर कठिन दौर है मित्र | आज लेखक किताब लिखता है
प्रकाशक उसको छापने का सौदा करता है | तय होने पर वह रचनाकार पैसा पहले अदा करते
हैं कम्पोजिंग तभी शुरू होती है | अब प्रूफ रीडिंग के बाद किताब छपती है | लेखक को
कम मूल्य पर या आधे मूल्य पर किताबें मिलती हैं जिसे वह बाँट कर लोकार्पण करके
अपना अहम् तुष्ट करता है |
अनिल जी यह है
साहित्य का यथार्थ जिसे कहने, सुनने, जताने, पाने में सभी संकोच करते हैं | जबकि
इसके शिकार सभी हैं | चार साल पहले गाजियाबाद के एक वयोवृद्ध व यशस्वी कवि जिन्होनें
अपने शिखर पर होने की स्वयं घोषणा कर रखी है | उन्होंने कहा शुक्ल जी मैं 89 वर्ष
का, 50 पुस्तकें छाप गयी, 25000 दोहे, 10000 गज़लें लिखी पड़ी हैं | अब भी मैं
प्रकाशक को पैसे देकर छपता हूँ तथा अपनी खरीदी हुई किताब बाँट देता हूँ | आप जैसे
लोग भी खरीदते नहीं मेरी किताब | ये स्थिति है हिंदी साहित्य में रचनाकार की,
प्रकाशक की तथा आलोचक तो अब रहा ही नहीं | अब लोग स्वयं ही खुद पर लिखकर किसी और
का नाम डाल देते हैं | दिल्ली के एक नवगीतकार जो समग्र चेतना के हिमायती हैं, ने
नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, नचिकेता जैसे शीर्षस्थ व प्रसिद्ध
आलोचकों के द्वारा लिखित लेखों में छेड़छाड़ करके अपनी प्रशस्ति ही नहीं डाली बस
अपनी अनगढ़ रचनाओं को कोटेशन के रूप में डाल दिया | हद है बेशर्मी की | अतः इसे
क्या कहेंगे बताइए |
मेरी अपनी दृष्टि की
मैं क्या कहूं अब स्वार्थ लोलुपता व सुविधा ही सबकुछ है | देखिए इसका उत्तर काल
कैसा होता है |
अनिल कुमार पाण्डेय जी
आपने मुझे इन प्रश्नों के माध्यम से कुरेदकर जो सत्य निकलवाया है, समय बतलाएगा
इसके महत्व पर मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ और इस तरह के साहित्यिक अनुष्ठान में
आपके आह्वाहन पर आगे भी मैं आपके साथ सामिल रहूँगा| बहुत ही आभार आपका !
द्रष्टव्य—साभार, पाण्डेय, अनिल कुमार, साहित्य का यथार्थ, मेरठ : उत्कर्ष
प्रकाशन, 2015
2 comments:
nice and readable interview great anil ji.
शुक्रिया सर
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